तीर्थ यात्रा क्यों और कैसे?

May 1977

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धार्मिक श्रेष्ठ सत्कर्मों में तीर्थ यात्रा को अग्रणी माना गया है। उसके दो प्रतिफल माने गये है। 1. पाप नाश 2. पुण्य फल की प्राप्ति। पाप नाश का अर्थ है दुष्कर्मों कर प्रायश्चित। प्रायश्चित का अर्थ है किये हुए पापों का स्वेच्छा पूर्वक दंड भुगत लेना मात्र किसी नदी, सरोवर में शरीर को स्नान करा लेन का इतना ही उद्देश्य है कि शरीर को स्नान करा लेने का इतना ही उद्देश्य है कि शरीर की तरह अन्तःकरण एवं आचरण को भी पवित्र बनाने की उमंग उठे। यह उमंग जितनी व्यवहार में उतरेगी उतनी ही पवित्रता बढ़ेगी, पुण्य सम्पादित होगा। उससे जो लोक हित होता है उसके फलस्वरूप पिछले पापों का भुगतान होता है। समाज की जो क्षति पहुँचाई थी उसकी क्षति पूर्ति किये हुये पुण्य कर्मों से होती है। इस दिशा में नदी, सरोवरों के स्नान से, देव दर्शन से, तीर्थ यात्रा से जो प्रेरणा मिलती है उसकी प्रतिक्रिया पाप वृत्ति का परित्याग करने के रूप में होती है। पाप नाश का अर्थ यह है कि पाप प्रवृत्ति का परित्याग किया जाय। किये हुए दुष्कर्मों की भरपाई करने के लिए उसी अनुपात से लोक हितकारी सत्कर्म करके पिछले दिनों जो हानि की है, उसका सन्तुलन बनाने के लिए कष्ट सहा जाय, श्रम किया जाय और त्याग बलिदान की उदार साहसिकता का परिचय दिया जाय।

तीर्थ यात्रा की दूसरी प्रेरणा है जीवन क्षेत्र में पवित्रता का अभिवर्धन उदारता पूर्वक परमार्थ प्रयोजनों में संलग्न होने से सत्कर्मों की पूँजी बढ़ती है, पुण्य संचय होता है। तीर्थ यात्रा के साथ इस स्तर की जो उमंगें उठती है वे यदि प्रखर हुई तो पुण्य कर्मों में लगाकर ही छोड़ती है। इस तरह प्रकारान्तर से तीर्थ यात्रा का प्रतिफल पुण्य कर्मों द्वारा पुण्य फल संचित कराने में सहायक होता है। यह प्रेरणा ही तीर्थ यात्रा का पुण्य फल सम्पादन का निमित्त बनती हैं इसीलिए उसका वैसा ही माहात्म्य बताया गया है।

तीर्थ यात्रा का वास्तविक स्वरूप धर्म प्रचार के निमित्त की गई पद यात्रा है। इसमें विराम स्थल प्राकृतिक एवं ऐतिहासिक स्थान भी रहते थे। यह मंडलियों सन्त सत्पुरुषों से मार्ग दर्शन भी प्राप्त करती थी। तीर्थों में वैसी सुविधा रहती ही थी। इसलिए विराम, विश्राम, निवास सत्संग के लिए उन विशेष स्थानों में वे टोलियाँ रहती थी। जन मानस का परिष्कार धर्म धारणाओं का विस्तार संसार का सबसे बड़ा पुण्य है। ब्रह्म ज्ञान से, ज्ञान दान से बढ़कर और कोई परमार्थ नहीं माना गया। धर्म प्रचार के निमित्त किया गया यह श्रम, त्याग निश्चित रूप से स्व पर कल्याण का माध्यम और पुण्य फल संचय का साधन बनता था। ऐसा सत्साहस करने वालों के पाप कर्मों का प्रायश्चित होता ही है। पाप नाश और पुण्य फल संचय का जो माहात्म्य तीर्थ यात्रा के साथ जुड़ा हुआ है उसका यही कारण है।

धर्मशास्त्रों में इसी कारण तीर्थ यात्रा के इन दोनों ही माहात्म्यों के प्रतिफलों का स्थान-स्थान पर वर्णन किया है। कहा गया है कि-

अनुपातकिनस्त्वेते महापातकिनो यथा।

अश्वमेधेन शुद्धयन्ति तीर्थानुसरणेन च॥

- विष्णु स्मृति।

पापी, महापापी सभी अश्वमेध से तथा तीर्थानुसरण तीर्थ यात्रा से शुद्ध हो जाते हैं।

नृणाँ पापकृताँ तीर्थे पापस्य शमनं भवेत्।

यथोक्त फलदं तीर्थ भवेच्छुद्धात्मनाँ नृणाम्॥

पापी मनुष्यों के तीर्थ में जाने से उनके पाप की शान्ति होती हैं जिनका अन्तःकरण शुद्ध है, ऐसे मनुष्यों के लिए तीर्थ यथोचित फल देने वाला है।

तीर्थान्यनुसरन् धीरः श्रध्यानः समाहित।

कृतपापो विशुद्धचेत कि पुनः शुद्ध कर्मकृत्॥

जो तीर्थों का सेवन करने वाला, धैर्यवान्, श्रद्धायुक्त और एकाग्र चित है, वह पहले का पापाचारी हो तो भी शुद्ध हो जाता है, फिर जो शुद्ध कर्म करने वाला है, उसकी तो बात ही क्या है?

कामक्रोध च लोभं चयो जित्वा तीर्थभाविशेत्।

न तेन किचिदप्राप्तं तीर्थाभिगमनाद् भवेत्॥

जो काम, क्रोध और लोभ को जीतकर तीर्थ में प्रवेश करता है, उसे तीर्थ यात्रा से कोई भी वस्तु अलभ्य नहीं रहती ।

तीर्थानि च यथोक्तेन विधिना संचरनित ये।

सर्वद्वन्दसहा धीरास्ते नराः र्स्वगगामिनः॥

जो यथोचित विधि से तीर्थ यात्रा करते हैं, सम्पूर्ण द्वन्द्वों को सहने करने वाले वे धीर पुरुष स्वर्ग में जाते हैं।

यावंत स्वस्थोऽस्ति में देहो यावन्नेद्रिय विक्लवः तावतस्वश्रेयसां हेतु तीर्थयात्रां करोम्यहम्॥

जब तक मेरा शरीर स्वास्थ्य है, जब तक आँख, कान आदि इन्द्रियाँ सक्रिय है तब तक श्रेय प्राप्ति के लिए तीर्थ यात्रा करते रहने का निश्चय करें।

तीर्थानि च यथोक्तेन विधिना संचरन्ति ये।

सर्वद्वन्द्व सहा धीरास्ते नराः र्स्वगगामिनः॥

- नारद पुराण

जो यथोक्त विधि से तीर्थ यात्रा करते हैं, सम्पूर्ण द्वन्द्वों को सहन करने वाले वे धीर पुरुष स्वर्ग में जाते हैं। विचारणीय यह है कि क्या तीर्थ यात्रा, मात्र नदी, सरोवरों, का स्नान, देव प्रतिमाओं का दर्शन या क्षेत्र विशेष का पर्यटन की प्रक्रिया भर है या उसके पीछे कोई लक्ष्य विशेष भी सन्निहित हैं। यदि कोई पुण्य फल दायक और पाप निवारक क्रिया कलाप- सन्निहित न हों तो पर्यटन दृश्य या स्पर्श मात्रा के आधार पर आत्म-कल्याण जैसे महान् प्रयोजन की पूर्ति कैसे हो सकती थी? यदि परमार्थ इतना ही सस्ता रहा होता तो फिर कोई तप तितीक्षा का कष्ट साध्य मार्ग अपनाने के लिए क्यों तैयार होता। स्पष्ट है कि तीर्थ यात्रा के पीछे वे तत्त्व सन्निहित होने चाहिए जो व्यक्तिगत जीवन को परिष्कृत करने तथा लोक कल्याण की सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन की भूमिका निभा सके। यह नितान्त भ्रम ही है कि किसी स्थान विशेष में जैसे तैसे जा पहुँचने में तीर्थ यात्रा का पुण्य फल मिल सकता है। इस भ्रम का निवारण करते हुए शास्त्रकार कहते है-

न तोय पूतदेहस्य स्नानामित्यमिधीयते।

स स्नातो यस्यं वै पुसः सुविशुद्धं मनोमतम्॥

- स्कन्द पुराण

जल से ऊपरी भाग को धो लेना ही स्नान नहीं है, स्नान तो उसका नाम है, जिससे बाहरी शुद्धि के साथ हम अपनी अन्तःशुद्धि भी कर लें।

न जलाप्लुतदेहस्य स्नानमित्य मिधीयते।

स स्नातो यो दमस्नातः शुचिः शुद्ध मनोमलः॥

जल में शरीर को डूबो लेना ही स्नान नहीं कहलाता जिसने दम रूपी तीर्थ में स्नान किया है- मन इन्द्रियों को वंश में कर रखा है उसी ने वास्तव में स्नान किया है। जिसने मन का मल धो डाला है, वही शुद्ध है।

जायनते च म्रियन्ते च जलेष्वेव जलौकसः।

न च गच्छन्ति ते र्स्वगमविशुद्ध मनोमलाः॥

जल में निवास करने वाले जीव जल में ही जन्मते और मरते हैं, पर उनका मानसिक मल नहीं धुलता इससे वे स्वर्ग को नहीं जाते।

न शरीर मल त्यागान्नरो भवति निर्मलः।

मानसे त मूलत्यक्ते भुवत्यन्तः सुनिर्मलः॥

- महाभारत

केवल शरीर के मैल को उतार देने से ही मनुष्य निर्मल नहीं हो जाता। मानसिक मल का परित्याग करने पर ही वह अत्यन्त निर्मल होता है।

जिसके पीछे सत्प्रवृत्ति संवर्धन जैसा कोई उद्देश्य न हो, मात्र दर्शन पर्यटन तक ही जिसे पूर्ण मान लिया गया हो, ऐसी तीर्थ यात्रा पर व्यंग करते हुए महाभाष्यकार उसे निरर्थक भी बताता और निषेध भी करता है।

समान तीर्थेवासी-

- अष्टाध्यायी 4।4।107

जो छात्र एक गुरु से पढ़ते हैं उन्हें सतीर्थ कहते हैं यथा-

स्माने तीर्थ गुरों वसतीति सतीर्थ्यः।

आचाय गुरु ही तीर्थ है।

वृहर्द्वम पुराण के पूर्व खण्ड में तीर्थ- प्रादुर्भाव नाम के कुछ अध्याय ही हैं। उनके अन्त में यह भाव व्यक्त भी हुआ है-

वनवास गतो रामो यत्र तत्र व्यवस्थितः तानि चोक्तानित तीर्थानि शतमष्टोतरं क्षितौ॥

- वृहर्द्वमद्ध पूर्व खण्ड 14।34

भगवान राम वनवास के समय जहाँ जहाँ रुके वे 108 स्थान तीर्थ कहे गये।

व्रजेवाप्यथवारण्ये यत्रसन्ति बहुश्रुताः

ततन्नगरमित्याहुः पार्थ तीर्थ च तद्भवेत्।

- महा0 वन0

नगर में अथवा वन आरण्यक में जहाँ भी ज्ञानी लोग रहते हैं वहीं स्थान तीर्थ बन जाता है।

भवद्विधा भागवतास्तीर्थी भूताः स्वयं विभो।

तीर्था कुवन्ति तीर्थानि स्वान्तस्थेन गबा मृताः।

- भागवत 1। 13

तीर्थ दो प्रकार के एक दृश्यमान दूसरे अदृश्य। तीर्थ स्वरूप अन्तःकरण स्थान रूपी तीर्थों को पवित्र करते हैं।

दुर्योधन को उपदेश देते हुए उसके शुभ चिन्तक भगवान् कृष्ण को तीर्थ कहते हैं और उनके सम्पर्क से कुल की रक्षा करने का उपदेश देते हैं।

तदलं ते विरोधने शमगच्छ नृपात्मज।

वासुदेवेन तीर्थे न कुलं रक्षितुमर्हसि।

- महा0 उद्योग0

हे राजकुमार! विरोध छोड़ शान्ति ग्रहण कर तू कृष्ण रूपी तीर्थ की शरण में जा और अपने कुल की रक्षा कर।

उपरोक्त उदाहरणों में तीर्थ स्थानों को श्रेय देने वाले ऋषि कल्प महामनीषी ही होते हैं। स्थानों की गरिमा वहाँ निवास करने वाले उन्हीं महा-मानवों की लोकोपयोगी सत्प्रवृत्तियों के कारण नहीं है।

तीर्थ यात्रा के समय भावनाएँ उच्चस्तरीय होनी चाहिए। उस अवधि में आत्म-निर्माण और लोक कल्याण के लिए क्या करना चाहिए? किस प्रकार करना चाहिए? यहाँ चिन्तन, मनन अंतःक्षेत्र में चलता रहे। उस अवधि में अपने गुण कर्म स्वभाव को श्रेष्ठ बनाने का अभ्यास किया जाय। वैसी गतिविधियाँ अपनाई जाये जिससे भविष्य में व्यवहार में उत्कृष्टता का समावेश स्थायी तथ्य बन जाय। इन यात्राओं में चिन्तन और क्रिया-कलाप उच्चस्तरीय रखने से ही तीर्थ यात्रा का फल मिलता है वस्तुतः यह आचरण बन्ध नहीं पुण्यफल का प्रधान कारण है-

जो धनोपार्जन के लिए अनर्थ नहीं करता, जो मिताहारी, जितेन्द्रिय और निष्काम है उसे तीर्थ का फल मिलता है। जो क्रोध रहित है और शुद्ध बुद्धि युक्त है, सत्य बोलने वाला, धार्मिक नियमों का दृढ़ता पूर्वक पालन करने वाला तथा प्राणिमात्र के सुख-दुःख को अपनी आत्मा के समान देखने वाला है, उसे तीर्थ का फल मिलता है।

जिसके हृदय में ईश्वर , देवता, धर्म, तीर्थ आदि पर श्रद्धा नहीं है, जो दुराचारी और नास्तिक है, जिसके हृदय में सन्देह भरे हुए है और जो व्यर्थ की तर्क करता है। ऐसे मनुष्य को तीर्थ का फल नहीं मिलता।

यस्य हस्तौ च पादौ च मनश्चव सुसंयतम्।

विद्यातपश्या कीर्तिश्च सतीर्थ फलमश्नुते॥

प्रतिग्रहा पुण्यावृतः सन्तुष्ठो एव केनचित्।

अंहकार विमुक्तिश्च सतीर्थ फलमश्नुते॥

आदाम्भिको निराम्भो लब्धाहारो जितेन्द्रियः।

जिसके हाथ, पैर और मन वश में है, जिसमें विद्या और तप है, एवं जिसका यश है, अर्थात् जिसने परोपकार करके यश पाया है उस पुरुष को तीर्थ का फल मिलता है।

जो दान लेने से बचा है, जिसको भाग्यानुसार मिले हुए में सन्तोष है और अभिमान नहीं है उसे तीर्थ का फल मिलता है जिसमें पाखण्ड नहीं है।

क्रिया क्रमेण महता तपसा नियमेन च।

दानेन तीर्थयात्राभिश्चिर कालं विवेकतः॥

दुष्टकृतैः क्षयमापन्ने परमार्थ विचारणे।

काकतालीय योगेन बुद्धिर्जन्तोः प्रवर्तते॥

बहुत दिनों तक यज्ञ दानादि करने कराने से, कठिन तपस्या, नियम, तीर्थ, यात्रा आदि द्वारा विवेक बढ़ता है और इनके द्वारा बुरे कर्मों का नाश हो जाने पर काकतालीय न्याय से मनुष्य में परमार्थ बुद्धि प्रस्फुटित हो जाती है।

जो लोग सैर सपाटे के उद्देश्य से तीर्थ यात्रा में परिभ्रमण तो करते हैं परन्तु अपने दोष दुर्गुणों को छोड़ने की आवश्यकता नहीं समझते। उनके परित्याग की प्रेरणा नहीं लेते और न आत्म सुधार का इस अवसर पर कोई विशेष साहस करते हैं उनकी यह यात्रा एक प्रकार से निरर्थक निष्फल ही चली जाती है। कहा भी है-

मनो वाक् काय शुद्धानां राजस्तीर्थ पदे पदे।

तथा मलिन चिताना गंडािप कीकधिका॥

है राजन्! मन, वाणी और काया से शुद्ध हुये मनुष्यों के लिये पग-पग पर तीर्थ है किंतु मलिन चित्त वालों के लिए गंगा भी एक तलैया है।

यो लुब्धः पिशुनः क्रूरो दाम्भिको विषयात्मकः।

सर्वतीर्थेष्वपि स्नातः पापो मलिन एव सः॥

जो लोभी है, चुगलखोर है, निर्दय है दम्भी है और विषयासक्त है, वह सब तीर्थों में स्नान करके भी पापी और मलिन ही रह जाता है।

दाममिज्या तपः शौच तीर्थ सेवा श्रुतं तथा।

सर्वाण्ये तान्यतीर्थानि यदि भावो न निर्मलः॥

भीतर का भाव शुद्ध न हो तो दान, यज्ञ, तप, शौच तीर्थ सेवन, शास्त्र श्रवण और स्वाध्याय ये सभी अतीर्थ हो जाते हैं।

चित्तमर्न्तगतृ दुष्टंतीर्थ स्नानान्न शुद्धयति ।

शतशोऽपि जलैतंद्यौ मुराभाण्डमिवाशुचि॥

चित के भीतर यदि दोष भरा है तो वह तीर्थ स्नान से शुद्ध नहीं होता जैसे मदिरा से भरे हुए घड़े को ऊपर से सैकड़ों बार धोया जाय तो भी वह पवित्र नहीं होता। उसी प्रकार दूषित अन्तः कारण वाला मनुष्य भी तीर्थ स्नान से शुद्ध नहीं होता।

गंगदितीर्थेषु वसन्ति मत्स्या देवालये पक्षिगणाश्र सन्ति

भावोज्झेतास्ते न फलं लभन्ते तीर्थाच्च देवायनाच्च मुख्यात् भावं ततो हुत्कले निधाय

तीर्थनि सेवेत समाहितात्मा।

- नारद पुराण

गंगादि तीर्थों में मछलियाँ निवास करती हैं, देव मन्दिरों में पक्षीगण रहते हैं, किन्तु उनके चित भक्तिभाव से रहित होने के कारण उन्हें तीर्थ सेवन और देव मन्दिर में निवास करने से कोई फल नहीं मिलता। अतः हृदय कमल में भाव का संग्रह करके एकाग्र चित्त होकर तीर्थ सेवन करना चाहिए।

अश्रद्धानः पापात्मा नास्तोऽकोऽछिन्न संसयः।

हेतुनिष्ठश्च पच्चैते न तीर्थफल भागिनः॥

- स्कन्द पुराण

जो अश्रद्धालु है, पापात्मा (पाप का पुतला पाप में गौर बुद्धि रखने वाला ) नास्तिक, संशयात्मक और केवल तर्क में ही डूबा रहता है- ये पाँच प्रकार के मनुष्य तीर्थ के फल को प्राप्त नहीं करते ।

वस्तुतः सत्प्रवृत्तियाँ ही तीर्थ है। उन्हें उभारने की जिन स्थानों पर विशेष व्यवस्था एवं संभावना है वे स्थान तीर्थ बन जाते हैं। तीर्थ की आत्मा उत्कृष्टता की आस्था ही है। इसलिए शास्त्रकारों ने मानस तीर्थों का भी वर्णन किया है और सत्प्रवृत्तियों को तीर्थ ठहराते हुए उनका सुनिश्चित पुण्य फल भी बताया हैं।

सर्वभूत दाय तीर्थ तीर्थ मार्जवमेव च॥

दानं तीर्थ क्षमा तीर्थ सन्तोषस्तीर्थ मुच्यते।

ब्रहमचयर्य परं तीर्थ च प्रियवादनम्॥

ज्ञानं तीर्थ धुतिस्तीर्थं तपस्तीर्थ मुदाहृतम्।

तीर्थानामपित ततीर्य विशुद्धिर्मनसः परा-स्कन्द पुराण 6-30-32

अर्थात् सत्य, क्षमा, इन्द्रिय, निग्रह प्राणी मात्र पर दया, ऋजुता, दान मनोनिग्रह सन्तोष ब्रह्मचर्य प्रिय भाषण विवेक धृति और तपसा (कष्ट सहन)। इनमें सबसे बड़ी मन की परम शुद्धि ही हैं। बस यह तीर्थयात्रा एक प्रकार का मन बहलाता है, जिसके द्वारा यात्री को इन उत्तम गुणों को अपने मन में अपने जीवन में सम्पादन करने का अवसर मिलता है।

आत्मा नदी संयम पुण्य तीर्था

सत्योदका शीलतटा दयोर्मि।

तत्रावगांह कुरु पाण्डुपंत्र।

न वारिणा शुद्धयाति चान्तरात्मा॥

- महा0 उद्योग पर्व0

आत्मा नदी है, जिसमें संयम का पुण्य घाट है, सत्य की जल है, शील किनारा है तथा दया की लहरें उठती रहती है । युधिष्ठिर ! तुम उसी में गोता लगाओ, (भौतिक ) जल से (शरीर तो घुल जाता हैं) अन्तःकरण नहीं धुलता।

निगृहीतेन्द्रियग्रामों यत्रेव च वसेन्नरः।

तत्र तस्य कुरुक्षेत्र नैमिषं पुष्कराणि च॥

- स्कन्द

जिसने इन्द्रिय- समूह को वश में कर लिया है, वह मनुष्य जहाँ भी निवास करता है, वहीं उसके लिए कुरुक्षेत्र, नैमिषारण्य और पुष्कर आदि तीर्थ है।

ब्रहम ध्यानं पर तीर्थ तीर्थमिन्द्रिय निग्रहः।

दमस्तीर्थस्तु परमभावं शुद्धि पर तथा॥

ज्ञान हृदे ध्यान जले राम-द्वेषमलापहे-यः स्नाति मानेस तीर्थे स याति परमागतिम्।

- गरुड़ पुराण

ब्रह्म का ध्यान परम तीर्थ है। इन्द्रियों का निग्रह तीर्थ है, मन का निग्रह तीर्थ है, भाव की शुद्धि परम तीर्थ है। ज्ञान

रूप तालाब में, ध्यान जल में जो मन के तीर्थ में स्नान करके राग-द्वेष रूप मल को दूर करता है, वह परम गति को प्राप्त होता है।

तीर्थांना हृदयं तिर्थशुचिना। हृदय शुचि।

- महा0 शा0

समस्त तीर्थों में हृदय (अन्तरात्मा) ही परम तीर्थ है, सारी पवित्रताओं में अन्तरात्मा की पवित्रता ही मुख्य है।

मानसा च प्रदीप्तेन ब्रहमज्ञान जलेन च।

स्नाति यो मानसे तीर्थें तत् स्नानं तत्वदर्शिनाम्।

- महाभारत अनु0

अन्तःकरण में प्रकाशित ब्रह्मज्ञान रूपी जल से मानस तीर्थ में जो स्नान होता है। तत्त्वदर्शियों का वही परम स्नान है।

योगिक स्नान माख्यात् योगेनहरिचिन्तनम्।

आत्मतीर्थ मिति ख्यात। सेवित ब्रहमवादिभिः’॥

- गरुड़ पूर्व0

ईश्वरराधन योगियों का परम स्नान है। ब्रहमवादी आत्म-तीर्थ का सेवन करते हैं।

मनोविशुद्ध पुरुषायं तीर्थ, वाचां तथा चेन्द्रिय निग्रहश्च। एतानि तीर्थानि शरीरजानि र्स्वगस्य मार्ग प्रतिवोधयन्ति॥

चित्तमर्न्तगतं दुष्ट तीर्थ स्नानैचं शुध्यातिं शतशोपि जलधौतं सुरा भाण्डाभिवा शुचि।

इन्द्रियाणि वशे कृत्वा यत्र यत्र वसेन्नरः।

तत्र तत्र कुरुक्षेत्र प्रयाग पुष्करतथा

-ब्रहम पुराण।

मनुष्य का विशुद्ध मन ही महान् तीर्थ है। वाणी और इन्द्रियों का निग्रह यह सद्गुण शरीर में निवास करने वाला तीर्थ है। इसी मार्ग से स्वर्ग पहुँचता जाता है।

यदि चित्त दृष्ट है तो तीर्थ स्नान से भी शुद्धि नहीं होती। सुरा भरा पात्र बार-बार धोने पर भी शुद्ध नहीं होता ।

इन्द्रियजय मनुष्य जहाँ भी निवास करता है। वहीं कुरुक्षेत्र, प्रयाग, पुष्कर आदि तीर्थ वन जाते हैं।

ध्यानपूते ज्ञानजले रागद्वेषमलापहे।

यः स्नाति मानसे तीर्थे स याति परमाँ गतिम्-स्कन्द पुराण

ध्यान के द्वारा पवित्र तथा ज्ञान रूपी जल से भरे हुए, राग-द्वेष रूप मल को दूर करने वाले मानस-तीर्थ में जो पुरुष स्नान करता है, वह परमगति मोक्ष को प्राप्त होता है।

तीर्थयात्रा का उद्देश्य आत्म-शोधन और परमार्थ परायणता की पुण्य प्रवृत्तियों को निखारना है। धर्म-प्रचार यात्राओं से ही यह उद्देश्य पूरा होता है। मेंहदी पीसने वाले के भी हाथ लाल होते हैं। सुगन्ध निर्माताओं के वस्त्र अनायास ही महकने लगते हैं। धर्म

तत्त्व का प्रसार -विस्तार करने के उद्देश्य से निकले हुए व्यक्ति उन विचारों एवं क्रियाओं में संलग्न रहने के कारण स्वयं भी उस रंग में रंगते चले जाते हैं।

ऐसी तीर्थ यात्राएँ पैदल ही होनी चाहिए। ताकि अधिक लोगों के साथ सम्पर्क साधने-विराम स्थलों पर कथा, सत्संग करने का अवसर मिलता चले। पदयात्रा एक तप भी है, जिससे शारीरिक एवं मानसिक विकृतियों का परिशोधन होता है। शास्त्रकारों ने तीर्थयात्रा में वाहन के उपयोग का निषेध किया है। पदयात्रा ही तीर्थयात्रा हैं। सामान लादने भर के लिए वाहन का भले ही प्रयोग किया जाय पर नर्मदा परिक्रमा, ब्रजयात्रा, गोवर्धन परिक्रमा, शिव त्रयोदशी के जल काँवर की तरह उसे पैदल ही किया जाना चाहिए।

ऐर्श्वय लोभान्मोहाद् वागच्छेद यानेन यो नरः।

निष्फलं तस्य तत्तीर्थ तस्माद्यान विवर्जयेत्-मत्स्य पुरा0 ब्रह्यी सं0

तीर्थयात्रा में यान वर्जित है। ऐश्वर्य के गर्व से, मोह से या लोभ से जो यानारूढ़ होकर तीर्थयात्रा करता है, उसकी तीर्थ यात्रा निष्फल हो जाती है।

यानमर्धफलं हन्ति तदद्धै छत्र पादुके।

वाणिज्यं त्रीस्तथा भागान् सर्व हन्ति प्रतिग्रह-स्कन्द पुराण

सवारी तीर्थयात्रा का आधा फल, अपहरण कर लेती है। उसका आधा छत्र तथा पादुका अपहरण कर लेते हैं। व्यापार पुण्य का तीन चतुर्थांश अपहरण करता है तथा प्रतिग्रह तीर्थ के सारे पुण्य को नष्ट कर देता है।

सर्वेषामेव वर्णानां सर्वाश्रमनिवासिनाम्।

तीर्थ तु फलदं ज्ञेयं नात्र कार्या विचारणा।

तीर्थानुगमने पद्भ्यां तपः परमिहोच्यते।

तदेव कृत्वा यानेन स्नामात्रफलं लभेत।

सभी वर्णों तथा सभी आश्रमों के लोगों को तीर्थ फलदायक होता है- इसमें किसी प्रकार का सन्देह नहीं करना चाहिए। जो पैरों से पैदल चलकर तीर्थ जाते हैं, वे परम तप करते हैं। जो सवारी से यात्रा करते हैं, उन्हें स्नान मात्र का ही फल मिलता है।


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