मंत्र सिद्धि के चार प्रधान आधार

March 1975

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मन्त्र सिद्धि में चार तथ्य सम्मिलित रूप से काम करते हैं - (1) ध्वनि विज्ञान के आधार पर विनिर्मित शब्द शृंखला का चयन और उसका विधिवत् उच्चारण (2) साधक की संयम द्वार, निग्रहित प्राण शक्ति और मानसिक एकाग्रता का संयुक्त समावेश (3) उपासना प्रयोग में प्रयुक्त होने वाले पदार्थ उपकरणों की भौतिक किन्तु सूक्ष्म शक्ति (4) भावना प्रवाह, श्रद्धा, विश्वास एवं उच्चस्तरीय लक्ष्य दृष्टिकोण। इन चारों का जहाँ जितने अंश में समावेश होगा वहाँ उतने ही अनुपात से मन्त्र शक्ति का प्रतिफल एवं चमत्कार दिखाई पड़ेगा। इन तथ्यों की जहाँ उपेक्षा की जा रही होगी और ऐसे ही अन्धाधुन्ध गाड़ी धकेली जा रही होगी- जल्दी -पल्दी वरदान पाने की धक लग रही होगी वहाँ निराशा एवं असफलता ही हाथ लगेगी।

मन्त्र विज्ञान भी अन्यान्य विज्ञानों की तरह ही एक सुव्यवस्थित प्रक्रिया है, जिसे धैर्य एवं सावधानी के साथ अपनाना पड़ता है। उसके हर अंग उपाँग को यथास्थान नियोजित करना पड़ता है। घड़ी का हर कलपुर्जा अपने स्थान पर सही रूप से फिट हो तभी वह ठीक तरह चलती और समय बताती है। इसी प्रकार मन्त्र विज्ञान के उपरोक्त तीनों आधार यदि सतर्कता पूर्वक व्यवस्थित किये जा सकें तो कोई कारण नहीं कि अभीष्ट परिणाम प्राप्त न किया जा सके। मन्त्र विद्या निष्फल एवं उपहासास्पद इसीलिए बनती जाती है कि कुपात्र, उतावले और अवैज्ञानिक दृष्टि वाले लोग साधना की विडम्बना रचते हैं और हथेली पर सरसों न जमे तो तरह - तरह के लाँछन लगाते हैं।

मन्त्र शक्ति में ध्वनि प्रवाह का सही होना प्रथम आधार है। सर्वविदित है कि बहते पानी में किन्हीं आघातों के कारण लहरें उत्पन्न होती हैं और वे प्रवाह की दिशा में ही बहती हैं। रुके जल में वे चारों ओर भी फैलती हैं। वायु बहती तो है, पर उसकी लहरें प्रवाह की ओर ही नहीं वरन् सभी दिशाओं में फैलती हैं। शब्द वस्तुतः एक प्रकार की कम्पन लहरें ही हैं। मनुष्य के मन में कोई विचार उत्पन्न होता है। मस्तिष्क को अभ्यास है कि किस विचार से बाह्य जगत को परिचित कराने के लिए किन स्वर यन्त्रों में किस प्रकार की हलचल की जानी चाहिए। इच्छा शक्ति से प्रेरित पूर्वाभ्यास उच्चारण यन्त्रों में जो उभार उत्पन्न करता है उससे मुख में भरी हुई तथा बाहर की वायु को आघात लगता है और उससे ध्वनि तरंगें उत्पन्न होनी आरम्भ हो जाती हैं। हमारे कान उन्हें ही सुनते हैं और उनका विश्लेषण करके मस्तिष्क यह निर्णय करता है किसने, किस प्रयोजन के लिए क्या कहा?

इच्छा से गति और गति से तरंगें उत्पन्न होती हैं। यह कम्पन मोटे शब्दों में वायु से हुए कहे जा सकते हैं, पर वस्तुतः वे वायु के भीतर रहने वाले एक सूक्ष्म तत्व ‘ईथर’ से होते हैं। साधारणतया एक सेकेंड में 32 तक होने वाले कम्पनों को हमारे कान सुन लेते हैं, इससे कम होंगे तो सुन न जा सकेंगे इस प्रकार अधिक से अधिक 68 तक सुन सकते हैं इससे ज्यादा होंगे तो भी कानों को उन्हें सुन-समझ सकना सम्भव न होगा। ईथर तत्व के परमाणु अत्यन्त सूक्ष्म और अति संवेदनशील हैं। वे एक सेकेंड में 34 अरब तक कम्पन उत्पन्न कर सकते हैं। जब यह कम्पन चरमसीमा पर पहुँचते हैं तो उनसे एक अखण्ड प्रकाश की किरणें निकलने लगती हैं। इन्हीं किरणों को ‘एक्सरेज’ कहा जाता है।

इन किरणों में अद्भुत गतिशीलता होती है, वे एक सेकेंड में प्रायः एक करोड़ मील चल लेती हैं। रेडियो टेलीविजन आदि का निर्माण इसी विज्ञान के आधार पर सम्भव हुआ है। वायु के कम्पन नष्ट हो जाते हैं, पर ईथर के कम्पनों का कभी नाश नहीं होता वे सदा अमर रहते हैं। जैसे-जैसे वे पुराने होते जाते हैं वैसे-वैसे पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण की सतह पर जाकर स्थिर हो जाते हैं। जहाँ वे बलिष्ठ होने पर अपने समान धर्मी अन्य कम्पनों को अपनी ओर खींचते हैं अथवा दुर्बल होने पर दूसरों की ओर खिंच जाते हैं। इस प्रकार जीर्ण होने पर भी एक नई चेतना को संघ शक्ति के आधार पर जन्म देते हैं और ऐसे चुम्बकत्व का सृजन करते हैं जो उन शब्दों के साथ जुड़ी हुई चेतनाओं से मनुष्यों को प्रभावित कर सके। यहाँ भी सहधर्मिता का नियम लागू होता है जिन मनुष्यों के मस्तिष्क की स्थिति उन प्राचीन किन्तु संगठित शब्द कम्पन शक्ति से मिलती - जुलती होगी। असमानता की स्थिति में कोई विचार या शब्द प्रभाव किसी को प्रभावित नहीं कर सकता केवल अपनी उपस्थिति का परिचय दे सकता है।

ध्वनि एक प्रत्यक्ष शक्ति है। वह यों निराकार है, पर साकार बनाई जा सकती है। अब ध्वनियों के फोटो लिये जाने लगे हैं और उस आधार पर उस व्यक्ति की आकृति पहचानी जा सकती है जिसने अमुक ध्वनि अपने मुँह से निकाली थी। आवाज की फोटोग्राफी के विज्ञान ने इस सच्चाई को सामने रख दिया है कि शब्द एक शक्तिशाली पदार्थ हैं, जिस पर अणु शक्ति का, बिजली का, ताप का उपयोग होता है वैसा ही शब्द का भी हो सकता है। मन्त्रों के शब्द प्रवाह का जो चित्र बनता है उसी के आधार पर उनके अधिष्ठाता देवताओं की आकृतियों का निर्धारण किया गया है और मन्त्र सिद्धि में उन देवताओं के पूजन ध्यान से निर्धारित ध्वनि प्रवाह को सशक्त बनाने का अध्यात्म विज्ञानियों द्वारा निर्देश किया गया है।

कैलीफोर्निया के वायु सेना ट्रेविस केन्द्र के एक 25 वर्षीय वायु सैनिक का कोई मार्शल हुआ। वह टेलीफोन केन्द्र पर एक्सचेंज पर नियुक्त लड़कियों के साथ अश्लील छेड़-छोड़ करने का अपराधी पाया गया। यों वह अपना नाम पता प्रकट न होने देने के सम्बन्ध में पूरी सतर्कता बरत रहा था तो भी पुलिस ने वैज्ञानिक उपकरणों की सहायता से उसे पकड़ लेने में सफलता प्राप्त कर ही ली।

आवाज की फोटोग्राफी का प्रयोग इस प्रयोजन के लिए किया गया। जो आवाज टेलीफोन पर आती थी उसका फोटो लिया गया। फिर सम्भावित अपराधी की आवाज से उसे मिलाया गया तो वे प्रिन्ट बिलकुल मिल गये। यद्यपि अपराधी इन्कार करता रहा तो भी अदालत ने सबूत को प्रामाणिक माना और उसे सजा सुनादी।

आवाज का फोटो, विज्ञान की अनोखी देन है। इस पद्धति के आविष्कारक हैं डा0 कर्स्टा उन्होंने ध्वनि अंकन - व्वाइस स्पेक्ट्रोग्राम की तीन आयाम वाली ऐसी प्रक्रिया ढूंढ़ निकाली है जिसके अनुसार किसी की भी आवाज का फोटो लिया जा सकता है। उनका कहना है कि जिस प्रकार किसी की अँगूठा छाप किसी दूसरे से नहीं मिलती उसमें भिन्नता अवश्य होती है उसी प्रकार किसी की आवाज भी दूसरे से नहीं मिलती। अस्तु आवाज के फोटोग्राफ भी किसी अन्य की आवाज के समान नहीं होते। इस पद्धति के अनुसार खींचे गये आवाज के फोटो पूर्णतया प्रामाणिक माने जाते हैं और उनके आधार पर महत्वपूर्ण गुप्त रहस्यों को जानने एवं अपराधियों को पकड़वाने में बहुत सहायता मिलती है।

डा0 कर्स्टा के अनुसार हर बालक बोलना सीखते समय अपने होठ, दाँत, जीभ, तालू, कण्ठ आदि का प्रयोग एक विशेष ढंग से करता है और उच्चारण की व्यवस्था बनाता है, इससे माँस-पेशियों में जो हलचल होती है उसका दबाव मुँह में भरी तथा बाहर फैली हवा पर पड़ता है। इस दबाव से ध्वनि उत्पन्न होती है। चूँकि उच्चारण यन्त्रों की हलचल का उतार-चढ़ाव, हर किसी का स्वनिर्मित एवं अलग होता है इसलिए मुख से निकले शब्दों में भी कुछ न कुछ अन्तर रहता है। यह अन्तर ही ध्वनि भिन्नता का आधार बनता है और किसी की आवाज किसी से न मिलने का क्रम चल पड़ता है।

न्यूजर्सी के डा0 मार्टिमर श्वार्त्ज ने शरीर की आन्तरिक स्थिति का पता लगाने और रुग्णता के कारणों का विश्लेषण करने के लिए मनुष्य की आवाज को महत्वपूर्ण आधार माना है वे कहते हैं जब अन्तर जानकर रक्त-संचार की स्थिति जानी जा सकती है तो शरीर की भीतरी स्थिति से प्रभावित होने वाले उच्चारण को बारीकी से समझने पर किसी की अन्तःव्यथा एवं स्थिति को समझना क्यों अशक्य होगा। उनके प्रयोगों ने रोग निदान के क्षेत्र में एक नया आधार खड़ा किया है।

बीज मन्त्रों का अर्थ कुछ नहीं उनकी शक्ति परिधि अवश्य है। मन्त्र शास्त्र में ह्रीं, श्रीं, क्लीं, यं, वं, रं, लं, ऐं, ओं, हुँ आदि अनुस्वारान्त एकाक्षरी कितने ही बीज मन्त्रों का उल्लेख और उनके प्रभाव तथा विधान का वर्णन है। यह बीज विज्ञान विशुद्ध रूप से शब्द शक्ति पर अवलम्बित है। शब्द की अपनी शक्ति एवं प्रक्रिया है।

पदार्थ विज्ञान के अनुसार शब्द से कम्पन उत्पन्न होते हैं। साथ ही यह भी एक तथ्य है कि मुख अथवा किसी पदार्थ विशेष में शक्ति का प्रयोग होने से शब्द प्रवाह विनिसृत होता है। शब्द अपने आपमें कम्पन प्रवाह की एक स्थिति विशेष है। बाहरी वायु से जब हमारी भीतरी वायु की टक्कर होती है तो शब्दोच्चार- स्वर प्रवाह आरम्भ होता है।

तीर्थ स्थान किसी समय साधना पीठ के रूप में बने विकसित हुए थे। वहाँ अमुक साधना के अभीष्ट उपयुक्त वातावरण - आवश्यक साधन एवं अनुभूत मार्ग दर्शन प्रस्तुत रहता था। अभीष्ट लक्ष्य की पूर्ति को लोग वहाँ जाते थे और सफल मनोरथ होकर आते थे। आज तीर्थों की दुर्दशा सर्वविदित है। यह उस मूल प्रयोजन से सर्वथा भिन्न है जिनके लिए इनकी रचना की गई थी।

यों शरीर भी एक छोटा किन्तु पूरा विश्व है। इसमें सभी तीर्थों के बीज पीठ विद्यमान हैं। इनमें से कोई एक अथवा एक साथ अनेक पीठों को जागृत एवं प्रखर बनाया जा सकता है। कोई-कोई व्यक्तित्व मूर्तिमान शक्ति पीठ होते हैं इन्हीं सिद्ध पुरुष मानवी चेतना में घुसा हुआ विजातीय तत्व है उसे निकालने, हटाने में थोड़ा सा ही प्रबल प्रयत्न सफल हो सकता है। साधना इसी लक्ष्य की पूर्ति के लिए है। साधन समर में यदि आत्म-तत्व बाजी ले गया तो फिर पौराणिक समुद्र मंथन में प्राप्त 14 रत्नों से भी अधिक मूल्य की अगणित दैवी संपदाएं प्राप्त होती हैं। उन्हें पाकर मनुष्य आप्त काम हो जाता है फिर और कुछ पाना शेष नहीं रह जाता। साधन काल दैवी आसुरी संघर्षों की तुमुल युद्ध की - अवधि है। इसमें पूरे कौशल चातुर्य एवं साहस का प्रयोग करना पड़ता है। यह युद्ध उपेक्षा पूर्वक - ज्यों-त्यों करके ढीले-पोले मन से बेगार भुगतने की तरह नहीं लड़ा जा सकता है। उसमें पूरे मनोयोग एवं प्रबल पराक्रम की आवश्यकता पड़ती है।

श्रेय पथ पर गतिशील ऊर्ध्वगामी मनःस्थिति को दैवी कहते हैं और पतनोन्मुख वासना, तृष्णा में निरत आकाँक्षा स्तर को ‘आसुरी’ कहा जाता है। इनमें से प्रथम आकर्षक और द्वितीय विकर्षक चेतना प्रवाह है। व्यक्ति सत और तक का सम्मिलित उत्पादन है। रज दोनों की मध्य स्थिति है। तम को सत की ओर ले जाने में मध्यवर्ती स्थिति की समुद्र मंथन से तुलना की जाती है। दोनों ओर रस्साकशी होती है। चिर अभ्यस्त पतन क्रम अपने बन्धनों को ढीला नहीं करना चाहता। साधक उसे उत्थान की ओर बढ़ाने में प्रयत्नशील है फलतः समुद्र मंथन की - महाभारत की - संघर्षात्मक स्थिति हमारे आन्तरिक धर्म-क्षेत्र, कर्म क्षेत्र में उत्पन्न हो जाती है। असुरता को सौभाग्य मिल गया।

साधना जब साधक का सर्वप्रिय विषय बन जाय - उसमें निरत रहने को स्वयमेव मन चले- उन क्षणों को घटाने की नहीं बढ़ाने की ललक रहे - उपासना से उठने पर शरीर में स्फूर्ति और मन में सरसता लगे तो समझना चाहिये कि परिपक्वता आ गई और इसका श्रेयस्कर सत्परिणाम अत्यन्त सन्निकट है। आरम्भ में यह स्थिति बलपूर्वक उत्पन्न करनी पड़ती है। कल्पना और संकल्प शक्ति का उपयोग करके वैसी मानसिक स्थिति नकली रूप में बनानी पड़ती है। थोड़े समय में वह स्थिति स्वाभाविक बन जाती है। बलपूर्वक मारधाड़ और धड़पकड़ द्वारा बलात्कार पूर्वक उच्चस्तरीय मनःस्थिति बनाने के काल को ही साधना काल कहते हैं जब वह स्थिति सहज बनी रहने लगे तो समझना चाहिये कि सिद्धावस्था प्राप्त हो गई।

आत्मा का परमात्म सत्ता के साथ घनिष्ठ- एकाकार- तादात्म्य तन्मय होने की स्थिति को साधना की प्रखरता कहते हैं। जब दोनों का सघन मिलन होता है तो आत्म-विभोर स्थिति को समाधि कहा जाता है। आवश्यक नहीं कि उस स्थिति में योगनिद्रा अथवा मूर्छा ही आवे। ज्ञान साधना में स्थिति प्रज्ञ की - कर्म साधना में अनासक्त कर्त्तव्य परायण की - भक्ति साधना में व्यापक स्नेह सौजन्य की - स्थिति प्राप्त होती है। इससे मूर्छा तो नहीं आती पर आत्मज्ञान का आलोक एवं सन्तोष समाधान का अनवरत अनुभव होता है। साधक अपने को भगवान में और भगवान को अपने में एकाकार देखता है। दोनों की इच्छाएँ एवं क्रियाएँ एक ही स्तर की होती हैं। परमात्मा का क्षेत्र व्यापक है और आत्मा का सीमित। एक अणु है - दूसरा विभु - इतने पर भी दोनों के स्तर में अद्भुत साम्य रहता है। परमात्मा को अपने सुख की चिन्ता नहीं वह मात्र ब्रह्माण्ड चेतना को सुस्थिर, सुविकसित बनाने के लिए जुटा रहता है और उस कर्तृत्व में खोया, समाया दीखता है। साधक की परिष्कृत आत्मा बिलकुल इसी स्तर की होती है। उसे अपने धन कुटुम्ब की - यश वर्चस्व की नहीं - लोक मंगल की चिन्ता रहती है। वही उसे अपना सुखद कर्तृत्व परिलक्षित होता है। उसी में निरत रहना और स्वाभाविक एवं सन्तोषजनक प्रतीत होता है। जब मान्यता, निष्ठा, श्रद्धा विकसित होकर गुण, कर्म, स्वभाव में ओत-प्रोत हो जाये - कर्म में परिलक्षित होने लगे तो समझना चाहिये कि नाली और गंगा के मिलन में जैसा एकाकार होता है वैसा ही आत्मा और परमात्मा का सुखद मिलन है।

इन्द्रिय संयम और मानसिक एकाग्रता की दोनों धाराएँ मिलकर मानवी विद्युत शक्ति का निर्माण करती हैं। बिजली ठण्डे और गरम दो तारों के द्वारा प्रवाहित होती है। इसी प्रकार शरीर और मन की शक्तियों को वासना और तृष्णा में बिखरने ने देने से वह सामर्थ्य जमा होती है जिसे प्राण शक्ति अथवा जीजस् कहा जाता है। योगशास्त्र में साधना क्षेत्र के छात्रों को यह नियम बरतने का शारीरिक और मानसिक कहा गया है। यदि इन दोनों बड़े छेदों में होकर मानवी विद्युत नष्ट होती रहे तो फिर मन्त्र रूपी इंजन को चलाने के लिए तेल, कोयला, ईंधन - कहाँ से आवेगा। मात्र शब्दोच्चारण का नाम ही तो मन्त्र साधना नहीं है।

प्राण स्वसंचालित है और मन्त्र पर संचालित। अपनी प्राण शक्ति को उग्र बनाना साधक का प्रथम कार्य है। मन्त्र वह कमान है जिस पर चढ़ाकर विभिन्न स्तर के तीर फेंके जा सकते हैं। फेंकना धनुष का अर्थात् परिष्कृत व्यक्तित्व का काम है। यदि वह सही रूप से काम न कर रही होगी तो मन्त्र की विधि एवं विद्या के सही काम करने पर भी अभीष्ट उद्देश्य की पूर्ति न हो सकेगी। इसी प्रकार प्राण शक्ति अकेली महत्वपूर्ण होते हुए भी मन्त्र शक्ति का उपयोग किये बिना प्रसुप्त शक्तियों के जागरण का कार्य न कर सकेगी।

योग और तप की मानसिक और शारीरिक साधना में शक्ति का उद्भव होता है। पर यदि यह उपार्जन काल में अथवा उत्पन्न होने के पश्चात सुरक्षित न रखा गया तो वह देखते-देखते बारूद की तरह जलकर भस्म हो जाती है। खुली बोतल में रखी हुई स्प्रिट उड़ जाती है इसी प्रकार असुरक्षित रखी हुई शक्तियां ही निरर्थक चली जाती है।

उपार्जन काल में सात्विक आहार-विहार, ब्रह्मचर्य, मौन, एकान्त सेवन, परिमार्जित दिनचर्या, मनन-चिन्तन द्वारा साधन को सींचा जाता है। उसके उपरान्त उसे सस्ती प्रशंसा लूटने के लिए दिखाये जाने वाले चमत्कारों से बचाया जाता है। सिद्धियों को लोभ, मोह के उथले प्रयोजन पूरा करने में भी खर्च किया जा सकता है और अपने को तथा दूसरों को आत्म-कल्याण की दिशा में प्रेरित करने के लिए भी उसका उपयोग हो सकता है। स्वल्प श्रम में अधिक भौतिक सफलताएँ पाना कर्म विज्ञान के विपरीत है। उसके लिए यदि मन्त्र शक्ति का प्रयोग किया जायेगा तो वह देर तक टिक न सकेगी और उसी खिलवाड़ में नष्ट हो जायेगी। हाँ यदि आत्म कल्याण के लिए उसका प्रयोग होगा तो उससे उसमें और भी तीव्रता आयेगी जैसे कि चाकू को पत्थर पर रगड़ने से उसका धार तेज होता है और जंग छूटकर चमक आती है।

मन्त्र सिद्धि के लिए साधक के शरीर को पोषण देने वाली उसका रक्त और ओजस बनाने वाली वस्तुओं का विशेष महत्व है। आहार से शरीर और बिहार से मन परिपुष्ट होता है। पदार्थों में परसंचालित शक्ति के सहारे गतिशील किया जा सकता है। कोयला तेल और पानी में भाप बनाने की शक्ति हैं। पर वह आग एवं प्रयोक्ता की स्वसंचालित शक्ति के सहारे ही प्रकट हो सकती हैं। पदार्थों की शक्ति को भी साधना काल में प्रयोग किया जाता है अनेक विधि निषेध एवं वस्तु प्रयोग इसी दृष्टि से बने हैं। किस मंत्र की सिद्धि के लिए किन पदार्थों से हवन किया जाय। आहार में क्या वस्तुएं प्रयुक्त की जाय। पूजा के उपकरणों में किस स्तर को प्रधानता दी जाय। आदि की विधियाँ- परसंचालित शक्ति को स्वसंचालित शक्ति का साथ देने के लिए उभारने के लिए है। इंजन में भाप बनाने और उसे पहिये घुमाने में लगाने की प्रक्रिया इसी प्रकार सम्पन्न होती है।

आहार और परिधि-बिहार तक विस्तृत है। इसलिए साधन सफलता के क्षेत्र में उसे भी सम्मिलित रखा गया है। किन्तु साथ ही यह भी ध्यान रखना चाहिए कि जो खाया जाता है वही आहार नहीं है। नासिका और रोम कूपों द्वारा साँस ली जाती है उसमें आक्सीजन आदि कितने ही तत्व घुले रहते हैं, वह भी आहार ही है। इन्जेक्शनों द्वारा आहार शरीर में पहुँचाने की बात सर्वविदित हैं। हवन, यज्ञ को भी नासिका मार्ग से पहुँचाया गया इन्जेक्शन ही माना जाना चाहिए। अनुष्ठानों में हवन, यज्ञ का विधान जोड़कर रखा गया है वह औषधि का सूक्ष्म एवं कारण भाग शरीर द्वारा सोखे जाने की प्रक्रिया ही हैं। अमुक वृक्ष के तले अमुक वनस्पतियों का रस का सेवन या स्नान, उबटन, मालिश आदि के प्रयोग भी इसी प्रयोजन की पूर्ति करते हैं। आहार में विशिष्ट सूक्ष्म गुणों से युक्त धान्य,शाक,फल दूध आदि का ग्रहण करना-जहाँ से उन्हें प्राप्त किया गया है उन स्रोतों को अधिकाधिक पवित्र एवं प्रखर बनाना यह भी साधना का ही एक अंग हैं । किस वृक्ष की लकड़ियों से, किन उपकरणों से, किन व्यक्तियों के सहयोग से वह आहार बन गया है और किस मनःस्थिति में उसे खाया गया है यह प्रक्रिया साधक के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं। अभक्ष्य एवं निकृष्ट स्तर का निकृष्ट वातावरण में-निकृष्ट व्यक्तियों द्वारा पकाया परोसा भोजन साधक के सारे श्रम को निरर्थक बनाकर रख देता है। इसलिए उपासना काल में आहार पर सर्व प्रथम ध्यान देना पड़ता है।बिहार भी इसी कोटि में आता है-बिहार का तात्पर्य समग्र दिनचर्या से है उसे सात्विक रहना चाहिए।

आहार के भले-बुरे, घटिया-बढ़िया होने का परिणाम शरीर पर सहज ही देखा जाता है हमारा प्रमुख आहार वनस्पतियाँ ही हैं। दूध, शहद एवं माँस आदि भी प्राणियों द्वारा किया गया वनस्पतियों का रूपांतरण ही हैं। वस्तुतः शरीर का निर्वाह वनस्पतियों द्वारा ही होता है। मनुष्य में जिस प्रकार स्थूल-सूक्ष्म और कारण शक्तियाँ होती हैं, उसी प्रकार वनस्पतियों की भी होती हैं। तुलसी, पीपल,आँवला आदि को, महत्व उनकी दिव्य-करण शक्ति को देखते हुए दिया गया है। चिकित्सकों द्वारा वनस्पतियों की-रासायनिक सूक्ष्म शक्तियों का लाभ उठाया जाता है। स्थूल रूप उनका वह है जो रंग, रूप ,गन्ध, स्वाद आदि के आधार पर जाना जाता है।

बिहार का एक अत्यन्त शक्तिशाली पक्ष है-ब्रह्मचर्य। इसका अर्थ वीर्यपात न करना माना जाता है वस्तुतः उसका अभिप्राय शरीर और मन की समस्त चेतनाओं-आकाँक्षाओं एवं वासनाओं को अस्त-व्यस्त होने से रोकना है। बन्दूक की नली में थोड़ी सी बारूद की शक्ति को एक दिशा में प्रयुक्त किया जाता है। तभी वह अपनी प्रचण्ड शक्ति का परिचय देती है। यदि उतना ही बारूद खुले मैदान में बखेर कर आग लगाई जाये तो वह झक से जल जायेगी और विनोद मात्र प्रस्तुत करेगी। इन्द्रियों की -मानसिक चेतना की -उपभोगों को अन्य दिशाओं में अस्त-व्यस्त न करके अभीष्ट अध्यात्म प्रयोजन में लगा दिया जाय तो निस्सन्देह चमत्कार होता है। औषधि है। शरीर के साथ मन का पोषण भी अभीष्ट है।

ब्रह्मचर्य विज्ञान को एक प्रकार से मानवी विद्युत विज्ञान कहना चाहिए। काम-क्रीडा का उल्लास ही उत्पन्न नहीं करता वरन् नर-नारी की विद्युत शक्ति का भी एक दूसरे में आवान्तरण करता है। नारी शरीर की विद्युत आकर्षण और नर शरीर की विकर्षण होती है। रति के स्खलन-क्षेत्रों में नारी खींचती है और नर शारीरिक, मानसिक और आत्मिक शक्तियों के बारे में भी है। काम-क्रीडा में निरत होकर साधक यदि नर हो तो उसे गंवाना ही पड़ेगा। सहयोगिनी नारी को यत्किंचित् लाभ भी हो सकता है, पर साधक की दिव्य क्षमता क्षीण होगी और उसकी सफलता का मार्ग लम्बा हो जायेगा। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए ब्रह्मचर्य को महत्व दिया गया है।

सिद्धि का चौथा आधार है औषधि। अर्थात् उपचार में प्रयुक्त होने वाली वस्तुएं। औषधि का अर्थ यहाँ वह नहीं है जो रोगी को ज्वर आदि रोगों के निवारण के लिये चिकित्सकों द्वारा दी जाती है। अध्यात्म प्रयोजनों में औषधि शब्द उन वनस्पतियों के अर्थ में आता है जो मुख, नासिका रोमकूप आदि छिद्रों द्वारा शरीर में प्रवेश कराई जाती है और उनकी सूक्ष्म शक्तियों को अपनी चेतना में समाविष्ट करके आत्म सत्ता को इस योग्य बनाया जाता है कि वह मन्त्र शक्ति से ठीक तरह लाभान्वित हो सके।

साधना ग्रन्थों में वनस्पतियों के अनेकानेक विधि-विधान शास्त्रकारों ने बताये हैं। माला किस वृक्ष के फल, मूल या मध्य भाग की बनी हो- आसन, कुशा खजूर आदि किस का बना हो-कमण्डल, नारियल, लौकी आदि किस के फल से बना हो, बालों को धोने में-शरीर पर लेपन में- किस मिट्टी या किस वनस्पति का उपयोग किया जाय। हवन सामग्री में किस प्रयोजन के लिए किन वनस्पतियों का और किन समिधाओं का किस प्रकार प्रयोग किया जाय यह सारे विधान वस्तुतः साधक की आहार प्रक्रिया में ही सम्मिलित

मन्त्र विद्या में प्रयुक्त होने वाला चौथा तत्व है- भावना। साधना की श्रद्धा, उपासना विज्ञान पर इतनी गहरी होनी चाहिए कि उसमें संशय की -अविश्वास की कहीं कोई गुँजाइश न रहे। परीक्षा बुद्धि कौतूहल एवं शंकालु मन लेकर की गई साधना निष्फल चली जाती है। श्रद्धा अपने आप में एक शक्ति है। पैट्रोल, भाप, बिजली की तरह उसकी भी अपनी सामर्थ्य है। श्रद्धालु साधक पूर्णरूपेण सफल होकर रहते हैं जबकि शंकाशीलों को खाली हाथ रहना पड़ता है। विश्राम में पग-पग पर देखा जा सकता है कि आध्यात्मिक प्रगति एवं सफलता के लिए तो उसे प्राण ही कहना चाहिए। साधक का मन्त्र शक्ति पर अटूट विश्वास होना चाहिए और उसे पूर्ण श्रद्धा, एकाग्रता, मनोयोग एवं भावनापूर्वक अपने क्रिया-कृत्य में संलग्न होना चाहिए।

उपासना जिस प्रयोजन के लिए की जा रही हो वह उच्चस्तरीय होना चाहिए। भौतिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए उसे प्रयुक्त नहीं करना चाहिए। संसार सुख तो योग्यता, कुशलता एवं पुरुषार्थ की कीमत पर पाये जाते हैं उन्हें उसी आधार पर खरीदना चाहिए। आध्यात्मिक शक्तियों का उपयोग संपत्ति बढ़ाने के लिए विभूतियों के अभिवर्धन में ही किया जाना चाहिए। उनके आधार पर आन्तरिक क्षमताएं विकसित की जानी चाहिए।

साधक को अपना व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व उत्कृष्ट रखना चाहिए। उसका दृष्टिकोण सिद्धियों का -चमत्कारों का प्रदर्शन करने के लिये बाल कौतूहल नहीं अपनाना चाहिए वरन् देव मानव की तरह आत्म कल्याण एवं विश्व-कल्याण के लिए सच्चे हृदय से इतना निष्ठावान होना चाहिए कि लिप्सा-लालसाओं से विरत होकर अन्तरात्मा, ज्ञान-विज्ञान में रस लेने गये। जिसका चिन्तन और कर्तव्य महान है वस्तुतः उसी भावना शिव की जटाओं की तरह स्तर की मानी जा सकती है कि उस पर मन्त्र शक्ति रूपी अध्यात्म गंगा का अवतरण सम्भव हो सके।


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