शालीनता की सीता को ढूढ़ निकाला जाय

October 1980

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

कहने-सुनने में युग परिवर्तन की बात किसी जादू चमत्कार के अप्रत्याशित रुप से प्रकट होने जैसी लगती है किन्तु जो वास्तविकता समझते हैं, उनके लिए यह कोई आर्श्चय अस्वाभाविक नहीं है। वे यह और भी जानते है कि यह कार्य अत्यधिक विस्तृत और भारी होने के कारण उसे सम्पन्न करने में मानवी अन्तराल से उभरने वाली श्रद्धासिक्त भाव सम्वेदना ही सफल हो सकेगी। छोटे-छोटे निर्माण कितना श्रम, कौशल और कितने साधन माँगते है यह किसी से छिपा नहीं है। अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि भूमण्डल पर बिखरे हुए सुविस्तृत मनुश्य समुदाय की परिस्थितियों को ही नहीं मनःस्थिति को भी उलट देने का अभिनव सृजन कर सकना कितना कठिन हो सकता है ? अवतार प्रक्रिया के रहस्य को समझने वाले व्यक्ति इस कठिन, दुःसाह्म और असम्भव जैसे लगने वाले कार्य को भी सहज सम्भव होने पर विश्वास कर सकते हैं और करते भी हैं। यह कठिन और दुःसाह्म कार्य कैसे सम्भव हो सकेगा। इसका अनुमान लगाने में किसी को भी भ्रमग्रस्त नहीं रहना चाहिए। इसके लिए अगले दिनों इतने बड़े कार्यक्रम बनाने और सरंजाम जुटाने पड़ेंगे जिनकी आज तो कल्पना तक कर सकना कठिन है।

जिनने राष्ट्रीय प्रगति की पंचवर्षीय योजनाएँ बनाई हैं, जिनके समीप जाकर देखा जा सकता है कि एक सीमीत क्षेत्र की भौतिक कठिनाइयों को एक सीमित मात्रा में सरल करने के लिए उन्हें कितना सोचना पड़ा है और आवश्यक सान जुटाने के लिए जमीन आसमान के कुलावे मिलाने जैसा कितना बड़ा ताना-वाना बुनना पड़ा है। फिर युग सृजन के साथ जुड़े हुए परिवर्तन और सृजन के निमित्त खड़ा किये जाने वाले ढाँचे की विशालता को हलका मानकर कैसे चला जा सकता है। अनगढ़ धातुओं को गलाने और उनका संशोधन करने के उपरान्त उपयोगी उपकरण बनाने के लिए जिन्हें गलाने-ढालने वाले विशालकाय संयन्त्र लगाने पड़े है मात्र वे ही यह अनुमान लगा सकते हैं कि मानवी जीवन-मरण की समस्या से सम्बन्धित नव सृजन का ढाँचा कितना बड़ा होगा और उसके लिए कितने साधनों की-कितने पराक्रम की आवश्यकता पड़ेगी ?

इस महान नियोजक, संयोजक के लिए दूरदर्शी और विवेकवानों की तरह क्रमिक गति से साहस भरे सुनिश्चित काम उठाने पड़ेंगे। शुभारम्भ के रुप में युग निर्माण परिवार की जागृत आत्माओं को अपना अन्तराल झकझोरने और उसके किसी न किसी कोने में विद्यमान आदर्शवादी भाव श्रद्धा को उभारने के लिए आग्रह किया गया है। वह जागेगी तो वासना प्रधान पशुता और तृष्णा प्रधान असुरता के वे भव-बंधन शिथिल होने में देर न लगेगी जो व्यस्तता, समस्या, विवशता आदि का बहाना ओढ़ कर आत्म प्रबंचना कराते रहते हैं। निर्वाह मनुष्य की प्रतिभ को देखते हुए किसी के लिए कोई बाधक समस्या बन कर नहीं रह सकता। परिवार भार तभी होता है जब वह अनगढ़ और असंस्कृत हो। उसे थोड़ा सा सुनियोजित कर देने पर ऐसी व्यवस्था सहज ही बन सकती है कि उसे सुनियोजित करने के साथ-साथ युग धर्म के निर्वाह को समुचित सुविधा अत्यन्त सरलता पूर्वक मिल सकें। चिन्तन और स्वभाव का सड़ा-गला ढर्रा अपनाये रहने वाले तो यह सोच सकते है कि उन्हें किन्हीं कठिनाईयों ने जकड़ रखा है और वे समय की माँग को पूरा करने में कुछ भी कर सकने में असमर्थ हो गये हैं। यह बुद्धि भ्रम कके सहारे बुना गया मकड़ी का जाल भर है जो नागपाश जैसा लगता है। दूरदर्शिता को अपनाकर निजी जीवन की समस्याओं को सुलझाया जाय तो वे इतनी सरल और सीधी सादी प्रतीत होंगी उसके समाधान में किसी को रक्ती भर भी कठिनाई का सामना न करना पड़े। औसत भारतीय का निर्वाह स्वीकारने और महत्वाकाँक्षाओं को आदर्शवादिता की ओर से मोड़ देने भर से मनःस्थिति उलट सकती है और परिस्थितयों की विषमता देखते-देखते तिरोहित हो सकती है। वस्तुतः व्यस्त से व्यस्त समझा जाने वाला व्यक्ति भी जीवन में आत्मा की आवश्यकता और ईश्वर की साझेदारी अनुभव करने लगे तो उसके कपाट खुल सकते है और ऐसी जीवनचर्या बन सकती है जिसमे आत्मकल्याण और लोकनिमार्ण के दोनो प्रयोजन श्ली-शँती पूरे होते रहे, साथ ही निर्वाह एवं परिवार पोषण में राई भर भी कठिनाई अनुभव न करनी पडे। चिन्तन के इसी परिष्कार की चर्चा इस अड्ड में की गई है। इसे गम्भीरतापूर्वक समझा जा सके तो जागृत आत्माओ में से प्रत्येक को युग धर्म के निर्वाह का न्यूनाधिक अवसर निश्चित रुप से मिल जायगा और वह युग सन्धि को इस पुण्य बेला में आरम्भ हुए द्दोटे-द्दोटे क्रिया-कलापो को पुर्ण करने में इतना सफल हो सकेगा जिसे सन्तोषजनक ही नहीं उत्साहवर्धक भी कहा जा सके।

आठ घण्टे कमाने के लिए-सात घण्टे विश्राम के लिए पाँच घण्टे घरेलू काम-काजो के लिए समय निकाला जा सके तो नित्य कुआ ख्रोदने और नित्य पानी पीने वालो की निर्वाह आवश्यकता भली प्रकार पूरी होती रह सकती है साथ ही चार घण्टे का समय सामयिक परमार्थ प्रयोजनो की पूर्ति के लिए नित्य प्रति सरलतापूर्वक निकल सकता है।

यदि इस निर्ष्कष पर पहुँच सकना सम्भव हो सके तो करने योग्य र्सवप्रथम और सर्वोपरि कार्य एक ही है कि शालीनता की सीता को ढूढ़ने के लिए सभी रीछ, वानर निकल पं और उसकी तलाश में धरती का पत्ता-पत्ता खोज ले। पौराणिक रामराज्य की स्थापना लिए सदभाव सम्पन्न प्रयत्नो का शुभारम्भ इसी प्रकार हुआ था। सीता अपहरण की अनिति जिन्हे खली थी वे कौने में बैठे आँसू नहीं बहाते रहे वरन् उन्हे खोज निकालने के लिए घरती का चप्पा-चप्पा खोज लने के लिए उतारु हो गये।

अपने समय में जिस सीता का अपहरण हुआ है उसका नाम शालीनता है-शालीनता अर्थात् शराफत, सादगी, सज्जनता, श्लमनसाहत, नेकी उदारता आदि ।

आज हर क्षेत्र में आडम्बरों के पर्वत खडे है , पर उन्हे खोजने, टटोलने पर ढोल की पोल के अतिरिक्त और कुछ पल्ले नहीं पड़ा। स्वार्थान्धों और व्यामोहग्रसतो की बात जाने दे तो श्ी जो परमार्थ का दावेदार धर्म क्षेत्र बच रहता है उसके मूर्धन्यो तथा क्रिया-कलापों की जाँच पड़ताल करने पर शालीनता खोजने पर निराशा ही हाथ लगती है। यश और पद के श्खे लोगो से लोकसेवा का क्षेत्र इस बुरी तरह भर गया है कि भाव सम्वेदना खोज निकालना असम्भव जैसा लगता है। देवताओं की हजामत वनाने वाले पुजारियों के पाखण्ड देखते ही बनते है। धर्माडम्बरों के बहाने अपनी कीर्ति ध्वजा फहराने वालो में जो प्रतिस्पर्धा चल रही है उससे प्रतीत होता है कि इससे पूर्व ऐसा धर्म युग कदाचित ही कभी रहा हो। अखण् कीर्तनों और रात्रि जागरणों का कुहामा सुनकर लगता है अब क्षीर सागर में सोने वाले श्गवान को इच्छा या अनिच्छा से विस्तर समेटना ही पडे़गा। तीर्थयात्रा और दान-पुण्य में हर साल बढ़ोतरी ही हो रही है इतने पर श्ी उस शालीनता का कुछ अता-पता ही नहीं चल रहा है जिसके सहारे व्यक्ति को न्यूनतम निर्वाह अपनाने के उपरान्त जो समर्थता बची रहती है उसे सत्प्रवृत्ति सर्म्वधन के लिए नियोजित किया जा सके। यदि शालीनता का आस्तित्व रहा होता तो यह क्षेत्र इतना सुनसान न रहता कि युग सृजन के लिए जरा-जरा से श्रम, सहयोग के लिए बुरी तरह भटकना और खिन्नतापूर्वक निराश रहना पड़ें।

॥द्मद्मद्भह्द्ध; द्यड्डरुस्रक्वद्धह् ठ्ठह्यश द्यड्डरुस्रक्वद्धह् द्दस््न ठ्ठह्यश क्स्नद्मर्द्मंह्− द्यड्ड;द्गद्ध क्द्मस्द्भ द्यह्यशद्म ॥द्मद्मशद्ध्न ठ्ठह्यशद्यक्रह्द्म स्रद्म द्बभ्क्र;म्द्म ठ्ठ'र्द्मंह्व द्वठ्ठद्मद्भ 'द्मद्मब्द्धह्वह्द्म स्रद्ध फ्द्धह्द्धशद्ध/द्म;द्मह्यड्ड द्गह्यड्ड द्दद्ध द्धस्र;द्म ह्लद्म द्यस्रह्द्म द्दस््न ड्ढद्य [द्मद्मह्यह्ल स्रह्य द्धब्, द्धह्वस्रब्ह्वह्य शद्मब्ह्य क्/द्मह्यद्भह्यड्ड द्गह्यड्ड ॥द्मंकस्रह्ह्य द्दद्ध ठ्ठद्ध[द्म द्बरु+ह्ह्य द्दस्ड्ड्न क्द्मश';स्रह्द्म ड्ढद्य ष्द्मह् स्रद्ध द्दस् द्धस्र ह्लद्मफ्क्वह् क्द्मक्रद्गद्मक्द्मह्यड्ड द्गह्यड्ड द्यह्य द्बभ्क्र;ह्यस्र स्रह्य द्गह्य ;द्द ठ्ठर्ठ्ठं द्वक्चह्य द्धस्र शह्य 'द्मद्मब्द्धह्वह्द्म स्रद्मह्य द्यद्धह्द्म स्रद्ध [द्मद्मह्यह्ल स्रद्भस्रह्य द्दद्ध द्भद्दह्यड्डफ्ह्य्न द्वद्यस्रद्म क्ह्द्म द्बह्द्म ह्लद्मह्य ॥द्मद्ध द्धद्गब्ह्यफ्द्म द्वद्यद्ध द्यह्य द्बख्हृह्यड्डफ्ह्य क्द्मस्द्भ द्बभ्द्म.द्म&द्ब.द्म द्यह्य ड्ढद्य द्धह्वद्धद्गक्रह् द्बभ्;क्रह्वद्भह् द्भद्दह्यड्डफ्ह्य द्धस्र 'द्मद्मब्द्धह्वह्द्म स्रद्मह्य क्द्यह्नद्भह्द्म स्रह्य श्चँफ्ह्नब् द्यह्य हृह्नरु+द्म;द्म ह्लद्म द्यस्रह्यड्ड्न


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118