पवनपुत्र हनुमान का आदर्श अपनाएँ

October 1980

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दैवी अनुग्रह प्राप्त करने के लिए पूजा उपासना ही एक मार्ग नहीं है। उसके अतिरिक्त परमार्थ में प्रयोजनों रत रहने वालों ने भी अध्यात्म क्षेत्र की अभीष्ट सफलताएँ पाई है। लोक-सेवा भी किसी भजन-पूजन से कम महत्व की साधना नहीं है। ऐसे व्यक्ति नित्य नियम तिजनी थोड़ी उपासना कर लेने से भी उच्चस्तरीय परिणाम प्राप्त कर सकने में सफल हुए हैं। विवेकानन्द, गाँधी, विनाबा आदि के उदाहरण ऐसे ही हैं जिनमें सेवा साधना ही प्रधान है। पूजा अर्चा तो वे थोड़ी सी ही करते रहे हैं सो भी एकान्तिकनहीं सामूहिक। भगवान बुद्ध और महावीर ने भी आरम्भिक दिनों में ही तपश्चर्या अपनाई थी उसके उपरान्त वे धर्म चक्र प्रवृत्तियों को विश्वव्रुपी बनाने, उसके लिए परिव्राजक प्रशिक्षित करने तथा साधन जुटाने, में ही निरत रहे। गुरु गोविन्दसिंह, समर्थ रामदा, चाणक्य, आदि की गणना भी ऐसे ही कर्मयोगियो में की जाती है। जिनने भजन कम और परमार्थ अधिक किया हैं। देवर्षि नारद के संदर्भ में उल्लेख है कि वे ढाई घड़ी से अधिक कहीं ठहरते नहीं थें और भक्ति-भावना के विस्तार में हरिगुण गाते हुए निरन्तर परिभ्रमण करते रहते थे। महर्षि व्यास ने अठारह पुराण लिखे है। उनका समय निश्यच ही इस लोक साधना मेकं अधिक और पूजा अर्चा में कम लगता रहा होगा।

चरक, सुश्रुत, वाग्भट्ट आदि ऋषियो ने भजन म औससर रोगियों की व्यथा निवारण के लिए पुरुषार्थ अधिक किया था। वे जानते थे किक भगवान की अनुकम्पा के अधिकारी वे अधिक होते है जो उनकी सन्तान को सुखी समुन्नत बनाने में निरत रहते हैं। जिन्हें उपासनारकी सरलता देखकर उतने भर से जीवन लक्ष्य की प्राप्ति और भगवत् कृपा उपलब्ध हो जाने की बात सूझती है उन्हें भी बताया जाता हैं कि आराधना बीजारोपण के समान है, उसे अंकुरित, पल्लवित, और फलित, विकसित बनाने के लिए साधना का खादपानी लागाने की अनिवार्य आवश्यकता पड़ती है। साधना का संगम महा-मानवों जैसी उदात्त जीवनचर्या एवं लोक मगंल के निमित्त किये गये त्याग बलिदान के समन्वय से बनता है। जो केवल भजन-पूजन भर को सब कुछ मान लेते हैं वे कमान वाले तीर को घूमाते तो फिरते हैं पर वे उससे लक्ष्य बेध का प्रयोजन पूरा नहीं कर पाते।

इन दिनों आपत्तिकाल जैसी विशिष्ट परिस्थिति है इसमें सब काम छोड़ कर जीवन और मरण के झूले में झूलती हुई मानवता की प्राण रक्षा को सर्वोपरि महत्व मिलना चाहिए। इन दिनों युग-सृजन के लिए अबतरित हुए आह्वान को ही सर्वोपरि महत्व मिलना चाहिए। व्यक्तिगत उपासना की दृष्टि से युग-सन्धि पुरश्चरण की भागीदारी पर्याप्त है। उसमें सन्निहित जप, अर्चन, व्रत अनुशासन एंव विशिष्ट ध्यान के त्रिवेणी संगम को इतना पर्याप्त न मान लेना चाहिए कि उतने भर से आत्मशोधन का प्रयोजन भली प्रकार पूरा होता रहेगा। प्रयास पुरुषार्थ का नियोजन उस युग-सृजन प्रक्रिया में किया जाना चाहिए जिसमें स्वार्थ और परमार्थ का आत्म कल्याण और लोक-मंगल का उभयपक्षीय प्रयोजन पूर्ण होता है।

ईश्वरीय प्रयोजन की पूर्ति के लिए कैसा जीवन-क्रम अपनाया जाना चाहिए इसके सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है पवन पुत्र हनुमान। उन्हें राम के निकटतम आत्मीयों में गिना गया है। रमा पंचायतन में कुटुम्ब की दृष्टि से तो चारों भाई तथा सीता मिलकर पाँच होते हैं पर स्थापनाओं में हनुमान को भी रखा गया है और नाम पंचायतन होते हुए भी उसके सदस्यों की संख्या पाँच न रहकर छः हो जाती है जबकि हनुमान रघुवंशी तो क्या मनुष्य वंशी भी नहीं थें।

पवन पुत्र की चरम उपलब्धि है-रामावतार का निकटतम ही नहीं उसका सूत्र संचालक बन जाना। इस वस्तुस्थिति का प्रकटीकरण उस चित्र से होता है जिसमें हनुमान को विशालकाय दिखया गया है और राम लक्ष्मण उनके दोनो कन्धों पर छोटे बालकों की तरह दिखाई पड़ते हैं। प्रकारान्तर से इसका तार्त्पय होता है उन उत्तरदायित्वों का पराक्ष्ज्ञ रुप से वहन करना जो प्रत्यक्षतः राम लक्ष्मण द्वारा निभाये गये समझे जाते है। समयानुसार उन्हें इस साहसिक श्रद्धा का सत्परिणाम भी व्यापक कृतज्ञता के रुप् में मिला है। भारत में पाये जाने वाले राम मन्दिरों की तुलना में हनुमान मन्दिरों की संख्या प्रायः दस गुनी अधिक है। इसका तार्त्पय राम के प्रति अश्रद्धा नहीं वरन् हनुमान की निष्ठा के प्रति कृतज्ञता का प्रकटीकरण है।

यह उच्चस्तरीय सफलता हनुमान को उपहार अनुदान में नहीं मिली थी वरन् उन्होने उसे मँहगा मूल्य देकर खरीदा था। उनने अपने रोम-रोम में राम को बसा लिया था। “राम काज कीन्हें बिना मोहि कहाँ विश्राम।” की रट लगी रहती थी और इसके लिए अपनी समग्र चेतना और तत्परता नियोजित किये रहते थे। उनके हृदय में उन्य कोई नीजी इच्छा महत्वापकंक्षा न थी। एकात्म की स्थिति में निजी लिप्सा-लालसाएँ विसर्जित ही करनी पड़ती हैं। सीता को यह वस्तुस्थिति एक बार उनने हृदय चीर कर दिखाई थी।

पवन पुत्र के प्रति अपनी भावना व्यक्त करते हुए राम ने अयोध्या लौटने पर गुरु वशिष्ठ के सम्मुख अपनी समस्त सफलताओं का श्रेय हनुमान को देते हुए उन्हें भरत की तरह प्राण प्रिय बताया था। यह उभयपक्षीय आत्मीयता इतनी सघन कैसे हो सकी, इसमें भावुकता का उभार या अनुग्रह जैसा कोई कारण नहीं था। उसके मूल से उस साधना का चमत्कार था जो इष्टदेव का ध्यान पूजन करने तक सीमित नहीं रहती वरन् उसकी इच्छा को अपनी इच्छा का समर्पण करके अपने साधनों को उसी की पूर्ति में खपा देती है। राम पंचायतन में अन्य सदस्य वस्त्राभूषण पहने सम्मानित स्थान पर बैठे दृष्टिगोचर होते हैं पर पवन पुत्र के शरीर पर लज्जावस्त्र की तरह लँगोटी मात्र है और उनने अपना स्थान सबसे नीचे चीरणों के समीप बैठने का बनाया है।

राम से हनुमान का सर्म्पक जिस दिन से हुआ उस दिन से जीवन पर्यन्त वे उन्ही के छोटे बड़े कार्यो की पूर्ति में अहर्निशि लगे रहे। उन सभी कृत्यों की गणना कर सकना तो कठिन है पर पाँच उनमें प्रमुख हैं-(1) सुग्रीव को अपनी समस्त सेना राम काज में नियोजित करने के लिए सहमत कर लेना (2) सीता को खोजे बिना वापिस न लौटने का प्राण-पण संकल्प करना और उसे निभाना (3) समुद्र लाँघने और लंका दहन का एकाकी दुस्साहस करना। (4) लक्ष्मण को पुनर्जीवित करने के लिए सुखेन वैद्य को चुरा कर लीना ही नहीं वरन् पर्वत समेत संजीवनीबूँटी प्रस्तुत करना (5) रामराज्य की स्थापना में अश्वमध सरीखे असंख्य प्रयोजनों की पूर्ति में अन्तिम साँस तक लगे रहना। ऐसे-ऐसे अन्याय कार्य भी हैं जिनकी पूर्ति में सर्वतोभवेन निरत रहकर उन्होंने वह श्रेय पाया जिसे “राम से अधिक रामके दास” वाली उक्ति में रामायणकार ने प्रकट किया हैं।

पवन पुत्र की जीवनचर्या में पूजा अर्चना के सस्ते मनुहार उपचार कितने थे इसका कुछ अता पता नहीं चलता। सम्भव है वे नित्य कर्म तिजने स्वल्प रहने के कारण पर्यवेक्षकों की दृष्टि में महत्व हीन रहे हों। सर्वविदित वे प्रसंग ही हैं जिनमेकं उनकी सघन श्रद्धा सेवा साधना बनकर उफनती उछलती दृष्टिगोचर होती है।

अवतारों की पुण्य प्रक्रिया जहाँ अधर्म का नियमन तथा धर्म का सर्म्वधन करके सृष्टि सन्तुलन बनाने की प्रतिज्ञा निभाती है वहाँ एक काम और भी करती है कि अपने सहचरों को उच्चस्तरीय श्रेय के अनुदान देकर जाती है। शवरी, केवट, भरत, लक्ष्मण, उर्मिला, विभीषण, रीछ, बानर, गिद्ध, गिलहरी जैसे सहयोगियों के अनुदान की चर्चा करते समय भी जन-जन की भाव श्रद्धा उमड़ती और अश्रु धारा बहती है। राम कथा में से इन प्रसगों को हटा दिया जाए तो फिर उसमें सामान्य हलचल ही शेष रह जाती हैं और उस अमृत का अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है जिके कारण राम-नाम, राजराज्य, रामकथा की महिमा गरिमा का बखान किया जाता है।

अवतारों के मध्य अनेक बातों में समानता रहती है। प्रज्ञावतार और रामावतार में इस दृष्टि से समस्वरता दृष्टि गोचर होती है कि उनकी इच्छाओं और जिम्मेदारियों का वहन भी उच्चस्तरीय सहकर्मियों को ही करना पड़ रहा है। पवन पुत्र का अनुकरण प्रज्ञा पुत्र करते हुए प्रत्यक्ष देखे जा सकते हैं। सृजन शिल्पियों को निराकार महाकाल के साकार कार्य वाहक कहा जा सकता है। हनुमान के अविस्मरणीय उपरोक्त पाँच निर्धरीणों को क्रियान्वित करने एवं व्यापक, सफल बनाने का उत्तरदायित्व अपने कन्धों पर लेना पड़ रहा है। इस श्रद्धा सिक्त साहसिकता को अपनाने में उन्हें कितनी ही भीतरी कुसंस्कारों और बाहरी दबाव अवरोधें की विपन्नताओ से उसी तरह जूझना पड़ रहा है जैसा कि पवन पुत्र को त्रिजटा, सुरसा आदि से जूझना पड़ा था। राम को रोकने के लिए भी तो वे ताड़का, सूर्पणखा बन कर आई थीं। जब महानों के मार्ग रोके बिना वे दुष्ट दुरभिसन्धियाँ चूकि नही।तो प्रज्ञा पुत्रों का मार्ग सरल कैसे रह सकता है। उनमें से प्रत्येंक को अपनी लोभ लिप्सा से ही नहीं उलझनों परिस्थितियों से अपने-अपने ढंग से निपटना पड़ रहा है। अग्नि परीक्षा में से गुजरे बिना खरे सोने की प्रामाणिकता भी तो सिद्ध नहीं होती।

तराजू का एक पलडत्रा भारी होगा तो दूसरा उठेगा। परमार्थ सधेग तो स्वार्थ में निश्चित रुप से कमी पडे़गी। जो स्वार्थ सिद्धि के लिए परमार्थ की सोचते हैं वे भूल करते हैं वस्तुतः परमार्थ परायण होने पर श्रेय और प्रेय दोनो का लाभ मिलता है। प्रकाश की ओर चलने से चेहरे पर आभा चमकती है और छाया को पीछे-पीछे चलते देखा जा सकता है। छाया के पीछे दौड़ने वाले उसे पकड़ भी नहीं पाते, थकते ही हैं और चेहरे पर अँधरा छाया रहने से कुरुप भी लनते हैं। श्रेय साधकों को इन दिनों-इसी असमंजस मेंदोनों पक्षों को तौलने और एक को प्रधानता देने का निर्धारण करना पड़ रहा है। तराजू के किस पलड़े को भरी किया जाय, और किसे हलका किया जाय इसका निर्धरीण इन्हीं घड़ियों में करना पड़ रहा है। जो असमंजस की अनर्णीत स्थिति में पड़े रहेंगे और समय टालते रहेंगे वे अवसर चूकने वालों की तरह घाटे में रहेंगे। श्रेय स्वाँति वर्षा की तरह कभी-कभी अनायास ही आकाश से बरसता है पर जो सीपें मुहँ बंद किये ही पड़ी रहें उन्हें मोती उगाने के सौभाग्य से वंचित ही रहना पड़ता है। पज्ञापुत्रों की दूरदर्शिता उन्हें ऐसी चूक न करने के लिए कहती हैं। देखते है सामयिक अद्बोधन की उपेक्षा, अवमानना तो नहीं हो रही है। प्रज्ञापुत्रों के निर्धारण को उनके अग्रगमन में परिणत होते हुए देखा जा सकता है। बीजारोपण वर्ष के पाँच सूत्रों को परिवार ने सामयकि चुनौति के रुप में स्वीकार है और उसे क्रियान्वित करने का नश्चय किया है। फलतः निर्धारणों को उत्साहवर्धक अनुपात में अग्रगामी होता देखा जा रहा हैं।

पिछले दिनों सृजन कार्यों में जो निराशा दीखती और कठिनाई लगती रही है उसका रहस्य अब समझा जा रहा है कि पर उपदेश कुशल बनने की नाटकीयता कौतुक ही उत्पन्न कर सकती है। उसकी सामर्थ्य विउम्बनाएँ रचकर खड़ी कर देने तक सीमित है। ऊर्जा तो प्रवाह मोड़ने से उत्पन्न होती है इसे पानी से बिजली निकालने वाले इंजीनियर भर कहते थे अब उसी कथन का समर्थन सृजन शिल्पी करने लगे है। वे सोचते हैं यदि अपनी जीवनचर्या में ऐसे आदर्शवादी मोड़ देने का इससे पूर्व ही साहस बन पड़ा होता तो अब तक सफलताएँ कब की गगन चुँबी बन गई होती। साली गाँव के डेमान्या भील ने आदर्श वादिता अपनाने का छोटा सा उदाहरण अपने आप में आरम्भ करके प्रकारान्तर से समूचे प्रज्ञा परिवार को चेताया है कि आरम्भ यदि अपने से ही किया जा सके तो श्रेय सम्मान और सहयोग की त्रिवेणी रैदास की कठौती में से गंगा की तरह प्रकट हो सकती है। आदिवासी गायत्री शक्तिपीठ के सुविस्तृत निर्माण और उस समुदाय में नव जागरण लाने का जो अविस्मरणीय आधार बना है उसका एक ही कारण है उसका स्वतः त्याग बलिदान की अग्रिम पंक्ति में खड़े होना। यदि वह कृपणता को छाति से चिपकाये रहता तोकदाचित ही वह व्यवस्था बनती जो थोडे़ से समय में ही इतिहास के पृष्ठो पर स्वर्णाक्षरों में लिखी जायगी यह परिणिति अकस्मिक नहीं है। उसे अपना कर कोई भी अपनी प्रभाव प्रक्रिया में देखते-देखते सैकड़ों हजार गुनी अभिवृद्धि कर सकता है।


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