कुण्डलिनी और अध्यात्मिक काम विज्ञान

May 1977

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कुण्डलिनी विज्ञान में मूलाधार को योनि और सहस्रार को लिंग कहा गया है। यह सूक्ष्म तत्त्वों की गहन चर्चा है। इस वर्णन में काम क्रीड़ा एवं शृंगारिकता का काव्य मय वर्णन तो किया गया है, पर क्रिया प्रसंग में वैसा कुछ नहीं है। तन्त्र ग्रन्थों में उलट भाषियों की तरह मद्य, माँस, मीन, मुद्रा और पाँचवाँ ‘मैथुन’ भी साधना प्रयोजनों में सम्मिलित किया गया है। यह दो मूल सत्ताओं के संभोग नहीं जोड़ा गया है। यों यह सूक्ष्म अध्यात्म सिद्धान्त रति कर्म पर भी प्रयुक्त होते, दाम्पत्य स्थिति पर भी लागू होते हैं। दोनों के मध्य समता की, आदान-प्रदान की स्थिति जितनी ही संतुलित होगी उतना ही युग्म को अधिक सुखी, सन्तुष्ट समुन्नत पाया जायेगा।

मूलाधार में कुण्डलिनी शक्ति शिव लिंग के साथ लिपटी हुई प्रसुप्त सर्पिणी की तरह पड़ी रहती है। समुन्नत स्थिति में इसी मूल स्थिति का विकास हो जाता है। मूलाधार मल मूल स्थानों के निष्कृष्ट स्थान से ऊँचा उठकर मस्तिष्क के सर्वोच्च स्थान पर जा विराजता है। छोटा सा शिव लिंग मस्तिष्क में कैलाश पर्वत बन जाता है। छोटे सा शिव लिंग मस्तिष्क में कैलाश पर्वत बन जाता है। छोटे से कुण्ड को मान सरोवर रूप धारण करने का अवसर मिलता है प्रसुप्त सर्पिणी जागृत होकर शिव कंठ से जा लिपटती है और शेषनाग के परिक्रमा

रूप में दृष्टि गोचर होती है। मुँह बन्द कली खिलती है और खिले हुए शतदल कमल के सहस्रार के रूप में उसका विकास होता है। मूलाधार में तनिक सा स्थान था, पर ब्रह्मरंध्र का विस्तार तो उससे सौगुना अधिक है।

सहस्रार को स्वर्ग लोक का कल्पवृक्ष- प्रलय काल में बचा रहने वाला अक्षय वट-गीता का ऊर्ध्व मूल अधःशाखा वाला अश्वत्थं- भगवान बुद्ध को महान् बनाने वाला बोधि वृक्ष कहा जा सकता है। यह समस्त उपमाएँ ब्रह्मरन्ध्र में निवास करने वाले ब्रह्म बीज की ही है। वह अविकसित स्थिति में मन बुद्धि के छोटे मोटे प्रयोजन पूरे करता है, पर जब जागृत स्थिति में जा पहुँचता है तो सूर्य के समान दिव्य सत्ता सम्पन्न बनता है। उसके प्रभाव से व्यक्ति और उसका संपर्क क्षेत्र दिव्य आलोक से भरा पूरा बन जाता है।

ऊपर उठना पदार्थ और प्राणियों का धर्म है। ऊर्जा का ऊष्मा का स्वभाव ऊपर उठना और आगे बढ़ना है। प्रगति का द्वार बन्द रहे तो कुण्डलिनी शक्ति कामुकता के छिद्रों से रास्ता बनाती और पतनोन्मुख रहती है। किन्तु यदि ऊर्ध्वगमन का मार्ग मिल सके तो उसका प्रभाव परिणाम प्रयत्न कर्ता को परम तेजस्वी बनने और अन्धकार में प्रकाश उत्पन्न कर सकने की क्षमता के रूप में दृष्टिगोचर होता है।

कुण्डलिनी को प्रचण्ड क्षमता स्थूल शरीर में ओजस् सूक्ष्म शरीर में तेजस और कारण शरीर में वर्चस् के रूप में प्रकट एवं परिलक्षित होती है। समग्र तेजस्विता को इन तीन भागों में दृष्टिगोचर होते देखा जा सकता है। इस अंतःक्षमता का एक भौंड़ा सा उभार और कार्य काम-वासना के रूप में देखा जा सकता है। कामुकता अपने सहयोगी के प्रति कितना आकर्षणात्मा, भाव उत्पन्न करती है। संभोग कर्म में सरसता अनुभव होती है। सन्तानोत्पादन जैसी आश्चर्यजनक उपलब्धि सामने आती है। यह एक छोटी सी इन्द्रिय पर इस अन्तः क्षमता का आवेश छा जाने पर उसका प्रभाव कितना अद्भुत होता है यह आँख पसारकर हर दिशा में देखा जा सकता है। मनुष्य का चित्त, श्रम, समय एवं उपार्जन का अधिकांश भाग इसी उभार को तृप्त करने का ताना बाना बुनने में बीतता है। उपभोग की प्रतिक्रिया सन्तानोत्पादन के उत्तरदायित्व निभाने के रूप में कितनी महँगी और भारी पड़ती है यह प्रकट तथ्य किसी से छिपा नहीं है। यदि इसी सामर्थ्य को ऊर्ध्वगामी बनाया जा सके तो उसका प्रभाव देवोपम परिस्थितियाँ सामने लाकर खड़ी कर सकता है।

मेरी दृष्टि से जननेन्द्रियों को काम वासना एवं रति प्रवृत्ति के लिए उत्तरदायी माना जाता है। पर वैज्ञानिक गहन अन्वेषण से यह तथ्य सामने आता है कि नर-नारी के प्रजनन केन्द्रों का सूत्र संचालन मेरुदण्ड के सुषुम्ना केन्द्र से होता है। यह केन्द्र नाभि की सीध में है। हैनरी आस्ले कृत ‘नोट्स आन फिजयालोजी’ ग्रन्थ में इस संदर्भ में विस्तृत प्रकाश डाला गया है। उसमें उल्लेख है कि - नर नारियों के प्रजनन अंगों के संकोच एवं उत्तेजना का नियन्त्रण मेरुदंड के ‘लम्बर रीजन’ (निचले क्षेत्र) में स्थित केन्द्रों से होता है। इस दृष्टि से कामोत्तेजना के प्रकटीकरण का उपकरण मात्र जननेन्द्रिय रह जाती है।

उसका उद्गम तथा उद्भव केन्द्र सुषुम्ना संस्थान में होने से वह कुण्डलिनी की ही एक लहर सिद्ध होती है। यह प्रवाह जननेन्द्रिय की ओर उच्च केन्द्रों को मोड़ देने की प्रक्रिया ही इस महाशक्ति की साधना के रूप में प्रयुक्त होती है।

नैपोलियन हिल ने अपनी पुस्तक ‘थिंक एन्ड ग्रो रिंच’ में काम शक्ति के सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण प्रकाश डाला है। वे सैक्स एनर्जी को मस्तिष्क और शरीर दोनों को समान रूप से प्रभावित करने वाली एक विशेष शक्ति मानते हैं यह मनुष्य को प्रगति की दिशा में बढ़ चलने के लिए प्रेरणा देती है।

सामान्यतया उसका उभार इन्द्रिय मनोरंजन मात्र बनकर समाप्त होता रहता है। जमीन पर फैले हुए पानी की भाप भी ऐसे ही उड़ती और बिखरती भटकती रहती है, पर यदि उसका विवेकपूर्ण उपयोग किया जा सके तो भाप द्वारा भोजन पकाने से लेकर रेल का इंजन चलाने जैसे असंख्यों उपयोगी काम लिये जा सकते हैं। काम शक्ति के उच्चस्तरीय सृजनात्मक प्रयोजन अनेकों हैं कलात्मक गतिविधियों में- काव्य जैसी कल्पना सम्वेदनाओं में - दया, करुणा एवं उदार आत्मीयता की साकार बनाने वाली सेवा साधना में- एकाग्र तन्मयता से सम्भव होने वाले शोध प्रयत्नों में प्रचंड पराक्रम के रूप में प्रकट होने वाले शौर्य साहस में गहन आध्यात्मिक क्षेत्र से उद्भूत श्रद्धा भक्ति से उसे नियोजित किया जा सकता है।

कामेच्छा एक आध्यात्मिक भूख है। वह मिटाई नहीं जा सकती। निरोध करने पर वह और भी उग्र होती हैं। बहते हुए पानी को रोकने से वह धक्का मारने की नई सामर्थ्य उत्पन्न करता है। आकाश में उड़ती हुई बन्दूक की गोली स्वयमेव शान्ति होने की स्थिति तक पहुँचने से पहले जहाँ भी रोकी जायेगी वहीं आघात लगावेगी और छेद कर देगी। काम शक्ति को बलपूर्वक रोकने से कई प्रकार के शारीरिक और मानसिक उपद्रव खड़े होते हैं इस तथ्य पर फ्रायड से लेकर आधुनिक मनोविज्ञानियों तक ने अपने-अपने ढंग से प्रकाश डाला है और उसे सृजनात्मक प्रयोजनों में नियोजित करने का परामर्श दिया है। एक और से मन हटकर दूसरी और चला जाये। एक का महत्त्व गिरा कर दूसरे की गरिमा पर विश्वास कर लिया जाय, आकांक्षा एवं अभिरुचि का प्रवाह मोड़ने में विशेष कठिनाई उत्पन्न नहीं होती। ब्रह्मचर्य का वैज्ञानिक स्वरूप यही है। अतृप्ति-जन्य अशान्ति से बचने तथा क्षमता का सदुपयोग करके सत्परिणामों का लाभ देने का एक ही उपाय है कि कामेच्छा प्रवृत्ति को सृजनात्मक दिशा में मोड़ा जाय।

कलात्मक प्रयोजनों में संलग्न होने से उसके भौतिक लाभ मिल सकते हैं। अध्यात्म क्षेत्र में उसे भाव संवेदना के लिए ‘भक्ति भावना के रूप में तथा प्रबल पुरुषार्थ की तरह तपोमयी योग साधना में लगाया जा सकता है। दोनों की प्रसुप्त स्थिति को समाप्त कर साहसिक संवेदना उभारना कुण्डलिनी जागरण प्रक्रिया अपनाने से सहज सम्भव हो सकता है।

धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष यह जीवन के चार परम प्रयोजन है। काम का अर्थ सामान्यतया रति कर्म समझा जाता है, पर परम प्रयोजनों में उसका अर्थ विनोद, उल्लास आनन्द माना जाता है। यह रसानुभूति दो पूरक तत्त्वों के मिलन द्वारा उपलब्ध होती है। ऋण और धन-विद्युत प्रवाह मिलने से गति उत्पन्न होती हैं रति और प्राणतत्त्व के मिलन से सृष्टि के प्राणि उत्पादनों की सृष्टि होती हैं प्रकृति पुरुष की तरह नर और नारी को भी परस्पर पूरक माना गया है। मानवी सत्ता में भी दो पूरक सत्ताएँ काम करती है इन्हें नर और नारी का प्रतिनिधि मानते हैं। नारी सत्ता मूलाधार में अवस्थित कुण्डलिनी है और नर तत्त्व सहस्रार स्थित परब्रह्म है। इन्हीं को शक्ति और शिव भी कहते हैं। इनका मिल नहीं कुण्डलिनी जागरण का लक्ष्य है। इस संयोग से उत्पन्न दिव्य धारा को भौतिक क्षेत्र ऋद्धि- सिद्धि और आत्मिक क्षेत्र में स्वर्ग मुक्ति कहते हैं। आत्म साक्षात्कार एवं ब्रह्म निर्माण का लक्ष्य भी यही है।

अथर्व वेद में भगवान के काम रूप से जीवन में अवतरित होने की प्रार्थना की गई है।

यास्ते शिवास्तन्वः काम भद्रायाभिः सत्यं भवित

यद्वृषीणे ताभिष्ट्वमस्मां अभिं सवंशास्वयान्यत्रपापी रपवेशयाधियः।

- अथर्व

हे परमेश्वर तेरा काम रूप भी श्रेष्ठ और कल्याण कारक है उसका चयन असत्य नहीं है। आप काम रूप से हमारे भीतर प्रवेश करें और पाप बुद्धि से छुड़ाकर हमें निष्पाप उल्लास की ओर ले चलें।

कुण्डलिनी महा शक्ति को प्रकृति का निरूपण करते हुए शास्त्रकारों ने उसे 'काम बीज’ एवं ‘काम कला’ दोनों शब्दों का प्रयोग किया है। इन शब्दों का अर्थ कामुकता काम क्रीड़ा या काम शास्त्र जैसा तुच्छ यहाँ नहीं लिया गया है। इस शक्ति को प्रकृति उत्साह एवं उल्लास उत्पन्न करना है। यह शरीर और मन की उभय-पक्षीय अग्रगामी स्फुरणाएं है। यह एक मूल प्रकृति हुई। दूसरी पूरक प्रकृति। मूलाधार को काम बीज कहा गया है और सहस्रार का ‘ज्ञान बीज’। दोनों के समन्वय से विवेक युक्त क्रिया बनती है। इसी पर जीवन को सर्वतोमुखी विकास निर्भर है। कुण्डलिनी साधना से इसी सुयोग संयोग की व्यवस्था बनाई जाती है।

प्रत्येक शरीर में नर और मादा दोनों ही तत्त्व विद्यमान् है। शरीर शास्त्रियों के अनुसार प्रत्येक प्राणी में उभय-पक्षीय सत्ताएँ मौजूद है। इनमें से जो उभरी रहती है उसी के अनुसार शरीर की लिंग प्रकृति बनती है। संकल्प पूर्वक इस प्रकृति को बदला भी जा सकता है। छोटे प्राणियों में उभयलिंगी क्षमता रहती है। वह एक ही शरीर से समयानुसार दोनों प्रकार की आवश्यकताएँ पूरी कर लेता है।

मनुष्यों में ऐसे कितने ही पाये जाते हैं जिनकी आकृति जिस वर्ग की है, प्रकृति उससे भिन्न वर्ग की होती है। नर को नारी की और नारी को नर की भूमिका निबाहते हुए बहुत बार देखा जाता है। इसके अतिरिक्त लिंग परिवर्तन की घटनाएँ भी होती रहती है। शल्य क्रिया के विकास के साथ-साथ अब इस प्रकार के उलट-पुलट होने के समाचार संसार के कोने -कोने से मिलते रहते हैं। अमुक नर नारी बन गया और नारी ने नर के रूप में अपना गृहस्थ नये ढंग से चलाना आरम्भ कर दिया।

दोनों में एक तत्त्व प्रधान रहने से ढर्रा तो चलता रहता है, पर एकांगी पर बना रहता है। नारी कोमलता, सहृदयता, कलाकारिता जैसे भावात्मक तत्त्व का नर में जितना अभाव होगा उतना ही वह कठोर, नीरस, निष्ठुर रहेगा और अपनी बलिष्ठता, मनस्विता के पक्ष के सहारे क्रूर, कर्कश बन कर अपने और दूसरों के लिए अशान्ति ही उत्पन्न करता रहेगा। नारी में पौरुष का अभाव रहा तो वह आत्म हीनता की ग्रन्थियों से ग्रसित अनावश्यक संकोच में डूबी, कठ-पुतली या गुड़िया बनकर रह जायेगी। आवश्यकता इस बात की है कि दोनों ही पक्षों में सन्तुलित मात्रा रयि और प्राण के तत्त्व बने रहें। कोई पूर्णतः एकांगी बनकर न रह जाय। जिस प्रकार

बाह्य जीवन में नर-नारी सहयोगी की आवश्यकता रहती है उसी प्रकार अन्तः क्षेत्र में भी दोनों तत्त्वों का समुचित विकास होना चाहिए। तभी एक पूर्ण व्यक्तित्व का विकास सम्भव हो सकेगा। कुण्डलिनी जागरण से उभय-पक्षीय विकास की पृष्ठभूमि बनती है।

मूलाधार चक्र में काम शक्ति को स्फूर्ति, उमंग एवं सरसता का स्थान माना गया है। इसलिए उसे काम संस्थान कहते हैं। जहाँ-तहाँ उसे योनि संबा भी दी गई है। नामकरण जननेन्द्रिय के आकार के आधार पर नहीं उस केन्द्र में सन्निहित रयि शक्ति को ध्यान में रखकर किया गया है।

आधाराख्ये गुदास्थाने पंकजू च चतुर्दलम्।

तन्मध्ये प्रोच्यते योनिः कामाख्या सिद्धवंदिता-गोरक्षा पद्धति

गुदा के समीप मूलाधार कमल के मध्य योनि है। उस कामाख्या पीठ कहते हैं। सिद्ध योगी इसकी उपासना करते हैं।

अपाने मूल कन्दाख्यं काम रुपं च तज्जगुः।

तदेव वहिन कुण्डंस्यात् तत्व कुण्डलिनी तथा॥

- योग राजोपनिषद्

मूलाधार चक्र में कन्द है। उसे काम रूप-काम बीज-अग्नि कुण्ड कहते हैं। यही कुण्डलिनी का स्थान है।

देवी हयेकाऽग्र आसीत्। सैव जगदण्डमसृजत।

कामकलेति विज्ञायते श्रृंगारकलेति विज्ञायतें।

- वृहवृचोपनिषद् 1

उसी दिव्य शक्ति से यह जगत् मंडल सृजा। वह उस सृजन से पूर्व भी थी वही काम कला है। सौंदर्य कला भी उसी को कहते हैं।

यतद्गुहयामिति प्रोक्तं देवयोनिस्तु सोच्यतें।

अस्याँ यो जायते वहिः स कल्याण प्रदुच्यतें॥

- कात्यान स्मृति

गुहम स्थान में देव योनि है। उससे जो अग्नि उत्पन्न होती है उसे परम कल्याणकारिणी समझना चाहिए।

आधारं प्रथम चक्रं स्वाधिष्ठानं द्वितीयकम्।

योनित स्थानं द्वयोर्मघ्ये काम रुपं निगद्यते॥

- गोरथ पद्धति

पहला चक्र मूलाधार है दूसरा स्वाधिष्ठान। दोनों के मध्य योनि स्थान है। उसे काम रूप भी कहते हैं।

कामी कलां काम रुपां चिक्रित्वा

नरो जायते काम रुपश्व कामः।

- त्रिपुरोपनिषद्

यह महाशक्ति काम रूप है। उसे काम कला भी कहते हैं। जो उसकी उपासना करता है सो काम रूप हो जाता है। उसकी कामनाएँ फलवती होती है।

सहस्रार को कुण्डलिनी विज्ञान में महालिंग की संज्ञा दी गई है। यहाँ भी जननेन्द्रिय आकार को नहीं वरन् उस केन्द्र में सन्निहित प्राण पौरुष का ही संकेत है।

तत्रस्थितो महालिंग स्वयं भुः सर्वदा सुखी।

अधोमुखः क्रियावांक्ष्य काम बीजो न चलितः।

- काली कुलामृत

ब्रह्म रंध्र में वह महालिंग अवस्थित है। वह स्वयं भू और स्वरूप है। इसका मुख नीचे की और है। वह निरन्तर क्रियाशील है। काम बीज द्वारा उत्तेजित होता है।

स्वयंभु लिंग तन्मध्ये संरंध्र परिश्मावलम्

ध्यायेश्व परमेशक्ति शिवं श्यामल सुन्दरम्॥

- शाक्तानन्द तरंगिणी

ब्रह्म रंध्र के मध्य स्वयंभू महालिंग है। इसका मुख नीचे की ओर है। वह श्यामल और सुन्दर है। उसका ध्यान करें।

काम बीज और ज्ञान बीज के मिलने से जो आनन्दमयी परम कल्याणकारी भूमिका बनती है उसमें मूलाधार और सहस्रार का मिलन संयोग ही आधार माना गया है। इसी मिलाप को साधना की सिद्धि कहा गया है। इस स्थिति को दिव्य मैथुन की संज्ञा भी दी गई है। इस स्थिति को दिव्य मैथुन की संज्ञा भी दी गई है।

सहस्त्रो परिविन्दौ कुण्डल्यां मेलनं शिवे।

मैथुनं शयनं दिव्यं यतीनां परिकीर्तितत्॥

- योगिनी तन्त्र

पार्वती, सहस्रार में जो कुल और कुण्डलिनी का मिलन होता है, उसी को यतियों ने दिव्य मैथुन कहा है।

पर शक्त्यात्म मिथुन संयोगानन्द निर्गराः।

मुक्तात्म मिथुनंतत् स्त्यादितर स्त्री निवेषकाः।

- तन्त्र सार

आत्मा को- परमात्मा को प्रगाढ़ आलिंगन में आबद्ध करके परम रस का आस्वादन करना ही यही यतियों का मैथुन है।

सुषम्नाशक्ति सुदृष्टा जीवोऽयंतु परः शिवः।

तयोस्तु संगमे देवैः सुरतं नाम कीतितम्।

- तन्त्र सार

सुषम्नाशक्ति सुदृष्टा जीवोऽयंतु परः शिवः।

तयोस्तु संगमे देवैः सुरतं नाम कीर्तितम्॥

- तन्त्र सार

सुषुम्ना शक्ति और ब्रह्मरंध्र शिव है। दोनों के समागम को मैथुन कहते हैं।

यह संयोग आत्मा और परमात्मा के मिलन एकाकार की स्थिति भी उत्पन्न करता है। जीव को योनि और ब्रह्म को वीर्य संज्ञा देकर उनका संयोग भी परमानन्ददायक कहा गया है-

एष बीजी भवान् वीज महंयोनिः सनातनः।

- वायु पुराण

जीव ने ब्रह्म से कहा- आप बीज है। मैं योनि हूँ यही क्रम सनातन से चला आ रहा है।

शिव और शक्ति के संयोग का रूपक भी इस संदर्भ में दिया जाता है। शक्ति को रज और शिव को बिन्दु की उपमा दी गई है। दोनों के मिलन के महत्त्वपूर्ण सत्परिणाम बताये गये है।

विन्दुः शिवो रजः शक्ति श्चन्द्रोविन्दु रजोरविः।

अनयोः संगमा देव प्राप्यते परमं पदम्॥

- गोरक्ष पद्धति

बिन्दु शिव और रज शक्ति। यही सूर्य, चन्द्र हैं। इनका संयोग होने पर परम पद प्राप्त होता है।

बिन्दुः शिवो रजः शक्तिभयोर्मिलनात् स्वयम्।

- शिव संहिता 1।100

बिन्दु शिव रूप और रज शक्ति रूप है। दोनों का मिलन स्वयं महाशक्ति का सृजन है ।

योनि वेदी उमादेवी लिंग पीठ महेश्वर-लिंग पुराण

योनि वेदी उमा है और लिंग पीठ महेश्वर।

जतवेदाः स्वयं रुद्रः स्वाहा शर्वार्धकायिनी।

पुरुषाख्यो मुनः शभुः शतरुपा शिवप्रिया॥

- लिंग पुराण

जातवेदा अग्नि स्वयं रुद्र है और स्वाहा अग्नि वे महाशक्ति हैं उत्पादक परम पुरुष शिव है और श्रेष्ठ उत्पादनकर्ती शतरूपा एवं शिवा है।

अहं बिन्दू रजः शक्तिरुभयोर्मेलनं यदा।

योगिनाँ साधनावस्था भवेदिव्यं व पुस्तदा॥

शिव संहिता 4। 87

शिव रूपी बिन्दु, शक्ति रूपी रज इन दोनों का मिलन होने से योग साधक को दिव्यता प्राप्त होती हैं।

ब्रह्म का प्रत्यक्ष रूप प्रकृति और अप्रत्यक्ष भाग पुरुष है। दोनों के मिलने से ही द्वैत का अद्वैत में विलय होता है। शरीरगत दो चेतन धाराएँ रयि और प्राण कहलाती है। इनके मिलन संयोग से सामान्य प्राणियों को उस विषयानन्द की प्राप्ति होती है जिसे प्रत्यक्ष जगत की सर्वोपरि सुखद अनुभूति कहा जाता है। ऋण और धन विद्युत घटकों के मिलन से चिनगारियाँ निकलती और शक्ति धारा बहती है। पूरक घटकों की दूरी समाप्त होने पर सरसता और सशक्तता की अनुभूति प्रायः होती रहती है।

चेतना के उच्चस्तरीय घटक मूलाधार और सहस्रार के रूप में विलग पड़े रहे तभी तक अन्धकार की नीरस गति हीनता की स्थिति रहेगी। मिलन का प्रतिफल सम्पदाओं और विभूतियों के - ऋद्धि और सिद्धि के रूप में सहज ही देखा जा सकता है। इन उपलब्धियों की अनुभूति में आत्म-परमात्मा का मिलन होता है। और उसकी सम्वेदना ब्रहमानन्द के रूप में होती है, इस आनन्द को विषयानन्द से असंख्य गुने उच्चस्तर का माना गया है।

शिव पार्वती विवाह का प्रतिफल दो पुत्रों के रूप में उपस्थित हुआ था। एक का नाम गणेश, दूसरे का कार्तिकेय। गणेश को प्रज्ञा का देवता माना गया हैं और स्कन्द को शक्ति का। दुर्दान्त, दस्यु, असुरों को निरस्त करने के लिए कार्तिकेय का अवतरण हुआ था। उनके इस पराक्रम ने संत्रस्त देव समाज का परित्राण किया। गणेश ने माँस पिण्ड मनुष्य को सद्ज्ञान, अनुदान देकर उसे सृष्टि का मुकुट-मणि बनाया। दोनों ब्रह्मकुमार शिव शक्ति के-समन्वय के प्रतिफल है। शक्ति कुण्डलिनी- शिव सहस्रार दोनों का संयोग कुण्डलिनी जागरण कहलाता है यह पुण्य-प्रक्रिया सम्पन्न होने पर अन्तरंग ऋतम्भरा प्रज्ञा से और बहिरंग प्रखरता से भर जाता है। प्रगति के पथ पर इन्हीं दो चरणों के सहारे जीवन यात्रा पूरी होती है और चरम लक्ष्य की पूर्ति सम्भव बनती है।

गणेश जन्म के समय शिव जी ने उनका परिचय पार्वती को कराया ओर उसे उन्हीं हाथों में सौंप दिया।

इसका विवरण वामन पुराण में इस प्रकार आया है-

यस्माज्जातस्ततौ नाम्ना भविष्यति विनायकः।

एष विघ्नसहस्त्रांणि देवादीनां हनिष्यति॥

पूजयिज्यन्ति देवाश्च देवि लोकाश्चराचरा।

इत्येवमुक्त्वा देवास्तु दत्तवांस्तनयं स हि॥

- वामन पुराण

इस पुत्र ज्ञान पुत्र का नाम विनायक गणेश ही होगा यह देवों के सहस्रों विघ्नों का हनन करेगा। हे देवि! सब चर-अचर लोक और देवगण इसकी पूजा करेंगे। इतना कह कर शिव ने वह पुत्र देवी को दे दिया था।

स्कन्दोऽथवदनाद्वहनेः शुभ्रात्षडवदनोऽरिहा।

निश्चक्रामोद्भूतो बालो रोगशोक विनाशनः॥

पद्य पुराण

तब छः मुख वाले कुमार स्कन्द उत्पन्न हुए। वे अद्भुत और शोक सन्ताप विनाशक थे।

आद्य शंकराचार्य कृत, सौंदर्य लहरी में षट्चक्रों एवं सातवें सहस्रार का वर्णन है और उस परिकर को कुण्डलिनी क्षेत्र बताया हैं। मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत और विशुद्ध चक्रों को पाँच तत्त्वों का प्रतीक माना है और आज्ञाचक्र तथा सहस्रार को ब्रह्म चेतना का प्रतिनिधि बताया है। पाँच तत्त्वों का वेधन करने पर किस प्रकार कुण्डलिनी शक्ति की पहुँच ब्रह्मलोक तक होती है और परब्रह्म के साथ बिहार करती है इसका वर्णन 9 वें श्लोकों में इस प्रकार है-

महीं मूलाधारे कमपि मणिपूरे हुतवंह

स्थित स्वधिष्ठाने हृदि मरुत माकाशमुपरि।

मनोअपि भ्रु मध्ये सकलमापिभित्वा कुल पथं,

सहस्त्रारे पद्ये सहरहसि पत्या विहरसि॥

अर्थात्-हे कुण्डलिनी, तुम मूलाधार में पृथ्वी को, स्वाधिष्ठान में अग्नि की, मणिपुर में जल का अनहित में वायु को विशुद्ध में आकाश को वेधन करती हुई आज्ञाचक्र में मन को प्रकाश देती हो, तदुपरान्त सहस्रार कमल में परमब्रह्म के साथ बिहार करती हो।

अवाष्य स्वां भूमि, भुजगानिभमध्युष्ट वलयं।

स्वमात्मानं कृत्वां, स्वापिषि कुल कुण्उ कुहरिणि।

- सौंदर्य लहरी 10

सर्पिणी की तरह कुण्डली मार कर तुम्हीं मूलाधार चक्र के कुल कुण्ड में शयन करती हो।

अविद्या नामत, स्तामिरामिहिरोदीपन करो।

जडानाँ चतैन्य, स्तवक मरकन्द श्रुति शिरा॥

दरिद्राणां चिन्ता मणि गुणनिका जन्य जलधौ।

निमग्नानां दुष्ट्रा, मुररि पुवराहस्य भवती॥

- सौंदर्य लहरी

अज्ञानियों के अन्धकार का नाश करने के लिए तुम सूर्य रूप हो, तुम्हीं बुद्धि हीनों में चैतन्यता का अमृत बहाने वाली निर्झरिणी हो, तुम दरिद्री के लिए चिन्तामणि माला और भव सागर में डूबने वालों का सहारा देने वाली नाव हो, दुष्टों के संहार करने में तुम वाराह भगवान् के पैने दाँतों जैसी हो।

सौंदर्य लहरी के 36 से 41 वें श्लोकों में षट्चक्रों के जागरण और कुण्डलिनी उत्थान की प्रतिक्रिया का वर्णन है। इन श्लोकों में कहा गया है कि मूलाधार में ‘विश्व वैभव’ स्वाधिष्ठान में ‘शान्ति शीतलता-मणिपुर में अमृत वर्षा-अनाहत में ऋतम्भरा प्रज्ञा और अठारहों विद्या -विशुद्ध में आनन्ददायी दिव्य ज्योति की सिद्धियाँ भरी है। आज्ञाचक्र में शिवत्व और सहस्रार में महा मिलन का संकेत है। इन उपलब्धियों का समन्वय इतना महान् है जिसे ऋषित्व एवं देवत्व भी कहा जा सकता है। अपूर्णता से आगे चलकर पूर्णता प्राप्त कर सकना इसी मार्ग का आश्रय लेने से सम्भव होने की बात इन श्लोकों में कही गई है।

कुण्डलिनी महाशक्ति के अनुग्रह से स्वयं आद्य शंकराचार्य किस प्रकार सामान्य द्रविड़ बालक से महामानव बन सके इसका उल्लेख करते हुए उन्होंने स्वानुभूति इस प्रकार व्यक्त की है-

तवस्तन्यं मन्ये धरिण धरकन्ये हृदयतः।

पथः पारावारः परिवहति सारस्वतमिव।

दयावत्या दत्त द्रविड शिशुरास्वाद्य तवयत्।

कबीनाँ प्रौढानामजनि कमनीयाः कवयिता।

- सौंदर्य लहरी

तेरे स्तनों से बहने वाले ज्ञानामृत रूपी पय-पान करके यह द्रविण (शंकराचार्य ) शिशु प्रौढ़ कवियों जैसी कमनीय काव्य रचना में समर्थ हो गया।


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