नादयोग और उसकी आर्ष परम्परा

May 1977

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कुण्डलिनी जागरण और नादयोग का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध बताते हुए कहा गया है-

कला कुण्डलिनी चैव नाद शक्ति समन्विता-षटचक्र निरूपण।

कला कुण्डलिनी नाद शक्ति से संयुक्त है।

कुण्डल्येव भवेच्छक्स्तां तु संचालयेत् बुधः।

स्वश्थनादाभ्रु वोर्मध्यं, शक्तिचालन मुच्यते-योग कुण्डलयुपनिषद

बुद्धिमान व्यक्ति को चाहिए कि वह उस सोयी हुई अपनी आत्म-शक्ति को चैतन्य करें, गतिशील करें। मूलाधार से स्फूर्ति तरंग उठकर भ्रूमध्य में दिव्य नाद की अनुभूति (श्रवण) कराने लगे, तभी समझना चाहिए कि कुण्डलिनी शक्ति जागृत-संचालित हो गई है।

कुण्डलिनी साधना में लययोग का महत्त्वपूर्ण स्थान है। लय का अर्थ-विलीन है। आत्मसत्ता का परमात्म सत्ता में विलीनीकरण ही परम लक्ष्य है। इसे प्राप्त करने पर आत्मा को -परमात्मा स्तर का बन सकना सम्भव हो जाता है। ‘लय’ के लिए नादयोग की साधना करनी पड़ती है। इसी आधार पर कुण्डलिनी जागरण का उद्देश्य भी पूरा होता है।

भ्री आदिनाथेन सपाद कोटिलय

प्रकाराः कथिता जयन्ति।

नादानुसंधान कमेकमेव मन्माहे

मुख्यतं लयानाम्-हठयोग प्रदीपिका

श्री आदिनाथ के बतलाये हुए सवा करोड़ ‘लय’ के प्रकार सर्वोत्कर्ष से विद्यमान् हैं, हम उन सब लयों में से नादानुसन्धान को ही मुख्य मानते हैं।

लय नादे यदा चित्तं रमते योगिनो भृशम्।

विस्मृत्य सकले वाह्यं नादेन सह शाम्पति-शिव सं0

अर्थ-जब योगी का चित्त उस नाद में निरन्तर रमण करेगा तब सब प्रकार के विषय से स्मरण रहित होकर चित्त समाधि में ‘लय’ हो जायेगा।

एतदभ्यासयोगेन जित्वा सम्यक गुणान् बहून।

सर्वारम्भपरित्यागी चिदाकाशे विलीयते-शिव सं0

अर्थ-इस प्रकार अभ्यास द्वारा सर्व गुणों को जीत कर और सब कार्यों के आरम्भ को त्याग कर योगी का चित्त आनन्दपूर्वक चैतन्य स्वरूप हृदयाकाश में ‘लय’ हो जाता है।

इन्द्रियाणां मनोनाथो मनोनाथस्तु मारुतः।

मारुतस्य लयो नाथः सलयो नादमाश्रितः-हठयोग प्रदीपिका

अर्थ-मन ही इन्द्रियाँ का स्वामी है, क्योंकि मन का संयोग न होने से कोई भी इन्द्रिय काम करने में समर्थ नहीं रहती। फिर मन, प्राण वायु के अधीन है, अतः वायु वशीभूत होते ही मन का ‘लय’ हो जाता है। मन लय होकर नाद में अवस्थान करता है।

नासनं सिद्धसदृशं न कुम्भसदृशं बलम्।

न खेचरीसमा मुद्रा न नादसदृशो लयः-शिव संहिता 5।45

सिद्धान्त के समान कोई आसन नहीं, कुम्भक के समान कोई बल नहीं, खेचरी के समान मुद्रा नहीं और नाद के समान लय नहीं।

भगवान् शंकराचार्य ने भी “योग तारावली” में नाद-तत्त्व की प्रशंसा की है-

“सदा शिवोक्तानि सपादलक्ष-लयावधामानि वसन्ति लोके।

नादानुसन्धान समाधिमेकं

मन्यामहे मान्वरमं लयानाम्॥

नादानुसन्धान नमोऽस्तु तुभ्यं

लामन्महे तत्वपदं लयानाम।

भवत्प्रसादात् पवनेन साधं

विलीयते विष्णुपदे मनों में॥

भगवान शिव ने मन के लय के लिए सवा लक्ष साधनों का निर्देश किया है, परन्तु उन सब में नादानुसन्धान सुलभ और श्रेष्ठ है। हे नादानुसन्धान! आपको नमस्कार करता हूँ। आप परम पद में स्थिति लाभ कराते हैं । आपकी कृपा से मेरे प्राण और मन दोनों विष्णु के परम पद में लीन हो जायेंगे।

न नादेन विना ज्ञानं न नादेन विना शिवः।

नादरुपं पर ज्योतिर्नाद रुपी परो हरिः ॥

-योग तरंगिनी

नाद के बिना ज्ञान नहीं होता-नाद के बिना शिव नहीं मिलते, नाद के बिना ज्योति का दर्शन सम्भव नहीं, नाद ही परब्रह्म है।

योग साधनों में नादयोग की गरिमा अत्यधिक है। उसकी विधि सरलता एवं श्रेष्ठ सत्परिणाम उत्पन्न करने वाली प्रतिक्रिया को देखते हुए नादयोग को जो प्रमुखता मिली है वह उचित ही है-

यत्किचिन्नादरुपेण श्रूयते शक्तिरेव सा।

यस्तत्त्वान्तो निराकारः स एव परमेश्वरः-हठयोग प्र0

जो कुछ नाद रूप से सुना जाता है वह शक्ति ही है और जिसमें तत्त्वों का लय होता है वह निराकार परमेश्वर है।

अशक्य तत्वबोधानां मूढ़ानामपि संमतम्।

प्रोक्तं गोरक्षनाथेन नादोपासन मुच्यते-हठयोग प्र0

अर्थ-जिनको तत्त्वज्ञान नहीं हो सकता ऐसे मूर्ख लोगों के लिए भी उपयोगी, गोरखनाथ जी द्वारा वर्णित नाद की उपासना कही जा रही है। यह नादोपासना शास्त्रों के जानने वाले एवं मूढ़ दोनों लोगों के लिए उपयोगी हैं।

“सर्वचिन्तां परित्यज्य सावधानेन चेतसा।

नाद एवानुसन्धेयो योगसाम्राज्यमिच्छता-बाराहोपनिषद

सब चिन्ताएँ छोड़कर-मन को स्थिर करना नाद योग की साधना में लगना चाहिए। यह योग साधनाओं का सम्राट है।

हठयोग प्रदीपिका में नादयोग का महत्त्व एवं प्रतिफल बताते हुए उसे साधनाओं में अत्यन्त ऊँचा स्थान दिया है। निम्न श्लोक उसी पृष्ठों के लिए गये है-

नादश्रवणतः क्षिप्रमन्तरंग भुजडंम्।

विस्मृत्य सर्वमेकाग्रः कुमचिन्न हि धावति।

यह मन रूपी सर्प नाद को श्रवण करने से शीघ्र ही सम्पूर्ण संसार को भूलकर एकाग्र होकर फिर विषयों की तरफ नहीं जाता है।

बद्धं विमुक्त चाज्चल्यं नादगन्धक जारणात्।

मनः पारदभाप्नोति निरालम्बाख्यखेऽटनम्॥

नाद रूपी गन्धक द्वारा भस्म किये जाने से बँधा हुआ और चंचलता है विमुक्त हुआ मन रूपी पारा निराश्रय होने पर ब्रह्मरूपी आकाश में भ्रमण करता है।

सदा नादानुसन्धानात्क्षीयन्ते पापसंचयाः।

निरंजने विलीयते निश्चितं चित्तमारुतौ॥

अर्थ- सदा नाद के अनुसन्धान करने से वंचित पापों के समूह भी नष्ट हो जाते हैं और उसके अनन्तर निर्गुण एवं चैतन्य ब्रह्म में मन व प्राण दोनों निश्चय ही विलीन हो जाते हैं।

नादोऽन्तरंगसांगबन्धने वागुरायते।

अन्तरडंकुरडंस्य वधे व्याधायतेऽपि च॥

जैसे व्याध मृग बन्धन के जाल में मृग को हठता है । इसी प्रकार अपने में आसक्त हुए मन को नाद भी हतता है अर्थात् मन के जो संकल्प वैकल्पिक धर्म हैं वे नष्ट हो जाते हैं।

काष्ठे प्रवर्तितो वह्निः काष्ठेन सह शाम्यति ।

नादे प्रवर्तितं चित्तं नादेन सह लीयते॥

काष्ठ में प्रवेश हुई अग्नि काठ को जलाकर ही शान्त होती है। इसी प्रकार नाद में प्रवृत्त हुआ अन्तःकरण नाद में ही विलीन हो जाता है।

अभ्यस्यामानो नादोऽयं बाह्यमातृणुते ध्वनिम्।

पक्षाद्विपक्षेपमखिलं जित्वा योगी सुखी भर्वेत्॥

अर्थ- अभ्यास किया गया यह नाद बाहर की ध्वनि को भी ढक देता है, इस प्रकार एक पक्ष में ही योगी चित्त की समस्त चंचलता को जीत कर सुखी हो जाता है।

चित्तानन्द तदा जित्वा सहजानन्द सम्भवः।

दोष दुःख जरा व्याधि क्षुधा निद्रा विवर्जितः॥

अर्थ-तब नाद के वशीभूत अन्तःकरण की वृत्ति से प्राप्त सुख को जीतकर स्वाभाविक आत्मा के सुख का आविर्भाव होता है। बात, पित्त, कफ़, रूप, दोष, दुःख, वृद्धावस्था, ज्वरादिक व्याधि, भूख, प्यास, निद्रा इन सबसे रहित वह आत्म-सुखी हो जाता है।

दिव्यदेहश्च तेजस्वी दिव्यगंधस्त्व रोगवान्।

सम्पूर्णहृदयः शून्य आरम्भो योगवान्भवेत्॥

हृदयाकाश में नाद के आरम्भ होने पर प्राण वायु से पूर्ण हृदय वाला योगी रूप, लावण्य आदि को से युक्त दिव्य देह वाला हो जाता है। वह प्रतापी हो जाता है और उसके शरीर से दिव्य गन्ध प्रकट हुआ करती है तथा वह योगी रोगों से भी रहित हो जाता है।

अन्तरंगस्य यमिनो वाजिनः परिधायते।

नादोपास्तिरतो नित्यमवधार्या हि योगिना॥

अर्थ-नादयोगी के मन रूपी घोड़े के लिए अश्वशाला के दरवाजे के अंगला के समान है। इसलिए योगी को प्रतिदिन नाद की उपासना करनी चाहिए।

बुद्धं तु नादबन्धेन मनः सत्यक्त चापलम्।

प्रयाति सुतरां स्थैयं छिन्नपक्षः खगोयथा॥

अर्थ-नाद रूपी बन्धन से बँधा हुआ जिसने चंचलता का त्याग कर दिया है, ऐसा मन जिस पक्षी के पंख कट गये हों उस पक्षी के समान अत्यन्त स्थिर होकर रहता है।

इन्द्रियाणां मनोनायो मनोनाथस्तु मारुतः।

मारुतस्य लयोनाथः स लयोनादमाश्रितः॥

इन्द्रियों का स्वामी मन। मन का स्वामी प्राण। प्राण का स्वामी लय और यह लय-नाद के आश्रित हैं

अथं नादानुसंधानं प्रवक्ष्यामि यथाक्रमम्।

यस्यानुष्ठानतो योगी परं ब्रह्माघिगच्छति-योग रसायनम्

अब नादानुसन्धान का यथाक्रम वर्णन करते हैं, जिसके अनुष्ठान से योगी परं ब्रह्म को प्राप्त होता है।

नादश्रवणतो योऽसावानंदो योगिनो भवेत्।

शक्यते स गिरा वक्तुँ मया नात्र कथंचन्-योग रसायनम्

नाद-श्रवण से यह जो आनन्द योगी को होता है, उसका वाणी से वर्णन सम्भव नहीं।

अथवा नादयोगेन शरीरे कृशतां गते।

सर्वागेभ्यो भवेत्तूर्ण प्राणस्याकर्षणं ध्रुवम्।

तत्रैव स्थिरताँ नीत्वा समाधिस्यो भवेन्नरः-योग रसायनम्

अथवा नादयोग से शरीर कृश हो जाता है और प्राणाकर्षण सहज होता है। ध्यान से इस प्राण को ऊपर से जाकर ब्रह्मरन्ध्र में प्रविष्ट कर वहीं स्थिर करना चाहिए। इससे व्यक्ति समाधिस्थ हो जाता है।

उक्तात्ममानतः पूर्व पश्चात् च विविधः कपे।

अभिव्यजन्त एतस्य नादास्तत्सिद्धि सूचकाः॥

अनाहृतमनुच्चयां शब्दब्रह्म परं शिवम्।

ब्रह्मरन्ध्रंगतेवायौ नादश्चोत्पद्यतेऽनध।

शंख ध्वनि निभश्चादौ मध्ये मेघध्वनिर्यथा॥

पवने व्योम सम्प्राप्ते ध्वनिरुत्पद्यते महान्।

घण्टादीनां प्रवाद्यानां ततः सिद्धिरदूरतः-महायोग विज्ञान

जब अन्तर में ज्योति स्वरूप आत्मा का प्रकाश जागता है तब साधक को कई प्रकार के नाद सुनाई पड़ते हैं। इसमें से एक व्यक्त होते हैं, दूसरे अव्यक्त। जिन्हें किसी बाहर के शब्द से उपमा न दी जा सके, उन्हें अव्यक्त कहते हैं यह अन्तर में सुनाई पड़ते हैं और उनकी अनुभूति मात्र होती है। जो घण्टा आदि की तरह कर्मेन्द्रियों द्वारा अनुभव में आवें उन्हें व्यक्त कहते हैं। अव्यक्त ध्वनियों को अनाहत अथवा शब्दब्रह्म भी कहा जाता है।

नादयोग के अभ्यास से मनोनिग्रह जैसा कठिन कार्य सरल हो जाता है। मन के एकाग्र होने पर योगाभ्यास की सफलता निर्भर है। चित्त की चंचलता ही साधना की प्रगति में प्रमुख बाधा है। नादानुसन्धान से यह बाधा सरलतापूर्वक हल हो जाती है।

नाद मेवातुसन्दध्यान्नादे चितं विलीयते।

नादासक्तं सदा चितं विषयं नहि कांक्षति-नाद विन्दोपनिषद

नादानुसन्धान से चित्त शान्त हो जाता है । उस साधना में लगा हुआ चित्त विषयों की आकांक्षा नहीं करता।

मकरन्दं पिबन्भृगो गन्धान् नापेक्षते यथा।

नादासक्तं सदा चित्तं विषयं न हि काड्क्षति।

बद्धः सुनादगन्धेन सद्यः संत्यक्त चापलम्।

नादग्रहणतश्रित्तमन्तरंग भुजगम्॥

विस्मृत्य विश्व मेकाग्रं कुत्रचिन्न हि धावति।

मनोन्मत्तगजेन्द्रस्य विषयोद्यानचारिणः॥

नियामनसमथोंऽयं निनादो निशिताडंकुशः-नाद विन्दोपनिषद

भ्रमर जिस तरह फूलों का रस तो लेता है, परन्तु पुष्पों की गन्ध की अपेक्षा नहीं करता। उसी तरह नाद से रुचि लेने वाला चित्त विषय-वासना के दुर्गन्ध की इच्छा नहीं रखता। जिस तरह सर्प नाद को सुनकर मस्त हो जाता है, उसी प्रकार चित्त नाद में आसक्त हो जाने पर सभी प्रकार की चपलताएँ भूल जाता है। संसार की चपलताएँ भूलने पर उसमें एकाग्रता आन लगती है और वह इधर-उधर विषयों की ओर नहीं भागता। विषय-वासनाओं के वन में घूमने वाला मन रूपी हाथी नाद के अभ्यास रूपी तेज अंकुश से ही काबू में आ पाता है। यदि हम मन को हिरन और तरंग की संज्ञा दे तो यह नाद उस हिरन को फाँसने के लिए जाल का और तरंग को रोकने के लिए तट का काम देता है।

नादयोग का अभ्यास कैसे करना चाहिए? इसका उत्तर देते हुए-शिव संहिता और हठयोग प्रदीपिका में दोनों कान, दोनों नेत्र एवं दोनों नासिका छिद्र बन्द करने की विधि बताई गई है। ऐसी दशा में साँस मुख से ही लिया जा सकता है। कहा गया है-

अंगुष्ठाभ्यामुभे श्रोत्रे तर्जनीभ्यां द्विलोचने।

नासारन्ध्रे च मध्याभ्याम नामाभ्याँ सुखं दृढ़म॥

निरुध्य मारुतं योगी यदैव कुरुते भृशम।

तदा तत्क्षणमात्मानं ज्योति रुपं स पश्यति-शिव सं0

अर्थ-दोनों हस्त अँगूठों से दोनों कर्ण बन्द करें और दोनों तर्जनी से, दोनों नेत्रों को दोनों मध्यमा अंगुलियों से, दोनों नासारंध्र को बन्द करें और दोनों अनामिका अंगुली और कनिष्ठिका से मुख को बन्द करें। यदि इस प्रकार योगी वायु को निरोध करके इसका बारम्बार अभ्यास करे तो आत्मा ज्योति स्वरूप न हृदयाकाश में भान होता है।

कर्णेपिधाय हस्ताभ्यां यं श्रृणोति ध्वनि मुनिः।

तत्र चित्तं स्थिरीकुर्याद्यावत्स्थिरं पदं व्रजेत्-हठयोग

अर्थ- मननशील योगी दोनों हाथों से दोनों कानों को बन्द कर जिस ध्वनि को सुनता है, जब तक स्थिर पद को प्राप्त न हो जाय, तब तक उस ध्वनि में चित्त को स्थिर करें।

श्रवणपुटनयन युगल घ्राण मुखानां निरोधनं कार्यम्।

शुद्ध सुषुम्नासरणौ स्फुटममलः श्रूयते नादः-हठयोग

अर्थ- दोनों कान, आँख, नासिका और मुख इन सबका निरोध करना चाहिए, तब शुद्ध सुषुम्ना नाड़ी के मार्ग के शुद्ध नाद प्रकट रूप से सुनाई पड़ने लगता है।

‘योग रसायन’ में सभी छेद बन्द करने की आवश्यकता नहीं समझी गई। मात्र कान के छेद बन्द करने को ही कहा गया है। साथ ही यह भी कहा गया है कि यदि साधक चाहे तो छेदों को बीच-बीच में खोलता भी रह सकता है। लगातार बन्द रखने की आवश्यकता नहीं है। इस प्रकार एक दक्षिण कान से ही नाद श्रवण का भी परामर्श दिया गया है।

पद्यासनं समास्याय स्वस्तिकं वा यथासुखम्।

कर्णरंध्रयुगं पश्चादगलिभ्याँ निरोधयेत्-योग रसायनम्

पद्मासन या स्वस्तिक आसन में सुखपूर्वक बैठकर दोनों कर्णरन्ध्रों को अंगुलियों से बन्द कर ले।

कर्णयोस्त्वेकतानेन रोधनं नैव कारयेत्।

त्यवक्वात्यक्त्वांगुर्लिमध्येनादाभ्यासं समाचरेत-योग रसायन्

दोनों कानों को लगातार बन्द नहीं किये रहना चाहिए। अंगुली बीच-बीच में छोड़ते रहकर नाद का अभ्यास करना चाहिए।

निमील्य नयने चित्तं कृत्वैकाग्रमनन्यधीः।

श्रृणुभाद्देक्षिणे कर्णे नादमंतर्गत शुभम्-योग रसायनम्

नयन निमीलित कर चित्त को एकाग्र कर अनन्य बुद्धि से दाहिने कान में शुभ नाद सुनना चाहिए।

आहत ध्वनियाँ वे हैं जो किन्हीं पदार्थों या प्राणियों की हलचलों के कारण उत्पन्न होती है। अनाहत वे हैं जो प्रकृति प्रवाह एवं सूक्ष्म जगत से सम्बन्धित है। इन्हें सुनने से परा और अपरा प्रकृति के संकेत सन्देशों को सुनने, समझने की क्षमता उत्पन्न होती है। नाद को ब्रह्मवाणी, आकाश वाणी भी कहा गया है इनको पकड़ने, पहचानने का अभ्यास होने पर दिव्य लोकों से सम्पर्क साधना एवं आदान-प्रदान करना सम्भव हो जाता है। वे ध्वनियाँ किस प्रकार की होती है इसका उल्लेख इस प्रकार है-

ब्रह्मरन्ध्रं चते वायौ नादश्चोत्पद्यतेऽनघ।

शंखध्वनिनिभश्चादौ मध्ये मेघध्वनिर्यथा॥

शिरोमध्यगते वायौ गिरिप्रस्रवण यथा।

पश्चात्प्रीती महाप्राज्ञः साक्षादात्मोन्मुखो भवेत्-जाबाल दर्शनोपनिषद्

जब ब्रह्मरन्ध्र में प्राणवायु का प्रवेश हो जाता है, तब प्रथम शंख ध्वनि के समान नाद सुनाई पड़ता है। फिर मेघ ध्वनि की तरह मन्द, गम्भीर नाद सुन पड़ता है। जब यह प्राणवायु शिर के मध्य में स्थित होती है, तब ऐसा लगता है मानो पर्वत से कोई झरना कल-कल नाद करता स्रवित हो रहा है। तदुपरान्त अत्यन्त प्रसन्नता का अनुभव होता है और साधक सूक्ष्म आत्म-तत्त्व की ओर उन्मुख हो जाता है।

शिव पुराण में ॐ कार के अतिरिक्त नौ ध्वनियाँ इस प्रकार गिनाई गई हैं।

घोषं, कास्यं तथा श्रृंग, घंटा, वीणादिवंशजम्।

दुन्दुर्भि, शंख शब्दं तु नवमं मेघगर्जितम्-शिव पुराण

अर्थात्-(1) समुद्र गर्जन जैसा घोष (2) काँसे की थाली पर चोट लगाने जैसी झनझनाहट (3) शृंग अर्थात् तुरही बजने जैसी आवाज (4) घण्टे बजने जैसी (5) वीणा बजने जैसी (6) वंशज वंशी जैसी (7) दुन्दुभि नगाड़े बजने के समान (8) शंख ध्वनि (9) मेघ गर्जन जैसी नौ ध्वनियाँ नादयोग में सुनी जाती है।

कहीं-कहीं पायल बजने, बुलबुल की चहचहाहट जैसी मधुर ध्वनियों का भी वर्णन है यह वीणावादन से मिलती-जुलती हैं । सिंह गर्जन का उल्लेख मेघ गर्जन जैसा है।

मत्तभृंग वेणु वीणा सदृशः प्रथमो ध्वनिः।

एवमभ्यासतः पश्चात् संसार ध्वान्तनाशनम्॥

घण्टा नादसमः पश्चात् ध्वनिर्मेघरवोपमः।

ध्वनौ तस्मिन्मनो दत्वा यदा तिष्ठति निर्भरः।

तदा संयाते तस्य लयस्य मम बल्लभे-शिव सं0

अर्थ- योगाभ्यास द्वारा प्रथम मत्त भ्रमर की नाई शब्द वेणु और वाणी के समान शब्द उत्पन्न होगा। इस प्रकार योगाभ्यास संसारतम नाशक से फिर घण्टा, नाद समान शब्द होगा, फिर मेघ गर्जना के समान ध्वनि होगी। इस ध्वनि में यदि मन निश्चल स्थित हो जाय, तब मोक्ष का दाता लय उत्पन्न होगा।

घंटानादसमः पूर्व ततः शंखसमो ध्वनिः।

वीणारवसमः पश्चात् तालनादोपमस्ततः-योग रसायनम्

पहले घण्टा नाद-सी ध्वनि आती है, फिर शंख के समान, फिर वीणा ध्वनि के समान और तब तालमय ध्वनि सुनाई पड़ती है।

वंशीशब्दनिभश्चाथो मृदंगसदृशो ध्वनिः

भेरीरवसमः पश्चान्मेघगर्जनसनिभः-योग रसायनम्

फिर वंशी ध्वनि सी, तदुपरान्त मृदंग सदृश इसके आगे भेरी रव जैसा और तत्पश्चात् मेघ गर्जन के समान नाद सुनाई पड़ता है।

श्रयूते प्रथमाम्या से ध्वनिर्नादस्य मिश्रितः।

ततोम्यासे स्थिरी भूते श्रूयते तु पृथक-पृथक्-योग रसायनम् 250

प्रथमतः अभ्यास के समय ध्वनि-नाद को मिश्रित रूप में ही सुनना चाहिए। जब अभ्यास दृढ़ हो जाय, तो पृथक्-पृथक् सुनना चाहिए।

नाद श्रवण की पूर्णता अनाहत ध्वनि की अनुभूति में मानी गई है। साधक अन्य दिव्य ध्वनियों को सुनते-सुनते अन्त में अनाहत लक्ष्य तक जा पहुँचता है।

प्राणे मूर्धनि संप्राप्ते नादध्वनिरनुत्तमः।

श्रूयते योगिनो वके संस्रवेदमृतं तथा-योग रसायनम्

प्राण के मस्तक में पहुँचने पर योगी को सुन्दर अनाहत नाद की ध्वनि सुनाई पड़ती है।

ध्यान बिन्दूपनिषद् में नादयोग के सम्बन्ध में लिखा है-

अनाहतं तु यच्छब्दं तस्य शब्दस्य यत्परम्।

तत्परं विन्दते यस्तु स योगी छिन्नसशयः॥

अनाहत शब्द-उससे परे और उससे परे जो है उसे प्राप्त करके योगी समस्त संशयों से मुक्त हो जाता है।


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