उत्कृष्टता के दर्शन का बुद्धिवादी प्रतिपादन

March 1975

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मनुष्य का शरीर भले ही आहार-बिहार से परिपुष्ट होता है पर उसका चेतन तो आस्थाओं के आधार पर होता है। दर्शन ही किसी देश, समाज को पतित एवं समुन्नत बना सकने में समर्थ हुआ। दर्शन का अत्यधिक महत्व है। यह सदा से माना जाता रहा है। इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि ‘दर्शन’ तथ्य को अर्थ वाला होने के कारण उसकी भयानक दुर्गति उपस्थित हो गयी। दर्शन का वास्तविक अर्थ है-तत्व चिंतन-आस्था को प्रभावित करने वाला विचार प्रवाह-फिलॉसफी। उसका दूसरा प्रचलित अर्थ है- देखना। लोगों ने इस सस्ती प्रक्रिया को तत्व दर्शन के महात्म्य के साथ जोड़कर सारा गुड़ गोबर कर दिया। देखने को बहुत कुछ माना जाना लगा। लोग तीर्थ स्थानों को, मन्दिर प्रतिमाओं को, सन्त ज्ञानियों को देखने के लिए घर दौड़े और आँखों से देखे गये दृश्य को ही पर्याप्त समझकर यह मानने लगे कि हमें दर्शन का शास्त्र वर्णित सत्परिणाम प्राप्त हो जायगा। दर्शन शब्द के द्विअर्थक होने के कारण उसकी जो दुर्गति हुई- अर्थ का जो अनर्थ किया गया- उससे हर विचारशील को दुख ही हो सकता है।

दर्शन का अर्थ है तत्व ज्ञान। इसकी तीन धाराएं है। (1) आस्तिकता (2) आध्यात्मिकता (3) धार्मिकता। प्रथम में लक्ष्य का निर्धारण-समर्थता का सान्निध्य और सत्कर्म की सत्परिणति का व्यवस्था विश्वास जमना है। दूसरी के आधार पर आत्मबोध होता है और आत्म-निरीक्षण, आत्म-सुधार, आत्म-निर्माण एवं आत्म-विकास की जीवन साधना चल पड़ती है। तीसरी का उद्देश्य है कि सामाजिक क्रिया-कलापों एवं मर्यादाओं का सुव्यवस्थित निर्वाह। व्यक्ति और समाज के बीच टकराव को निरस्त करते हुए सघन सहयोग का निर्वाह। यह तीनों ही धाराएं मिलकर जिस तीर्थराज संगम का निर्माण करती हैं उसी को आदर्शवादी दर्शन कहते हैं। यह दार्शनिकता जिस देश, समाज के उच्च स्तर पर टिकी रहेगी वह हर दृष्टि से समुन्नत , विकसित दिखाई देगा। जिसका दर्शन भ्रष्ट होगा वह समाज, व्यक्ति या युग निश्चित रूप से पतन के गर्त में गिरेगा और अनेकानेक संकटों में निरन्तर गहरा फंसता चला जायगा। भारत की भूत कालीन गरिमा और आज की संकटापन्न स्थिति का तात्विक कारण दर्शन की उत्कृष्टता और निकृष्टता के साथ ही जोड़ा जाना चाहिए। स्वार्थी, संकीर्ण, दुष्ट और भ्रष्ट व्यक्ति दुखदायी परिस्थितियों में ही फंसता जायगा। यह समस्त दुर्गुण निकृष्ट मान्यताओं के आधार पर ही उत्पन्न होते हैं। मानवी सत्ता का प्राण उसका आस्था स्तर ही है- इसी को श्रद्धा, विश्वास अथवा दर्शन कहते हैं। यही है वह मर्म बिन्दु से मनुष्य को प्रेरणा प्राप्त होती है और दिशा निर्धारण की प्रक्रिया विनिर्मित होती है।

दूरदर्शी तत्वज्ञानी इस तथ्य को भली प्रकार समझते हैं कि हाड़-माँस के मनुष्य में जो कुछ महान, विशिष्ट है- वह उसका दर्शन चिन्तन ही है। चेतना इसी प्रभाव में ऊंची उठती या नीचे गिरती है। जो यह विश्लेषण विवेचन कर सकते हैं वे समय विकृतियों को दूर करने के लिए- समस्याओं को सुलझाने के लिए-तत्कालीन दर्शन भ्रष्टता का सूक्ष्मदर्शी निरीक्षण करते हैं और जहाँ कई विकृतियाँ दिखती है वहाँ करारी चोट करके अवाँछनीयता को औचित्य की दिशा में मोड़ते-मरोड़ते हैं। सन्तों, सुधारकों और अवतारों को बार-बार इसी एक प्रयोजन के लिए अपनी असाधारण भूमिका निभानी पड़ती है। अखण्ड ज्योति को यही सब करना पड़ा। उसने अपने जन्म दिन से लेकर आज पर्यन्त इसी मोर्चे पर कट-कटकर लड़ाई लड़ी है और जब तक वह जीवित है अन्तिम साँस तक अवतारी प्रवाह सदा एक ही लक्ष्य सामने लेकर आते रहे हैं “ समय की दार्शनिक भ्रष्टता को दूर कर उसे उच्चस्तरीय चिन्तन स्तर तक घसीट ले जाना” कहा जा सकता है। श्रेष्ठता का आधार सनातन है-शाश्वत है-निकृष्टता की दिशाएं भी गिनी-चुनी हैं। उतार -चढ़ाव उसी झूले में झूलते रहते हैं, पर पुरानी सुधार प्रक्रिया हर बार नई बदलनी पड़ती है क्योंकि मूल-तथ्य यथा-स्थान रहने पर भी सामयिक परिस्थितियों के साथ जुड़ी हुई विकृतियों का स्वरूप पहले की अपेक्षा सर्वथा भिन्न होता है। भगवान बुद्ध के समय यज्ञीय हिंसा की वाममार्गी असुरता अट्टहास कर रही थी तो स्वामी दयानन्द के समय में पाखण्डी अनाचार गगनचुंबी बना हुआ था। विवेकानन्द ने भारतीय संस्कृति की की अनास्था के दुष्परिणाम देखे और गान्धी ने जनमानस में घुसी हुई पराधीनता प्रिय निराशा को जड़ जमाये पाया। इन सब ने अपने सुधार आन्दोलन अलग-अलग ढंग से चलाये। वे मूलतः एक ही सुधार प्रक्रिया की पुनरावृत्ति होते हुए भी बाह्य दृष्टि से सर्वथा भिन्न थे उनमें न एकरूपता थी न एक दिशा। कारण स्पष्ट है, समय-समय पर विकृतियों पृथक-पृथक परिधान ओढ़कर आती हैं।

अपने युग में अनाचार की गतिविधियाँ पूर्व काल की अपेक्षा भिन्न हैं। इस समय दार्शनिक भ्रष्टता ने जिस दिशा में बहना आरम्भ किया है वह भूत कालीन दिशा से भिन्न है। इसलिए सुधार की प्रक्रिया भी नवीनतम होनी चाहिए उसमें सामयिक विकृतियों की समीक्षा और निराकरण के सामयिक आधार रहने चाहिए।

इस शताब्दी में विज्ञान ने असाधारण प्रगति की है। उसके साथ-साथ ही बुद्धिवाद भी बढ़ा है। विज्ञान ने अपने प्रतिपादनों को यथार्थता की कसौटी पर खरा सिद्ध किया है अस्तु उसकी प्रामाणिकता सर्वमान्य हो गई है। ठीक उसी प्रकार बुद्धिवाद को भी मान्यता मिली है। अब तर्क, तथ्य और प्रमाणों को प्रस्तुत किये बिना किसी गंभीर बात को किसी के गले नहीं उतारा जा सकता। कोई समय था जब शास्त्र वचन, श्रद्धा के लिए पर्याप्त आधार थे। पर अब ऐसा कुछ नहीं रहा। अब शास्त्र वचन और सामयिक सामान्य पुस्तक के उल्लेख में कोई खास अन्तर नहीं किया ज ता बात नई है या पुरानी इसे कोई नहीं पूछता। देखा यह जाता है कि तर्क, तथ्य और प्रमाणों के आधार पर कोई प्रतिपादन किस हद तक खरा उतरता है।

भौतिक क्षेत्र में विज्ञान की प्रगति को पचा लिया गया पर आध्यात्मिक क्षेत्र में बुद्धिवाद का सामना करने का साहस न किया जा सका। श्रद्धा एवं परम्पराओं के आधार पर जो कहा जाता है उसे बुद्धिवाद ने स्वीकार नहीं किया। फलतः दोनों के बीच भारी खाई उत्पन्न हो गई। एक-दूसरे के बचने का प्रयत्न ही नहीं करते रहे विरोधी कारणों से एक दूसरे को भ्रष्ट भी कहने लगे। विज्ञान ने आस्तिकवाद, अध्यात्मवाद और धर्मवाद को भरपूर गालियाँ दी और दूसरी ओर धर्म क्षेत्र में बुद्धवादियों को असुर नास्तिक पथ भ्रष्ट आदि कह कर अपना मन हलका किया। जी की जलन ठण्डी करने के लिये दोनों पक्षों ने सत्ता समाधान तो ढूंढ़ लिया पर यह भूल गये कि दोनों के समन्वय के बिना एक पहिये की गाड़ी चल नहीं सकेगी। भौतिक क्षेत्र में जो महत्व विज्ञान का है वही चिन्तन के क्षेत्र में दर्शन का है। व्यक्ति और समाज की सर्वांगीण प्रगति दोनों को मिलाकर ही हो सकती है। बहिरंग और अंतरंग जीवन को पृथक नहीं किये जा सकते। उभय पक्षीय प्रगति ही सर्वांगीण हो सकती है और उस समन्वय से ही सुख शाँति की स्थिरता रखी जा सकती है।

युग चिन्तन के कन्धों पर समय ने यह गुरुतम भार डाला कि वह बुद्धिवाद और दर्शन का समन्वय करे-भौतिक और आत्मिक तथ्यों को परस्पर संबद्ध करे और द्वैत को मिटा कर अद्वैत की जनमानस की प्रतिष्ठानों करे। कार्य अत्यधिक जटिल है। उसे कुत्ते और बिल्ली का विवाह कराने के समान अशक्य और उपहासास्पद समझा जा सकता है। इतना सब होते इस भी युग की चुनौती स्वीकार की ही जानी चाहिए तर्क, तथ्य एवं प्रमाणों के बुद्धिवादी, विज्ञान-वादी आधारों को लेकर उत्कृष्टता के दर्शन का इस प्रकार प्रतिपादन किया जाना चाहिए कि उसे उपयुक्त ही नहीं, व्यावहारिक एवं उपयोगी भी माना जा सके। समय की विकृतियों-समस्याओं के समाधान में क्या चिन्तन की उत्कृष्टता का भी कोई योगदान हो सकता है जब इस बात को बुद्धि संगत ढंग से खोजा जायगा तो विचारशील वर्ग यह स्वीकार करेगा कि यही समय की सबसे बड़ी आवश्यकता है, जिस बुद्धिवाद से आस्तिकता को निरस्त करके भौतिकता को प्रतिष्ठापित किया था वही बुद्धिवाद अब नई धार चढ़ जाने के कारण-नई दिशा मिल जाने के कारण, नास्तिकता को आस्तिकता में, निकृष्टता को उत्कृष्टता में बदल सकने में पूरी तरह समर्थ हो सकता है। इस युग की यह एक बहुत बड़ी दैन है जिस पर अखण्ड-ज्योति परिवार का हर सदस्य गर्व कर सकता है।


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