साधना के अवरोध दुष्कर्मों का निराकरण प्रायश्चित

May 1977

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उपासना का प्रथम चरण है- आत्म शोधन कोई भी धर्म-कृत्य करने से पूर्व पवित्रीकरण, आचमन, प्राणायाम न्यास आदि कृत्य करने होते हैं। इनका उद्देश्य आत्मिक पवित्रता की आवश्यकता को प्राथमिकता देने के तथ्य पर ध्यान आकर्षित करना हैं। गन्दे नाले में थोड़ा सा गंगा जल डाल देने पर उसकी शुद्धि नहीं होती हैं। अन्तरंग और बहिरंग जीवन में निकृष्टता भरी रहे तो उपासना साधना का लक्ष्य पूरा न हो सकेगा। आत्म-परिष्कार कपड़े की धुलाई और साधना रंगाई हैं बिना धुले कपड़े पर ठीक तरह रंग कहाँ चढ़ता है? आत्म -शोधन के बिना उच्चकोटि की साधनाएँ भी निष्फल चली जाती है। अतएव सर्वप्रथम वर्तमान और भावी जीवन को पवित्र परिष्कृत बनाने की योजना बनानी चाहिए और पिछले पापों के कारण आत्मिक प्रगति पथ पर अवरोधों की तरह अड़े रहने वाले दुष्कृतों का परिमार्जन प्रायश्चित प्रक्रिया द्वारा करना चाहिए।

यही साधना की सुव्यवस्थित प्रक्रिया हैं प्रारम्भ आत्म-शोधन एवं आत्म-परिष्कार से होना चाहिए। साथ ही गायत्री की सामान्य साधना तथा उच्चस्तरीय साधना का नियोजन करना चाहिए। उज्ज्वल चरित्र ह वह भूमि है जिस पर साधना के बीज उगते और पल्लवित होते हैं। अच्छी बन्दूक ही कारतूसों का लक्ष्य पूरा करती है। घटिया व्यक्तित्व घटिया बन्दूक की तरह है, जिनमें बढ़िया उपासना के बढ़िया कारतूस भी समुचित प्रतिफल उत्पन्न नहीं कर सकते।

ब्रह्मवर्चस को उच्चस्तरीय उपासनाओं में पंचकोशों के अनावरण तथा कुण्डलिनी जागरण मुख्य है। इनकी तैयारी करते समय सर्वप्रथम पाप परिमार्जन और आत्म शोधन के लिए साहसपूर्वक कदम बढ़ाने चाहिए। इस आधार पर खड़ी की गई साधना तपश्चर्या के सफल होने में कोई अड़चन शेष नहीं रह जाती।

आस्तिकता-साधना विज्ञान का प्राण है। आस्तिकता को कर्म फल के प्रति अटूट विश्वास ही कह सकते हैं। धार्मिक कर्मकाण्डों और पूजा विधानों का महत्व इसी दृष्टि से है कि मनुष्य ईश्वर के प्रति- उसकी कर्म व्यवस्था के प्रति गहरी आस्था बनाये रखे। चिन्तन का स्तर उत्कृष्ट रखे और क्रिया कलाप में आदर्शवादिता के समावेश का अधिकाधिक प्रयत्न करे। धर्म और अध्यात्म का ढाँचा इसी लिए खड़ा किया गया है। आज तो इन चरित्र निर्माण और सामाजिक सहयोग के आधार भूत तन्त्र का उपयोग ठीक उलटे प्रयोजनों में हो रहा है। सत्कर्मों से जो फल मिलता है उसे छूट-पुट कर्मकाण्डों से ही सम्भव बना कर उस दिशा में कष्ट सहने और त्याग करने की उमंग को ही मटियामेट किया जा रहा है। इसी प्रकार दुष्कर्मों के प्रति निर्भयता उत्पन्न करने के लिए सस्ते पाप नाशक उपायों का प्रतिपादन किया जा रहा है। यह आस्तिकता के नाम पर प्रच्छन्न नास्तिकता का प्रतिपादन हैं। धर्म और अध्यात्म की आत्मा को जीवित रखने के लिए इन प्रचलित भ्रान्तियों को निरस्त ही किया जाना चाहिए।

कर्मफल की सुनिश्चितता के सम्बन्ध में शास्त्रकारों ने पग-पग पर जन-साधारण को प्रशिक्षित और सचेत किया है। स्पष्ट शब्दों में यह कहा है कि दुराचरण से बचा जाय और सदाचरण की मर्यादाओं का पालन करने में तत्परता का परिचय दिया जाये। कर्मफल सुनिश्चित हैं। फलित होने में थोड़ा विलम्ब हो जाये तो भी उस सम्बन्ध में अनास्था अपनाने की आवश्यकता नहीं है। ‘कर्म रेख मिटनी नहीं’ उक्ति का तात्पर्य इतना ही है भले या बुरे कर्मों की प्रतिक्रिया सम्मुख आने में किसी प्रकार का सन्देह करने की गुँजाइश नहीं है। शास्त्रकार कहते है-

स्वयं कर्म करोत्यात्मा स्वयन्तत्फलमश्नुते।

स्वयं भ्रमति संसारे स्वयन्तस्माद्धिमुच्चयते॥

- चाणक्य

जीव आप ही कर्म करता है, उसका फल भी आप ही भोगता है, आप ही संसार में भ्रमण करता है और आप ही उससे मुक्त भी होता है इसमें उसका कोई साक्षी नहीं।

न तेऽत्र प्राणिनः संति ये न यांति यमक्षयम्।

अवश्यं हि कृतं भोक्तव्यं तद्धिधारितम्॥

- भाष्य

यहाँ पर ऐसे कोई भी प्राणी नहीं है जो यमराज के घर में नहीं जाते हैं अर्थात् एक बार तो वहाँ सभी प्राणियों को जाना ही पड़ता है। उनका जो कुछ भी किया हुआ कर्म है वह अवश्य ही उन्हें भोगना ही पड़ता है।

कर्मफल अकाट्य है, पर उनका परिमार्जन स्वेच्छापूर्वक किये गये प्रायश्चित से हो सकता है। इसमें सदाशयता, साहसिकता तो है ही सरलता भी है। चोर को राज दण्ड कड़ा मिलता है। पर यदि वह अपने दोष स्वीकार करने और चुराई वस्तु लौटाने का साहस कर सके तो राजदण्ड, की अपेक्षा कम त्याग करने में काम चल जायेगा, साथ ही निन्दा और घृणा के स्थान पर दूसरों का सद्भाव, सम्मान भी मिल सकेगा। जो पाप बन पड़ा वह छोड़े हुए तीर की तरह वापिस लौट नहीं सकता। किन्तु यह उपाय पीछे भी सम्भव रहता है कि प्रायश्चित करके उस दंड भारी को काफी हलका कर लिया जाय। इसका एक लाभ तो प्रत्यक्ष ही अन्तःकरण पर चढ़ा हुआ दुराव और आत्म-धिक्कार का भार हल्का हो जाता है। पाप कृत्यों के फलस्वरूप उत्पन्न आत्म-ग्लानि और आत्म प्रताड़ना से छुटकारा पा सकना प्रायश्चित के अतिरिक्त और किसी प्रकार सम्भव नहीं हो सकता। भारतीय धर्म शास्त्रों में पाप निवारण का एकमात्र उपाय प्रायश्चित ही है।

प्रायश्चित का प्रथम चरण है-पश्चाताप दुष्कर्मों के फलस्वरूप अपनी आत्मा को अनीति पीड़ित को-तथा परोक्ष रूप में जो क्षति पहुँचती है उस पर विचार करने से हर विवेकशील के मन में दुःख होता है यह दुःख ही पश्चाताप हैं यदि ऐसा दुःख नहीं उपजा। उलटे पाप के स्पर्शन की धृष्टता बरती जाती रही- अनुचित को उचित सिद्ध किया जाता रहा तो समझना चाहिए ऊपर से ही लीपा-पोती की जा रही है। पाप की जड़े जहाँ की तहाँ है। वे अवसर पाते ही फिर फलेगी-फूलेगी और पुनरावृत्ति होती रहेगी।

पश्चाताप का स्वरूप है सच्चे मन से दुःखी होना भूल की भयंकरता का अनुभव करना और भविष्य में इस प्रकार के आचरण न करने के लिए सच्चा संकल्प करना और उसे कठोरतापूर्वक निबाहना इतना कर चुकने पर ही प्रायश्चित की यथार्थता सामने आती है।

प्रायश्चित का अगला चरण है-पाप का प्रकटीकरण । इससे कई लाभ होते हैं। मन के भीतर जो दुराव की गाठें बँधी रहती है वे खुलती है। मनोविज्ञान शास्त्र का सुनिश्चित मत है कि मनोविकारों के-दुष्कर्मों के-दुराव से मानसिक ग्रन्थियाँ बनती है और वे अनेकों शारीरिक और मानसिक रोगों के रूप में उभरती रहती हैं। मनः चिकित्सा शास्त्री, मानसिक रोगियों से उसके पिछले जीवन के घटना-क्रम को विस्तारपूर्वक बताने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। इसमें अप्रकट दुरावों का यदि प्रकटीकरण हो गया तो रोग का निराकरण सरल हो जाता है आरोग्य शास्त्र की नवीनतम शोधों ने बताया है कि रोग कष्ट तो शरीर को अनुभव होता है, पर उनकी जड़े मानसिक विकृतियों के रूप में जमी रहती है। चिकित्सा में औषधि उपचार का जितना महत्त्व है उससे कहीं अधिक मानसिक परिशोधन का है। मनः शुद्धि के बिना आहार-विहार ठीक रखने पर भी स्वास्थ्य रक्षा का उद्देश्य पूरा नहीं हो सकता। रोगों की जड़े काटने के लिए मानसिक चिकित्सा के रूप में आन्तरिक अन्तःशुद्धि भी आवश्यक है। यह कार्य पिछले किये हुए-दुष्कर्मों की जड़े काटने के रूप में प्रायश्चित की प्रकटीकरण प्रक्रिया के सहारे ही सम्भव हो सकते हैं।

ईसाई धर्म में दो अवसरों पर पापों का प्रकटीकरण आवश्यक माना गया हैं। एक ईसाई धर्म की दीक्षा-बपतिस्मा लेते समय। दूसरे मरण काल के पूर्व। मृत्यु की सम्भावना निश्चित होने पर पादरी बुलाया जाता है। रोगी और पादरी दो ही होते हैं। एकान्त में वह जीवन के प्रमुख पाप कर्मों को प्रकट करता है। पादरी उनके समाधान की प्रार्थना करता है। इस प्रकार जी हलका करके मरने का निश्चित रूप से सत्परिणाम होगा और उससे आत्मा को शान्ति, सद्गति मिलेगी। हिन्दू धर्म में भी श्रावणी पर्व पर हेमाद्रि संकल्प के साथ इसी प्रकार का प्रकटीकरण हर साल करते रहने का विधान है। इससे अतिरिक्त जब कभी पाप बने, तभी उसके प्रकटीकरण एवं प्रायश्चित का विधान सम्पन्न करने की परम्परा है। उन्हें जितने समय तक छिपाये रखा जाता है उतना ही चक्रवृद्धि दर से उसका भार बढ़ता चला जाता है।

‘प्रकटीकरण’ में पुरातन काल में कोई कठिनाई नहीं थी। उन दिनों सभी लोग सद्भाव सम्पन्न थे। प्रकटकर्ता के भूत कालीन पाप की तुलना में वर्तमान की प्रकटीकरण सद्भावना को अधिक महत्त्वपूर्ण मानते थे और जो हो चुका उस पर धूलि डाल कर आगे का सद्भाव सम्पन्न मार्ग-दर्शन करते थे। आज स्थिति ठीक उल्टी है। मीठी बातें करके- तरह-तरह के आश्वासन देकर- पूछ तो लेते हैं, फिर उन बातों के आधार पर उससे घृणा करते , निन्दा फैलाते, हानि पहुँचाते हैं। पत्नियाँ अपने पिछले जीवन की घटनाएँ पतियों को सद्भावनापूर्वक बता देने के उपरान्त कितने अधिक घाटे में रहती है। इसके असंख्यों उदाहरण सामने आते रहते हैं। वे पछताती है और सोचती है कि इस कहने की अपेक्षा न कहना अधिक श्रेयस्कर रहता। आज का सामान्य मनुष्य इतना ही ओछा है कि उसके सामने नंगे होने में जोखिम ही जोखिम है। अस्तु प्रकटीकरण के लिए सत्पात्र तलाश करना नितान्त आवश्यक है। इसके लिए तथाकथित मित्र नहीं सद्भाव सम्पन्न, उदार हृदय तत्त्वदर्शी ही उपयुक्त हो सकते हैं। सुधार सद्भावना- उदार क्षमाशीलता और चिकित्सक जैसी उदार सहृदयता जिनके भीतर हो मात्र वे ही पाप प्रकटीकरण के अधिकारी हो सकते हैं। वे ही पिछली दुःखद घटनाओं की उचित समीक्षा कर सकते हैं। उन्हीं से प्रायश्चित का स्वरूप निर्धारित करने में भी सहायता मिल सकती है।

प्राचीन काल में पाप विवरण अधिक लोगों को बताये जाते थे ताकि उन सबको बताने वाले की दुर्बलता का ध्यान रहे। भविष्य में वैसी पुनरावृत्ति न होने पाये इसके लिए कड़ी दृष्टि रखें। संदिग्ध चरित्र वाले पर सहज ही अन्य लोग सतर्कता की दृष्टि रखते हैं। वह व्यक्ति स्वयं भी दूसरों की सतर्कता का ध्यान रखते हुए पकड़े जाने का डर करता है। छिपे पाप तो तब चलते हैं जब बाहर से मनुष्य विश्वस्त बना रहता है और भीतर से अप्रामाणिकता बरतता रहता है। इस लिए प्राचीन काल में पाप का प्रकटीकरण अधिकाधिक लोगों की जानकारी में होता था। आज की स्थिति में घटना-क्रम तो उच्चस्तरीय मनीषियों को ही प्रायश्चित पूछने के लिए बताये जाये किन्तु स्वभाव की दुर्बलता और बन पड़े पापों की मोटी जानकारी अधिक विश्वस्त लोगों को बनी रहे तो इससे दूसरों को सतर्कता और अपने में पकड़े जाने की आशंका बनी रहेगी। मन की ग्रन्थियाँ खुलना और उससे शारीरिक, मानसिक आत्मिक स्वास्थ्य का सुधार तो उससे निश्चित ही है। प्रकटीकरण की महत्ता बताते हुए शास्त्र कहता है-

तत्समात् पापं गूहेत गुहमानं विवर्धयत्।

कृत्वा तत् साधुष्वखमेयं ते तत् शमयन्त्युत॥

- महा0अनु0

अतः अपने पाप को छिपाये न, छिपाया हुआ पाप बढ़ता है, यदि कभी पाप बन गया हो तो उसे साधु पुरुषों से कह देना चाहिए वे उसकी शान्ति कर देते हैं।

“ तद् यदिह पुरुषस्य पापं कुतम्भवति तदा-विष्करोति यदि हैनदपि रहसीव कुर्वन्मन्यतेऽथहैन- दाविरेव करोति। तस्माद्वाव पाप न कुर्यात्।”

- जैमिनीयोपनिषद ब्राहमण

जब मनुष्य में दिव्य वाणी प्रकट होती है तब वह अपने पाप प्रकट करती हैं। मनुष्य ने जो पाप नितान्त गोपनीय रखे थे उन्हें भी वह प्रकट कर देता है।

प्रकटीकरण के उपरान्त प्रतीकात्मक दण्ड व्यवस्था का चरण है। यह सांकेतिक है। बच्चे के गलती करने पर उसे कान पकड़ने, कोने में खड़ा होने, बैठक करने आदि के हलके दण्ड दिये जाते हैं यह लाक्षणिक है। उनका महत्त्व इतना भर है कि इस प्रताड़ना की स्मृति-गलती की भयंकरता और उसकी पुनरावृत्ति न करने की आवश्यकता की छाप अन्त- चेतना पर अधिक अच्छी तरह छोड़ सके। वास्तविक समाधान तो कान पकड़ने पर कहाँ होता है? चोरी करना कान पकड़ना-चोरी करना कान पकड़ना यदि यही क्रम चलने लगे तो बात उपहासास्पद बन जायेगी यदि बच्चा किसी की कापी चुरा लाया है तो कान पकड़ने भर से उसका प्रायश्चित नहीं हुआ वह तो स्मृति को झकझोरना भर है। जिसकी कापी चुराई गई थी, उसकी क्षति पूर्ति इतने भर से कहाँ हुई? उसकी तो कापी वापिस मिलनी चाहिए, प्रायश्चित का असली भाग वही है जिसमें ऋण मोचन किया जाता है।

प्रायश्चित का तीसरा चरण है- तप तितीक्षा। इसमें अपने को शारीरिक, मानसिक यत्किंचित् कष्ट देकर स्मृति पटल पर दुर्घटना का स्वरूप और दुष्परिणाम अंकित किया जाता है। इससे भावी पुनरावृत्ति की आशंका बहुत हद तक घट जाती है। ऐसी तितीक्षाओं में कई तरह के व्रत-उपवास सम्मिलित है। चांद्रायण, कच्छ चांद्रायण, सन्तापन व्रत, पश्चगव्य प्राशन, अस्वाद व्रत आदि इसी प्रकार के है। मौन, ब्रह्मचर्य, भूमिशयन, शीतसहन, ग्रीष्मसहन जैसी तितीक्षाएँ भी अमुक समय तक करने का विधान बनाया जाता है। केश मुण्डन, तीर्थ स्नान जैसे उपचार भी ऐसे ही है, जिनमें शारीरिक, मानसिक कष्ट सहने पड़ते हैं। इस संदर्भ में शास्त्रकारों के अनेकों परामर्श, उपचार भरे पड़े है।

प्रतिग्रह को भी पातकों की श्रेणी में गिना गया है। प्रतिग्रह का अर्थ है-मुफ्त का माल। जिसका बदला न चुकाया गया हो, ऐसे समस्त अनुदान प्रतिग्रह हैं। बाप-दादों के उत्तराधिकार से मिला धन-जुआ सट्टा, लाटरी, हरामखोरी का उपार्जन इसी श्रेणी का है। चोरी, रिश्वत मुनाफाखोरी, करचोरी बेईमानी आदि से कमाया हुआ भी प्रतिग्रह है। ईमानदारी, औचित्य और परिश्रम का समुचित समावेश करने पर जो कुछ मिलता है वही फलता फूलता है अन्यथा मुफ्त का धन पाप बनकर शिर पर छाया रहता है और व्यक्तित्व के परिष्कार एवं आत्मोत्कर्ष के मार्ग में भारी अवरोध उत्पन्न करता है। साधु ब्राह्मणों को मिलने वाली दान-दक्षिणा तभी उचित है जब वे लोग उसका प्रतिदान लोकसेवा के रूप में उपलब्धि की तुलना में अत्यधिक करते रहें। अन्यथा भजन करने के बहाने दान-दक्षिणा बटोरते रहना-मुफ्त में खाते रहना- पाप बन कर रहेगा और उस स्थिति में की गई साधना निष्फल चली जायेगी। साथ ही अन्तरात्मा भी पाप भार से लदता, बोझिल होता चला जायेगा।

साधु ब्राह्मणों में से किसी ने यदि मुफ्त का धन प्रतिग्रह लिया हों। बदले में समुचित सेवा श्रम न किया हो तो उसका भी प्रायश्चित किया जाना चाहिए।

प्रति ग्रहेण विप्राणां ब्रहम तेजःप्रणस्यति।

अन्तः प्रतिग्रहे कृत्वा प्रायश्चितै समाचरेत्।

- अरुण स्मृति।

प्रतिग्रह लेने वाले का ब्रह्मतेज नष्ट हो जाता है। ऐसा ग्रहण करने वाले का प्रायश्चित करना चाहिए।

सद्वृत्तात्कारण्वाद् विप्राः प्रायश्चित भयात्खग ।

प्रतिग्रहे कृते चैव प्रायश्चित समाचरेत॥

- अरुण स्मृति।

सद्वृत्तियों के उपार्जन में लगा हुआ व्यक्ति भी इस भय से प्रतिग्रह न ले कि उसका प्रायश्चित करना पड़ेगा। यदि कभी ले ही लिया गया हो तो उसका प्रायश्चित करना चाहिए।

यह बात मात्र ब्राह्मण, साधु के दान-दक्षिणा लेने तक सीमित नहीं। वरन् उन सब पर लागू होती है जो बिना परिश्रम का धन ग्रहण करते हैं। न्यायपूर्वक समुचित परिश्रम के साथ कमाये हुए धन के अतिरिक्त अन्य सभी उपार्जनों को प्रतिग्रह माना गया है, भले ही वे उत्तराधिकार रूप में ही प्राप्त क्यों न हुए हो? जिन्हें इस प्रकार की उपलब्धियों हस्तगत हुई हो उन्हें उनका जितना सम्भव हो उतना लोकहित के लिए वापिस लौटाने से अपनी सदाशयता का परिचय देना चाहिए। यही बात दूसरों से मिले स्नेह, सहयोग आदि के सम्बन्ध में भी है। यह स्मृति उपकारी के प्रति मन में सघन कृतज्ञता भरे रहने के रूप में तो होनी ही चाहिए। प्रतिदान चुकाने की बात सोचते रहना भी आवश्यक है।

प्रायश्चित का अन्तिम चरण है-ऋण विमोचन। जो लिया है उसे वापिस लौटाना। बैंक से धन लेकर कोई खजांची भाग खड़ा हो, तो मात्र कान पकड़ने गिड़गिड़ाने, क्षमा माँगने, उपवास करने से काम नहीं चलेगा इतना तो करना ही चाहिए इसके अतिरिक्त जो धन लिया गया था उसमें से जो बचा हो उसे तो तत्काल वापिस जमा करना ही चाहिए। बैंक अफसरों और पुलिस का रुख उदार बनाने- कड़े दण्ड से बचने के लिए यह वापसी आवश्यक है। जो कमाया वह हलम-गिड़गिड़ाहट कर छुटकारा। ऐसा कहाँ होता है? पातकों के दण्ड से-निवृत्त होने में भी ऐसी धाँधली नहीं चल सकती कि व्रत, उपवास, मौन आदि के प्रतीकों से छुटकारा मिल जाय और अवांछनीय लाभ की क्षतिपूर्ति कराने वाली बात गोल कर दी जाय। वापसी ही प्रायश्चित का प्राण है। उसका जितना पूरा-अधूरा अंश सम्भव हो उसके लिए साहस जुटाया ही जाना चाहिए।

यहाँ यह स्मरणीय है कि सारा समाज एक शरीर है। उसके किसी भी अंग को क्षति पहुँचाई गई हो पूरे शरीर की हानि मानी जायेगी। आवश्यक नहीं कि हानि जिस रूप में पहुँचाई गई हो उसे रूप में वापिस लौटाई जाय। लोकहित के किसी भी श्रेष्ठ काम में उस वापसी को लगाया जा सकता है। जिसका लिया उसे उसी रूप में वापिस कर सकना कई बार तो सर्वथा अशक्य और अव्यावहारिक भी होता है। रास्ते में पैसा पड़ा मिला- किसी की जेब कटी अब उसी व्यक्ति को ढूँढ़ निकालना कैसे सम्भव हो सकता है? किसी का शील नष्ट किया अब उसे उसकी क्षति कैसे पूरी की जाय? कई बार तो इसमें उलटी नई समस्याएँ खड़ी हो सकती है। जो लोग साथी सहयोगी रहे वे भी लपेट में आते हैं और सद्भावना उत्पन्न करने का उद्देश्य भयंकर विग्रह का रूप धारण कर सकता है।

अनीति से उपार्जित उपलब्धियों को जिस-तिस रूप में लोक मंगल के सत्प्रवृत्ति संवर्द्धन के किसी श्रेष्ठ काम में लगा दिया जाना चाहिए। अशोक, अंगुलिमाल अम्बपाली आदि ने अपना अनीति उपार्जन बौद्ध धर्म के प्रसार विस्तार में समर्पित कर दिया था। जिसकी जो हानि की उसी को तलाश करना और उसी रूप में वापिस करना उनके लिए सम्भव भी न था।

धन या श्रम के रूप में अनीति मार्ग से उपार्जित की गई समस्त उपलब्धियों की वापसी की बात सोची जा सकती है। प्रायश्चित प्रकरण में अनेक प्रकार के दानों का उल्लेख हुआ है। उस समय साधु ब्राह्मण दान और उसके श्रेष्ठतम सदुपयोग की प्रामाणिक एजेन्सी थे। उन पर अविश्वास करने का कोई कारण भी न था। ऐसी दशा में साधु-ब्राह्मण को प्रायश्चित दान देने का उल्लेख है आज तो वैसी स्थिति नहीं रही। सत्प्रवृत्ति संवर्धन कर सकने वाले श्रेष्ठ कर्मों में ही ऐसे प्रायश्चित दान नियोजित किये जाने चाहिए।

धन का स्थानापन्न श्रम भी हो सकता है। वस्तुतः श्रम ही धन है। यों धन से श्रम भी खरीदा जा सकता है। पर मूल आधार श्रम है। व्यक्ति की यही मौलिक सम्पदा है और यह सभी को समान रूप से उपलब्ध है। अस्तु प्रायश्चित प्रयोजनों में धन लौटाने की ही तरह श्रम के द्वारा उसकी क्षतिपूर्ति करने का भी विधान है। पाप कर्मों के द्वारा समाज की नैतिक, आर्थिक, एवं अन्य प्रकार की क्षति हुई है उसकी भरपाई सत्प्रवृत्ति सम्वर्धन से उतना ही श्रम लगाकर की जा सकती है। दूसरों के गिराने के लिए जो खाई खोदी गई थी, उसे पाटने के लिए समतल बनाने वाला श्रम नये सिरे से लगाने पर ही सन्तुलन बनेगा और प्रायश्चित सम्भव होगा।

प्रायश्चित की आवश्यकता और उसके लिए उठाये जाने योग्य चरण क्या होने चाहिए? इसकी चर्चा तत्त्व दर्शियों ने इस प्रकार की है-

अकृत्वा विहितं कर्म्भ कृत्वा निन्दितमेव च।

दोषमाप्नोतिः पुरुषः प्रायश्चित विशोधनम्॥

प्रायश्चितमकृत्वा तुन तिष्ठेद ब्राहमणः क्वचित्

यद्बूयुर्ब्राहमणाः शान्ताः विद्वाँसस्तत्समाचरेत्।

- कर्म पुराण

निन्दित हेय कुकर्म करने पर मनुष्य को पाप लगता है। उसका शोधन प्रायश्चित द्वारा करना चाहिए। श्रेष्ठ विद्वान् और तपस्वी बहमवेताओं से प्रायश्चित पूछना चाहिए और तदनुसार व्यवस्था करनी चाहिए।

आसम्बत्सरं प्रायश्चिताकरणें पापद्वेगुण्यम्।

(प्रायश्चितेन्दु0 शे0)

इनके अनुसार एक वर्ष तक पाप का प्रायश्चित न किया जाय तो पाप दुगुना हो जाता है। अतः पाप का प्रायश्चित यथा समय करना चाहिए।

तपसा कर्मणा चैव प्रदानेन भारत्।

पुनाति पापं पुरुष पुनश्चेत्र प्रवर्तते॥

- महाभारत शान्ति पर्व

भरतनन्दन्! मनुष्य तप से यज्ञ आदि सत्कर्मों से तथा दान के द्वारा पाप को धो- बहाकर अपने आपको पवित्र कर लेता है।

धनजंय कृतं पापं कल्याणें नोपहन्यते।

ख्यापनेनानुतापेन दानेनतपसापि वा॥

- महा0 शान्ति पर्व

धनंजय किया हुआ पाप कहने से, दान करने से और तपस्या से नष्ट हो जाता है।

श्रम के द्वारा प्रायश्चित करना हर किसी के लिए सम्भव है। सत्प्रवृत्ति संवर्धन में लगाया हुआ समय इस आवश्यकता की पूर्ति करता है। साथ ही धन के रूप में भी जो लौटाया जा सकना सम्भव है उसके लिए पूरी ईमानदारी से प्रयत्न करना चाहिए।

इस दृष्टि से धर्म प्रचार के लिए की गई पदयात्रा, तीर्थयात्रा सर्वश्रेष्ठ है। जन-मानस में सत्प्रवृत्तियों की प्रेरणा भरना ही प्राचीन काल में तीर्थयात्रा का उद्देश्य रहा है। उसे महत्त्व भी इसीलिए मिला और माहात्म्य भी इसी आधार पर बताया गया। आज की स्थिति में सर्वत्र सद्भावनाओं का ही दुर्भिक्ष पड़ा हुआ है। उसी के अभाव के कारण सम्पदा और शिक्षा, कुशलता एवं अन्यान्य क्षमताएँ भी सुख-शान्ति बढ़ाने के स्थान पर विपत्ति बढ़ा रही है। सद्भाव विस्तार के लिए जन-मानस का परिष्कार आवश्यक है। यह कार्य धर्म-प्रचार के लिए नियोजित की जाने वाली तीर्थयात्रा, पदयात्रा के लिए निकलने वाली टोलियाँ, मण्डलियाँ जितनी अच्छी तरह कर सकती है उतना और किसी प्रकार सम्भव नहीं। प्रायश्चित के ऋण विमोचन चरण को पूरा करने के लिए अन्यान्य सत्प्रवृत्ति संवर्द्धन प्रयत्नों के साथ-साथ तीर्थयात्रा पर निकलने की बात भी ध्यान में रखी जानी चाहिए।


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