धर्म और विज्ञान जुड़वा भाई

March 1975

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पिछले दिनों धर्म और विज्ञान को विरोधी माना जाता है। दोनों के तर्क, प्रतिपादन और आधार एक दूसरे से भिन्न समझे जाते रहे हैं। एक को प्रत्यक्षवादी और दूसरे को परोक्षवादी कहकर उन्हें असंबद्ध कहा जाता रहा है। इसलिये दोनों की दिशा विपरीत मान ली गई और माना गया कि किसी धार्मिक के लिये विज्ञान को समझना एवं किसी वैज्ञानिक को धर्म के बारे में जानना आवश्यक नहीं।

इतने पर भी यह शाश्वत सत्य यथास्थान है, धर्म और विज्ञान जुड़वा भाई हैं। एक ही पर्वत से निकलने वाले दो महा निर्झर हैं। क्षेत्र भिन्नता की दृष्टि से उनका स्वरूप भिन्न है तो भी वे ही महा प्रयोजन की पूर्ति करते हैं। उनकी उपयोगिता मनुष्य के कंधों में जुड़ी हुई दो भुजाओं जैसी है। वे एक दूसरे के विरोधी नहीं वरन् पूरक है।

लंदन विश्व-विद्यालय के ऐस्ट्रो फिजिसिस्ट विज्ञानी हर्बर्ट ढिंगले का कथन है-धर्म और विज्ञान दोनों एक ही महा सत्य को दो दिशाओं से खोजना आरम्भ करते हैं और जैसे-जैसे आगे बढ़ते हैं वैसे-वैसे एक दूसरे को अधिकाधिक निकट पहुँचते हैं। विज्ञान जड़ जगत की संरचना और क्रिया-पद्धति का स्वरूप निर्धारित करता है और यह बताता है कि उसका अधिकाधिक उपयोग किस प्रकार किया जा सकता है। धर्म चेतन जगत के रहस्यों का उद्घाटन करता है और सिखाता है कि विश्व की इस महती शक्ति का व्यक्ति और समाज के लिए श्रेष्ठतम उपयोग क्या हो सकता है। जड़ और चेतन के उभय-पक्षीय रहस्यों का उद्घाटन एवं उपयोग सीखने के लिए हमें धर्म और विज्ञान का समानान्तर उपयोग करते हुए आगे बढ़ना होगा।

आदिम काल में जड़ पदार्थों के सम्बन्ध में अनेकों भ्रान्त मान्यताएं गढ़ली गई थीं। प्रकृति की साधारण हलचलें देवताओं या भूत-प्रेतों की करतूतें समझी जाती थी। वर्षा, आँधी, तूफान, सर्दी, गर्मी, बाढ़, दुर्भिक्ष, रोग, हानि, दुर्घटना आदि के साथ किन्हीं अदृश्य आत्माओं का अभिशाप समझा जाता था और सफलताओं में उनका वरदान माना जाता था। देवताओं की अप्रसन्नता को प्रसन्नता में बदलने के लिए तरह-तरह विनय, अनुरोध, भेंट, उपहार प्रस्तुत किये जाते थे। विज्ञान ने उन सब मान्यताओं को झुठला दिया और बताया कि प्रकृति की शक्तियों को यन्त्र बन्धनों में बाँधकर वह सब किया जा सकता है जो मन्त्र तन्त्र से सम्भव नहीं था। जिन कारणों से संसार में अभाव दारिद्रय का बाहुल्य था- उनके निवारण कर सकने योग्य अनेकानेक साधन उपस्थित करके समृद्धि, प्रगति की ओर मनुष्य को बढ़ाया। इस दृष्टि से विज्ञान की मनुष्य जाति ऋणी है। उसे पाकर निश्चित रूप से सुख-सुविधाओं में वृद्धि हुई है। उसकी उपयोगिता के कारण विज्ञान के प्रति हर किसी का सम्मान है। वह सत्य के लिए ही नहीं सुख शान्ति के लिये भी हमारा पथ-प्रदर्शन करता है। दुरुपयोग की तो बात ही अलग है। गलत का प्रयोग करके तो अमृत भी विष बन सकता है। दृष्ट प्रयोजन के लिये यदि विज्ञान का प्रयोग किया जाय तो इसमें प्रयोक्ताओं की मूर्खता ही निन्दनीय ठहराई जायगी उससे विज्ञान की गरिमा नहीं घटेगी।

ठीक यही बात धर्म के सम्बन्ध में लागू होती है। आदिमकाल का मनुष्य एक दुर्बलकाय पशु मात्र था। उसके पास कोई आचार, व्यवहार, दर्शन, आदर्श नियम, विधान नहीं था। मत्स्य न्याय ही चलता था-सुविधा के साथ दूसरों का हनन करने में निकृष्ट स्तर के प्राणी संकोच नहीं करते, वैसा ही बर्ताव मनुष्यों का था। समझ की दृष्टि से थोड़ा विकसित होने के कारण वह अन्य पशुओं की तुलना में अधिक छली और दुष्ट था।

धर्म के उदय ने आचार, मर्यादा और कर्त्तव्य की जंजीरों में उन आदिमकालीन क्रूरताओं को जकड़ा और सभ्यता का सृजन करके मनुष्य को शालीनता एवं सामाजिकता का पाठ पढ़ाया। यह अत्यधिक महत्वपूर्ण उपलब्धि है जिसे धरती की समस्त सम्पदा से भी बढ़ी चढ़ी माना जा सकता है। धर्म ने क्रमशः पशुता के-असुरता के -पर्तों को उखाड़ा है और मनुष्य को उस स्तर तक पहुँचाया है जिसमें वह बढ़ी-चढ़ी संपत्ति के आधार पर ही नहीं सुविकसित सभ्यता के आधार पर भी गर्व करने का -गौरवान्वित होने का अधिकारी है।

लोभ-लाभ की आकाँक्षा से अथवा द्वेष-क्रोध भरी प्रतिहिंसा से प्रेरित होकर क्रूर कर्म कर बैठने पर बहुत कुछ बन्धन धर्म ने लगाया है। उदार, दयालु, सहिष्णु, सरल एवं सहृदय बनने में भी धर्म का योगदान कम नहीं है। अपराध-निरोधक, सरकारी और गैर सरकारी जितने भी प्रतिबन्ध, प्रतिरोध हैं उन सबकी सम्मिलित शक्ति से भी कहीं बढ़ी-चढ़ी शक्ति धर्म की है जो मनुष्यता को शालीनता को सजीव बनाये रहती है और जिसके आधार पर आनन्द पर आनन्द, उल्लास के-स्नेह, सौहार्द्र के -आदर्श, के उत्कर्ष के अभिनव उदाहरण प्रस्तुत होते हैं। वस्तुतः विकास का सर्वोत्तम आधार इन्हीं उपलब्धियों को माना जा सकता है।

विज्ञान क्रमशः आगे बढ़ रहा है-धर्म भी अपने उस रूप से कहीं आगे बढ़ चला जिसे किसी समय आदर प्राप्त था, पर अब उसे अन्ध विश्वास का पोषक माना जाता है। विज्ञान के सम्बन्ध में भी यही बात है। पत्थरों को रगड़ जब आग पैदा की गई थी तब वह एक महती क्रान्ति थी। आग की उत्पत्ति ने उस समय मानव प्रगति में उतना ही बड़ा योगदान दिया था जितना कि इन दिनों बिजली द्वारा किया जा रहा है। आज की दृष्टि से पत्थर रगड़ कर चिनगारी तरह धर्म सम्बन्धी वे मान्यताएं जो अब दकियानूसी कहीं जा सकती हैं कभी अपने समय की महती आवश्यकता पूरी कर रही थी। उन दिनों का पिछड़ापन उन परम्पराओं ने ही हलका किया था जिन्हें आज हम उपहासास्पद मानते हैं।

विज्ञानी पालटिनिश का कथन है- विज्ञान और दर्शन तेजी से नजदीक दौड़ते चले आ रहे हैं ओर वह दिन दूर नहीं जब वे अपने बाहुपाश में एक दूसरे का कस लेंगे।

किसी समय की वैज्ञानिक मान्यताएं अब झुठलाई जा चुकीं। इससे विज्ञान का अपमान नहीं हुआ वरन् सचाई के अधिक नजदीक पहुँचने की उपलब्धि पर खुशियाँ मनाई गई। धर्म की पुरातन मान्यताओं में यदि युग के अनुरूप परिवर्तन करना पड़े तो इससे विकास क्रम की झाँकी ही की जानी चाहिए। बच्चे, मूंछें नहीं होतीं, पर वे बड़े होने पर निकलती है। इससे बचपन का कोई अपमान नहीं होता। धर्म परम्पराओं में यदि प्रगति का समावेश करके कुछ हेर-फेर किया जाय तो इससे किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। अनादिकाल से न केवल धर्म और और विज्ञान में वरन् संसार के हर प्रतिपादन में अनवरत परिवर्तन होते रहे हैं। आगे भी वह क्रम चलता रहेगा।

विज्ञान प्रत्यक्ष है वह यन्त्रों द्वारा- प्रयोगशालाओं में प्रमाणित किया जा सकता है। धर्म अप्रत्यक्ष तो है, पर अप्रामाणिक नहीं। अधर्मी व्यक्ति के उच्छृंखल जीवन और सुसंस्कृत व्यक्ति की- शालीनता के प्रति-क्रियाओं का तुलनात्मक अध्ययन किया जाय तो स्पष्ट हो जायगा कि धर्म की उपयोगिता प्रामाणिक है। वह व्यक्ति के अन्तरंग और बहिरंग जीवन के सर्वतोमुखी प्रगति के आधार प्रस्तुत करती है।

विद्वान एच॰ के0 शिलेंग ने अपनी पुस्तक ‘साइंस एण्ड रिलीजन’ में यह भविष्यवाणी की है कि अगली शताब्दी में धर्म को विज्ञान का और विज्ञान को धर्म का अविच्छिन्न अंग मान लिया जायगा। अस्तु विज्ञान और धर्म के समन्वय से ही उसकी उभय-पक्षीय प्रगति का सुसन्तुलित आधार बन सकेगा।


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