समग्र प्रगति के लिये जिज्ञासा समाधान और साधना विधान के दो चरण

May 1977

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गायत्री को उच्चस्तरीय साधना का क्रम ब्रह्म वर्चस् शिक्षण प्रक्रिया के अंतर्गत आरम्भ किया गया है। अन्य महत्त्वपूर्ण शिक्षा विधानों की तरह इस प्रक्रिया के भी सिद्धान्त , शिक्षण एवं व्यवहार अनुभव दो पक्ष है। शिल्प, कला , विज्ञान, इंजीनियरिंग, मेडिकल आदि महत्त्वपूर्ण विषयों की शिक्षा प्राप्त करने के लिए इन दोनों ही पक्षों को महत्त्व देना पड़ता है। ज्ञान और अभ्यास के दोनों ही चरणों के सहारे प्रगति पथ पर चला जाता है।

ब्रह्म विद्या और ब्रह्म तेज की समन्वित साधना ब्रह्म वर्चस् के नाम से आरम्भ की गई है । इसकी सैद्धान्तिक पृष्ठभूमि से परिचित होना उन सबके लिए आवश्यक है जो इस विषय में रुचि रखते हैं। आवश्यक जानकारी के उपरान्त ही यह निर्णय ठीक तरह हो सकता है कि इस दिशा में कदम उठाने की आवश्यकता है भी या नहीं। यदि है तो उसके लिए क्या करना पड़ेगा? इसी जिज्ञासा का समाधान करने के लिए अखण्ड-ज्योति के प्रस्तुत मार्च, अप्रैल, मई के अंकों में आवश्यक जानकारी प्रस्तुत की गई है। यह जानकारी क्रमशः आगे भी चलती रहेगी। इन तीनों अंकों में ब्रह्म वर्चस् विज्ञान की संक्षिप्त पृष्ठभूमि प्रस्तुत की गई है। आगे इस संदर्भ के अन्यान्य ज्ञातव्य पढ़ने समझने को मिलते रहेंगे। पत्रिका में ‘विज्ञान और अध्यात्म’ के समन्वय वाले लेख पूर्ववत् जून अंक से फिर चलने लगेंगे।

गायत्री की सामान्य उपासना एक सर्व सुलभ एवं सर्वजनीन नित्य कर्म है। उसे साँस लेने, जल पीने, भोजन करने, टहलने आदि के समतुल्य माना जा सकता है। उसे सहज भाव बिना किसी विशेष प्रशिक्षण के भी किया जा सकता है। पर उच्चस्तरीय साधनाओं में उतनी सरलता नहीं है। उन्हें विशेष व्यायामों एवं चिकित्सा उपचारों के समान समझना चाहिए। जिन्हें विशेष मार्ग-दर्शन एवं प्रत्यक्ष प्रशिक्षण के साथ किया जाना चाहिए। एक ही रोग की सभी रोगियों की चिकित्सा एक ही प्रकार की नहीं होती। चिकित्सक उन सबकी स्थिति का परीक्षण करते हैं और उनकी स्थिति के अनुरूप भिन्न-भिन्न औषधियों, तथ्यों एवं परिचर्याओं का निर्धारण करते हैं। गायत्री का उच्चस्तरीय साधना क्रम किसके लिए क्या उपयुक्त पड़ेगा? इसका निर्धारण साधक की शारीरिक, मानसिक, आत्मिक एवं साँसारिक परिस्थितियों का अध्ययन, विश्लेषण करके ही किया जा सकता हैं

प्रस्तुत उच्चस्तरीय साधन प्रक्रिया आरम्भ करने के इच्छुकों को ब्रह्म वर्चस् में आकर अपनी स्थिति का परीक्षण कराया जाना आवश्यक है। इसी प्रकार विशेष साधनाओं में से किसका किस प्रकार का क्रम बनाया जाना है। इसका निर्धारण पारस्परिक विचार विनियम के साथ किया जाना चाहिए। जिन्हें (1) पंचकोशों का अनावरण एवं (2) कुण्डलिनी जागरण की क्रिया-प्रक्रियाओं में रुचि है, उन्हें वह शुभारम्भ हरिद्वार आकर ही निर्धारण कराना चाहिए। ब्रह्म वर्चस् आरण्यक का निर्माण इसी उद्देश्य के लिए किया गया है। दस दिवसीय सत्र अति व्यस्त व्यक्तियों के लिए और एक मासीय सत्र थोड़ी फुरसत वालों के लिए चलाये जा रहे हैं। गत अंक में सन् 77 के सत्रों की घोषणा की जा चुकी है। आरण्यक की जितनी इमारत बन जायेगी उतनी ही संख्या में जुलाई 77 से विधिवत् उच्चस्तरीय साधना क्रम चल पड़ेगा यों उसका सामान्य परिचय तो वर्तमान सत्रों में भी कराया जा रहा है। जुलाई और अक्टूबर में 1 से 10-11 से 20 और 21 से 30 तक के दस-दस दिवसीय सत्र चलेंगे और अगस्त, सितम्बर तथा नवम्बर , दिसम्बर में एक-एक महीने के सत्र हैं। इन उच्चस्तरीय साधनाओं में से किसे क्या साधना किस प्रकार करनी है उसका प्रत्यक्ष अनुभव और भावी क्रम निर्धारण करने के लिए इन सत्रों में सम्मिलित होना आवश्यक है।

आर्ट विषयों की परीक्षाएँ प्राइवेट पढ़ कर भी दी जा सकती हैं । साइंस , मेडिकल , इंजीनियरिंग आदि की पढ़ाई में प्रेक्टिकल अनुभव प्राप्त करने के लिए कालेज में दाखिला लेना आवश्यक है। श्रीगणेश शुभारम्भ करने के लिए तो यह प्रवेश अतीव आवश्यक हैं । पीछे तो पूछताछ परामर्श से भी घर रह कर प्रगति क्रम जारी रखा सकता हैं

उच्चस्तरीय साधना के सिद्धान्तों की जानकारी देने वाली पाठ्य सामग्री पिछले पृष्ठों पर तथा गत दो अंकों में प्रस्तुत की गई है। अब यह जानना, समझना शेष है कि प्रस्तुत साधना क्रम में क्या करना होगा। इस दिशा में प्रथम चरण आत्म-शोधन का है? साधक को शारीरिक , मानसिक और आत्मिक क्षेत्रों का आचार परक , चिन्तन परक और भाव परक परिष्कार करने के लिए साधकों -चित जीवन प्रक्रिया का निर्धारण करना चाहिए। भूमि की उर्वरता पर बीज का उगना और फलित होना निर्भर रहता है। साधना अपने आपे को साधने से-व्यवस्थित एवं परिष्कृत होने के साथ आरम्भ होती है। इसके लिए प्रस्तुत दोष दुर्गुणों का-पिछले दिनों की अभ्यस्त दुष्प्रवृत्तियों का विवरण प्रस्तुत करना और उनके निराकरण के लिए जीवन प्रक्रिया में किस प्रकार परिवर्तन किया जाय यह निर्धारण आवश्यक है। वन पड़े पापों का लेखा जोखा सामने हो तो उसके प्रायश्चित परिमार्जन का रास्ता निकलेगा। प्रगति के लिए किन सत्प्रवृत्तियों का गुण, कर्म, स्वभाव में समावेश किया जाना है यह जानना और उसे व्यवहार में परिणत करने के लिए भावी जीवन का सुव्यवस्थित क्रम निर्धारित किया जाना आवश्यक हैं इस आधार भूमि पर ही आत्मिक प्रगति का विशाल भवन खड़ा होता है।

ब्रह्म वर्चस् साधना में योगाभ्यास एवं तपश्चर्या की क्रिया-प्रक्रिया भी सम्मिलित है। कहा जा चुका है कि ब्रह्म विद्या के तथ्यों को हृदयंगम करने के लिए पंच कोशों के अनावरण की साधना है। ब्रह्म तेज उपार्जन के लिए कुण्डलिनी जागरण के अभ्यास करने होंगे। इन्हें इस प्रकार समझा जा सकता है-

पंचकोशी साधना के अंतर्गत (1) मूर्धा त्राटक (2) सोहंसाधना (3) खेचरी मुद्रा (4) नादानुसंधान (5) ध्यान में सविता शक्ति का संचरण।

कुण्डलिनी साधना के अंतर्गत (1) सिद्धासन युक्त मूल वेध (2) शक्ति चालनी मुद्रा (3) सूर्य वेधन प्राणायाम (4) हृदि त्राटक (5) अग्नि मन्थन -ऊर्जा उन्नयन ध्यान।

इन पाँचों को योग परिपाटी के अनुसार वर्गीकृत किया जाय तो (1) मूर्धा एवं हृदि त्राटकों को-बिन्दु योग (2) सोहंसाधना एवं सूर्यभेदन प्राणायाम को-प्राणयोग (3) खेचरी मुद्रा एवं शक्ति चालनी को लय योग(4) नादानुसंधान को-नादयोग (5) सविता संचरण एवं ऊर्जा उन्नयन धारणा को ध्यानयोग कहा जा सकता है। इन्हीं पाँचों के अंतर्गत पंचकोशी और कुण्डलिनी साधना की समस्त साधनाएँ आ जाती है॥ पंचमुखी गायत्री साधना का इन पाँचों समावेश हो जाता है।


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