गायत्री के पाँच मुख पाँच दिव्य कोश

May 1977

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गायत्री महाशक्ति अपने ब्रह्म उद्गम हिमालय से निकल कर दो भागों में विभक्त होती है। इनमें से एक ज्ञान धारा है, दूसरी शक्ति धारा है। ज्ञान धारा को गंगा और शक्ति धारा को यमुना भी कहते हैं। इन्हीं दोनों को इडा, पिंगला भी कहा गया है।

ज्ञान के उपरान्त शक्ति के उपयोग का क्रम चलता है। मोटर चलानी हो तो पहले उसे चालक की विधि सीखनी पड़ती है इसके उपरान्त ही उसे चलाने की बात बनती है। आरम्भ में ही चलाने लग लाये और पीछे उसकी मशीन के बारे में समझा जाये तो दुर्घटना होने का भय रहेगा।

आरम्भिक साधना में गायत्री का उपासना पक्ष सिखाया जाता है। जप, अनुष्ठानों का विधान-इसी प्रयोजन के लिए है। यह ज्ञान पक्ष है। इसे भूमि शोधन कहा जा सकता है। बीज बोने का अवसर तब आता है जब उसके उपयुक्त भूमि तैयार कर ली जाती है। घर में बिजली की फिटिंग ठीक हो जाने पर उस विभाग के अफसर उसकी जाँच पड़ताल करते हैं और सही होने पर कनेक्शन जोड़ते हैं। गलत फिटिंग पर यदि बिजली की धारा जोड़ दी जाय तो उससे भयंकर हानि होने का डर रहेगा। ज्ञान उपासना सरल है इसलिए आरम्भिक शिक्षा उसी को दी जाती है। इंजीनियरिंग कालेज, मेडिकल कालेज आदि शिक्षा संस्थानों में प्रारम्भिक शिक्षण सिद्धान्तों का होता है। तदुपरान्त यन्त्रों पर काम करने का अवसर दिया जाता है। बिना शरीर विज्ञान सीखे कोई छात्र आरम्भ में ही आप्रेशन का चाकू उठा ले तो वह उस कार्य में अपयश ही अर्जित करेगा। आत्म विज्ञान में ज्ञान बीज का विकास उपासना द्वारा और शक्ति बीज का साधना द्वारा सम्भव होता है। जप, ध्यान, पूजा, उपचार के आधार पर भूमि-शोधन का कार्य सम्पन्न होता है। साधना योगाभ्यास और तपश्चर्या के सहारे विकसित होती है।

गायत्री विज्ञान का उच्चस्तरीय पक्ष कुण्डलिनी जागरण कहा गया है। इसमें योगाभ्यास प्रधान है। योग में एक ज्ञान पक्ष है। दूसरा विज्ञान पक्ष। ज्ञान पक्ष केन्द्र ब्रह्म रूप है और शक्ति पक्ष का मूलाधार। साधारणतया दोनों स्थान की दृष्टि से ही नहीं स्थिति की दृष्टि से भी दूर है। क्रिया और ज्ञान का समन्वय प्रायः हो नहीं पाता। इसलिए प्रयत्नों में प्रखरता उत्पन्न न होने से सफलता भी स्वल्प मात्रा में मिलती हैं दोनों का सुयोग होने से प्रचंड शक्ति धारा का प्रवाह उत्पन्न होता है और सफलता का पथ-प्रशस्त होता है।

गायत्री महाशक्ति का प्राण पक्ष-शक्ति पक्ष-कुण्डलिनी है। दोनों मूलतः एक ही है। विद्युत तत्त्व एक है। ऋण और धन उसके दो विभाग मात्र है। जीव सत्ता एक है शरीर और प्राण उसके दो घटक भर हैं। गायत्री और कुण्डलिनी को पृथक् नहीं वरन् दो धाराओं का परस्पर पूरक स्वरूप समझा जाना चाहिए। कहा भी है-

कुण्डलिन्यां समुद्रता गायत्री प्राणधरिणी।

प्राणविद्या महाविद्या यस्तांवेति स वेदवित् ॥

-- योगचूड़ामणि उपनिषद्

कुण्डलिनी ही प्राण शक्तिमयी गायत्री का उत्पत्ति स्थान है। यह गायत्री ही प्राणविद्या रूप महाविद्या है। जो व्यक्ति इस विद्या को जानते हैं, वे ही वेदवित् है।

अन्याय मन्त्रों की सिद्धि प्राप्त करने एवं देव सत्ताओं से लाभान्वित होने की अन्तः भूमि बनाने के लिए भी पहले गायत्री उपासना ही आवश्यक होती है। खेत में बोया उगाया कुछ भी जाय पर जोतने का कार्य तो करना ही पड़ेगा। उपासनाओं की सार्थकता के लिए उर्वर मनोभूमि बनाने में गायत्री उपासना की तो असाधारण उपयोगिता है।

सा गायत्री समिद्धान्यानि छन्दांसि समिन्धे।

- शतपथ 1(3) (4) 6

गायत्री के जागृत होने पर अन्य मन्त्र जागृत होते हैं। प्रारम्भ में हलके काम दिये जाते हैं और समर्थता बढ़ने पर बड़े एवं भारी काम सौंपें जाने लगते हैं। गायत्री की सरल जप प्रक्रिया-उपासनात्मक विधि विधान के साथ जब ठीक प्रकार बन पड़ती है तो साधक को योगाभ्यास सहित उसे करने के लिए कहा जाता है। योग और तप का समन्वय हो जाने से गायत्री कुण्डलिनी बन जाती हैं योग साधना सहित की गई गायत्री उपासना का विशेष महत्त्व है।

गायत्री संस्मरेद्योगात् स याति ब्रहमणः परम्।

गायत्री जप निरतो मोक्षोपायच्च- विन्दति वृद्ध पारासर 5/78

योगाभ्यास सहित जो गायत्री उपासना करता है। वह बर्हम् पद को प्राप्त कर लेता है।

योग और तप के समन्वय से की गयी गायत्री साधना का -कुण्डलिनी साधना का- महत्त्व बताते हुए कहा गया हैं कि -

गायत्येव-तपो योगः साधनं ध्यान मुच्यते।

सिद्धीनां सामना माता नात् किंचिद् ब्रहमतरम्।

गायत्री साधना लोक न कस्यापि कदापि हि।

याति निष्फलतां मेतन् ध्रुवं सत्यं भूतले।

योगिकानां समस्तानां साधनानां तु वरानने।

गायत्री मंजरी

शिवजी कहते हैं-हे पार्वती, गायत्री ही तप है, योग है, साधन है, ध्यान है। वही सिद्धियों की माता मानी गई है। इससे बढ़कर श्रेष्ठ तत्त्व इस संसार में और कोई नहीं है। कभी किसी की गायत्री साधना निष्फल नहीं जाती है। समस्त योग साधनाओं का आधार गायत्री ही है।

गायत्री की प्रखरता प्राण-शक्ति के समन्वय से प्रकट होती है। वस्तुतः गायत्री को प्राण-विद्या ही कहना चाहिए । प्रज्ञोपनिषद के यम नचिकेता संवाद में जिस पंचाग्नि प्राण-विद्या का उल्लेख किया गया है वह गायत्री महाशक्ति में सन्निहित पंच प्राणों को प्रखर बनाने का ही विज्ञान है। यही पंचमुखी अथवा सूक्ष्म शरीर के पंच कोश है। गायत्री की प्राण-शक्ति को उभारने के लिए ही उच्चस्तरीय साधनाएँ की जाती है। योग चूड़ामणि उपनिषद् में इस तथ्य को इस प्रकार स्पष्ट किया गया है।

कुण्डलिन्यां समुद्रभूतां गायत्री प्राणधारिणी।

प्राणविद्या महाविद्या यस्तांच्वेत्ति स वेदवित् ॥

- योगचूड़ामणि उ0नि0

‘कुण्डलिनी ही प्राणशक्तिमयी गायत्री का उत्पत्ति स्थान है। यह गायत्री ही प्राण विद्या रूप महाविद्या है। जो व्यक्ति इस विद्या को जानते हैं, वे ही वेद वेत्ता है।

जीव सत्ता के साथ पाँच सशक्त देवता, उसके लक्ष्य प्रयोजनों को पूर्ण करने के लिए मिले हुए है। वे निद्रा ग्रस्त हो जाने के कारण मृत तुल्य पड़े रहते हैं और किसी काम नहीं आते। फलतः जीव दीन दुर्बल बना रहता है। यदि इन सशक्त सहायकों को जगाया जा सके उसकी सामर्थ्य का उपयोग किया जा सके तो मनुष्य सामान्य न रह कर असामान्य बनेगा। दुर्दशाग्रस्त स्थिति से उबरने और अपने महान् गौरव के अनुरूप जीवन-यापन का अवसर मिलेगा। शरीरगत पाँच देवताओं के रूप में इस प्रकार किया गया है-

“ आकाशस्याधिपो विष्णुरग्नेश्चैव महेश्वरी।

वायोः सूर्यः क्षितेरीशो जीवनस्यं गणधिपः॥”

- कपिल तंत्र

आकाश के अधिपति है विष्णु। अग्नि की अधिपति माहेश्वरी शक्ति है। वायु- अधिपति सूर्य है। पृथ्वी के स्वामी शिव हैं और जल के अधिपति गणपति गणेश जी है। इस प्रकार पंच देव शरीर के पंचतत्वों की ही अधिपति-सत्ताएँ है।

पाँच प्राणों को भी पाँच देव बताया गया है।

पंचदेव मयं जीव, पंच प्राणमयं शिव।

कुण्डली शक्ति संयुक्त, शुभ्र विद्युल्लतोपमम्॥

- तंत्रार्णव

यह जीव पाँच देव सहित है। प्राणवान होने पर शिव है। यह परिकर कुण्डलिनी शक्ति युक्त है। इनका आकार चमकती बिजली के समान है।

कुण्डलिनी जागरण का परिचय पंच कोशों की जागृति के रूप में मिलता है।

कुण्डलिनी शक्तिविर्भवति साधके।

तदा स पंच कोशे मत्तेजोऽनुभवित ध्रुवम्।।

- महायोग विज्ञान

जब कुण्डलिनी जागृत होती है तो साधक के पाँचों कोश ज्योतिर्मय हो उठते हैं।

पाँच तत्त्वों से शरीर बना है। उनके सत्व गुण चेतना के पाँच उभारो के रूप में दृष्टिगोचर होते हैं। 1 मन, माइन्ड 2 बुद्धि इन्टिलैक्ट 3 इच्छा तिल 4 चित्त, माइन्ड स्टफ 5 अहंकार, इगो

पाँच तत्त्वों (फाइव एलीमेण्ट) के राजस तत्त्व से पाँच प्राण (वाइटल फोर्स) उत्पन्न होती है। पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ उन्हीं के आधार पर अपने विषयों का उत्तरदायित्व निभाती है।

तत्त्वों के तमस् भाग से काय कलेवर का निर्माण हुआ है। 1. रस 2. रक्त 3 माँस 4. अस्थि 5. मज्जा के रूप में उन्हें क्रिया निरत काया में देखा जा सकता है। मस्तिष्क, हृदय, आमाशय, फुफ्फुस और गुर्दे यह पाँचों विशिष्ट अवयव, तथा पाँच कर्मेन्द्रियों को उसी क्षेत्र का उत्पादन कह सकते हैं।

तृतीय उपनिषद् में अन्नमय के भीतर प्राणमय का- प्राणमय के भीतर मनोमय का-मनोमय के भीतर विज्ञान-मय का और विज्ञानमय के भीतर आनन्दमय कोश का वर्णन है। उनमें बहुत कुछ साम्य और बहुत कुछ अन्तर है। इसकी चर्चा इस प्रकार हुई है।

‘स वा एष पुरुषोऽन्नरसमयः। तस्येदमेव शिरः।

अयं दक्षिणः पक्षः। अयमुत्तरः पक्षः।

अयमात्मा। इदं पुच्छं प्रतिष्ठा। ‘

- तै0उ॰ 2 1 1

मनुष्य अन्न रसमय है। यही उसका शिर है। यही उसका दक्षिण पक्ष है। यही उसका उत्तर पक्ष है। यह आत्मा है। यह पुच्छ तंत्र मेरुदंड पर प्रतिष्ठित है।

‘तस्माद्धा एतस्मादन्नसमयादन्योऽन्तर आत्मा प्राणमयः। तेनैष पूर्णः। सवाएष पुरुषविध एव।

तस्य पुरुषविधतामन्वयं पुरुषविधः। तस्य प्राण एवं शिरः। व्यानो दक्षिणः पक्षः। अपान उत्तरः पक्षः आकाश आत्मा। पृथिवी पुच्छं प्रतिष्ठा।

- तै0 उ॰ 2 2 1

उपरोक्त अन्न रस आदि धातुओं से विनिर्मित अन्नमय कोश से पृथक किन्तु भीतर रहने वाला आत्मा प्राणमय हैं वह इतने में ही पूर्ण है। वह भी वैसी ही आकृति का है। वह इतने में ही पूर्ण है। वह भी वैसी ही आकृति का है। वैसी ही उसकी गतिविधि है। उस प्राणमय कोश का प्राण ही शिर है। उसका ब्यान दक्षिण पक्ष ओर अपान उत्तर पक्ष है। आकाश उसकी आत्मा है। पृथ्वी में उसकी पुच्छ प्रतिष्ठा है।

‘तस्माद्वा एतस्मात् प्राणमयादन्योऽन्तर आत्मा मनोमयः। तेनैष पूर्णः। सवा एष पुरुषविध एव तस्य पुरुषविधतामन्वयं पुरुषविधः। तस्य यजुरेव शिरः। ऋग्दक्षिणः पक्षः। सामोत्तरः पक्षः। आदेश आत्मा।’

इस प्राणमय कोश से भिन्न मनोमय कोश है। प्राणमय कोश, मनोमय कोश से भरपूर है। वह उसी के समान है। जैसा प्राणमय कोश है वैसा ही मनोमय कोश है। यजुः उसका शिर है। ऋग् दक्षिण पक्ष और साम उत्तर पक्ष है। आदेश उसका आत्मा है।

वेदों को यहाँ मनोमय कोश के साथ क्यों जोड़ा गया इसका समाधान शंकर भाष्य में संकल्प मंथन और भाव को यजुः-ऋक् साम के रूप में किया है।

‘तस्माद्धा एतस्मान्मनोमयादन्योऽन्तर आत्मा विज्ञानमयः। तेनैष पूर्णः। स वा एष पुरुषविध एव।

तस्य पुरुषविधतामन्वयं पुरुषविधः। तस्य श्रद्धेव शिरः। ऋतं दक्षिणः पक्षः। सत्यमुत्तरः पक्षः।

योग आत्मा। महः पुच्छं प्रतिष्ठा।

- तै0 उ॰ 2 4 1

मनोमय कोश से अलग विज्ञानमय कोश है। मनोमय कोश विज्ञानमय कोश से आच्छादित है। यह विज्ञानमय है पुरुष के समान ही है। वैसा ही है जैसा मनोमय कोश। श्रद्धा ही इसका शिर है। ऋतु दक्षिण पक्ष और सत्य उत्तर पक्ष है। योग उसकी आत्मा है। महत्त्व में उसकी पुच्छ प्रतिष्ठा है।

‘तस्माद्वा एतस्माद्विज्ञानमयादन्योऽन्तर

आत्मा-नन्दमयः तेनैष पूर्णः। स वा एंष पुरुषविध एव तस्य पुरुषविधतामन्वयं पुरुषविधः। तस्य प्रियमेव शिरः। मोदो दक्षिणः पक्षः। प्रमोद उत्तरः पक्ष आनन्द आत्मा। ब्रहम पुच्छं प्रतिष्ठा।’

- तै0 उ॰ 2 5 1

विज्ञानमय कोश से पृथक् किन्तु उसी के अभ्यन्तर आनन्दमय कोश है। विज्ञानमय कोश आनन्दमय कोश से परिपूर्ण है। यह भी पुरुष के ही समान है। वैसा ही है जैसा विज्ञानमय कोश। प्रिय ही उसका शिर है। मोद (भीतरी आनन्द) उसका दक्षिण पक्ष और प्रमोद (बाहरी आनन्द) उत्तर पक्ष है। आनन्द उसकी आत्मा है। ब्रह्म में उसकी पुच्छ प्रतिष्ठा है।

पंचदशी के तृतीय प्रकरण में 3, 5, 6, 7 और 9 वें श्लोकों में पाँच कोशों का विवरण इस प्रकार प्रस्तुत किया गया है।

पितृभुक्तान्नजाद्वीर्याज्जातोऽन्नेनैव वर्धतें।

देहः सोऽन्नमयो नात्मा प्राक् चोर्ध्वतद्भावतः॥

पिता के खाये अन्न से बनने वाले वीर्य उत्पन्न काया अन्नमय कोश है। जन्म मरण होते रहने के कारण यह काया आत्मा नहीं है। चेतन आत्मा उससे भिन्न है।

पूर्णो देहे बलं यच्छन्नक्षाणां यः प्रवर्तकः।

वायुः प्राणमयो नासावात्मा चतैन्य वर्जनात्॥

काया से भरा पूरा-उसे बल देने वाला- इन्द्रियों का प्रेरक प्राणमय कोश है। पर यह भी देह की तरह ही अचेतन होने के कारण आत्मा नहीं है। उससे भिन्न है। पंच कोश क्या है? इनका परिचय देते हुए उपनिषद्कार कहते हैं।

अन्नकार्याणां कोशाना समूहोऽन्नमयकोश इत्युच्यते। प्राणदिचुर्दशवायुभेदा अन्नमयकोशे यदां वतन्ते तदा प्राणमयकोश इत्युच्चयते। एतत्कोशद्वयसंसक्तं मनआदिचतुर्दशकरणैरात्मा शब्दादि-विषयकल्पादिधर्मान् यादा करोति तदा मनोमय कोश इत्युच्चयेत। एतत्कोशत्रयसंसक्त तद्गतविशेषज्ञों यदो भासते तदा विज्ञानमयकोश इत्युच्चते। एतत्को-शचतुष्टसंसक्त स्वाकारणाज्ञाने। वटकणिकायामिव वृक्षो यदा वर्तंते तदा आनन्दमयकोश इत्युच्यतें।

- सर्व सारोपनिषद्।

अन्न के द्वारा उत्पन्न होने वाले कोशों के समूह इस प्रत्यक्ष शरीर को अन्नमय कोश कहते हैं। प्राण सहित चौदह तत्त्वों का समूह प्राणमय कोश कहलाता है। इन दोनों कोशों के भीतर इन्द्रियों तथा मन का समूह मनोमय कोश कहलाता है। बुद्धि और विवेक वाली भूमिका विज्ञानमय की है। इन सब कलेवरों के भीतर आत्मा का स्वाभाविक स्वरूप और स्थान आनन्दमय कोश कहलाता है।

इस पंच कोश विज्ञान का कई स्थानों पर कई प्रकार से आलंकारिक वर्णन है।

पच्चस्त्रोतोऽम्वुं पच्चयोन्युग्रवक्रां

पच्चप्राणोर्मि पच्चबुद्धयादिमूलाम्।

पच्चवर्ता पच्चादुःखौघवेगां

पच्चाशद्भेदां पच्चपर्वामधीमः-श्वेताश्रवर

हम पचास भेदों वाली एक ऐसी नदी को देख रहे हैं जो पाँच भँवरों वाली, पाँच घोर प्रवाह वाली, पाँच स्रोतों से प्राप्त जल वाली, पाँच स्थानों से उत्पन्न, पाँच प्राण-उर्मियों वाली, टेढ़े तिरछे प्रवाह वाली तथा पञ्च-ज्ञान रूप मन के मूलवासी है।

पंचारे चक्रे परिवर्तमाने

तस्मिन्ना तस्थुर्भुवनानि विश्वा।

तस्य नाक्षस्तप्यते भूरिभारः।

सनादेव न शीयेत सनाभिः ॥

- प्र0उ॰ 1, 11 तथा अथर्व0 11

पाँच अरे के उस चक्र में घूमते रहने पर भी, सब भुवन प्रतिष्ठित है। उसकी अक्ष ( धुरी ) कभी तप्त नहीं होती और बड़े भारी बोझ से लदा अनादि काल से घूमते रहने पर भी वह नाभि सहित कभी टूटता ही नहीं।

तद्वा अथर्वणः शिरोदेवकोशः समुब्जितः।

तत्प्राणो अभिरक्षति शिरो अन्नमयो मनः॥

अथर्व 10 2 27

“वह भली प्रकार संस्कारित शिर देवों का खजाना है। प्राण, मन और अन्न उसकी रक्षा करते हैं।”

योग वशिष्ठ में ईश्वर को प्राप्त करने के लिए अन्तः गुहा में प्रवेश करने का निर्देश है। इस ‘गुहा’ तक पहुँचने के लिए पंचकोशों का अनावरण करना पड़ता है। इन द्वारों के खुलने पर उस दिव्य गुहा में पहुँच सकना सम्भव है जहाँ आत्म साक्षात्कार एवं ब्रह्मा साक्षात्कार होता है।

गुहाहितं ब्रहम यत्तत्पंचकोशविवेकतः।

बोद्ध शक्यं ततः कोशपंचकं प्रविविच्यते॥

ब्रह्म पंचकोशों के भीतर ‘गुहा’ में विराजमान् है।

उस तक पहुँचने के लिए पंच कोशों का विधान विज्ञान जानना चाहिए।

देहादभ्यन्तरः प्राणः प्राणादभ्यन्तरं मनः।

ततः कर्ता ततो भोक्ता गुहा सेयं परम्परा॥

- योग वशिष्ठ

देह के अंतर्गत प्राण- प्राण के अंतर्गत मन-मन के भीतर कर्ता- कर्ता के भीतर भोक्ता है। ‘गुहा’ तक पहुँचने की यही परम्परा है।

पाँच प्राणों से प्रेरित होकर चित्त में पाँच वृत्तियाँ उभरती है। इन पाँचों के विश्रृंखलित होने पर जीवन में अस्तव्यस्तता बनी रहती है। यदि इन्हें सुसंतुलित किया जा सके तो पाँच देवताओं की भूमिका निभाती है और व्यक्तित्व को हर दृष्टि से सुसम्पन्न कर देती है,

चित्त की वृत्तियाँ अनन्त है। किन्तु उन्हें पाँच श्रेणियों में रखा जा सकता है। पतंजलि योगदर्शन में कहा गया है-

‘वृत्तयः पंचतथ्यः क्लिष्टाऽक्लिष्टाः।

- यो0 द॰ 1 5

ये पाँच वृत्तियाँ है- 1 प्रमाण 2 विपर्यय 3 विकल्प 4 निद्रा 5 स्मृति।

इन पाँचों का सन्तुलन सम्वर्धन पाँच कोश साधना से सम्भव होता है। इसी प्रकार पाँच क्लेशों के समाधान में भी इस साधना का भारी महत्त्व है।

क्लेश पाँच है- अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष एवं अभिनिवेश। इन पाँचों में प्रधान है-अविद्या । क्योंकि जब तक अविद्या है, तभी तक शेष चारों भी प्रभावी है। आत्मज्ञान द्वारा जब अविद्या नष्ट हो जाती है, तब समस्त क्लेश क्षीण हो जाते हैं।

क्लिष्ट वृत्तियाँ वे है, जो क्लेश से युक्त हों। क्लेश का अर्थ हुआ मोहग्रस्त प्रवृत्ति से उत्पन्न कष्ट। आत्म बोध के अभाव में, जब चंचल मनोभावों के अनुरूप व्यक्ति-सत्ता क्रियाशील बनी रहती है, तो उसे सक्रियता में वास्तविक आनन्द की अनुभूति नहीं हो पाती । अपितु क्षणिक हर्ष - विवाद की उत्तेजनाएँ ही उसे नचाती रहती है। यही क्लेश की स्थिति है।

बिन्दु योग को ध्यान साधना में पाँच आकाशों और पाँच ज्योतियों का वर्णन है। अन्तः क्षेत्र के विशाल ब्रह्माण्ड में पाँच आकाशों का अस्तित्व बताया गया है ओर उनमें सन्निहित दिव्य शक्तियों का दर्शन कराने वाली पाँच दिव्य ज्योतियों का उल्लेख है। ध्यान योग में इन पाँचों आकाशों के मध्य पाँच ज्योतियों की धारणा की जाती है। यह भी पंच कोश जागरण की एक प्रक्रिया होने और उसके सहारे अनेक सिद्धियों के उपलब्ध होने की बात कही गई है।

आत्म स्थिति की पाँच अवस्थाओं को 1 आकाश 2 पराकाश 3 महाकाश 4 सूर्याकाश 5 परमाकाश कहा जाता है। यही पंच -व्योम या पाँच आकाश हैं।

आकाश-स्थिति वह है जब ध्यान के समय बाहर-भीतर नीलिमा-सी या अन्धकार- सा दिखता है। पराकाश स्थिति में भीतर लपटें जैसी या कि लाल रंग का प्रकाश कभी-कभी कौंध-सा जाता है। महाकाश स्थिति वह है। जब यह प्रकाश बाहर-भीतर अधिकाधिक तेजपूर्ण दिखने लगे। सूर्याकाश स्थिति में बाहर सूर्य या सविता देवता का प्रकाश अपने अति समीप, चारों ओर परिव्याप्त दिखाई देता है और भीतर भी सविता-देवता का वही प्रकाश संव्याप्त दृष्टिगत होता है। अन्तर्बाह्य प्रकाशपूर्ण, ज्योतिर्मय हो गया दिखता है।

परमाकाश स्थिति में सर्वत्र सर्वव्यापी अनिर्वचनीय आनन्दमय ज्योति का निरतियश विस्तार प्रत्यक्ष अनुभव जो जन अन्न को महान् भगवान् की उपासना करता है, खाता पीता हुआ उसको नहीं भूलता, वह अमृतभुजः अन्न वाले और पान वाले ताकों को सिद्ध कर लेता है।

आहार शुद्धया नृपते, चित्त शुद्धिश्च जायते।

शुद्धे चित्ते प्रकाशः स्यार्द्धमस्य नृपसत्तम॥

- देवी भागवत्

हे राजन! आहार शुद्ध होने पर चित्त की शुद्धि होती है। इस निर्मल चित्त से ही धर्म का प्रकाश होता है।

अपनी स्थिति का विश्लेषण करते हुए महर्षि तैत्तिरीय कहते हैं मैंने यह रहस्य भली प्रकार जान लिया कि मैंने जैसा खाया वैसा ही बन गया। मेरी स्थिति अन्न पर ही आधारित रही है।

हाइवु, हाइवु, हाइवु। असमन्नमहन्नमहन्नम्।

तैतरीयोपनिषद् 3/10

आश्चर्य, महान् आश्चर्य, मैं अन्न ही हूँ में अन्न ही हूँ।

अन्न के प्रति श्रद्धा रखी जाय। उसका महत्त्व न घटाया जाय। अन्न में जीवट, जीवनी शक्ति रहती है। वह प्राण स्वरूप है। उसका सेवन व्रत की तरह किया जाय। जो अन्न की गरिमा समझकर उसकी ब्रह्म समान उपासना करता है। वह कीर्तिमान, सम्पत्तिवान, बलिष्ठ और नेता बनता है। उसे ब्रह्मवर्चस की प्राप्ति होती है।

यह भाव तैतरीयोपनिषद् के निम्नलिखित श्रुति में इस प्रकार व्यक्त किये गये है-

अन्नंन निद्यात्। तद्व्रत। प्राणो वा अन्नम्।

शरीरमन्नादम। प्राणे शरीरं प्रतिष्ठितम्।

शरीरे प्राणः प्रतिष्ठितः। तदेतदन्नमन्ने प्रतिष्ठितम्।

स य एतदन्न्नमन्ने प्रतिष्ठित। वेद प्रतितिष्ठिति।

अन्नवा-नन्नादो भवित। महान् भवित प्रजया पशुभिर्ब्रहम वर्चसेन। महान् कीर्त्या। 1।

- तैत्तरीयोपनिषद् 3- वल्ली 7

न केवल अन्न वरन् जल भी आहार है। खाने की तरह पीना भी महत्त्वपूर्ण है। उसका भी मनः स्थिति पर प्रभाव पड़ता है। जल भी अपने ढंग का खाद्य ही है।

अस्तु आहार शुद्धि की तरह जल शुद्धि का भी पूरा-पूरा ध्यान रखा जाना चाहिए। साधना प्रयोजनों में पवित्र नदी सरोवरों के जल को इसी दृष्टि से महत्त्वपूर्ण स्थान दिया जाता है। कहा गया है-

आपो वा अन्नम्। ज्योतिरन्नादम्।

अप्सु ज्योतिः प्रतिष्ठितम्।

- तैत्तरीय 30

जल भी अन्न है। उसमें दिव्य ज्योति का निवास है।

आहार स्वाद के लिए औषधि रूप में सेवन किया जाय। उसकी अन्तःशक्ति को ध्यान में रखा जाय। वह जीवन है जीवन का आधार है। यह समझते हुए उसकी स्वादिष्टता को नहीं सात्विकता को ही महत्त्व दिया जाना चाहिए। अविधि पूर्वक सेवन किया गया- अभक्ष्य आहार उलटा प्राणी को ही खा जाता है। उसके लिए विपत्ति का कारण बनता है। इस भाव को उपनिषद्कार ने इस प्रकार व्यक्त किया है-

अन्नं हि भूतानां ज्येष्ठम्। तस्मात्सर्वोषध मुच्यते। जातान्यन्नेन वर्धन्ते। अद्यतेति च भूतानि।

- तैतरीय।

प्राणियों में अन्न की ही श्रेष्ठता है। इसलिए उसे सर्वतोमुखी औषधि कहते हैं। अन्न से जीव जन्मते और बढ़ते हैं। जीवधारी अन्न को खाते हैं पर वह अन्न जीवों को भी खा जाता है।

अनारोग्यमनायुष्यमस्वर्ग्य चाति भाजनम्।

अपुण्यं लोकविद्विष्टं तस्मात्तपरिवर्जयेत्॥

- मनु योग संध्या

अधिक भोजन करने से आरोग्यता और आयुष्य का नाश होता है, वह स्वर्ग का विरोधी है अर्थात् यज्ञ, जप आदि में वायु के विकार से बैठा नहीं जाता है। उपाधि करने से स्वर्ग का भी विरोधी है, अपवित्र और लोक में विदित है इससे विशेष भोजन न करे।

मिताहांर विनायस्तु योगारम्भं तु कारयेत्।

नानारोग भवन्त्यस्यकिचिद् योगो न सिधया।

घेरंड संहिता 5/16

जो व्यक्ति मिताहार के बिना ही योगाभ्यास प्रारम्भ कर देता है, उसे अनेक रोग हो जाते हैं, योग की कुछ भी सिद्धि नहीं होती ।

यादृशं अन्न मश्नाति सात्विकं राजसन्तुवा।

तादृशं गुण मानप्नोति गुणैः कर्मगति तथा॥

मनुष्य जैसा भी सतोगुणी, या तमोगुणी अन्न का सेवन करता है, वैसा ही उसे गुण प्राप्त होता है। अतएव सत्वादि गुणों के अनुसार ही कर्म तथा चेष्टा होती है।

आलस्यादन्नदोषाश्च मृत्युर्विप्राज्जिघाँसर्ति।

- मनु0 5/4

आलस्य और अन्न दोष से असामयिक अकाल मृत्यु होती है।

दीपो भक्ष्यते ध्वान्तं कज्जलं च प्रसूयते।

यदन्नं भक्षयेत् नित्य जायते तादृशी प्रजा॥

- चाणक्य

दीपक अँधेरा खाता है इसलिए काजल को जन्म देता है। मनुष्य जैसा अन्न खाता है वैसी ही उसकी क्रिया एवं परम्परा उत्पन्न होती है।

आहार शुद्ध होता है, तब सत्व अर्थात् अन्तः करण शुद्ध होता है। सत्व के शुद्ध होने पर ध्रुवा स्मृति अर्थात् पूर्ण तत्त्व का निरन्तर स्थायी स्मरण रहता है। उससे सभी कषाय कल्मषों की कुसंस्कारी ग्रन्थियों का विनाश हो जाता है। इस प्रकार निष्पाप नारदजी को भगवान् सनत्कुमार ने अज्ञान को पार करने वाले परम तत्त्व का साक्षात्कार कराया।

साधक का आहार अनेक स्वादों का न हो। एक ही पदार्थ व एक ही स्वाद उत्तम है। योगी भिक्षा में मिले विभिन्न पदार्थों को इकट्ठा करके एक स्वाद बना लेते हैं। यह उत्तम प्रक्रिया है। इस दृष्टि से खिचड़ी, दलिया जैसे पदार्थ साधन काल में उत्तम रहते हैं। शाक आदि उसी में डाले जा सकते हैं। दही, घी आदि का मिश्रण भी उस एक पदार्थ में ही हो सकता है। इस सन्दर्भ में इस प्रकार के निर्देश मिलते है-

कणानां भक्षणे युक्तः पिण्याकस्य च भो द्विजाः।

स्नेहानां वर्जने युक्तो योगी बलमवाप्नुयात्॥

भुज्जानो यावकं रुक्षं दीर्घकालं द्विजोत्तमाः।

एकाहारी विशुद्धात्मा योगी बलमवाप्नुयात्॥

अखण्डमपि वामा सततं मुनिसत्तमाः।

उपोष्य सम्भ्यशुद्धात्मा योगी बलमवाप्नुयात्॥

- ब्रह्मपुराण

दलिया, सत्तू, जौ, खिचड़ी आदि रूखा घी रहित भोजन उपवास पूर्वक करता हुआ मनुष्य आत्म-शुद्धि कर लेता है और आत्म बल प्राप्त करता है।

तेषांनाशायकर्तव्यं योगिना तन्निबोधम्।

स्निग्धाँयवागूमत्युष्णां भुक्त्वा तत्रैवधारयेत्॥

वातगुल्म प्रशान्त्यथमुदावर्तेतथोदरे।

यावगूँवापिपवनं वायुग्रन्थि प्रतिक्षिपेत्।

नासतोदशर्न योगेतस्मातत्परिवर्जयेत।

नासतोदर्शन योगेतस्मातत्परिवर्जयेत्।

- मार्कण्डेय पुराण

घी समेत खिचड़ी खाया करे। यह वात, गुल्म, अपच, उदर रोग आदि रोगों को दूर करती है। योग साधक अपने आहार बिहार को ठीक रखे निरर्थक, बातों में न उलझे।

आहारभक्ष्य निवृत्ता विशुद्ध हृदयं भवेत

आहार शुद्धौचितस्य विशुद्धिर्भवति स्वतः

चिते शुद्धे क्रमाज ज्ञानं भिन्दयतेग्रन्थयः-स्फुरम् पाशुपत ब्रहमोपनिषद्

अभक्ष्य आहार त्याग देने से अन्तःकरण पवित्र होता है। चित्त की शुद्धि स्वयमेव होने लगती है। इस चित्त शुद्धि के आधार पर सद्ज्ञान का उदय होता है। और अवरोधों की ग्रन्थियाँ खुल जाती है।

भोजन प्रसन्न चित होकर किया जाय। उसे भगवान का प्रसाद मानकर खाया जाय। जो अनुपयोगी हो उसे खाने से पहले ही उठा दे खाते समय नाक भौं न सिकोड़े ठूँस-ठूँस कर न खाये। जल्दबाजी न करें। कड़ी भूख लगे बिना न खाया जाय। बार-बार खाते रहने की आदत न डालें। साधक को इन तथ्यों पर ध्यान रखने का निर्देश करने वाले, कुछ शास्त्र इस प्रकार हैं-

पूजये दशनं नित्यमद्याच्चैतदकुत्सयन्।

द्रष्ट्वा हृष्येत्प्रसीदेच्च प्रतिनन्देश्च सर्वशः॥

- मनु0 2/54

भोजन को नित्य आदर की दृष्टि से देखे और अन्न की निन्दा न करते हुए प्रसन्नता पूर्वक भोजन करे तथा उसे देखकर प्रसन्न होवे और सर्वथा प्रशंसा करे।

यच्छक्यं ग्रसितु ग्रस्यं ग्रस्तं परिणमेच्यात्।

हिंत च परिणामे यत्तपाद्यं भूमि मिच्छता॥

जो ग्रास खाया जा सके, खाया हुआ पच जावे, तथा पचने पर हितकारी हो, उसी को कल्याण चाहने वाले मनुष्य को खाना चाहिए।

अन्नेन पूरयेदर्धं तोयेने तु तृतीयकम्।

उदरस्य तृतीयाशं संरक्षेद वायुचारणे॥

- घ0स॰ 5/12

उदर के आधे भाग को अन्न से भरे, तीसरे भाग को जल से और चौथे भाग को वायु संचार के लिए रिक्त रखे।

द्वौ भागौ पूरयेदन्नैस्तोयेनैकं प्रपूरयेत्।

वायौः संचारणार्थाय चतुर्थमवशेषयेत्॥

- योग संध्या।

उदर के दो भाग अन्न से पूर्ण करे और एक भाग को जल से पूर्ण करे और चौथे भाग को वायु के चलने के लिए शेष रखे।

अन्न एक स्तर पर औषधि, दूसरे पर तृप्ति और तीसरे पर विष है। नारी एक स्तर पर माता, दूसरे पर बहिन या पुत्री और तीसरे पर विषय वासना से भरी हुई रमणी है।

परिश्रम से उपार्जित अन्न खाकर साधना करने से ही उसकी सफलता होती है। पराया अन्न खाकर योगाभ्यास करने से कर्ता को मिलने वाला प्रतिफल उस अन्न दाता को चला जाता है। इसी प्रकार यदि वह पाप उपार्जित धन हुआ तो उस पाप से भी अन्न खाने वाले को पापी बनना पड़ता है। अस्तु साधक स्व उपार्जित अन्न पर निर्वाह करें। जिन कुटुम्बियों का भरण पोषण किया है उनसे अपना अनुदान वापस माँगे। यदि दान पर ही निर्वाह करना हो तो बदले में लोक सेवा के लिए परिश्रम करके उस ऋण से छुटकारा प्राप्त करें। भोजन करने के नाम पर मुफ्त का माल खाते रहने वालों को साधना की सिद्धि नहीं मिलती । कहा भी है-

यस्यान्नेन तु पुष्टांगों जपं होमं समाचारेत्।

अन्नदातु फलस्यार्धं चार्ध कर्तुर्न संशयः॥

- कुलार्णव तंत्र

दूसरे के अन्न से पेट भरकर जप, हवन आदि करने वाले साधक का आधा फल उसके लिए चला जाता है जिसका अन्न खाया है।

यो यस्यान्न समश्नाति स तस्याश्नाति किविषम्

- कूर्स पुराण।

अर्थात् जो जिसके अन्न को खाता है वह उसके पापों को भी खा लिया करता है।

ऋग्वेद 10।117।6 में स्व उपार्जित धन का एक महत्त्वपूर्ण अंश परमार्थ प्रयोजनों में लगाने के उपरान्त ही शेष यज्ञावशिष्ठ को खाने का विधान है। जो अपनी कमाई आप ही खाता रहता है उसका अंशदान परमार्थ प्रयोजनों में नहीं लगता वह कृपण व्यक्ति एक प्रकार से पाप ही खाता है। भले ही वह स्व उपार्जित क्यों न हो? कहा गया है-

जो अपनी कमाई आप ही खाता रहता है वह मूर्ख मनुष्य एक प्रकार से पाप ही खाता


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