प्रबल पुरुषार्थ से प्रतिकूलता भी अनुकूलता बनती है।

March 1975

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यह ठीक है कि परिस्थितियाँ मनुष्य को उठाने अथवा गिराने में बहुत सहायक होती हैं। कई बार ऐसे अवसर आते हैं जिनमें अयोग्य व्यक्तियों को अप्रत्याशित लाभ मिल जाते हैं। इसके विपरीत ऐसे उदाहरण भी कम नहीं जिनमें सुयोग्य व्यक्तियों को विपरीत परिस्थितियों ने उलट कर रख दिया और पराजय का मुँह दिखाया। इस अकाट्य परिणामों को देखकर कई व्यक्ति भाग्यवाद का समर्थन करने लगते हैं और देव को अनुकूल बनाने के उपाय ढूंढ़ते हैं।

अपवादों को तथ्य मान कर चलना अबुद्धिमत्तापूर्ण है। संसार का सामान्य नियम यह है कि मनुष्य अपनी प्रतिभा एवं क्षमता का विकास करता है और उस विनिर्मित व्यक्तित्व के आधार पर अनुकूल वातावरण उत्पन्न करता है। परिस्थितियाँ लौह कणों की तरह है जो प्रखर व्यक्तित्व के शक्तिशाली चुम्बक के पास खिंचती घिसटती चली आती है। परिस्थितियों की अनुकूलता प्राप्त करने के लिए क्या करना चाहिए इसका सुनिश्चित उत्तर यही है कि अपने चिन्तन में-स्वभाव में, क्रिया-कलाप में जो अवाँछनीय तत्व घुस पड़े हो उन्हें ढूंढ़ने और हटाने में तत्परता पूर्वक जुट जाया जाय। परिष्कृत व्यक्तित्व में जिन गुणों की आवश्यकता पड़ती है उन्हें बढ़ाने का परिपूर्ण प्रयत्न किया जाय।

परिस्थितियाँ आमतौर से किसी के पास अनायास ही नहीं जा पहुँचती; वे बुलाने पर जाती हैं। यह बुलाया वाणी मात्र का नहीं होता वरन् अपनी योग्यता एवं पात्रता के आधार पर प्रस्तुत किया जाता है। परिस्थितियाँ की देवी ऐसे ही आमन्त्रणों पर ध्यान देती और स्वीकार करती है। जीभ की नोंक से तो हर कोई अनुकूल परिस्थितियों को बुलाता है; पर वे बुलावे ऐसे ही उपेक्षापूर्वक रद्द होकर रह जाते हैं।

चोरी करके धन कमाने की आकाँक्षा उस प्रकार के लोगों के साथ संपर्क बनाती है। उस तरह के अनुभव एवं अभ्यास संग्रह करती है। चोरी के स्थान तथा अवसर खोजती है। आवश्यक उपकरण जुटाती है। यह सब प्रयास गुप-चुप चलते रहते हैं और वह दिन आ जाता है जब चोर कर्म में प्रवीणता मिल जाती है। कहना न होगा कि साथ-साथ ही वह बात फैलती है-अविश्वसनीयता का वातावरण बनता है और अन्ततः पकड़े जाने एवं जेल भुगतने का अवसर भी आ जाता है। एक भले, चंगे आदमी को उसकी आकाँक्षा ने ही एक-एक कदम बढ़ाते हुए यह सारी परिस्थितियाँ इकट्ठी की होती हैं। वे अनायास ही उसके सिर पर नहीं जा टपकती।

यही क्रम हर परिस्थिति के बारे में चलता है। किस दिशा में चलना है यह निर्णय करना अपना काम है। चुनाव भलाई का किया जाय या बुराई का, इसकी हमें पूरी-पूरी छूट है। जैसे ही आकाँक्षा परिपक्व होकर निष्ठा बनती है वैसे ही तरह-तरह की दृश्य ओर अदृश्य हलचलें आरम्भ हो जाती हैं। मन का उत्साह यदि शिथिल न हो तो वह प्रगति अपनी गति से कदम बढ़ाती चलती है और वहाँ जा पहुँचती है जिन्हें संबद्ध परिस्थितियाँ कहा जा सकेगा।

जिनके मन में अध्ययन की प्रबल अभिलाषा है उनकी अन्तः चेतना पुस्तकें, समय, मार्गदर्शक आदि का साधन जुटा लेती है और आरम्भ में जो बात असम्भव दीखती थी वह कुछ ही समय में सम्भव बन जाती है। जब अध्ययन की अभिलाषा जगी थी तब चारों और दृष्टिपात करने से अन्धकार, अभाव और असम्भव की ही ध्वनि गूँजती थी; पर जैसे ही समर्थ आकाँक्षा की ऊषा उगी वैसे ही कुहरा छंटता चला गया और वह दिखाई पड़ने लगा जो कुछ समय पहले अविज्ञात अनिश्चित बना हुआ था। मानवी उत्कण्ठा में ऐसा विलक्षण जादू है कि उसके प्रभाव से देर-सवेर में प्रतिकूलता और अनुकूलता में परिणत होना पड़ता है।

पतन एवं उत्थान की परिस्थितियों में पड़े हुए मनुष्य इस स्थिति में अनायास ही नहीं पहुँचे हैं उन्होंने बहुत समय पूर्व यह निश्चय किया था कि हमें इस दिशा में चलना है। इस संकल्प ने उन्हें साधनों की ओर आगे बढ़ाया और अनुकूलता निकट आती चली गई। कई व्यक्ति पतन के मार्ग को अपनाकर उत्थान की बात सोचने में भूल करते हैं। वे प्रकृति के इस नियम की उपेक्षा करते हैं जिसमें भले का परिणाम भला एवं बुरे का बुरा होना निश्चित है। आकाँक्षा तो इतना ही कर सकती है कि मनोरथ की दिशा में बड़ चलने के साधन जुटा दें। सन्त बनने के इच्छुकों को वैसे व्यक्ति साधन एवं अवसर मिलते चले जाते हैं और प्रयत्नों का परिणाम अभीष्ट पूर्ति का पथ प्रशस्त करता चला जाता है। दस्यु बनने की आकाँक्षा भी उसी तरह क्रम संचालन करेगी। यह सोचना अपना काम है कि सन्त बनना ठीक है अथवा दस्यु। प्रकृति इस निर्णय की स्वाधीनता में कोई हस्तक्षेप नहीं करती।

परिश्रम, मनोयोग, संयम और तत्परता के आधार पर हम किसी भी दिशा में आगे बढ़ सकते हैं। जहाँ यह गुण होंगे वहाँ परिस्थितियों अनुकूल होती चलेगी और सफलता निकटतम आती जायेगी। असफल वे रहते हैं जिन्हें डटकर परिश्रम करने की आदत नहीं। ऐसे ही हलके-फुलके कुछ औंधी-सीधी उलट-पुलट करके काम बना लेने के सपने देखने वालों को निराशा ही हाथ लगती है। यदि आलसी, अकर्मण्य और अस्त-व्यस्त व्यक्ति भी सहज सफलता प्राप्त कर लिया करते तो फिर किसी को मनोयोग पूर्वक कठिन परिश्रम करने की आवश्यकता क्यों पड़ती? पात्रता के नियम को झुठलाया नहीं जा सकता। पसीने से सिंचाई किये बिना प्रगति का पौधा ऊंचा उठता ही नहीं। कल्पना और जल्पना की उड़ाने उड़ते रहने से नहीं कड़ी मेहनत करने से ही असम्भव को सम्भव बनाया जाता है।

कोल्हू के बैल की तरह काम का शारीरिक पक्ष पूरा करते रहना पर्याप्त नहीं। श्रम की सार्थकता और तत्परता की दोनों धाराएं मिलने से वह विद्युत प्रवाह उत्पन्न होता है जो सफलता के लिए अभीष्ट मात्रा में ऊर्जा उत्पन्न कर सके। गिरे हुए, टूटे हुए, हारे हुए मन से बेगार भुगतने की तरह-लकीर पीटने की तरह कोई काम करते रहें तो उससे चिन्ह पूजा होती रहेगी वह प्रकाश उत्पन्न न हो सकेगा जिसके आधार पर सफलता का लक्ष्य स्पष्ट दृष्टिगोचर हो सके। जिन्होंने कठोर परिश्रम और समग्र मनोयोग को एकत्र करने की साधना कर ली उसे सफल जीवन के अनेकानेक वरदान पा सकने योग्य सत्पात्र साधक कहा जा सकता है। ऐसे लोग कदाचित् ही असफल रहते देखे गये हैं।

कार्य पद्धति का सही निर्धारण करने के लिए दूर-दर्शिता एवं व्युत्पन्न मति की आवश्यकता होती है। जहाँ पहुँचना है उसका सही मार्ग पहले से ही ज्ञात होना चाहिए; अन्यथा अस्त-व्यस्त दिशा में घुड़दौड़ लगाने से भी काम न चलेगा। हर काम अपने लिए उपयुक्त समय माँगता है और साधन चाहता है। वे यह भूल जाते हैं कि अपने स्वल्प साधनों में देर लगनी स्वाभाविक है। साधन सम्पन्न लोग जिस काम को एक वर्ष में करते हैं उसमें साधन हीन व्यक्तियों को दो वर्ष लगने ही चाहिए। ऐसा धैर्य जिनमें नहीं उनके अत्युत्साह को निराशा में बदलते देर नहीं लगती। हथेली पर सरसों जमाने के लिए अधीर मनुष्य प्रायः हिम्मत हार कर बैठ जाते हैं और अति निकट सफलता से मुँह मोड़ कर दुर्भाग्य का रोना रोते हैं।

सफलता के लिए दूसरों का सहयोग आवश्यक है और उसे पाने के लिए हमें हर दृष्टि से प्रामाणिक बनना चाहिए। अनुकूल परिस्थितियाँ सत्पात्रों के लिए सुरक्षित हैं। इसलिए हमें अपनी पात्रता बढ़ानी चाहिए। अनायास ही दैव अनुग्रह से लाभदायक परिस्थितियाँ मिल जायें और बिना आवश्यक मूल्य चुकाये अभीष्ट मनोरथ सरलता पूर्वक पूरे हो जायें ऐसा सोचना उपहासास्पद ही माना जायेगा।


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