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May 1977

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नवनीत घृतं क्षीरं दधितक्र मधूनिच॥

द्राक्षारसच्च पीयूषं जायते रसनोदकम्।

मनोलयं यदा याति भ्रूमध्ये योगिनां नृणाम्।

जिव्हामलेऽमृतेस्त्रावो भ्रूमध्ये चात्मदर्शनम्॥

- महायोग विज्ञान

खेचरी मुद्रा द्वारा जिव्हा को तालु में लगा कर जो चन्द्रामृत पान किया जाता है उसमें आरम्भ में नमक खारी, खट्टा तीखा, कसैला, रस प्रतीत होता है। मध्य काल में मक्खन, घी, दूध दही, छाछ जैसा और साधना आगे बढ़ने पर अन्त में मधु, द्राक्ष रस जैसा अमृत सरीखा यह रसास्वादन होता है। साथ ही आज्ञाचक्र में आत्म दर्शन भी होता है।


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