परिवर्तन असुविधाजनक होते हुए भी अपरिहार्य हैं

October 1980

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रात्रि का अन्त और दिन का प्रारम्भ प्रभात कहलाता हैं। वह परिवर्तन, आर्श्चयजनक अद्भुत एवं नये स्तर की सम्भवनाओं से भरा होता हैं। इसलिए उनींदे लोगों की असुविधाजनक एवं नये उत्तरदायित्वों को विवशता लादने वाला और भारी लागता हैं इतने पर भी उन्हें नई स्थिति में नये प्रवाह में बहना ही पड़ता हैं। रात्रि लौटनी नहीं और दिन रुकना नहीं। परिवर्तन के अनुरुप ढलने के अतिरिक्त किसी के सामने और कोई चारा रह नहीं जाता।

भ्रुण अँधेरी कोठरी में भी निरापद निर्वाह करता हैं, पर उसकी विकसित स्थिति को देखते हुए नियति उसे उन्मुक्त आकाश और स्वच्छन्द वातावरण में प्रवेश करने की सुविधा प्रदान करती हैं। प्रगतिक्रम में परिवर्तन की आवश्यकता अनिवार्य हैं और अपरिहार्य भी। प्रसव को बेला सभी को कष्टकारक और असुविधाजनक होती हैं प्रसूता, शिशु, नर्स और परिवार के अन्य सभी को सामान्य काम छोड़कर उस प्रसूति बेला में असाधारण जागरुकता एवं तत्परता का परिचय देना पड़ता है। इतने पर प्रसव का परिणाम अन्ततः हैं सभी के लिए सुखद और श्रेयस्कर।

युग परिवर्तन की सन्धि बेला में चल रही अनुपयुक्त की गलाई और अभीष्ट की ढलाई का जो उपक्रम इन दिनों चल रहा है, उसमें अनभ्यस्त ढर्रे पर भारी चोट पड़ती है और हर वर्ग एवं प्रचलन को न रीति-नीति अपनाने में खीज और असुविधा हो सकती हैं किन्तु नियति की विध-व्यवस्था ने जो नव सृजन का निर्धारण किया है उसे अपनाने के अतिरिक्त और कोई चारा हैं नहीं।


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