प्रज्ञापुत्र अपनी प्रौढ़ता का परिचय दें....

October 1980

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गायत्री को वेदमाता, देवमात और विश्वमता कहा गया है। वेद अर्थात् ज्ञान, माता अर्थात् प्रसूता। वेदमाता द्वारा प्रसूत ज्ञान देवमाता के रुप में व्यक्तित्व में देवत्व भरता है और विश्वमाता के रुप में उसे विश्वमानव की, विश्व परिवार की अर्भ्यथना में नियोजित करता है। यही है महाप्रज्ञा का, ऋतम्भरा का विराट् रुप। दूसरे पर्यायवाची शब्द ‘महाप्रज्ञा का विराट् रुप। दूसरे पर्यायवची शब्द ‘महाप्रज्ञा’ का इन दिनों अधिक उपयोग करने की आवश्यकता इसीलिए अनुभव की गई कि मध्य काल में आद्यशक्क्ति का उपयोग जिस प्रकार सीमित प्रयोजन और सीमित समुदाय के लिए किया जाने लगा उससे आगे का विस्तार एवं उपक्रम समझने में सहायता मिली।

इस उद्देश्य से अपने मिशन और परिवार का नामकरण गायत्री परिवार किया गया। अगले दिनों इसका स्वरुप ज्यों का त्यों रहेगा, पर बोलचाल की भाषा में उसे प्रज्ञा परिवार कहना भी उपयुक्त है। अब तक गायत्री परिवार के सदस्य परिजन कहलाते रहे हैं किन्तु अब उन्हें अपने समुदाय और उत्तरदायित्व का बोध कराने वाला चिर प्राचीन किन्तु नवीन नाम ‘प्रज्ञा परिजन’ दिया आ रहा है।

गायत्री उपासक के स्थान पर ‘प्रज्ञापुत्र’ कहे जोन का महत्व आत्मबोध की दृष्टि से इसलिए अधिक है कि युग चेतना को उभारने औ नवयुग का सृजन करने में निरत महाकाल की महाकाली महाप्रज्ञा के अग्रदूत होन के गौरव का अनुमान किया जा सके।

नित्य उपासना के अतिरिक्त “एक घण्टा समय और दस पैसा नित्य” ज्ञानयज्ञ के निमित्त निकालते रहने की सदस्यता शर्त देव परिवार के परिजनों के लिए आरम्भ से ही निर्धारित की गई है। अपने समय में अग्निहोत्र को प्रतीक और ज्ञानयज्ञ को युग धर्म के रुप में मान्यता मिली थी। कभी सब लोग देवमानव थे और सभी ज्ञान सम्पन्न, इसलिए ज्ञानयज्ञ को उतना महत्व नहीं दिया गया, जितना कि वह महत्वूपर्ण है। आज इसलिए महत्वपूर्ण है कि इन दिनों चारों और अज्ञानान्धकार की ओर तमिस्त्रा ने सर्वत्र अपना साम्राज्य जमा लिया है इस स्थिति में ज्ञानयज्ञ की लाल मशाल जलानी पड़ेगी और उसी को युग यज्ञ की मान्यता देनी पडे़गी।

इसी दृष्टि से प्रज्ञापरिवार का सदस्यता शुल्क एक घण्टा समय के रुप में श्रमदान और दस पैसा नित्य के रुप में अंशदान का रखा गया थाँ पर उस मूलभत निर्धारण पर समुचित ध्यान नहीं दिया गया। पता न हो सो बात नहीं है। हजार बार कहा गया है और सौ बार उसकी सदस्यता शर्त पूरी करने का साहस जुटायें। पर जिनके सिर पर मुफ्त का माल हाथ लगने का भूत सवार है, वे इतनी छोटी उदारता दिखाने की भी आवश्यकता क्यों समझे ?

यह समीक्षा पिछले गायत्री परिवार की है। उस शैशव की अवधि समाप्त हो गई। अब परिपक्वता की आयु है। प्रज्ञापरिजनों ने प्रौढ़ता विकसित होते ही यह अनुभव कर लिया है कि उन्हें देव परिवार में सम्मिलित होने और प्रज्ञापुत्र कहलाने का अनिवार्य शुल्क जमा करना ही चाहिए। यह चिन्तन निखरते ही अब ज्ञानघटों की ही नहीं धर्मघटों की स्थाना का भी उपक्रम चल पड़ा है। जो इतनी नगण्य-सी उदारता दिखाने में भ्ी आना-कानी करते हैं वे देव बिरादरी में बचकाने ही गिने जाते हैं और अपनी दृष्टि में भी उस कृपणता के कारण अपना मूल्य गिराते है।

प्रज्ञा परिवार के परिजनों ने इस परिवर्तन को समझा है और अपना रवैया बदला है। उसे प्रज्ञावतार का-सहयोगी सहचर बनने का-सौभाग्यपूर्ण सुअवसर मिला है तो यह आत्मबोध भी जगा है कि इस सुअवसर कस सदुपयोग बढ़ा-चढ़ाकर अनुदान प्रस्तुत करने से ही हो सकता है।

आश्विन नवरात्रि से प्रज्ञासंस्थानों के माध्यम से युग प्रवर्तन का धर्मचक्र दु्रतगति से अग्रगामी बनेगा। अतएव उसके नये उत्तदायित्वों का वहन करने के लिए परिपक्वों की भर्ती की जा रही है। चयन यहाँ से आरम्भ हो रहा है। कि जो प्रज्ञापरिवार की गरिमा और उसका सदस्यता शुल्क चुकाने की आवश्यकता समझते हैं उन्हें ही वयस्क माना जाए। इस नवरात्रि से गायत्री परिवार का नवगठन होना चाहिए और उनके सदस्य मात्र उन्हीं को माना जाना चाहिए जो एक घण्टा समय और दस पैसा नित्य देने के रुप में अपनी प्रौढ़ता का परिचय देते हैं। कहा जाता रहा हे कि इस न्यूनतम अनुदान का सदस्यता शुल्क का उपयोग प्रज्ञा विस्तार में ही किया जाना चाहिए और मात्र इसी से हो भी सकता है, अन्य किसी कार्य में नहीं। भले ही वह काम कितना ही उपयोगी क्यों न लगे। युग की आवश्यकता एक ही है लोकमानस का अनस्था संकट से उद्धार और हमारा लक्ष्य अर्जुन के मत्सयभेद की तरह इसी एक केन्द्र पर केन्द्रित रहना चाहिए।

प्रज्ञा संस्थानों के निर्माण में इमारत, युग साहित्य तथा एक कार्यवाहक यह तीनों पक्ष समान महत्व के हैं। इस त्रिवेणी के अवगाहन से ही लोकमानस के पाप धुलेंगे और इसें संगम स्नान से कायाकल्प जैसा कथित पुण्य फल मिल सकेगा अस्तु इन दिनों प्रज्ञा परिवारों का गठन और उनका प्रारम्भिक प्रयास एक ही प्रयोजन पर केन्द्रीभूत होना चाहिए कि इस पावन पर्व पर सामाजिक स्थापना का प्रयोजन निश्चित रुप से पूरा कर लिया जाए। कमरे का प्रबन्ध ही पर्याप्त नहीं वरन् उसके लिए कार्यवाहक की नियुक्ति एवं घर-घर पहुँचाने के लिए नये साहित्य की अनवरत व्यय-व्यवस्थ का प्रबन्ध भी करना पड़ेगा।

यह उत्तरदायित्व प्रज्ञा प्ररिजनों ऊपर ही है और वह उन्हें प्रारम्भ में अपने ही ज्ञान घटों और धर्मघटों से ही पूर्ण करना हैं। बाद मं अन्य लोग भी इस प्रयोजन में उदार सहयोग दे सकते है, पर मान कर यही चलना चाहिए कि महाप्रज्ञा को विश्वमाता कहलाने योग्य बनाना मूलतः उन्हीं का उत्तरदायित्व है, जिसकी पूर्ति उन्हें मात्र सदस्यता शुल्क चुकाने भर से नहीं वरन् दो कदम आगे बढ़कर अविस्मरणीय अनुदान प्रस्तुत करने की साहसिकता के सहारे करने की बात सोचनी चाहिए।

गायत्री परिवारों का गठन इन्हीं नवरात्रि में कर लिया जाना चाहिए तथा उनके सदस्य वही माने जाने चाहिए जो सदस्यता शुल्क चुकाने में ईमानदारी बरतें। चुनाव में अब दो कार्यवाहक और एक कोषाध्यक्ष का खर्च सम्हालने के निमित्त ब्रह्मभोज के लिए धर्मघटों की व्यवस्था करने वाला और दूसरा युग साहित्य का खर्च वहन करने वाला और दूसरा युग साहित्य का खर्च वहन करने वाला ज्ञान यज्ञ का उत्तरदायी। ब्रह्मभोज की कार्यवाहिका कोई महिला रहे और ज्ञानयज्ञ का कार्यवाहक कोई पुरुष, यह आवश्यक नहीं है, आवश्यकतानुसार दोनों ही मला या दोनों ही पुरुष भी हो सकते हैं पर प्रयत्न यही किया जाना चाहिए कि दोनों वर्गो को समान उत्तरदायित्व सम्हालने तथ समान श्रेय पाने का अवसरमिले। दोनों को अपनी इच्छानुसार प्रामाणिक सदस्यों एवं सदस्याओं में से अपनी कार्यसमिति, सहायक मंडली नियुक्ति कर लेने का अधिकार रहे। तीसरा कोषाध्यक्ष इन दोनों की सहायता करेगा किन्तु पैसे के विषय में प्राथमिकता बनाये रहने का उत्तरदायित्व विशेष रुप से वहन करेगा। प्रज्ञा परिवारों के अब नये शाखा संगठन इसी आधार पर बनेंगे। नवरात्रि में उभरे हुए उत्साह के आधार पर जिनने अपनी सदस्यता पुर्नजीवित की हो, उन्हें मिल जुल कर पूर्णाहुति के बाद दूसरे दिन विजयादशमी को मीटिंग बुलाकरयह कार्य भी विधिवत सम्पन्न कर लेना चाहिए।

शाखा संगठनों को अपना हासब किताब पूरी तरह सही रखना चाहिए। उनका गठन और वार्षिक निर्धारण आश्विन नवरात्रि के अवसर पर ही हुआ करेगा। जिसका विधिवत आरम्भ इन्हीं दिनों हो रहा है। इस समय उनका प्रमुख कार्य बीजारोपण वर्ष मं निर्धारित उन पाचँ क्रियाकलापों को करना है जिनमें प्रज्ञामंदिरों की त्रिविधि साधनों से संपन्न स्थापना प्रमुख है।


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