प्रज्ञा संस्थाओं की सफलता के आधार

October 1980

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लोक तान्त्रिक संस्थाओं में निर्णय तो चुनें हुए प्रतिनिधि ही करते हैं किन्तु उन्हें क्रियान्वित करने के लिए सरकारी कर्मचारी नियुक्त रहते हैं। ग्राम पंचायतों में मन्त्री, नगरपालिकाओं में एक्जीक्यूटिव आँफिसर आदि संस्थाओं में प्रतिनिधियों औ प्रशासकीय कर्मचारियों का युग्म हर कहीं देखा जा सकता है। प्रतिनिधियों का समय दफ्तर सम्हालने में नहीं जन सर्म्पक करने और वातावरण बनाने में लगता हैं। प्रज्ञा संस्थानों के सम्बन्ध में भी यही नीति अपनानी पड़ेगी। अब तक के अनुभवों ने यही सिखाया है कि नियमित विधि-व्यवस्था सम्हालने के लिए तदनुप व्यक्तियों की नियुक्ति की जाए।

पिछले दिनों ज्ञानरथ चले थे। विचार क्रान्ति और जन-सर्म्पक के लिए उनकी आवश्यकता भली प्रकार समझी औ समझाई गई। वे बने भी और चले भी, पर सफल नहीं हो सके। कारण कि उन्हें चलाने के लिए मिल-जुलकर समय देने और बिना किसी वैतनिक कार्यकर्ता के उसे स्वतन्त्र चला लेने का निश्चय किया गया था, जो उत्साह में शिथिलता आते ही लड़-खड़ाने लगा और अस्त-व्यस्त हो गयाँ अब इस निर्ष्कष पर पहुँचा गया है कि यदि ज्ञानरथ चलाने हैं तो उनके लिए निर्वाह व्यय देकर कार्यकर्ताओं की नियुक्ति ही एकमात्र ऐसा उपाय है जिसके द्वारा मूर्छित जैसी स्थिति में चली गई ज्ञानरथ योजना को पुनजागृत किया जा सकता हैं।

प्रज्ञापीठों का निर्माण तीव्रगति से हो रहा है। उपलब्ध तथ्यों पर विचार किया जाए तो यह विश्वास करने के पर्याप्त आधार मिल जाते हैं कि भारत के सात लाख गाँवो में, प्रत्येक सात गाँवों पीछे एक प्रज्ञापीठ बनकर आसानी से तैयार हो जायेगा। इन तथ्यों की विस्तृत चर्चा का यहाँ अवकाश नहीं है, पर ऐसे ढ़ेरों उदाहरण हैं जिनसे प्रतीत होता है कि ऐसे प्रयास पहले भी किये गये हैं औ वे सफल रहे हैं। एक हजार से अधिक स्थानों पर प्रज्ञा संस्थानों का निर्माण आरम्भ हो चुका है। कई स्थानों पर वह पूरा हो गया है और अनेक स्थानों पर प्रज्ञा संस्थानों का निर्माण पूरा होने के समीप है। इस सर्न्दभ में निर्माणों के पूरे होने पर कुछ विलम्ब भी हो सकता है किन्तु नवरात्रि पर्व पर प्रज्ञामन्दिरों की स्थापना की जो बात सोची गई है वह इतनी सरल और सुनिश्चित है कि जहाँ सामूहिक नवरात्री आयोजन मनायें जायेंगे वहाँ किसी माँगे हुए या किराये के कमरे में स्थापना होकर ही रहेगी। इस तरह की स्थापनाएँ विजयाशमी पर्व पर हजारों की संख्या में हुई देख जा सकेगी। प्रज्ञापीठों का अपना भवन तो पीछे भी बनता रहेगा, इस रुप में प्रज्ञालोक के विस्तार और नव-सृजन का अभियान तो उसी दिन आरम्भ हो जाएगा।

यहाँ यह बात भी ध्यान देने योग्य है लकड़ी, मिट्टी से बनी हूई इमारत तो मात्र कलेवर है। उनका आकार देखकर आँखों की जानकारी मात्र बढ़ती है। उद्देश्य की पूर्ति तो जीवन्त प्राण चेतना के सहारे ही सम्भव होती है। प्रज्ञा संस्थाओं में प्रतिमा स्थापना का जितना महत्व है ठीक उतना ही, बल्कि उससे भी अधिक महत्व प्रज्ञा संस्थाओं में सम्बन्धित गतिविधियों को अग्रगामी बनाने में रित किसी उपयुक्त व्यक्ति की नियुक्ति का है। इसके बिना वही स्थिति बनी रहेगी जो बिना प्रतिमा के देवालय की। प्रज्ञा मन्दिर हो या प्रज्ञापीठ दोनों को जीवन बनाने वाला तथ्य स्पष्ट है-कार्यवाहक, कार्यकर्ता की नियुक्क्ति और उसके निर्वाह की व्यवस्था। जहाँ यह नींव मजबूत होगी, वहीं इन स्थापनाओं की सार्थकता रहेगी अन्यथा इमारतों के लिए किया गया प्रयत्न निर्जीव पड़ा रहेगा और वह उत्साहवर्धक परिणाम उतपन्न करने के स्थान पर उपहासास्पद ही बनकर रह जाएगा।

प्रज्ञा संस्थानों के कार्यवाहकों को औसत भारतीय स्तर का निर्वाह व्यय ही अपनाना पड़ेगा और उन्हीं को आगे आना पड़ेगा जिनके ऊपर बहुत बड़ी पारिवारिक जिम्मेदारियाँ नहीं हैं। कुछ घर का सहारा है, कुछ बाहर का से कमा कर जो गुजारा करने का ताल-मेल बिठा सकें, साथ ही जिन्हें मिशन की दिशा धारा की जानकारी हैं एवं उसमें दिलचस्पी है, ऐसे व्यक्ति अपने ही गाँव या क्षेत्र में तलाश करने पर निश्चित रुप से मिल सकते हैं। क्षेत्र में तलाश करने पर निश्चित रुप से मिल सकते हैं। देखना यह है कि संचालकाँ के पास आजीविका के वर्तमान स्त्रोंत कितने हैं ओर उनके बढत्रने की सम्भावना क्या है ? इस आधार पर ही यह निर्णय हो सकता है कि नियुक्त कार्यकार्त को किस स्तर का, कितने समय का और कितने वेतन में रखा जा सकता है ? न्यूनतम आधे दिन की नियुक्ति तो होनी ही चाहिए। आधे दिन का अर्थ होता है चार घण्टे। यहाँ पूरे चार घण्टे से तार्त्पय है, दो घण्टे काम और दो घण्टे मटरगश्ती का प्रचलित ढर्रा अपने यहाँ चलने वाला नहीं हैं। अतएव काम की खाना-पूरी न करके जो वस्तुतः उतना समय देना चहें उनके द्वारा पूरी लगन औ तत्परता से दिये गये चार घण्टे भी काम चलाने की दृष्टि से सन्तोषजनक हो सकते हैं।

कितने समय के लिए कितने वेतन पर कार्यकर्ता नियुक्त किया जाग, इसके पूर्व भी सोचना होगा कि उसे करना क्या है ? तथा उसे विधि-व्यवस्था चलाने में कितने साधनों की आवश्यकता पड़ेगी। स्मरण रखा जाना चाहिए कि प्रज्ञा संस्थानों के कार्यवाहक किसी प्रतिमा के पुजारी नहीं होंगे जो बैठे-बैठे दिन गुजारते रहें। उनका इष्टदेव जीवन्त है, उसके लिए हर समय जीवन का मूल्य चुकाना पड़ता है। अस्तु, प्रज्ञा संस्थानों के कार्यवाहक इन दिनों प्रधानतया दो काम करेंगे। एक युग साहित्य घर-घर पढ़ाने का उपक्रम और दूसरा जन्मदिवसोत्सव शानदार ढंग से मनाने का प्रबन्ध। आगे तो सत्प्रवृत्ति सर्म्वधन के अनेक कार्यक्रम अपनाये जायेंगे, पर आरम्भ सभी प्रज्ञा संस्थान इन कामों पर पूरा ध्यान देकर बीजारोपण के साथ खाद, पानी देने जैसी व्यवस्था वनायेंगे ताकि जड़ें मजबूत हो सकें।

जन्मदिवसोत्सवों में तो अर्थ-व्यवस्था का भार उन्हीं पर डाला है जिनका जन्म दिन है। उसमें लगने वाली न्यूनतम पाँच रुपये जैसी छोटी-सी राशि का परिणाम इतना उत्साहवर्धक होते देखकर उसे हर कोई खुशी-खुशी वहन कर लेता है। इसलिए इस प्रसंग में मिशन को केवल व्यवस्था बनाने की भाग दौड़ भर करनी पड़ती है। शेष के लिए किसी अतिरिक्त खर्च की आवश्यकता नहीं पड़ती। किन्तु दूसरा कार्य ऐसा है जो लगातार खर्च माँगता है। घर-घर युग साहित्य पहुँचाने और जन-जन को उसे पढ़ने तथा दूसरों को उसे पढ़ाने की योजना ही वह ज्ञान यज्ञ है जिसे विचार क्रान्ति का नाम दिया गया है।

यह प्रयत्त अग्निहोत्र की तरह ही खर्चीला है। यज्ञ मं होताओं द्वारा आहुति देने का श्रम, समय ही पर्याप्त नहीं होता वरन् यजन सामग्री के लिए पैसा भी खर्चना पड़ता है। जिस साहित्य को पढ़ाना है वह आसमान से नहीं बरसेगा वरन् हर बार नई व्यवस्था करते रहने की आवश्यकता पड़ेगी।

हर प्रज्ञा मन्दिर की प्रायः 240 सदस्यों की एक स्वाध्याय मण्डली होनी चाहिए। नवरात्रि आयोजन में सम्मिलित हुए परिजनों को उसी अवसर पर इस स्वाध्याय मण्डली का सदस्य बना लिया जाना चाहिए। प्रश्न आता है कि यह साहित्य जुटाया कैसे जाए ? प्रथम चरण में यह हो सकता है कि पुरानी पत्रिकाएँ और पुस्तकें एकत्रित करके उन्हें बाँसी कागज की जिल्द लगा कर ऐसा बना लिया जाए कि वह फटने न पायें। इन्हें नये या अपरिचित लोगों को पढ़ाया जा सकता है। नया साहित्य मँगाने की व्यवस्था वाद में बनाई जा सकती है।

नियुक्त कार्यकर्ता के निर्वाह बाद में बनाई जा सकती है। धर्मघटों से हल किया जा सकता है। कार्यकर्ता की नियुक्तिके लिए उपयुक्त व्यक्तियों पर नजर डाली जाए। कर्ठ स्वस्थ रिटायर, चैतन्य विद्यार्थी अथवा बेरोजगार प्रौढ़ व्यक्ति ऐसे हो सकते है जो थोड़ी-सी आजीविका मिलने पर बेकारीका समय उत्तम कार्य में खर्च करने से प्रसन्नता अनुभव करेंगे। ऐसे लोगों को ढूँढ़ निकाला जा सकता है और उन्हें पूरे समय या आधे समय के लिए नियुक्त किया जा सकें। इन्हीं नवरात्रियों में इतना वन पड़े तो प्रज्ञा संस्थाओं को आलोक, केन्द्र में रुपान्तरित करने का बीजारोपण हो गया समझना चाहिए अगले कदम इस प्रयास की सफलता से उद्भुत उत्साह में बढ़ते रह सकते हैं।


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