सह सुयोग गँवा देने वाले पछतायेंगे

October 1980

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ईश्वर ने मनुष्य जीवन का अपहार सुर-दुर्लभ अनुदान के रुप् में प्रदान किया है। साथ् ही उसके साथ उच्च स्तरीय उत्तदायित्च लाद दिये है। स्पष्ट है कि बड़े पद या गौरव जिन्हें प्रदान किये जाते हैं उन्हे बड़ी जिम्मेदारियों सें भी लाद दिया जाता है। सेनापति का पद, दर्जा, सम्मान, अधिकार, वेतन आदि अन्यान्यों से बढ़ा-चढ़ा होता हैख् पर साथ ही उसके ऊपर जिम्मेदारियों भी इतनी अधिक होती हैं कि तनिक-सा प्रमाद करने पर भी क्षम्य नहीं समझा जाता वरन् कोई मार्शल के निर्णयानुसार गोली से उड़ाया जाता है। सफाई कर्मचारी के प्रमाद की छोटी चेतावनी या प्रमाड़ना से भरपाई हो जाती है, पर सेनापति को उतने भर से छुटकारा नहीं मिल सकता। कारण स्पष्ट है, कर्मचारी की लापरवाही से थोड़ी भी गन्दगी बढ़ने भर की सीमित हानि होती है, किन्तु सेनापति की भूत से तो सारी सेना का ही नहीं पूरे देश का ही सर्वनाश हो सकता है। इसके विपरीत उसकी कुशलता एवं सूझ-बूझ के फलस्वरुप् सारा देश सुरक्षित रह सकता है और सकृद्धिवान बन सकता है। सेनापति को सम्मान, अधिकार, वेतन आदि का जो अनुदान मिलता है वह किसी का अनुग्रह नहीं, वरन् थोपी गई जिम्मेदारियों का ठीक तरह पालन कर सकने के लिए आवश्यक सुविधा भर है। वह इसलिए कि अपना कर्त्तव्य ठीक तरह पालन कर सकने में किसी असुविधा के कारण असन्तुलित न होने लगें। उच्च अधिकारियों को कितने ही ऐसे साधन और सहायक मिलतेहैं जो साधरण कर्मचारियों को उपलब्ध नहीं होते। इसमें किसी पक्षपात का आरोपण करने की आवश्यकता नहीं हैं। यह विशुद्ध रुप् से विशिष्ट उत्तरदायित्वों के निर्वाह के निमित्त सुविधा जुटाने की शासकीय सुव्यवस्था मात्र है। सभी जानते हैं कि छोटे कर्मचारियों की लापरवाही की चेतावनी आदि देकर दर-गुजर होती रहती है, पर अफसरों से हर घड़ी जागरुकता अपनाने की अपेक्षा की जाती है। वे तनिक सा प्रमाद करने पर शासन को नष्ट करते हैं, देश का अहित करतेहैं, जनता के कोपभजन बनते हैं और ऐसी प्रताड़ना सहते हैं जिससे उन्हें अपने वर्ग में बुरी तरह जलील होना पड़े। इस प्रकार उच्च पद की प्राप्ति जहाँ एक प्रकार से सौभाग्य है वहाँ दूसरे प्रकार से काँटों का ताज भी। इस तथ्य को जो समझता है उनका अफसरी बनना सार्थक है। अन्यथा जलील ही होना हो तो चपरासी रहना बेहतर है।

मनुष्य जीवन की गरिमा न समझी जा सके तो उसे एक प्रकार से अभिशाप ही कहा जाएगा, क्योंकि वह हअन्य प्राणियों की तुलना में अधिक रुग्ण, चिन्तित, उद्विग्न और समस्याअहों से ग्रसित पाया जाता है। पग-पग पर दुर्गति भी उसी की होती है और मरणोत्तर जीवन में वही सबसे अधिक कष्ट सहता है। इसके विपरीत यदि कोई यह समझ सके कि यह ईश्वर के बड़े भण्डार का सर्वोपरि उपहार उपलब्ध है और इसके साथ असंख्य सम्भावनाएँ और अगणित विभूतियाँ जुड़ी हुई हैं तो उसके उत्साह का ठिकाना न रहेगा साथ ही यह अनुभव भी होगा कि इतने बड़े पद का मिलना जहाँ अनुपम सौभाग्य है वहाँ उसके साथ जुड़े हुए उत्तरदायित्वों का भार भी कम नहीं है। मनुष्य जीवन ईश्वर का उपहार है। उसे सार्थक, सुखद और सफल बनाना मनुष्य का नीजी उत्तरदायित्व हैं।

ईश्वर एक समदर्शी और न्यायकारी सत्ता है। उसे न किसी से राग है न द्वेष। सभी को पात्रता में उत्तीर्ण अनुत्तीर्ण होने का अवसर वह क्रमानुसार देता है। स्कूली छात्रों में से जो उत्तीर्ण होते हैं वह अगले दर्जे में चढ़ जाते है। जो अधिक अच्छे नम्बर लेते है। वे छात्र वृत्ति पाते हैं। उतना ही नहीं बड़े चुनावों में भी उन्हीं को प्राथमिकता मिलती है। इसके विपरीत जो फेल होते रहते हैं वे साथियों में उपाहासास्पद बनते, घर वालों की र्त्सना सहते, अध्यापकों की आँखें में गिरते और अपना भविष्य अन्धकारमय बनातेहैं। इसमें ईश्वर की विधि-व्यवस्था को अन्य किसी को कोसना र्व्यथ है। मनोयोग ओर परिश्रम में अस्त-व्यस्तता भर लेने से ही छात्रों को प्रगति अवरोध एवं अवमानना का अभिशाप सहना पड़ता है। मनुष्य जीवन निस्सन्देह सुर-दुर्लभ उपहार और ईश्वरीय वरदान है, पर साथ ही यह भी ध्यान रखने की बात है कि उसका दुरुपयोग करना ऐसा अभिशाप भी है, जिसकी प्रतापड़ना मरने के उपरान्त नहीं तत्काल हाथों हाथ महनी पड़ती है। विपन्न, उपहासास्पद, पिछडा, तिरस्कृत, असन्तुष्ट जीवन-क्रम ही सच्चे अर्थो में नरक है। उसे भेगने का सिलसिला जिन्दगी के साथ ही जुड़ा है। इसके लिए कभी बाद के लिए प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती।

शासनाध्यक्ष अपना सुविस्तृत कार्य अकेले नहीं सँभाल पाते हैं। इसकेलिए उन्हें सुयोग्य पाषदों, अफसरों की सहायता से काम चलाना पड़ता है। मनुष्य की गणना ऐसे ही राजकुमारों में की गई हैं। उसे सृष्टा ने मात्र इसीलिए विभूतियों से सम्पन्न बनाया है कि वह अपनी विशिष्ट प्रतिभा एवं क्षमता के सहारे इस विश्व उद्यान को अधिक समुन्नत और सुसंस्कृत बनाने में उसकी सहायता करें। सहायता वहीं कर सकता है जिसे उपयुक्त सुविधए उपलब्धर हों। इस दृष्टि से भगवान ने उसे ऐसी संरचना की काया प्रदान की है जैसी अन्य किसी प्राणी को नहीं मिली। ऐसी विलक्षण बुद्धि प्रतिभा ही है उसका उदाहरण समस्त प्राणि समुदाय में अन्यत्र कहीं भी नहीं मिलता। इतनी प्रचुर साधन सामग्री प्रदान की है मानासृष्टि सम्पदा का स्वामित्व ही उसे सौंप दिया गया हो। इसके अतिरिक्त पारस्परिक सहयोग सद्भव का अनुदान मानवी समाज व्यवस्था के अनुरुप् उसे मिलता रहता है। ऐसा आदान-प्रदान किसी अन्य समुदाय में नहीं मिलता।

समाज व्यवस्था और शासन तन्त्र के द्वारा मिलने वाले अद्भुत लाभों की तो चर्चा ही कौन करें। ऐसी सुनियोजित परिवार संस्था का कहीं नाम निशान तक नहीं मिलता। दाम्पत्य-जीवन का आनन्द केवल मनुष्य ही उठाता है। वात्सल्य की इतनी लम्बी और सरस श्रखला अन्यत्र मिल सकनी सम्भव नहीं। अभिभावकों और पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता का प्रदर्शन कौन करता है? मात्र मनुष्य ही है जिसे कर्मठता, विचारणा, भावना जैसे प्रत्यक्ष देवी वरदान मिले हैं। इसके लिए प्यार, करुणा, उल्लास, उमंग, आनन्द, सेवा, आत्मीयता, उदारता जैसी भाव सम्वेदनाओं की एक दुनिया अनौखी है, जिसका र्स्पश करके व्यक्ति कवि, कलाकार, दार्शनिक, योगी और देवात्मा बनता है। इस सरसता के अमृत में डुबकी लगा कर अनुभव करना है कि वह वस्तुतः पंच तत्वों से बनी धरती पर रहेते हुए भी स्वर्गीय सम्वेदनाओं के भाव क्षेत्र में बिना पंख लगाये ही विचरण कर रहा हैं।

श्रद्धा और भक्ति ऐसे अनुदान हैं; जिन्हें निरन्तर बरसने वाले ईश्वरीय अनुदानों में बिना संकोच गिना जा सकता है। इसके अतिरिक्त उन दैवी सहायताओं का क्षेत्र अलग ही है जो समय-समय जर सत्प्रयोजनों के लिए कदम बढ़ाने वालों कोमिलतेरहते है॥ ये आर्श्चयजनक सफलताएँ पाते हैं और सिद्धि सम्पन्न महामानव कहलाते हैं। अवरुद्ध और विषम परिस्थितियों से घिरे रहकर भी जब सामान्य योग्यता के मनुष्य ऐतिहासिक महामानवों की श्रेणी में जा पहुँचते हैं और कोटि-कोटि मानवों की श्रद्धा के पात्र बनकर इतिहास को अजर-अमर करते हैं तो प्रतीत होता है कि ईश्वर ने न केवल सुर-दुर्लभ मनुष्य जीवन ही दिया है वरन् उसके साथ-साथ सफलताएँ प्राप्त कर सकने के निमित्त अन्तरंग और बहिरंग वैभव इतने प्रचुर परिणाम में प्रदान किये हैं जिन्हें पा कर कोई भी विचारशील अपने सौभाग्य सुअवसर की सराहना करते-करते निहाल गद्गद् हो सकता है।

मनुष्य जीवन इसीलिए अपने इस लोक की सर्वोपरि कहीं जाने वाली सम्पदा है। इसके दो ही उपयोग है-आत्म-कल्याण और विश्वकल्याण। आत्मकल्याण यह कि वे सदुद्देश्य में निरत रह कर आत्मसन्तोष लोकसम्मान, दैवी अनुग्रह प्राप्त करते हुए पूर्णता का लक्ष्य प्राप्त करे। विश्वकल्याण यह कि ईश्वर की इच्छा पूरी करे। सृष्टि में सद्भवनाएँ और सत्प्रवृत्तियाँ बढ़ाने में प्रयत्नशील रहे। चिन्तन की उत्कृष्टता और व्यवहार की आदर्शवादिता ही वे तत्व हैं जिनके संहार इस धरती की सुख शान्ति प्रगति और समृद्धि फलती-फूलती है। यदि उन्हें निरस्त कर दिया जाय तो फिर पदार्थ वैभव कितना ही प्रचुर क्यों न हो मात्र विनाशकारी दुष्परिणाम ही उत्पन्न करेगा। मूल्य वैभव का नहीं उसके उपयोग का है। दुरुपयोग से तो अमृत भी विष बन जाता है। वस्तुओ का सदुपयोग सामर्थ्यों का नियोजन और पारस्परिक स्नेह, सहयोग मात्र आध्यात्मिक प्रवृत्तियाँ है। यसह जिसमें जितनी होंगी वह उसी अनुपात में आत्मकल्याण का स्वार्थ और विश्वकल्याण का परमार्थ सम्पदित कर सकेगा। कहना न होगा कि जीवन की सरसता और सार्थकता इन्ही दो तथ्यों पर टिकी हुई है। ईश्वर द्वारा यह सुर-दुर्लभ उपहार दिया जाना भी इन्हीं दो प्रयोजनों के सहारें सार्थक सिद्ध होता है।

हर मनुष्य के पास ऐसा अवसर मौजूद है कि वह चाहे तो जीवन को सार्थक बनाने वाले सन्मार्ग पर सरलतापूर्वक चल सकेऔर अभीष्ट लक्ष्य को बिना किसी कठिनाई के प्राप्त कर सके। अवरोध दो ही हैं एक अवाँछनीय अपयोग की लिप्सा, वासना और दूसरी संग्रह और स्वामित्व की तृष्णा, अहंता। यही है वह महा पिशाचिनी जो पूर्णतया निरर्थक होते हुए भी मनुष्य को बेतरह लुभाती है और उसे फँसा लेती है। उसे मकड़ी की तरह कुतर-कुतर कर काटती, खाती रहती है। स्वा-भविक और सौम्य जीवन के लिए निर्वाह के इतने साधन पर्याप्त हैं जिनसे पेट भरने और तन ढकने की आवश्यकता पूरी होती रहे। इसके लिए नियन्ता ने हर प्राणी के लिए आवश्यक व्यवस्था उसके जन्म से पूर्व ही विनिर्मित की है। मनुष्य को ही इस दिशा में चमत्कार का वैभव प्रदान किया है। इतने पर भी लालच ही है जो आग की तरह भड़कता रहता है और कितना ही ईंधन डालने पर भी शन्ति नहीं होती।

लालच का दूसरा भाई है, व्यामोह जो सम्बद्ध पदार्थो और व्यक्तियों को सुसंस्कृत बनाने एवं सदुपयोग की बात नहीं सोचने देता वरन् उन्हें अधिकाधिक रंगीला बनाने के लिए ऐसे कृत्य करता है जिससे उनका और अपना विनाश ही प्रस्तुत होता है। लालच से दुर्व्यसन और व्यामोह से दुष्वृत्तियाँ पनपने की सम्भावना सुनिश्चित है। इस तथ्य को लाखों बार परखा जा चुका हैं। करोडो बार परखा जा सकता है। इतने पर भी लोग हैं जो अपने पैरोँ आप कूल्हाड़ी मारतेहैं और जब दर्द होता है तब जिस-तिस को दोष देते हैं। इस स्वनिर्मित विपत्ति से कितने ही अपने को दीन-हीन बताते हुए जिस-तिस के सामने सहायता का पल्ला पसारे देखे जाते हैं। इस प्रकार कुछ मिल भी जाय तो जलते तवे पर पड़ने वाली बूँदों की तरह उतने भर से कुछ समाधान निकलता भी तो नहीं।

यह जीवन का स्वरुप और सदुपयोग की चर्चा प्रसंग जागृत आत्माओं के सामने बोध की तरह इस विषम बेला में विशेष प्रयोजन के लिए प्रस्तुत किया जा रहा है। यह युग सन्धि का पावन पर्व है ऐसा पर्व जो लाखों वर्ष उपरान्त ही आता है। ऐसा पर्व जिसमें भगवान स्वयं लीला संचार करते हैं और जागृतों को अपना सहचर बनने का स्वयं सुयोग प्रदान करते हैं। इन

दिनों मनुष्य जाति के महाविनाश का-उज्ज्वल भविष्य का-निर्धारण हो रहा है। इन दिनों जागरुकों के स्वल्प श्रम में ऐसा सुयोग पाने का अवसर मिल रहा है जैसा कि जन्म-जन्मातरों तक योग तप करने वालों में से कदाचित ही किसी को मिलता है। जो समय की प्रकृति को जाने है। वे यह भी समझते ळें कि सुयोग संयोग सदा नहीं आते वे बिजली तरह कभी-कभी ही चमकते और घटा की तरह कभी-कभी ही बरसते है। जो समय का लाभ उठा लेते हैं वे अपनों से दूरदर्शिता को सराहते-सराहते नहीं थकते। इतिहास उनका गुणगान गाते-गाते नहीं रुकतें। पिढ़ियाँ उनको नमन करती हैं और अनुगमन की प्रेरणा ग्रहण करती है, किन्तु जो समय को चूक जाते हैं। जो जागरुकों की उपब्धियाँ देख-देखकर मन ही मन कुढते,पछताते रहते हैं उन्हें वह सस्ती स्वार्थपरता तब परले सिरेकी मूर्खता प्रतीत होती है, जो आरम्भ में चतुरता प्रतीत होती थी।


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