भावना के साथ सेवा भावना का समन्वय

October 1980

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विचारों में परिपक्वता कृत्यों के सहारे आती हैं। साधना में अभ्यास करना पड़ता है। भक्तिभावना का परिपोषण पूजा उपचारों के कर्मकाण्ड़ों से ही होता है। जिस प्रकार भावना और उद्देश्य के अभाव में पूजा कृत्य भी लकीर पीटने जैसे रह जाते हैं उसी प्रकार भावनाएं भी निरर्थक निष्फल बनी रहती है और कल्पना की उड़ानें तो उडती है पर क्रिया में परिणत होने का साहस नहीं जुटा पाती। थोथे ब्रह्मज्ञानी और ओछे कर्मकाँडी दोनों ही उपहासास्पद बनते और परिणाम की दृष्टि से निरशअसफल पाये जाते हैं। जब तक ज्ञान और कर्म का समन्वय न हो तब तक किसी महत्वपूण सत्परिणाम की आशा नहीं की जा सकती। यही कारण है कि आत्मकल्याण की बात सोचने वालों को उपासना उपचार करने के अतिरिक्त लोकमंगल की साधना को भी सम्मिलित करना और उसके लिए साहस जुटाना आवश्यक समझा जाता है। जो इनमें से एक के लिए अपनाते और दूसरे को छोड़ते हैं वे एक पंख के सहारे उड़ने का प्रयास करने वाले पक्षी की तरह निराश ही रहते हैं। एक पहिये की गाड़ी कहाँ चल पाती है ? एक पैर के लम्बी यात्रा कर सकने में सफलता कहाँ मिलती है ? लंगड़े व्यक्ति भी लकड़ी का सहारा लेकर ही खड़े होते और आगे चलने में समर्थ हो पाते हैं। उपासना और साधना का सज्जनता और उदारता का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है। उपासनात्मक उपचारों में दान-पुण्य की प्रक्रिया इसीलिए सम्मिलित रखी गई है कि दोनों के मिलने से ज्ञान और कर्म का-भावना और तत्परता का समावेश रहने से अभीष्ट परिणाम उपलब्ध हो सकें।

आर्थिक असमर्थता की स्थिति में दान से छूट मिल सकती हैं, पर पुण्य से नहीं। दान, धन से आता है और पुण्य श्रम से। दान पुण्य का साथ रह सकें तो उत्तम, अन्यथा साथी न मिलने पर एकाकी चल पड़ने की तरह एकाकी पुण्य अपनाया जा सकता है। दान तो सुविधा पर निर्भर है पर जिसके शरीर एवं मन अपंग नहीं हो गये है उनके लिए किसी न किसी रुप में समयदान की-श्रमदान की-सम्भावना बनी रहती है। अतएव साधु स्तर के अपरिग्रहियों का धनदान से तो छुटकारा मिल जाता है। पर श्रम-समय दे कर पुण्य प्रयोजनों में संलग्न रहने का कर्तव्य धर्म भी, उन पर लदा रहता हैं यहीं कारण है कि अनुष्ठानों की पूर्ति में जप का पूरक यज्ञ माना गया है। अग्निहोत्र ब्रह्मभोज जैसी खदार प्रक्रिया अपनाये बिना मात्र जप संख्या पूरी कर लेने से किसी का भी अनुष्ठान पूर्ण हुआ नहीं माना जाता। यहाँ यज्ञ और और ब्रह्मभेज को कर्मकाण्ड विशेष नहीं मान बैठना चाहिए वरन् उन्हें लोकमंगल के प्रति उदार अनुदान प्रस्तुत करने की एक परम्परागत शैली मानना चाहिए। यज्ञ माव अग्निहोत्र को ही नहीं कहते। इसके अतिरिक्त अन्यान्य परमार्थ प्रयोजनों को इसी शब की परिधि में सम्मिलित किया जाता है। उदाहरणार्थ नेत्र दान यज्ञ, भूदान यज्ञ, ज्ञानयज्ञ आदि में अग्निहोत्र न रहने पर भी परमार्थ का समावेश रहने से अभीष्ट प्रयोजन की पूर्ति हो सकती है। सन्यासी यज्ञ नहीं करते तो भी उन्हें पुण्य प्रयोजनों में निरत रहने से छूट नहीं मिलती।

विरक्तों को जन, ध्यान आदि साधनाएं करने के लिए आरण्यकों का आश्रय लेना पड़ता है। किन्तु साथ ही वानप्रस्थों के लिए आवश्यक परिवाज्रक प्रक्रिया अपना कर लोकमंगल में भी निरत रहना पड़ता है। जो मात्र जप आदि के उपचारों को ही पर्याप्त मानकर पूजा-पाठ भर में अपने को केन्द्रित कर लेते है, जन कल्याण में श्रम, समय लगाने की आवश्यकता नहीं समझते वे न तो भक्ति का तत्वज्ञान समझते हैं और न भगवान की प्रकृति प्रसन्नता को। ऋषि परम्परा में भजन का जितना स्थान है उससे कहीं अधिक लोकव्यवस्था को सुनियोजित रखने के लिए अधिक परिश्रम करने का। व्यास जैसे साहित्यकार, नागार्जुन जैसे रसायन शास्त्री चरक सुश्रुत जैसे चिकित्सक, वशिष्ठ और चाणक्य जैसे राज निर्देशक लोक मंगल में निरत देखे जा सकते है। अन्यान्य ऋषि तपस्वी भी भजन के समकक्ष ही परमार्थ के लिए प्रबल पुरुषार्थ करते रहे है। भवन संस्कृत भाषा का ‘भज’ धातु से बनता है। जिसका शुद्ध अर्थ है-सेवा। सेवारहित भजन को तो प्राण रहित निर्जीव शरीर भर कहा जा सकता हैं।

युग साधकों को अपनी नित्य नैमित्तिक उपासनाएं चलाते हुए यह ध्यान रखन होगा कि उपासना की पूर्णता के लिए जीवन साधना की ओर साधना को समर्थ बनाने के लिए सेवा परायणता की आवयकता है। भगवत् उपासना-आत्म साधना और लोक सेवा को गंगा यमुना सरस्वती माना गया है। और उनके त्रिवेणी संगम को तीर्थराज कहकर कायाकल्प जैसा पुण्य फलदायक बताया गया है।

परमार्थ प्रयोजनों के लिए भाव भरे अनुदान प्रस्तुत करते रहने से भगवत् भक्ति का प्रयोजन पूर्ण होता है। आत्मसुधार और आत्म विकास की दुहरी पुण्य प्रक्रिया भी इसी अवलम्बन के सहो सधती रहती है। सद्गुणों का अभिवर्धन सत्कर्मों के सहारे ही होता है। स्वाध्याय सत्संग की ध्यान-धारणा की महिमा तो बहुत है पर वह है तभी जब साधक को उदार परमार्थ परायणता, लोक मंगल के सद्उद्देश्यों में निरल देखा जा सके। अन्यथा उन्हें मानसिक विलासिता कहकर उपहास करने वालों को भी निरुत्तर नहीं किया जा सकता।

युग साधना में निरत प्रज्ञापुत्रों में से प्रत्येक को जन सर्म्पक के लिए समयदान करने के निमित्त अनुरोध आग्रह किया गया है। यह जन सर्म्पक युगान्तरीय चेतना से जन जन को परिचित एवं प्रभावित करने के लिए हैं

इन दिनों तो यह आवश्यकता सामान्य लोक साधना न रहकर आपत्ति धर्म जैसी युग साधना बन गयी है। जागृतों को दूसरों को जगाने का ठीक यही समय है। इन दिनों नव जागरण के अग्रदूत बनकर बादलों की तरह हर खेत पर बरसने के लिए निकल पड़ने की आवश्यकता है। पवन जन-जन तक पहुँचता और प्रत्येक को प्रचुर परिणाम में जीवन तत्व प्रदान करता है। पवन पुत्र की तरह प्रज्ञापुत्र का भी कर्तव्य है कि ‘राम काज कीन्हे बिना” विश्राम ने लेने का निश्चय करें और देवर्षि नारद की तरह जन-जन से सर्म्पक साधने और युग प्रयोजन से परिचित सहमत करने के लिए अथक परिश्रम करता रहे। समयदान ही इन दिनों महाकाल की सबसे बड़ी माँग है। और उसकी पूर्ति में आगे आने के लिए जागृत आत्माओं के नाम प्रथम आमंत्रण आया है। युग निर्माण योजना के सदस्यों की प्रारम्भिक शर्त में ज्ञानयज्ञ के लिए हर दिन एक घण्टा समय देने का नियम है, अब उसे परिस्थितियों की गम्भीरता देखते हुए अधिक बढ़ाने की आवश्यकता पड़ गयी है। राष्ट्रीय सुरक्षा पर संकट आते ही सभी अफसरों की छुट्थ्टयाँ रद्द कर दी जाती है। अनिवार्य भर्ती के अर्न्तगत हर युवक को आवश्यक रुप से सेना में भर्ती होना पड़ता है। यह समय भी ऐसा ही है जिसमें निजी प्रयोजनों की उपेक्षा करें भी विश्व समस्या को प्राथमिकता दी जायें। और सृजन साधना में संलग्न रहकर युग धर्म का निर्वाह किया जाये यह कार्य समयदान से ही हो सकता है।

जिनके लिए समयदान सम्भव न हो उसके बदले साधन दान भी दे सकते हैं। समय के मूल्य पर साधन उपलब्ध किये जाते हैं। साधनों के बदले समय भी खरीदा जा सकता है। जो स्वयं जन सर्म्पक पर नहीं जा सकते वे ऐसे लोगों की निर्वाह व्यवस्था में सहायक हो सकते हैं जो साधनों के अभाव में सेवा क्षेत्र में जा सकने से वंचित रह रहे हैं। अंशदान की ही धार्मिक जीवन का एक अनिवार्य कर्तव्य माना गया है। अंशदान में साधन दान और समयदान दोनों का समन्वय है। युग निर्माण परिवार की सदस्यता में दस पैसा अंशदान को नहीं एक घण्टा नित्य के समयदान की शर्त भी जुड़ी हुई है। ज्ञानघट बाल सुलभ जैसा छोटा अनुदान होते हुए भी उसमें अंशदान की उस अनिवार्यता को बताया गया है जिसके बिना महानता के लक्ष्य तक पहुँच सकना किसी के लिए भी सम्भव नहीं हो सकता।

बीजारोपण वर्ष में पाँच अति महत्वपूर्ण कार्यक्रम क्रियान्वित किये जा रहे हैं। इसलिए समयदान एवं अंशदान दोनों की ही प्रचुर परिमाण में आवश्यकता पड़ रही है। आठ घण्टे उपार्जन के सात घण्टे विश्राम के पाँच घण्टे विभिन्न झंझटों के लिए रख लेने के उपरान्त चार घण्टे युग साधना के लिए सरलता पूर्वक निकाले जा सकते है। तीस दिन के उपर्जन में से एक दिन की आजीविका इस कार्य के लिए लगाई जा सके, तो इससे किसी पर भी अर्थ संकट नहीं आने वाला है। थोड़ी सी बचत कर लेने पर उस एक दिन की कमाई की पूति हो सकती है। जो समय नहीं दे सकते, व उतने साधन देकर दूसरों का समय खरीद सकते हैं। इस सर्न्दभ में प्रत्येक युग साधक को गम्भीरता पूर्वक सोचना चाहिए और समय की माँग को देखते हुए अधिकतम उदारता का परिचय देना चाहिए। दान-पुण्य दानों न बन पड़ तो शक्य हो उस एक को अपनाना चाहिए।

जन सर्म्पक के लिए समयदान इन दिनों प्रज्ञा पुत्रों के लिए महाकाल का प्रमुख आमन्त्रण हैं। जो इसे कर सकें समझना चाहिए वे अपने उदार साहसिकता का प्रमाण परिचय कर अन्य अनेकों को प्रभावित करते और क्रमशः अिकाधिक जन-सहयोग अर्जित करते चले जायेंगे। प्रज्ञावतरण की समग्र प्रक्रिया सज्जनों की उदार सहकारिता पर निर्भर है। इस साधन को जुटाने के लिए मूधंन्य प्रज्ञापुत्रों को सर्व प्रथम स्वयं ही आगे आना होगा और आने उदारहण से अनेको को अनुगमन-अनुकरण के लिए सहमत बनाने में सफल होने का अवसर मिलेगा। दूसरों को समझा तो कोई भी सकता है पर किसी में कुछ आदर्शवादी साहस अपनाने की-वैसा कुछ कर गुजरने वाली सक्रियता उभारने की अपेक्षा हो तो एक ही उपाय है कि सर्व प्रथम अपना उदाहरण प्रस्तुत किया जाय। जो स्वयः नियमित रुप से सृजन प्रयोजनों के लिए समय देगें उन्हें यह शिकायत करने का अवसर न मिलेगा कि कोई उनका साथ नहीं देता और स्थानीय गतिविधियाँ शिथिल पड़ी या बन्द हो गई।

जलता दीपक ही दूसरे को जला सकता है अपने समय दान अंशदान मं प्रमुखता रखने वाले ही दूसरों में उत्साह भरते है। उन्हीं के अनुरोध का प्रभाव पड़ता है। प्रस्तुत पाँच सूत्री कार्यक्रम को सफल बनाने का सही उपाय यही है कि प्राणवान् परिजन अपने समयदान अंशदान का सुनिश्चित संकल्प करें। उद्देश्य पूर्ण सर्म्पक साधनें पर निकलें और वह प्रयोजन पूरा करें जिसकी आज नितान्त आवश्यकता अनुभव की जा रही है।

युग सृजन जैस महान् प्रयोजन में सामूहिक प्रयत्नों की आवश्यकता है। उनके लिए बड़ी संख्या में सहयोगी चाहिए। वे सहयोगी भी चिन्तन चरित्र और व्यक्तित्व की दृष्टि से अपेक्षा कृत ऊँचे उठे होने चाहिए। यही है वह युग-शक्ति, जिसके सहारे नव सृजन की विशालकाय योजना एवं आवश्यकता को साकार कर सकना सम्भव है।

इन दिनों ऐसी कितनी ही सृजनात्मक सत्प्रवृत्तियाँ आरम्भ की गई है जिनमे सहयोग देने का निमन्त्रण देने के लिए जन सर्म्पक साधा जा सकें और इस बहाने यह ढूँढ़ा जा सके कि किस में कितनी सुसंस्कारिकता जीवन्त है। जिसके पास कुछ है उसी से पानी की आशा की जा सकती है। युग शक्ति को सज्जनों की उदार सहकारिता कहा जा सकता है। वह जितनी ही उभरेगी उतना ही सृजन प्रयोजन सरल एवं सफल होता चला जायेगा। लक्ष्य तक पहुँचने का यही प्राथमिक उपाय है जिसे अपनायें बिना और कोई चारा नहीं।

प्रस्तुत कार्यक्रमों में सभी ऐसे हैं जो जन सहयोग से ही सम्पादित होंगे और उस सहयोग के लिए मात्र विचारशील एवं भावनाशील ही उत्वाह व्यक्त कर सकेंगे। अस्तु ढूँढ़ना उन्हीं को पड़ेगा। यही है रीछ वानरों की तरह शालीनता की सीता खोज निकालने की सृजन शिल्पियों की प्रारम्भिक चेष्टा जिसके सहारे प्रगति पथ पर बढ़ने वाले अग्रिम चरणों की बात सोची जा सकती है।

प्रस्तुत प्रयोजन के लिए उदार भावनाशील व्यक्तियों को तलाशने तथा उन तक नवयुग की पुकार पहुँचाने के लिए प्रत्येक जागृत आत्मा को निकलना चाहिए। औरों को प्रभावित तथा प्रोत्साहित किया जा सकें, इसके लिए सर्वप्रथम उससे बढ़ चढ़ कर योगदान प्रस्तुत करना आवश्यक है। स्वयं जिस स्तर के अनदान प्रस्तुत किये जाते हैं, जिस स्तर का सत्साहस किया जाता है उसे अधिक बड़े स्तर की प्रेरणाएं प्रोत्साहन नहीं दिये जा सकते। अपनी परमार्थ परायणता में युग साधना के प्रति श्रद्धा निष्ठा में भावना का समावेश कर लोक मंगल के लिए समयदान तथा अंशदान प्रस्तुत करने हेतु प्रत्येक परिजन को उत्साह पूर्वक आगे आना चाहिए।


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