अंतः त्राटक से आत्म-ज्योति की साधना

May 1977

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बाह्य एवं प्रत्यक्ष त्राटक के लिए दीपक, मोमबत्ती, बल्ब आदि की आवश्यकता पड़ती है। पाश्चात्य वेधक दृष्टि के साधक कागज पर काला गोला बना कर उसके मध्य बिन्दु पर ध्यान करते हुए उस प्रक्रिया को पूर्ण करते हैं । अंतःत्राटक में इन उपकरणों की आवश्यकता नहीं पड़ती । उसमें प्रकाश ज्योति का मानसिक एवं भावनात्मक ध्यान करने से ही काम चल जाता है।

प्रातःकालीन उदीयमान सूर्य जब तक स्वर्णिम रहे तब तक कुछ-कुछ सेकेंड के लिए उसका प्रत्यक्ष आँखों से दर्शन और फिर नेत्र बन्द करके उसका ध्यान करने से अन्तः त्राटक की आधार भूमिका बन जाती है। यही कार्य पूर्णिमा का पूर्णचन्द्र देखने और आंखें बन्द करने से भी हो सकता है। अन्य तारकों की ओर ध्यान न जाय और शुक्र, गुरु जैसे किसी अधिक प्रकाशवान तारे को भी इस प्रयोजन के लिए प्रयुक्त किया जा सकता है। मोमबत्ती, दीपक, बल्ब आदि का प्रयोग जब तक होता रहेगा तब तक उसे बाह्य त्राटक ही कहा जाता रहेगा जब उपकरणों की आवश्यकता नहीं रहती और मात्र ध्यान से ही प्रकाश की अनुभूति होने लगती है तो उसे अन्तः त्राटक कहा जाने लगता है।

अंतःत्राटक आरम्भ करते हुए कुछ समय प्रकाश की स्थापना वहीं रहने देनी चाहिए वहाँ से उसे देखा गया था। प्रभात कालीन स्वर्णिम सूर्य सुदूर पूर्व में उगते हुए जहाँ देखा गया था आरम्भिक दिनों से उसे वहीं सूक्ष्म दृष्टि से देखना चाहिए और भावना करनी चाहिए कि उस प्रकाश पुञ्ज की ज्योति किरणें अन्तरिक्ष में होकर उतरती है और अपनी उत्कृष्टता को स्थूल शरीर में बल, सूक्ष्म शरीर में ज्ञान एवं कारण शरीर भाव बन कर प्रवेश करती है। शरीर संयमी, सक्रिय, स्वच्छ बनता है। मन में उसी प्रकार की किरणें सन्तुलन, विवेक, शालीनता, सद्ज्ञान बन कर बरसती है। कारण शरीर में अन्तःकरण में सद्भावना, सम्वेदना, श्रद्धा भक्ति के रूप में उन प्रकाश किरणों को अवतरण होता है और समूचा व्यक्तित्व दिव्य प्रकाश से ब्रह्म ज्योति से जगमगाने लगता है।

अंतःत्राटक का यह प्रथम चरण है। बाहर से भीतर की ओर ज्योति का प्रवेश करने की प्रक्रिया प्रथम भूमिका कहलाती है, क्रमिक विकास में इसी की सुविधा रहती है । यह स्थिति अधिक परिपक्व परिपुष्ट हो चलने पर प्रकाश की स्थापना भीतर की जाती है और उस आत्म-ज्योति की ब्रह्म-ज्योति की आग भीतर से निकल कर बाहर की ओर प्रकाशवान होती है। बल्ब का फिलामेन्ट भीतर भी ज्योतिर्मय होता ही है-अपनी आभा से संपर्क क्षेत्र को भी प्रकाशवान बना देता है। अन्तर्ज्योति के प्रकटीकरण में भी ऐसी ही स्थिति बनती है। अंतःत्राटक का साधक आत्म-सत्ता को प्रकाश से परिपूर्ण तो देखना ही है-साथ ही अपने प्रभाव क्षेत्र में भी आलोक बखेरता है।

अंतःत्राटक के लिए ध्यान मुद्रा में बैठना पड़ता है। अधखुले नेत्र , दोनों हाथों की उँगलियों मिली हुई, हथेलियाँ ऊपर की ओर करके उन्हें गोदी में रखना-यही है ध्यान मुद्रा-भगवान बुद्ध के चित्रों में प्रायः यही स्थिति चित्रित की जाती है। इस स्थिति में स्थित होकर भूमध्य भाग में अवस्थित प्रकाश पुँज की धारणा और अधिक प्रगाढ़ की जाती है । बिजली के बल्ब का मध्यवर्ती तार फिलामेन्ट-जिस प्रकार चमकता है और उसकी रोशनी बल्ब के भीतरी भाग में भरी हुई गैस में प्रतिबिम्बित होती है। इससे बल्ब का पूरा गोला चमकने लगता है और उसका प्रकाश बाहर भी फैलता है। ठीक ऐसी ही भावना बिन्दुयोग में करनी होती है।

भ्रूमध्य भाग में आज्ञाचक्र अवस्थित है। इसी को दिव्य नेत्र या तृतीय नेत्र कहते हैं। शंकर एवं दुर्गा के चित्रों में इसी स्थान पर तीसरा नेत्र दिखाया जाता है। पुराण कथा के अनुसार इसी नेत्र को खोलकर भगवान शिव के अग्नि तेजस् उत्पन्न किया था और उससे विघ्नकारी मनोविकार कामदेव को जलाकर भस्म किया था। यह नेत्र हर मनुष्य में मौजूद है। शरीर शास्त्र के अनुसार इसे पिट्यूटरी ग्रन्थि कहते हैं। इसमें नेत्र जैसी सूक्ष्म संरचना मौजूद है। सूक्ष्म शरीर के विश्लेषण में यह केन्द्र विशुद्ध -भूत भविष्य सभी कुछ देखा जाना जा सकता है। एक्सरे द्वारा शरीर के भीतर की टूट-फूट अथवा किसी बन्द बक्से के भीतर रखे आभूषणों का चित्र खींचा जा सकता है। इस दिव्य नेत्र को भी एक्सरे यन्त्र से तुलना की जा सकती है। यदि वह प्रदीप्त हो उठे तो घर बैठे महाभारत के दृश्य टेलीविजन की भाँति देखने वाले संजय जैसी दिव्य दृष्टि प्राप्त की जा सकती है और वह सब देखा जा सकता है जिसका अस्तित्व तो है, पर चमड़े से बने नेत्र उसे देख सकने में समर्थ नहीं है।

इस नेत्र में अदृश्य देखने की ही नहीं ऐसी प्रचण्ड अग्नि उत्पन्न करने की भी शक्ति है जिसके आधार पर अवांछनीयताओं को अवरोधों को जलाकर भस्म किया जा सके। शंकर जी ने इसी नेत्र को खोला था तो प्रचण्ड शिखायें उद्भूत हो उठी थीं। विघ्नकारी कामदेव उसी में जल-बल कर भस्म हो गया था। बिन्दुयोग की साधना को, यदि इस तृतीय नेत्र को ठीक तरह ज्योतिर्मय किया जा सके तो उसमें उत्पन्न होने वाली अग्नि शिखा मनोविकारों को- अवरोधों की जलाकर भस्म कर सकती है। उसकी शक्ति व्याख्या है। यदि दार्शनिक व्याख्या करनी हो तो उसे विवेकशीलता एवं दूरदर्शिता का जागरण भी कह सकते हैं। जिसके आधार पर लोभ , मोह, वासना तृष्णा अहंता जैसे मनोविकारों के कारण उत्पन्न हुए अगणित शोक, संतापों और निग्रह उपद्रवों को सहज ही शमन या सहन किया जा सकता है।

पौराणिक गाथा के अनुसार पुरातन काल में जब यह दुनिया जीर्ण-शीर्ण हो गई थी- उसकी उपयोगिता नष्ट हो गई थी-तब भगवान शिव ने अपना तीसरा नेत्र खोल कर प्रलय दावानल उत्पन्न किया था और ध्वंस के ताण्डव नृत्य में तन्मय होकर भविष्य में अभिनव विश्व के नव-निर्माण की भूमिका सम्पादित की थी। उस प्रलयंकारी ताण्डव नृत्य का बाह्य स्वरूप कितना ही रोमांचकारी क्यों न रहा हो उसकी चिनगारी शिवनेत्र से ही प्रस्फुटित हुई थी। बिजली जीवन क्रम में तथा समाज गत समष्टि जीवन में भी ऐसी आवश्यकता पड़ सकती है कि प्रचलित ढर्रे में आमूल-चूल परिवर्तन आवश्यक न हो जाय-जो चल रहा है उसे उलटना अनिवार्य बन जाय। यह महा परिवर्तन भी तृतीय नेत्र से-दूरदर्शी विवेक सम्भव विचार क्रान्ति से ही सम्भव हो सकता है। शिवजी के द्वारा ताण्डव नृत्य के समस्त तृतीय नेत्र खोले जाने के पीछे महाक्रान्ति की सारभूत रूपरेखा का दिग्दर्शन है।

अतः त्राटक के अंतर्गत भ्रूमध्य में दीप्त ज्योति का ध्यान करते हुए यह धारणा करनी पड़ती है। प्रत्येक जीवाणु में कण-कण और रोम-रोम में प्रकाश आलोक की आभा प्रदीप्त होती है। अन्धकार किसी भी कोने में छिपा नहीं रहा उसे पूर्णतया बहिष्कृत कर दिया गया है।

प्रत्येक कोशिका एवं तन्तु को आलोकित देखा जाता है। मस्तिष्क के चार परत माने गये हैं मन, बुद्धि, चित, अहंकार इन चारों को प्रकाश पुँज बना हुआ अनुभव किया जाता है। अपनी सत्ता के प्रत्येक पक्ष को भूमध्य केन्द्र से निकलने वाले प्रकाश प्रवाह में आलोकित अनुभव करना लगभग उसी स्तर का है जैसा कि प्रभात कालीन सूर्य निकलने पर अन्धकार का हर दिशा से पलायन होने लगता है और समस्त संसार आलस्य अवसाद छोड़ कर आलोक, उल्लास, स्फूर्ति एवं सक्रिय उमंगों के साथ कार्यरत हो जाता है। बिन्दुयोग की साधना जीवन सत्ता के कण-कण में प्रकाश उद्भव की अनुभूति तो कराती ही है। साथ ही उन अभिनव स्तर की हलचल भी उभरती दृष्टिगोचर होती है।

अध्यात्म की भाषा में प्रकाश शब्द का उपयोग मात्र चमक के अर्थ में प्रयुक्त नहीं होता, वरन् उसका अभिप्राय ‘ज्ञान युक्त क्रिया’ में सम्मिश्रित उल्लास भरी भाव तरंगों में होता है । पंचभौतिक जगत में गर्मी और रोशनी के सम्मिश्रण को प्रकाश कह सकते हैं। किन्तु अध्यात्म क्षेत्र में गर्मी का अर्थ सक्रियता और प्रकाश का अर्थ दूरदर्शी उच्चस्तरीय ज्ञान ही कहा जाता है। प्रकाश की प्राप्ति की चर्चा जहाँ कहीं भी होगी वहाँ रोशनी चमकने जैसे दृश्य खुला या बन्द आँखों से दीखना भर नहीं हो सकता वहाँ उसका अभिप्राय गहरा ही रहता है। आत्मोत्कर्ष की भूमिका स्पष्टतः विवेक युक्त सक्रियता अपनाने पर ही निर्भर है-भौतिक गर्मी या रोशनी से वह महान् प्रयोजन कैसे पूरा हो सकता है?

अंतःत्राटक को ही बिन्दुयोग भी कहते हैं। उसमें प्रकाश दर्शन के साथ-साथ यही धारणा करनी पड़ती है कि प्रकाश रूप परमात्मा का आलोक अंग-प्रत्यंग के कण-कण में -अन्तःकरण के प्रत्येक कक्ष परत में प्रकाशवान होता है। दिव्य चेतना की किरणें काय कलेवर की प्रत्येक लहर पर प्रतिबिम्बित हो रही हैं। विवेक की आभा फूटी पड़ रही है-सतोगुण झिलमिला रहा है-सत्साहस प्रखर प्रचण्ड बन कर सक्रियता की ओर अग्रसर हो रहा है। अज्ञान के आवरण तिरोहित हो रहे हैं। भ्रमाने वाले और डराने वाले दुर्भाव, संकीर्ण विचार अपनी काली चादर समेट कर चलते बने, प्रकाश भरे श्रेय पथ पर चल पड़ने वाले का शौर्य सबल हो उठा, अशुभ चिन्तन के दुर्दिन चले गये। सर्वत्र आनन्द और उल्लास ही आलोकित हो रहा है। ईश्वरीय प्रकाश शरीर में सत्प्रवृत्ति ओर मन की सद्भावना बन कर ज्योतिर्मय हो चला। अँधेरे में भटकने वाली काली निशा का अन्त हो गया, भगवान की दिव्य ज्योति ने सर्वत्र अपना आधिपत्य जमा लिया।

अंतःत्राटक की उच्च भूमिका में सूर्य, चन्द्र, दीपक, बल्ब आदि के प्रकाश को बाह्य क्षेत्र से हटाकर अन्तरंग में स्थापित किया जाता है इसके लिए भ्रूमध्य भाग का आज्ञाचक्र मुख्य माना गया है। इसके उपरान्त इसी ज्योति की स्थापना हृदयचक्र विशुद्धिचक्र से सम्बन्धित है अस्तु साधना के क्रमिक मार्ग पर चलते हुए प्रथम आज्ञाचक्र के पश्चात् हृदयचक्र को त्राटक साधना के अनुसार प्रकाशवान बनाया जाता है।

हृदयचक्र को अन्तरात्मा का स्थान माना गया है और वहीं ईश्वर मिलन एवं आत्म साक्षात्कार का लाभ मिलने की बात कही गई है। गीता का वचन है- “ईश्वरः सर्वभूतानां हृदेशेऽर्जुन तिष्ठति।” यहाँ हृदय स्थान में ही ईश्वर का निवास कहा गया है। इसकी ध्यान प्रक्रिया “हत्पुण्डरीक मध्यस्थाँ प्रातः सूर्य समप्रभाम्” हृदय कमल पर प्रातःकालीन सूर्य के समान परब्रह्म का दिव्य दर्शन करने के रूप में बताई गई है।

हृदयचक्र को हृत पद्य भी कहा गया है। “हृत पद्यकोशे विलसत् तड्गि प्रभम्” वर्णन में उसे विद्युत प्रवाह युक्त कमल की संज्ञा दी गई है। ईसाई धर्म के साधन विज्ञान में इस संस्थान को ‘माइस्ट्रिक रोज-रहस्यमय गुलाब कहा गया है। यही दैनिक स्वर्ण कमल आईचिन है।

मृद्येष आत्मा।

वह आत्मा हृदय में अवस्थित है।

कतम आत्मेति? योऽयं विज्ञानमयः प्राणेषु हृद्यन्तेर्ज्योतिः पुरुषः।

-वृहदारण्यक

आत्मा कौन है? वह जो विज्ञान ज्योति बन कर हृदय में निवास करता है

कुण्डलिनी योग साधना के अंतर्गत हृदयचक्र में प्रज्वलित अग्नि ज्योति को उसी महाशक्ति का स्वरूप माना गया है। हृदयचक्र में ज्योति रूप बनकर कुण्डलिनी ही परिभाषित होती है।

चन्द्राग्निरविसंयुक्तो आद्या कुण्डलिनी माता।

हृत्प्रदेशे तु सा ज्ञया अंकुराकारसंस्थिता-अग्नि पुराण

चन्द्र और सूर्य की शक्ति से भरी हुई प्रकाशवान कुण्डलिनी शक्ति हृदय प्रदेश में रहती है। उनकी ज्योति अंकुर के आकार की है

योग कालेन न मरुता साग्निता वोधिता सती।

स्फुरिता हृदयाकाशे नागरुपा महोज्ज्वला-त्रिशिख ब्राह्मणोपनिषद्

योगाभ्यास द्वारा यह कुण्डलिनी शक्ति पवन द्वारा जागृत अग्नि के समान हृदयाकाश में नाग रूप में अत्यन्त उज्ज्वल स्फुरित होती है।


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