जागृत आत्माओं से अग्रगामी बनने का आहान

October 1980

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प्रज्ञावतार के प्रकटीकरण के तथ्य के आधार पर जो विश्वास कर सके और उस आधर पर नवयुवक को सम्भावना प्रत्यक्ष होने के तथ्य को हदयंगम कर सके उन्हे इतना और जान लेना चाहिए कि निराकार शक्तियाँ अपने प्रभाव का परिचय किसी साकार -आधार के सहारे ही दें पाती। युद्ध में पराक्रम तो योद्धा का शैर्य और श्जाओ का बल ही दिखाता है, पर शत्रु की गरदन पर चमकती तलवार ही है। प्रज्ञावतार को जो श्ी करना है वह दृश्य देवताओं के माध्यम से ही सम्भव होगा। धरती के दृश्य देवता वे है जिनने शैतिक महत्वकाक्षाऔं के-वासना-तृष्णाओं के लोह वन्धन शिथिल करके औसत शरतीय की जीवनचर्या में सन्तुष्ट रहने की मनोभूमि वनाली है और जो अपने चिन्तन तथा कर्म को सर्त्यवृत्ति संम्वन्ध में, युग साधना में नियोजित कर सकने का अवसर प्राप्त करते है। जागृत आत्माएँ-युग शिल्पी, सजृन-सैनिक, देवमानव, प्रज्ञापुत्र आदि नामों से समय-समय पर इसी समुदाय का उल्लेख होता रहता है। उज्जवल श्विष्य की आँशाओ के केन्द्र विन्दु दन्ही को माना गया है। शेष तो मोह मदिरा पीकर उन्मादियों अथवा अर्धमतृको की तरह मनुष्य जीवन को मखौल बनाते हुए दिन गुजारते है। प्रतिभाओं की कमी नही। साधनों के पर्वत खडे है। सामर्थ्य बिखरी पडी है पर उन सबका उपयोग तो लोभ लिप्स की नरक ज्वाला जलाने में ईधन की तरह ही होता रहता है। वह सदाशयता कहाँ से ढूढँ निकाली जाय जो मनुष्य को प्रदान की गई अन्नत सामर्थ्य को सदुद्देयों की पूर्ति के लिए नियोजित कर सके। ऐसा कर सकना विवेकशील विचारणा और सम्वेदनशील सहदयता के लिए ही संम्भव है। जिन्हें यह वरदान मिले हो उन्हीं से युग सृजन जैसे महान प्रयोजन के निमित कुछ बन पड़ने की आशा की जा सकती है। दूसरे तो ऐसे ही दाँत निपोरतें और कल्पना-जल्पना की उड़ान उड़ते रहते है। सनक, सदाशयता की श्ी हो सकती है, पर मनमोदक खाते रहने से पेट किस का श्रता है। काम तो पराक्रम ही आता है। उसका अभाव हो तो फिर दिवा स्वप्न ही बँधते है।

युग सृजन अपने समय की सबसे बड़ी आवश्यकता है। उसकी पूर्ति के लिए जनमान का परिष्कार और सत्प्रवृति संम्वन्ध के दो कार्य ही करने होगे। इन्ही के सत्परिणामो को मनुष्य में देवत्व का उदय और धरती पर र्स्वग का अंवतरण कहा जाता रहा है। विनाश की विभिषिकाओं से जुझना और उज्जवल श्विष्य की संरचना लोक-मानस में उत्कृत का संम्बन्ध करने के अतिरिक्त और किसी प्रकार संम्भव नहीं हो सकता। यह कार्य हर किसी के करने का नही। इसे बुद्धिमान , बलवान , मिलकर श्ी न कर सकेगे। कुबेर जितनी सम्पन्नता और इन्द्र जितनी समर्थता एकत्रित कर लेने पर श्ी सतयुगी वातावरण के साथ जुड़ी हुई सुख-शान्ति की-प्रगति, संस्कृति का पुनरुत्थाम संम्भव नहीं हो सकता। अतीत वाला र्स्वग युग, मात्र देवमानवों की विशिष्टताओं से सुसज्जित महामानव ही संम्पन्न कर सकेंगें। आज उन्ही की तलाश के लिए पीड़ित मानवता बेचैन दृष्टिगोचर हो रही है। सुसज्जित युग निर्माण योजना के बहुमुखी क्रिया-कलापो का कंन्द्र बिन्दु एक ही है। सृजन शिल्पी की श्मिका निभा सकने बाले-चिन्तन और चरित्र की दृष्टि से देवत्व सम्पन्न प्रतिभाओं का उपार्जन संचय एवं संगठन। इस प्रयोजन में जितनी सफलता मिलेगी उसी अनुपात से यह समझा जा सकेगा कि मानवी शग्योदय का समय निकट आ गया। युग परिर्वतन या र्स्वग का अवतरण इसी स्थिति को कहा जाता रहा है।

युग निर्माण परिवार के परिजनों में से अधिकाँश ऐसे ही सुसंस्कारी है जिन्हे थोड़ा-सा खराद देने पर बहुमूल्य हीरो जैसी उपलब्धियाँ हस्तगत हो सकती है और समय कि माँग पूरी हो सकने की आँशा बन्ध सकती है। इसी उत्पादन के निर्मित पिछले दिनो से शगीरथी प्रयत्नच ल रहे है।

युग सन्धि की विशिष्ट बेला में आवश्यक है कि विशेष दूरदर्शिता अपनाई जाए। इसका एक मार्ग है कि इन दिनों लिप्सा के पलडे़ में बजन न डाला जाये । इन दिनों अमीरी नहीं महानता अपेक्षित है। कामनाओं को शवनाओं में बदला जाय और चरित्र चिंतन को ऐसा मोड़ दिया जाए संम्भव जिसके सहारे महामानवों की श्मिका सम्पन्न कर सकना सम्भव हो सके। यह प्रथम चरण है। दूसरा चरण उपलब्ध प्रतिभा का युग सृजन में शवभरा नियोजन है। जो अपनी दिशाधारा को इस शैली में ढाल सकेगे उन्ही के लिए संभव होगा कि वे समुद्र लाँधते, पर्वत उठाने, लंका जलाने, मृत लक्ष्मण को जिलाने, राम को सीता दिलाने और विश्व वन्ध, श्क्त शिरोमणि हनुमान वन सकने का सौभग्य प्राप्त कर सके।

परिजनों की मनःस्थिति यदि इन दो आधारो पर युग साधक जैसी बन सके तो फिर ढर्रे का सड़ा-गला जीवनक्रम गले से बाँधे रहना उसके लिए किसी श्ी प्रकार संम्भव न होगा। उदात्त चिन्तन का यदि सचमुच ही अन्तराल में प्रवेश हो सका तो जीवनक्रम के उद्वेश्य और आचरण में जमीन आसमान जैसा अन्तर पडे़ बिना रह नहीं सकता। तब निर्वाह की समस्या हल करने और परिवार का ब्राह्मणोचित क्रिया-कलाप चलते रहने में किसी को श्ी रत्ती श्र श्ी कठिनाई नहीं हो सकती। पत्तियों के मर जाने या अपंग हो जाने की स्थिति में जो अपने शरीर पुरुषार्थ केवल पर अपना ही नहीं चार-चार बच्चों का पालन और विकास श्ी श्ली प्रकार कर लेती हैं। ऐसे प्रतिभा को जगाया जा सके तो गृहव्यवस्था ही नहीं उपार्जन का श्ी उत्साहवर्धक मार्ग निकल सकता है। वे चाहे तो छोटा-मोटा काम करके इतना कमा सकता है कि धर से एक शवनाशील व्यक्ति को युग सृजन जैसे आपत्ति धर्म का परिपालन करने के लिए बिना किसी असविधा के अवसर प्रदान कर सके। हर धर में पूँजी जेबर, जायदाद एवं ठाठ-बाठ के साधनों में कैद नहती है। ब्याज शडे़ में पडी रहती है। इसक समेट-बटोर कर यदि परिवार के आवश्यक निर्वाह में लगाया जा सके तो आजकल की शरी बैक-ब्याज तो किसी छोटे परिवार का गुजारा आसानी से चला सकती है। बच्चो को बड़ा साहब बनाने की अपेक्षा यदि कारीगर, अध्यापक जैसी मध्वर्ती गुजारे की योजना बनाई जा सके तो निश्चय ही उनकी संन्तान अवाँछित तरीके अपनाकर दौलत बटोरने चालों की तुलना में लाख गुनी अधिक सुखी और सुसंस्कृत रह सकती है। सोचने श्र की माया का जाल है , जिसमें उलझे हुए व्यक्ति कभी व्यस्तता का, कभी समस्याओं का, कभी जिम्मेदारीयो का वहाना गढ़ कर आत्म प्रबंचना करते रहते है।और युग धर्म की महती आवश्यकता को झूठलाते, समय की चुनौती को अस्वीकारते रहते है। तथ्यतः अधिकाँश के सामने ऐसी समस्याएँ होती नहीं जिनके कारण वे अपना पूरा या अधूरा समय परमार्थ प्रयोजनों में देकर धन्य न बन सकें। मकडी़ का जाला श्र है जिसमें फँसे जकडे रहकर आम-तौर से विवशता दुहाई दी जाती रहती है। असल में व्यामोह के दलदल में एडी से चोटी तक फँसा हुआ म नहीं उन समस्त उलझनों का एकमात्र केन्द्र बिन्दु है, जो समय की पुकार की अवज्ञा करते रहने के लिए गूँगा वहरा वनाये रहती है। श्ीतर वाला यदि बदल सकें तो उन तथा कथित कठिनाईयों को हल करने के हजार रास्ते निकल सकते है, जिनके आधार पर महाकाल के आह्नान पर कम से कम कुछ कदम बढ़ा सकना तो सम्भव हो ही सकता है। क्या आवश्यकता है कि हर साल एक बच्चा उत्पन्न किया जाय और सौ रुपये मासिक का नया खर्च हर साल बढ़ाया जाय?

दाम्पत्य जीवन एक बात है और बच्चे पर बच्चा जनते जाना सर्वथा दूसरी। विवेक से काम लिया जाय तो समय रहते उस विपत्ति से बचा जा सकता है, जो पत्नी का स्वास्थ्य, बच्चों का भविष्य उपार्जन कर्ता को बोझ और देश व्यापी संकट उत्पन्न करने के लिए मुख्य रुप से जिम्मेदार है। जिन्हं आदर्शो के प्रति निष्ठा है और जो अपनी सामर्थ्य को सदुद्देश्यों के लिए लगाना चाहते हैं उन्हें यह समझने में रत्ती भर भी कठिनाई न होनी चाहिए कि इन दिनों प्रजनन में उत्साह दिखाना लगभग देशद्रोह और आत्मघात जैसा अपराध है। बच्चों के प्यार या पालन में रुचि हो तो पड़ौस में ही असहायों के दर्जनों बालक इस प्रयोजन के लिए सहज ही मिल सकते हैं। तब न सन्तान के कुपात्र निकलने का दुख होगा और न उत्तराधिकार के प्रश्न को लेकर जूते खाने मूँछ उखड़वाने का संकट उत्पन्न होगा। यह गम्भीर प्रश्न है जिसे समझने के लिए दिवान्धों से तो कुछ नहीं कहा जा सकता किन्तु जन-कल्याण में रुचि रखने वालों को तो एक बार नहीं हजार बार इस सर्न्दभ में सोच-विचार करना चाहिए और अकारण भार लादने की मूर्खता से बचना चाहिए।

यहाँ हैं वे व्यावहारिक कठिनाईयाँ जिनमें उलझे रहने के कारण भावनाशीलों में से भी अधिकाँश व्यक्ति परिस्थितियाँ सर्वथा अनुकूल होने पर भी युग धर्म के निर्वाह के लिए तनिक-सा समय दे सकना भी शक्य नहीं मानते। कमाऊ बच्चों को पैतृक अनुदान वापिस करने की नीति शिक्षा दी जा सकती है और उन पर अपने छोटे भाई-बहनों तथा अभिभावकों के भरण-पोषण में सहृदयता करने के लिए दबाव डाला जा सकता है। पर कोई किससे, किस प्रकार क्या कुछ कहें? जब कुएँ में भाँग पड़ने के कारण पीने वाले सभी लोग वाबले हो रहे हों तो कोई किसी को क्या समझायें ?

इन दिनों जागृत आत्माओं के अग्रगमान की सर्वोपरि आवश्यकता है। ऊपा निकले तो सूर्य उगे। इंजन बढ़े तो डिब्बे खिसकें। जब विचारशीलों ने ही अपनी आदर्शवादित को, मनःस्थिति को दुर्बलता के कारण दीनहीन दयनीय बना रखा हो तो फिर सामान्यजनों से कोई क्या कहे? तब नव सृजन के लिए उपयुक्त प्रतिभाएँ कहाँ से उपलब्ध हों। अध्यात्म तत्वज्ञान की खदान से ही नर-रत्न निकलते हैं जब उसका सर्वनाश हो गया और पूजा पत्री की खिलवाड़ से मनोकामनाएँ पूर्ण कराने के लिए देवताओं को फुसलाना ही अध्यात्म बन गया हो तब मात्र अन्धकार ही अन्धकार शेष रह जाता है।

नव सृजन के लिए सर्वोपरि आवश्यकता है युग शिल्पियों के सत्प्रवृत्तयों के सर्म्बधन में निरत होने की। प्रतिभाओं का समयदान ही वह प्राथमिक आवश्यकता है जिसकी पूर्ति होने लगे तो अन्य सभी साधन चुटकी बजाते जुटते चले जायेंगे। प्राचीनकाल में गृह निवृत्त भावनाशीलों के लिए वानप्रस्थ परम्परा अपनाकर आत्मकल्याण और लोक निर्माण के उभयपक्षीय प्रयोजनों में निरत होना पडता है। गृहस्थ के उत्तरदायित्व रहने पर भी ब्राह्मणोचित औसत नागरिक जैसा संतोषी जीवनजिया जा सके तो भी यनव सृजन की आवश्यकता में कन्धा दे सकने वालें अंसख्यों मिल सकते है। साधनों की कमी बहुत है। कभी सरकार के सामने गिड़गिड़ाना पड़ता है कभी चन्दे की रसीद बही लेकर द्धार-द्धार पर अपमान सहना पड़ता है। भावनाशीलों को यदि अपने निजी उपार्जन का सदुपयोग करने की बात सूझ पड़े तो उतने भर से वे सभी कार्य सहज ही पूरे हो सकते है जो नवयुग के प्रथम चरण में अनिवार्यतः आवश्यक है। दस पैसा नित्य और एक एक मुट्ठी अन्य नित्य देने देने में कोई निर्धन भी ‘न’ नहीं कर सकता। महीने में एक दन की कमाई बिना किसी कठिनाई के कोई भी भावनाशील सहज ही देता रह सकता है। अपव्यय, संचय और उत्तराधिकार के लिए बची हुई मान्यताओं एवं आदतों को यदि बदला जा सके तो युग निर्माण परिवार के वर्तमान सदस्य ही इतनी बड़ी धन राशि जुटा सकते है जिससे कि यह छोटा देव समुदाय ही नव सृजन का उत्तरदायित्व वहन करने एवं श्रेय पाने में सहज ही समर्थ हो सके।

युग परिवर्तन नितान्त आवश्यक है, पर उसके लिए अग्रगामी ऐसे मनस्व चाहिएँ जो पहले अपने को बदले। जो अपनी मनःस्थिति और परिस्थिति को नव निर्माण में कुछ योगदान दे सकने के उपयुक्त बना सकेंगे उनही से यह आशा की जा सकेगी। मृत्यु और जीवन के बीच झूलने वाली स्थिति से मनुष्यता को उवारने में कुछ कारगर सहयोग वेही दे सकेंगे। जिन्होंने आदर्शो को वाचालता का विष भर बना लिया उन्हें मनोनिग्रहियों से अनुदान की मनुहार करना तो एक प्रकार से बालू का तेल निकालने के प्रयत्न जेसा निरर्थक ही रहेगा।


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