अन्धविश्वास- खून का प्यासा महादैत्य

March 1975

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अब पिछड़े लोगों की तरह प्राचीन काल में भी लोगों का यह विश्वास रहा कि मृत आत्माएं जीवित स्थिति की तरह ही भूख प्यास अनुभव करती है -इन्द्रिय सुख और विलास प्रमोद चाहती है। यह वस्तुएं पाने के लिए वे अपने उत्तराधिकारियों से अपेक्षा रखती है। जुटा देने पर वे प्रसन्न, सन्तुष्ट होकर उपहार, वरदान देती है। अन्यथा रुष्ट, कुपित होकर वे अपने कुटुम्बी, सम्बन्धियों को डराती सताती है।

अब भी लोग मृत शरीरों के साथ रुपया, पैसा, जेवर, वस्त्र, खाने-पीने की चीजें गाढ़ते, जलाते हैं ताकि वे वस्तुएं उन मृतात्माओं के उपभोग में आ सकें। मरने के बाद पिण्डदान के कर्म-काण्ड तो किये ही जाते हैं। महा ब्राह्मणों को शय्या, अन्न, वस्त्र, अलंकार, बर्तन आदि भी इसी निमित्त दिये जाते हैं कि दी हुई वस्तु सीधी मृतात्मा तक पहुँच जायेंगी और वे उनके उपयोग में उसी तरह आवेंगी जैसे कि जीवित अवस्था में उनके काम आती थी।

कहीं-कहीं के लोग पुराने समय में इस सम्बन्ध में और भी अधिक गहरे अन्धविश्वासों में डूबे हुए थे वे सोचते थे जहाँ मृत शरीर गाड़ा गया है वहीं प्रेतात्मा रहती है इसलिए उपयोग की वस्तुएं उसी जगह सुरक्षित रहनी चाहिए जो लोग कब्रों और समाधियों का निर्माण अभी भी यही समझ कर करते हैं कि मृतात्मा को वही स्थान सर्वप्रिय होगा जहाँ उनका शरीर ठिकाने लगा है अस्तु उनके निवास विश्राम के लिए वहीं कुछ छोटा-बड़ा बनाया जाना चाहिए। पुराने लोगों का यह विश्वास और भी अधिक गहरा था। वे मृतात्माओं को प्रसन्न करने और उनके क्रोध से डरने में और अधिक आगे थे। अस्तु इस सम्बन्ध में अधिक मुस्तैदी से प्रयत्न करते थे कि मृतकों को अधिक सन्तुष्ट करने के लिए अधिक बहुमूल्य उपहार जुटाये जायें।

यह अन्धविश्वास तब चरम सीमा तक पहुँचता था जब मृत सम्पन्न लोगों के, सत्ताधीशों के साथ उनके उपयोग के लिए ढेरों सुन्दर युवतियाँ और सैकड़ों नौजवान सेवक जीवित ही दफना दिये जाते थे सोचा जाता था कि मृतात्मा इनका उसी तरह उपयोग करेगी जैसा कि वह जीवित स्थिति में करती थी। यह अन्ध-विश्वास अपने देश में सतीप्रथा के रूप में था। पत्नी दिवंगत पति की सेवा करने के लिए उसके मृत शरीर के साथ जलना पड़ता था जो नहीं जलती थी उसकी निन्दा की जाती थी। मिस्र आदि देशों ने यह उत्तराधिकारियों का कर्त्तव्य हो जाता था कि अपने मृत संबंधियों के लिए न केवल उपयोग की वस्तुओं को वरन् पत्नियों और सेवकों का भी प्रबन्ध करे। जिस मृत के साथ जितने अधिक नर-नारी परलोक भेजे जा सकें वह उतना ही बड़ा सौभाग्यशाली माना जाता था और उसके परिजन उतने ही अपने पितरों के भक्त, पुण्यात्मा माने जाते थे। गरीब मृतकों को तो तब भी मिठाई, पकवान, छोटे-मोटे मुर्गी, बकरे शराब पात्र, नये पुराने बर्तन, कपड़े साथ ले जाकर सन्तोष करना पड़ता था। मध्यवर्ती लोग अधिक बहुमूल्य वस्तुएं और कुछेक नर-नारी दफनाते थे पर राजा , बादशाहों के लिए यह प्रतिष्ठा का प्रश्न था। अन्यों की तुलना में वे पीछे नहीं रहना चाहिए थे। कम से मृत शरीरों के साथ जीवित बलियों के संबंध में तो उन्हें अधिकाधिक सौभाग्यशाली होना ही चाहिए।

मिश्र के राजाओं की श्मशान भूमि सुविस्तृत क्षेत्र में फैली पड़ी है। ऊंची पहाड़ियाँ, भयंकर खड्ड, सूखा रेगिस्तान, इसी को बादशाहों की घाटी कहा जाता है। राजा लोग अपने लिए सुरक्षित स्थान देख थेवेस चले गये थे। काहिरा की अपेक्षा यहां उन्होंने अधिक सुविधा समझी और वहां रहना प्रारम्भ किया। इसी के समीप वह घाटी जिसमें उनके बहुमूल्य कब्रिस्तान बने हुए हैं। पिरामिडों के इस इलाके में नूतन खामन की वह कब्र थी जिस को सबसे अधिक मूल्यवान समझा जाता था। उसकी तलाश में इंग्लैण्ड के एक साहसी युवक हार्वर्ड कार्टर ने अनवरत परिश्रम किया इसके लिए उसे लार्ड कानरिवन का प्रोत्साहन एवं आर्थिक सहयोग भी मिला। अन्ततः उसने उस कब्र को ढूंढ़ ही निकाला।

यह कब्र ईसा से कोई एक हजार वर्ष पूर्व बनी थी। पिरामिड जितना मूल्यवान था उससे भी अधिक कीमती वह संपत्ति थी जो मृतक की सुरक्षित लाश के साथ गाड़ी गई थी। खुदाई में स्वर्ण निर्मित पलंग, आभूषण, बर्तन तथा दैनिक उपयोग की अन्य वस्तुएं ऐसी मिली हैं जिनका बाजारू मूल्य भी करोड़ों रुपया है। कला की दृष्टि से वे और भी अद्भुत हैं। मृत शरीरों को रासायनिक पदार्थों से भर कर एवं पोत कर किस प्रकार हजारों वर्षों तक सुरक्षित रखा जा सकता है इस कला से मिश्र के लोग अब से पाँच हजार वर्ष पूर्व ही परिचित हो गये थे। आरम्भ में यह प्रयोग था पीछे जब बहुत प्रचलित हो गया तो उसे मध्य श्रेणी के लोगों के लिए भी प्रयुक्त किया जाने लगा। यहाँ तक कि बड़े आदमियों के पालतू पशु भी इसी प्रकार सुरक्षित बनाकर दफनाये जाने लगे।

कब्रों में मृत शरीरों के साथ बहुमूल्य पदार्थ भी रखे जाते थे। उनका लोभ लुटेरे सहन न कर सके और उन्होंने कब्रों को कुरेद कर संपत्ति निकालना आरम्भ कर दी। स्वाभाविक था कि इस उखाड़-पछाड़ में लाशें भी क्षत-विक्षत हो जायें। इस संकट से बचने के लिए कब्रों के ऊपर विशालकाय पिरामिड बनाने की आवश्यकता अनुभव की गई। तदनुसार वे बने और प्रतिस्पर्धा में एक के बाद एक अधिकाधिक विशालकाय और सुदृढ़ बनते चले गये। पिरामिडों के निर्माण का कार्य ईसा से दो हजार वर्ष पूर्व आरम्भ हो चुका था।

27 विशालकाय और सैकड़ों छोटे पिरामिडों में नूतन खामन की कब्र न केवल सम्पत्ति के हिसाब से वरन् कला की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। कब्र के भीतर का कमरा बहुत ही सुन्दर है वह 17 फीट लम्बा 11 फीट चौड़ा और 9 फीट ऊंचा है। इससे लगे हुए अन्य कमरे भी मिले हैं जिनकी दीवारों पर अत्यन्त कौशल के साथ ऐसे टिकाऊ रंगों से चित्रकारी हुई है जो इतना समय दीन बीन जाने पर भी थोड़े से ही हलके पड़े हैं। इन चित्रों से पता चलता है कि मृतक की शव यात्रा से लेकर उसे दफनाने तक की क्रिया किस प्रकार सम्पन्न होती थी। साथ ही यह भी विदित होता है कि उस समय मरणोत्तर जीवन के सम्बन्ध में किस प्रकार की मान्यताएं थी।

मृत शरीर के भीतर से रक्त, माँस प्रायः सभी निकाल लिया जाता था चमड़ी और अस्थियाँ ही शेष रहती थी। उन पर रासायनिक पदार्थ पोते जाते थे और भीतर ठोस पदार्थ भर कर ऊपर से मोम की परत इस प्रकार चढ़ा दी जाती थी कि मृत शरीर जीवित स्थिति जैसा ही दृष्टिगोचर होता रहे। इस मृत शरीर को ममी कहा जाता था। इसे शरीर की आकृति के एक सन्दूक में बन्द करते थे पीछे उसे बड़े सन्दूक में किया जाता था। नूतन खामन का संदूक तो पूरा ठोस सोने का बना पाया गया है। इनके शरीर के इर्द-गिर्द स्वर्णाभूषण, रत्न राशि तथा चाँदी, सोने के पात्र अस्त्र-शस्त्र, श्रृंगार, साधन आदि रखे जाते थे ताकि परलोक में किसी वस्तु की कमी न पड़े। दैनिक उपयोग की वस्तुएं सोने, चाँदी की इसलिए बनाई जाती थी कि परलोक में उनकी हेटी न होने पाये और चिरकाल तक अपनी शोभा के साथ सुरक्षित बनी रहे।

उन दिनों मिस्र वासियों का विश्वास था कि मनुष्य के शरीर में दो आत्माएं निवास करती हैं- एक “वा” जो शरीर के मर जाने के बाद आकाश में भ्रमण करती है और फिर वापिस मृत शरीर में लौट आती है। दूसरी “का” जो है तो अमर पर मृत शरीर की देखभाल करती रहती है ताकि उसे ओसिरिस देवता स्वर्गलोक में उसी शरीर सहित निवास कर सकने का असर मिल सके। यदि मृत शरीर बचा कर रखा जा सकेगा तो वे दोनों आत्माएं उसे पुनर्जीवित करके स्वर्गलोक का आनन्द प्रदान कर सकेंगी। यह मान्यता उन दिनों मिस्र निवासी राजा-प्रजा सबके मन में बहुत गहराई तक उतर गई थी। फलतः न केवल राजाओं के वरन् मध्यवर्ती साधन सम्पन्न लोगों के शरीर भी किसी प्रकार चिरकाल तक सुरक्षित बनाये रखने का प्रयत्न होने लगा था। पिरामिडों का निर्माण इसी मान्यता के कारण हुआ था।

इन पिरामिडों का निर्माण का बहुत रक्त रंजित इतिहास है। फराऊन राजा अपने मरने से पूर्व स्वयं ही अपने लिए पिरामिड तैयार कराते थे, ताकि उसके उत्तराधिकारी उपेक्षा करके उनकी लोकोत्तर सुख-सुविधा को जुटाने में कुछ कोताही न करने पायें। प्रायः बीस-बीस साल में उनका निर्माण हुआ है। इतनी अवधि तक प्रजा को इस निर्माण के लिए अतिरिक्त कर देना पड़ा। समीपवर्ती राज्यों पर आक्रमण इसलिए किया जाता था कि वहाँ के नौजवानों को युद्ध बन्दी बनाकर पिरामिडों में काम करने वाले, श्रमिकों के रूप में प्रयुक्त किया जा सके। प्रायः एक समय में एक-एक लाख श्रमिक काम करते थे। वे पच्चीस तीस साल के होते थे किन्तु दस साल में ही उनकी दम निकल जाती थी तब उन्हें मृतकों में गिन कर छोड़ दिया जाता था और उनके स्थान पर नये युद्ध बन्दी पकड़ लिये जाते थे। यह क्रम सदियों तक चला है। थके हुए श्रमिकों की शक्ति बढ़ाने के लिए एक बार उन्हें प्रलोभन दिया गया कि यदि वे अधिक उत्साह से काम करने का वचन दें तो उनकी औरतों को बुला दिया जाय। जिनने वायदा किया उनकी औरतें भी पकड़ बुलाई गई। अब इनके बच्चे होने लगे। इन बच्चों का क्या हो? फैसला किया गया कि उन्हें नील नदी में डुबो दिया जाया करे। इस प्रकार इन गुलामों के लाखों बच्चे नील नदी में डुबो दिये गये।

पिरामिडों में भारी चट्टानें लगी हैं और वे इतनी घिसी गई हैं कि एक के ऊपर दूसरी रखने पर सुई बराबर साँध न रहे। उनमें कहीं गारे का उपयोग नहीं हुआ है। मोकत्तम के पहाड़ों से टनों भारी चट्टानें काटकर उन्हें छाती से रस्सी बाँधकर घसीटते हुए पिरामिडों की दूरी तक ले पहुँचना और फिर चार-चार सौ फुट की ऊंचाई तक रेंगते हुए ले जाना कितना कठिन कार्य है इसकी आज के यन्त्र युग में तो कल्पना भी नहीं की जा सकती पर उस जमाने के गुलामों से विवशता यह सब कुछ करा लेती थी। न करते तो उन्हें हन्टरों की मार से पिटते हुए मर जाने के अतिरिक्त और कोई चारा भी तो न था।

मिस्र के जलते रेगिस्तानों और सूखी आवहवा ने रासायनिक द्रव्यों से पुती हुई लाशों को देर तक सुरक्षित रखने में सहायता की है पर दुर्दान्त दस्युओं से वह भी इन लाशों की रक्षा न कर सके। उनके साथ जो विपुल सम्पदा दफनाई जाती थी उनका प्रलोभन इतना बड़ा था कि डाकुओं के अन्तर्राष्ट्रीय गिरोह, साधन- उपकरणों के साथ इन पिरामिडों पर चढ़ाई करने लगे और करोड़ों की संपत्ति लूटने में सफल होते रहे। इस कार्य में अरब डाकुओं ने अच्छी ख्याति पाई और उन्होंने उसे एक पुश्तैनी धन्धा बनाया। यों लाशों के सायं दबी संपत्ति का ब्यौरा गुप्त रखा जाता था पर वे किसी प्रकार सुराग लगा ही लेते कि कहाँ कितने मूल्य की संपत्ति इन कब्रों में दबी हुई है।

मिस्र में छोटे-बड़े पिरामिडों की संख्या बहुत बड़ी है इनमें कितने नर-नारी मृतकों के साथ बलि रूप में गढ़े है इसका ठीक से लेखा-जोखा कठिन है पर अनुमान है कि उनकी संख्या सहस्रों को पार करके लाखों तक पहुँची होगी और जिन्होंने श्रमिकों के रूप में अपना रक्त, माँस गला दिया भूख, पिटाई और पिसाई में जिनके प्राण और भी कष्ट कर स्थिति में तिलतिल करके धुलते, जलते निकले उनकी संख्या तो निस्संदेह लाखों को भी पार करके करोड़ों तक पहुँची होगी। इन अभागे जीवित मृतकों के प्रियजनों पर आश्रितों पर क्या बीती होगी इसकी कल्पना करने तक से किसी सहृदय व्यक्ति की छाती फटने लगती है।

ईराक में दजला और फरात नदियों के मुहाने पर अब से कोई पाँच हजार वर्ष पहले ‘ऊर’ को राजधानी बनाकर उस क्षेत्र पर एक रानी राज्य करती थी शुवाद। पुरातत्व वेत्ता डा0 बूली ने उसकी कब्र को सन 1927 में खोदा तो उसके अस्थि-पंजर पर पहना हुआ रत्न जटित स्वर्ण मुकुट मिला। इसके अतिरिक्त और भी अनेकों बहुमूल्य स्वर्ण आभूषण उसके शरीर पर धारण किये हुए थे। श्रृंगार प्रसाधनों की कई पिटारियाँ थीं तथा दैनिक उपयोग में आने वाली वस्तुएं कीमती वस्तुओं से बनाकर सजधज के साथ रखी हुई पाई गई। समय बहुत बीत जाने पर भी वे बहुत अधिक नष्ट नहीं हुई थी। पास ही दो पुरुष अस्थि-पंजर पाये गये। सम्भवतः वे उसके प्रिय सेवक थे जो मरणोत्तर जीवन में उसकी सेवा करने के लिए बलि के रूप में साथ ही दफना दिये गये थे। इससे कुछ ही दूर दस और भी अस्थि-पंजर पाये गये इनमें नौ स्त्रियाँ थी और एक पुरुष। पुरुष कलावन्त था उसकी छाती से चिपका हुआ सितार पाया गया। स्त्रियाँ रानी की दासी थी, जिन्हें परलोक में भी सेवा करनी थी, इन सभी के समीप जहर के प्याले उलटे पड़े थे। उन्हें यही पीकर मरना पड़ा होगा।

डा0 बूली को उसी क्षेत्र में एक राजा की दूसरी कब्र मिली, जिसके इर्द-गिर्द 74 अस्थि-पंजर और भी पाये गये। यह सभी व्यक्ति मृत राजा के मरणोत्तर जीवन में विविध प्रकार की सेवा सहायता करने के लिए बलि किये गये थे और उसी के समीप उपयोगिता की दृष्टि से पंक्तिबद्ध करके गाढ़े गये थे।

मिस्र में ही नहीं मृतकों के लिए बलि प्रदान करने की प्रथा पुराने समय में न्यूनाधिक मात्रा में सर्वत्र फैली हुई थी। अमेरिका में मय सभ्यता की खोज करते हुए ऐसे ही प्रमाण पुरातत्व वेत्ताओं ने उस क्षेत्र में भी पाये। पादरी दिएगो दे लान्दा की डायरी में ऐसा उल्लेख है कि अब से पौने दो हजार वर्ष पूर्व इस क्षेत्र के सुसम्पन्न राजाओं में से किसी की मृत्यु होती थी तो उसके साथ बहुमूल्य रत्न, आभूषणों के अतिरिक्त अनेकों सुन्दर युवतियाँ तथा युवा कर्मचारी एक मृत्यु कूप में धकेल दिये जाते थे। इस प्रकार उस कूप में अतुलित स्वर्ण सम्पदा दबी पड़ी है। बड़े प्रयत्नों के बाद टामसन ने न केवल मयों की राजधानी को वरन् उसने बलि कूप को भी खोज निकाला, वह 80 फुट गहरा था। एक साधन सम्पन्न खोजी दल ने उस कुँए की सफाई आधुनिक यन्त्रों की सहायता से की तो विपुल मात्रा में सोने ओर चाँदी के पात्र, आभूषण, हथियार मिले और असंख्य अस्थि पंजर निकाले गये।

उस क्षेत्र के मोस्तेजूमा दुर्ग में देव राजा के लिए बलियों का एक कूप स्मारक पाया गया है जिसमें बहूमूल्य स्वर्णालंकारों के अतिरिक्त 1,30,000 खोपड़ियाँ भी खोद निकाली गई है। यह उन अभागे लोगों की है जिन्हें मृत राजा की सेवा करने के लिए परलोक में जाने को बलात् बाध्य होना पड़ा।

एक दुर्बोध मय पाण्डु लिपि के आधार पर इतिहासकार फिग्ररोजा ने लिखा है -” विचेन इत् जा” के लोग मृत राजा के लिए 60 दिन का एक श्राद्ध अनुष्ठान करते थे। हर घर से एक युवती पकड़ी जाती थी और उसे मृतात्मा की प्रसन्नता के लिए धूम-धाम के साथ बलि कूप में धकेल दिया जाता था। इसके अतिरिक्त युद्धों में पकड़े गये युद्ध बन्दी भी उसी समारोह के समय उस कुँए में धकेल दिये जाते थे।

अन्ध विश्वास यों भोलेपन और पिछड़ेपन का चिह्न माना जाता है और सरल दयनीय सा लगता है पर वह कितना क्रूर, निर्मम और रोमांचकारी होता है इसे बहुत कम लोग जानते है; अन्धविश्वास ने भूतकाल में करोड़ों लोगों का रक्त पिया है और अब भी असंख्य लोगों का रक्त खूनी जोक की तरह पी रहा है। भारत में विवाहोन्माद, मृतक भोज, भूत-पलीत, पशु बलि, जाति पाँति, छूत-छात, बाल-विवाह, नारी उत्पीड़न, पर्दा प्रथा, आदि के नाम पर करोड़ों लोगों ने मानवी अधिकारों को अपने जूते की नोंक से रोंदना कहा है। धर्म की आड़ में छिपा बैठा अधर्म का महादैत्य अन्धविश्वास हमारी मान्यताओं का अंग बना बैठा है इसलिए सह्य ही नहीं प्रिय भी लगता है पर क्रूरता तनिक भी कम नहीं है।


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