प्रस्तुत विश्व संकट में हमारा कर्तव्य और उत्तरदायित्व

March 1975

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उन दिनों संसार भर में यह सर्वविदित था कि भारत स्वर्ण सम्पदाओं का स्वामी है। यहाँ साक्षात् लक्ष्मी का निवास है। भारत पारस मणि की तरह है। उनके साथ जिनका भी संपर्क होता था, वे अपनी लोह दरिद्रता को खोकर स्वर्ण सम्पदाओं के अधिपति बन जाते थे। यह मान्यता अकारण न थी। भारत से व्यापारी लोग जल मार्गों और थल मार्गों से देश-देशान्तरों में जाते थे और वहाँ के लोगों को उन वस्तुओं से लाभान्वित करते थे जिन्हें पाना उनके लिये किसी बड़े सौभाग्योदय से कम न था। लोग प्रतीक्षा लगाये बैठे रहते थे कि कब भारतीय व्यापारी इधर आवें और कब हमें दैवी वरदानों जैसे उपयोगी पदार्थों से लाभान्वित करें। उनका यह सोचना सही ही था जो इतनी दूर जाकर इतनी उपयोगी वस्तुएँ यहाँ तक पहुँचाते हैं, उनका अपना देश न जाने कितना सुसम्पन्न होगा।

इस प्रश्न पर सर्वत्र चर्चा होती रहती थी कि भूमि की दृष्टि से प्रकृति सम्पदाओं की दृष्टि में अन्य देश भी भार जैसे ही हैं-मनुष्यों की बनावट भी अन्य भूखण्डों में एक जैसी ही है फिर इसी देश के निवासी कैसे इतने सुसम्पन्न हैं कि स्वर्ग जैसी सुख-सुविधाओं से भरा-पूरा जीवन जीते हैं। और अपनी विभूतियों के अनुदान संसार भर में बिखेरते फिरते हैं। इस प्रश्न का कोई भौतिक समाधान न था। गहराई में जो उतरा उसने एक ही उत्तर पाया कि भारत के निवासियों का चिन्तन, दृष्टिकोण अतिमानवों जैसा है। वे अपने सुविकसित सद्गुणों के कारण सामान्य परिस्थितियों में भी असामान्य उपार्जन कर लेते हैं। जो कमाते हैं उसका श्रेष्ठतम सदुपयोग करना जानते हैं। फलतः उतने में ही वे लोग स्वयं भरपूर सुविधा साधनों से भरे लदे रहते हैं। साथ ही अपनी सहज उदारता से अपनी विभूतियों को बादलों की तरह अन्यत्र बिखेरते हुए, अपने कर्तव्य के सत्परिणाम देखते हुए, मुदित रहते हैं, प्रमुदित करते हैं।

भारत भूमि इन्हीं तथ्यों की सफल प्रयोगशाला रही है। यहाँ उच्च मानवीय सद्गुणों को सर्वोपरि उपलब्धि माना जाता रहा और इसके लिए अथक परिश्रम एवं बड़े से बड़ा कष्ट सहन किया जाता रहा। फलतः व्यक्तित्व निखरा और साथ ही अजल वैभव उसी प्रकार समवेत होता रहा जिस प्रकार खिले हुए कमल पुष्प पर भ्रमर समूह बना बुलाये ही मंडराता रहता है। इस सचाई को कोई भी परख सकता है कि आलस्य और प्रसाद ही मनुष्य को दरिद्री बनाते हैं। व्यसन ओर अपव्यय को अपनाकर ही कंगाली का शिकार रहना पड़ता है। सुसंतुलित और सुव्यवस्थित गतिविधियाँ अपनाने वाले अभीष्ट उपार्जन सहज ही इतनी मात्रा में कर सकते हैं, जिसे सन्तोषजनक कहा जा सके। फिर उसे अपव्यय से बचाकर जो उसके श्रेष्ठतम सदुपयोग की बात सोचता रहेगा वह सच्चे अर्थों में धनी बन जायगा और उस वैभव से न केवल स्वयं सन्तुष्ट, प्रमुदित रहेगा वरन् उसी का एक अंश समीपवर्ती क्षेत्र में बखेर कर चन्दन वृक्ष की तरह दूसरों को भी अपनी ही तरह समुन्नत बना सकता है। भारतवासी इसी नीति को अपनाते थे और उन्हें संसार भर में लक्ष्मी का वरद पुत्र माना जाता था। सरस्वती की उन पर असीम कृपा थी। उनकी समर्थता-शक्ति दुर्गा जिधर भी कदम बढ़ाती थी उधर ही अवरोध व्यवधान के असुरों का पराभव होता चला जाता था। यही थे वे रहस्य जिनके कारण भारतवासियों ने अपने देश की गौरव गरिमा बढ़ाई और अन्यत्र भी सुख-शांति अनुदान असीम मात्रा में बखेरा।

आज उस प्राचीन इतिहास के पृष्ठों को उलटने की आवश्यकता इसलिए पड़ी कि प्रस्तुत दरिद्रता और विपन्नता के कारण चारों ओर दम घोंटने वाला वातावरण बन गया है। मनुष्य अपने व्यक्तिगत जीवन में अपनी ही आदतों द्वारा इस कदर सताया जा रहा है कि परित्राण का कोई रास्ता नहीं दीखता और आत्महत्या करने को जी चाहता है। परिस्थितियों का दोष दूसरों के ऊपर डाल कर कुछ समय आत्म-प्रवंचना द्वारा मन हलका तो किया जा सकता है पर उससे कुछ काम नहीं बनता। अपने ही दुर्गुण, दुर्भाव, दुष्कर्म इतनी जलन उत्पन्न करते हैं मानो श्मशान में जलते हुए शव की तरह अपना अन्तरंग सन्तुलन भस्मीभूत होने जा रहा हो। व्यक्ति अपने आप से घोर असन्तुष्ट है। दुर्भाग्य पर हर घड़ी उसे खीजना ही पड़ता है। नशे पीकर अथवा व्यभिचार जैसे व्यसनों का आश्रय लेकर किसी कदर गम गलत करने का अत्यन्त बोझिल प्रयत्न तो करता है पर काम उससे भी नहीं बनता। त्रास बढ़ता है-घटता नहीं। यही है आज के व्यक्तिगत जीवन की दुर्दशा का दयनीय चित्र।

किसी समय के यह सुख-शान्ति के सतयुगी वातावरण में आनन्द से रहने वाला और समस्त विश्व को प्रकाश भरे अनुदान प्रदान करने वाला यह भारत आज ठीक उलटी स्थिति में जा गिरा है। रोग-शोक से, कष्ट-कलह से, अभाव, दारिद्रय से, असन्तोष, विद्वेष से,, आशंका अविश्वास से, आज मानवी कष्टों की मात्रा दिन-दिन बढ़ रही है। अपराधी मनोवृत्ति इस प्रकार पनप रही है कि स्वजन और मित्रों से भी हर घड़ी भयभीत रहना पड़ता है। चिन्तन के उच्च-स्तरीय आधार टूट चुके। निकृष्ट आकाँक्षाएँ निकृष्ट परिस्थितियों का सृजन कर रही हैं। प्रगति की बात सोचने वाला मनुष्य दिन-दिन सर्वतोमुखी पतन के गर्त में गिरता जाता है। विलासी खिलौनों से खेलने की थोड़ी सुविधा बढ़ जाने पर भी सर्वत्र घुटन, आशंका और निराशा की घटाएँ ही घुमड़ रही हैं। लगता है यह संसार कुछ समय में ऐसा बन जायगा जिसमें शांति से रह सकने की स्थिति किसी को भी उपलब्ध न हो सकेगी।

इन विषम और विपन्न परिस्थितियों में विश्व मानव के सम्मुख एक ही प्रश्न प्रस्तुत है कि विगत शताब्दियों से प्रगति की दिशा में आतुर आकाँक्षा के साथ बढ़ते हुए विनाश के जिस सर्प को गले लपेट लिया गया है उसे छुड़ाया कैसे जाय? सुख-शान्ति और सन्तोष की भूतकालीन परिस्थितियों की और पीछे कैसे लोटा जाय? सुविधा साधनों की प्रचुर अभिवृद्धि होने पर भी सर्वनाश के गर्त में गिरने की विडम्बना को कैसे निरस्त किया जाय? इन सब प्रश्नों का एक ही उत्तर है कि मनुष्य के चिन्तन में उत्कृष्टता और कर्तव्य में आदर्शवादिता का समुचित समावेश कर सकने बाल अध्यात्म धर्म को पुनर्जीवित किया जाय? जन-मानस के भावनात्मक परिष्कार का प्रबन्ध किया जाय? विविध आकार-प्रकार की प्रस्तुत अगणित समस्याओं का एक ही समाधान है-भावनात्मक उत्कर्ष। दूसरे शब्दों में इस उसे अध्यात्म धर्म का पुनरुत्थान भी कह सकते हैं जिसे इस देश के नागरिकों ने कभी अपने अन्तःकरण के गहन मर्मस्थलों में कूट-कूट कर भरा था, जिसे अपनी गौरव गरिमा का आधार बनाया और जिसे संसार भर में बिखेर कर मानव जाति को अजस्र सुख-शान्ति का अनुदान प्रदान किया था।

न केवल भारत के वरन् समस्त विश्व के समस्त मानव जाति के हित में इस नितान्त महत्वपूर्ण तथ्य को समझा जाना चाहिए कि हम जीवन और मरण के चौराहे पर खड़े हैं। परिस्थितियाँ इतनी तेजी से गतिशील है कि फैसला इधर या उधर किसी पक्ष में तुरन्त होना है ठहरो और देखो कि मंद गति से चलने की- समय आने और प्रतीक्षा करने की गुंजाइश अब है नहीं। जो कुछ चल रहा है उसे यथावत् चलने देना हो तो आँशिक क्षति के लिए, सर्वभक्षी महाविनाश की तैयारियाँ करनी चाहिएँ और इसी दृष्टि से सोचना चाहिए कि अब सर्वनाश बिलकुल निकट आ गया है।

इन परिस्थितियों में प्रकाश की एक ही किरण शेष रह जाती है कि उस विष वृक्ष की जड़ें काटी जायें, जिसने सर्वत्र विषाक्त वातावरण और नरक जैसी सड़ी दुर्गन्ध पैदा करके रख दी है। दुर्बुद्धि, दुर्भावना, दुरभिसन्धियाँ और दुष्प्रवृत्तियाँ ही वे जड़े है जिन्होंने मनुष्य जैसी दैवी विभूतियों से सम्पन्न, समुन्नत प्राणी को इस दयनीय दुर्दशा में उलझाया है। जिस कुल्हाड़ी से यह जड़ें कटेंगी उसे अध्यात्म धर्म कहा जा सकता है। भावनात्मक नव-निर्माण का पुण्य प्रयोजन लेकर हम चलें तो लोक मानस में संव्याप्त निकृष्ट आस्थाओं और आकांक्षाओं का उन्मूलन किया जा सकता है उसके स्थान पर सद्भावनाओं एवं सत्प्रवृत्तियों के कल्प वृक्ष बोये, उगाये जा सकते हैं। उसके लिए हम भारतवासियों को ही आगे आना पड़ेगा। सूर्य सदा पूर्व से ही उदय होता है। उदयाचल को ही सूर्योदय की भूमिका निर्वाह करने का श्रेय मिलता रहा है। ऊष्मा ब्राह्ममुहूर्त का सन्देश लेकर आती है और अपनी अरुणिमा बखेर कर प्राणि जगत में जागरण की चेतना फूंकती है तदनुसार सभी उठ खड़े होते हैं और उगते सूर्य का अभिवादन करते हैं। भारत ही उदयाचल है उसी को अनादि काल से जीवन-ज्योति के संचार का उत्तरदायित्व निबाहना पड़ा है। भारतीय धर्म और दर्शन ने ऊष्मा की लालिमा बनकर सदैव सर्वत्र जागरण की ज्योति जगाई है। विश्वमानव के सौभाग्य का सूर्य हर दिन-हर युग में यही से उगा है। उसी उदय का लाभ पाकर मानवता धन्य होती रही है। आज की सघन अँधियारी का निराकरण उसी सूर्योदय से होगा जिसकी सृजन कर्ती वह मानवी समस्या रही है-जिसे दूसरे शब्दों में भारतीय संस्कृति का नाम दिया जाता रहा है।

मानव जाति आज जीवन-मरण के झूले में झूल रही है उसे अगले ही दिनों या तो डूबना है या पार होना है। अधर में देर तक लटकी नहीं रह सकती। हम ऋषि रक्त के उत्तराधिकारी-मानवी गरिमा के प्रहरी यदि इन घड़ियों में अपने पवित्रतम कर्त्तव्य का, उत्तरदायित्व का निर्वाह न कर सके तो यह मात्र हमारे लिए निकृष्टतम भर्त्सना का ही प्रसंग न होगा वरन् अपने देश और समाज सहित समस्त मानव जाति के-विश्व वसुधा के विनाश का कलंक भी अपने ही हमें उत्तराधिकार में वे विभूतियाँ उपलब्ध हैं जो विश्व शान्ति की भूमिका का निर्वाह करने में सदैव खरी सिद्ध होती रही हैं। यह सब होते हुए भी यदि हम नर कीटकों की तरह पेट और प्रजनन के हेय प्रयोजनों में ही खपते मरते रहे और सुविस्तृत कर्तव्यों की और से विमुख ही बने रहे तो इसे इस युग की महत्ती दुर्घटना कहा जायगा। इस संकीर्णता को आदर्शों का देवत्व का पराभव ही माना जायगा।

हमें उन उत्तरदायित्वों को निबाहने के लिए तत्पर होना ही चाहिए जो इस आपत्ति काल में आपत्ति धर्म की तरह अनायास ही आकर हमारे कन्धों पर लद गये है। इसके बिना कोई गति नहीं, सामान्यकाल में सुविधा सम्पन्न जीवन जीने की बात समझ में आती है पर आपत्ति में तो बड़ी से बड़ी व्यक्तिगत असुविधा को सहन करते हुए उस सामूहिक सुरक्षा में संलग्न होना चाहिए जिस पर कि अपना और अपने परिवार का अस्तित्व संरक्षण भी निर्भर है। समय की-युग की-पुकार यही है, इसे अनसुना नहीं किया जाना चाहिए।

आज कर्तव्य निर्धारण की बेला में हमें आवश्यक प्रकाश और मार्ग दर्शन की आवश्यकता है। यह प्रयोजन इतिहास के पृष्ठ पलटने से सहज ही पूरा हो सकता है। हमारी अविच्छिन्न परम्परा एक ही रही है कि स्वयं को उन विभूतियों से सुसम्पन्न करना जो मनुष्य को देव स्तर तक ऊँचा उठा कर ले जाती हैं। साथ ही उन दिव्य सम्पदाओं को अपनी पहुँच, पकड़ में आ सकने वाले सुदूर क्षेत्रों तक उदारता पूर्वक बखेरना ताकि कहीं भी अज्ञान, अशक्ति और अभाव का अस्तित्व रहने न पावे। इस परम्परा का निर्वाह जिस महान संस्कृति के प्रकाश में हमें अनादि काल से मिलता रहा है; उसी के कुछ संस्मरण, उद्धरण यहाँ प्रस्तुत किये जा रहे हैं। इस प्रयोजन से-कि हम फिर अपने महान पूर्वजों से आवश्यक प्रेरणा ग्रहण कर सकें, उनके अनुकरण का साहस इकट्ठा कर सकें, अपनी गौरव गरिमा का संरक्षण करते हुए, विश्व मानव की महती सेवा साधना कर सकने में समर्थ हो सकें।


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