अचेतन मन की व्याधियाँ और उनका निराकरण

September 1973

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यदि परब्रह्म की परिभाषा की व्याख्या करनी हो तो सृष्टि के कण-कण में संव्याप्त नियम चेतना, अनुशासन व्यवस्था को देखना होगा। सूक्ष्म दृष्टि से देखने वाले पार्टिकल फिजिक्स के ज्ञाता कहते है कि पदाथर्र के न दीख पड़ने वाले छोटे कणों से लेकर जीवाणु-विषाणु तक एवं तारा मंडलों के समूहों में गतिमान फोटान-लवसान कणों तक के बीच एक अत्यन्त सजग अनुशासित विधि-व्यवस्था कार्यरत दिखाई पड़ती है। इकॉलाजी के इसी पक्ष को नियामक सत्ता को विज्ञान की दृष्टि में ईश्वर कह सकते है। आस्तिकता का यही एक प्रमाण ऐसा है जिसे पूर्णतः विज्ञान सम्मत कहा जा सकता है।

नास्तिकतावादी दर्शन के प्रणेता-नीत्से ने आज से कोई सौ वर्ष पूर्व घोषणा की कि “ ईश्वर अब अन्तिम रूप से मर गया है। उसका प्रादुर्भाव अब अतिमानवों की पीढ़ी के रूप में होगा। “ उसने कहा था कि तलाशने का कितना भी प्रयास किया जाये, ईश्वर के अस्तित्व का कोई प्रमाण नहीं दिखता। इस घोषणा ने एक महत्वपूर्ण घटना के रूप में तहलका तो मचा दिया पर वैज्ञानिकों को ईश्वर परब्रह्म की सही व्याख्या हेतु अनुसन्धान हेतु भी प्रेरित किया। पदार्थ विज्ञान के ज्ञाता जब “ यूनिफिकेशन ऑफ कोर्सेज” की चर्चा करते है तो ऊर्जा के रूप में पदार्थ में छिपी चेतना के स्वरूप की एक झाँकी देख पाते है एवं जितना इस रहस्य को खोजने का प्रयास करते है उतना ही गहरा इसे पाते है।

गत सौ वर्षों की वैज्ञानिक प्रगति का इतिहास पदार्थ भौतिकी के उद्भव विकास का नहीं, कण-कण में संव्याप्त चेतन सता की प्रगति का इतिहास कहा जा सकता है। पदार्थ दिखाई पड़ता है, लेकिन उसमें छिपी ऊर्जा दृष्टिमान नहीं है। शरीर दृष्टिगोचर होता है लेकिन आत्मा नहीं। कारण यह है कि पदार्थ व शरीर स्थूल है, अतः वह स्थूल नेत्र से दृष्टिगोचर हो जाता है तथा सहज ही उस पर विश्वास हो जाता है। इसके आगे सूक्ष्म शरीर के अंतर्गत मन आता है, जिसकी क्रिया से तो हमस ब परिचित होते है, परन्तु उसे प्रत्यक्ष देखना सम्भव नहीं। इसी तरह अति सूक्ष्म आत्मा को देखना तो और भी दुष्कर है।

कोई चीज दीखती नहीं इससे उसके अस्तित्व को झुठलाया नहीं जा सकता। मनुष्य की तो देखने व सुनने की भी सीमा है। एक खास वेवलेन्थ पर ही हम देख अथवा सुन सकते है। इससे कम अथवा अधिक वेवलेन्थ की ध्वनि अथवा दृश्य हमारे किसी काम के नहीं। प्राप्त जानकारी के अनुसार मनुष्य के कान केवल उतने ही ध्वनि कम्पन पकड़ सुन सकते है, जिनकी गति 33 प्रति सेकिण्ड से लेकर 40 प्रति सेकिंड के बीच होती है। जबकि ब्रह्मांड से इससे अधिक गति के कम्पन जो शरीर को नुकसान पहुंचा सकते है, सदा गुँजित होते रहते है। 75 डेसीबल की ध्वनि मनुष्य के लिए असहा हो जाती है। आमतौर से आपसी बातचीत का क्रम 10-20 डेसीबल पर चलता है। 150 डेसीबल पर शरीर में भारी विक्षोभ उत्पन्न होता है। एक तारे के टूटने मात्र से भयंकर गर्जना होती है, जो हमें बहरा बना दे सकती है परन्तु वह हमें सुनाई नहीं देती।

पानी में विद्यमान अगणित जीव-जन्तु, आसमान में छाए असंख्य तारे इन आंखों की पकड़ में नहीं आते। सूर्योदय सूर्यास्त के समय आसमान में छाया रंग-बिरंगा वातावरण दृष्टि भ्रम ही होता है। वस्तुतः वहाँ कोई रंग का अस्तित्व नहीं होता। सिनेमा में सिलसिले वार चलने वाला दृश्य गतिशीलता का खेल है। उसकी गति के कारण हम दो चित्रों के बीच के अन्तर को समझ नहीं पाते। रेगिस्तान में मृग मरीचिका का उदाहरण सर्वविदित है, जहाँ दृष्टि भ्रम के कारण सरोवर के अस्तित्व का बोध होता है। चन्द्रमा से देखने पर पृथ्वी आसमान में दिखती है। सूर्य का रंग वास्तव में श्वेत होता है, परन्तु वायुमंडल के धूलि कण के कारण वह लाल-सा प्रतीत होता है। अनन्त आकाश से विद्युत चुम्बकीय किरणें सतत् पृथ्वी पर बरसती रहती है। इन्हें विज्ञान की भाषा में ‘कास्मिक रेज’ कहते है। मनुष्य को इसका कभी भान नहीं होता।

विज्ञान ने अब स्वीकारा है कि यह जगत वास्तव में तरंगों का समुच्चय है। एक शब्द में यहाँ जो कुछ भी है सब तंरगमय है। जो भी दीखता अथवा जिसकी अनुभूति होती है, वह सब क्वाण्टा के अतिरिक्त और कुछ नहीं होता है। भौतिक विज्ञान में पार्टिकल फिजिक्स के अनुसार प्रत्येक पदार्थ की संरचना इलेक्ट्रॉन , प्रोटान के आधार पर हुई है। इससे यह पता चलता है कि जगत की हरेक वस्तु एक दूसरे से सम्बन्धित ही नहीं वरन् एक ही है। जड़ चेतन सभी में एक ही सता विद्यमान है तथा सबका उद्गम केन्द्र भी वही है। दूसरी तरफ शक्ति के सूक्ष्मातिसूक्ष्म कणों का जीवन काल एक सेकिंड का दस करोड़वां हिस्सा तथा गति 1 लाख 96 हजार मील प्रति सेकिंड बताई गई है। अतः इनके मापन में वैज्ञानिक असमर्थता व्यक्त करते है। फिर भी इस ओर और भी अधिक शोध प्रयास करने की आवश्यकता को अनुभव किया गया है। क्वाण्टम थ्योरी विशेष रूप से इस विषय से सम्बन्धित अध्ययन में ही संलग्न है। यह थ्योरी शक्ति के सूक्ष्मातिसूक्ष्म कणों का अध्ययन विश्लेषण करती है। डॉ0 यूनान पी0 विग्नर ने चेतना की जानकारी प्राप्त करने हेतु इसे एक महत्वपूर्ण माध्यम बतलाया है।

शोध निष्कर्ष के रूप में सर ए0एस॰ एड्रिगन का कथन है कि ‘ भौतिक पदार्थों के अन्तराल में एक चेतन शक्ति क्रियाशील है, जिसे उसका प्राण-जीवन का आधार माना जा सकता है। अब तक हम इसके स्वरूप से अवगत नहीं हो सके है, पर उसके अस्तित्व को नहीं झुठलाया नहीं जा सकता। मैक ब्राइट ने भी अपना अध्ययन निष्कर्ष इस प्रकार प्रस्तुत किया है कि परोक्ष जगत् में एक ज्ञानयुक्त एवं इच्छायूक्त सत्ता के होने की पूरी सम्भावना है। विश्व की समस्त गतिविधियां उसी से संचालित है। मोर्डेल ने कहा है कि ‘ अणु और पदार्थ के कणों का व्यवहार से यह स्पष्ट होता है कि परोक्ष जगत में कोई चेतन शक्ति क्रियाशील है।

प्रख्यात वैज्ञानिक इंगोल्ड ने भी कहा है - ‘सृष्टि से क्रियाशील चेतन शक्ति के वास्तविक स्वरूप को समझने में अभी हम असमर्थ है।’

भारतीय तत्वदर्शियों ने इस विषय में महत्वपूर्ण निष्कर्ष प्रस्तुत किये है। उनने चेतना के व्यापक स्वरूप के विषय में यह दर्शन प्रतिपादित किया था-

एकोदेवः सर्वभूतेषु गूढः सर्वव्यापी सर्व भूतान्तरात्मा। कर्माध्यक्षः सर्वभूता धिवासः साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च।

अर्थात्- वही एक देव सभी प्राणियों में अन्तरात्मा रूप में व्याप्त तथा समस्त कर्मों का नियामक संचालक है। निर्गुण होते हुए भी चेतना शक्तियुक्त है। समस्त क्रिया-कलापों का साक्षी है।

ईशोवस्योपनिषद् में भी इसी प्रकार का उल्लेख मिलता हे ‘ वह गतिमान है, स्थिर भी है। दूर है और निकट भी है। वह हरेक के अन्दर और बाहर भी स्थित है।’ स्पष्ट है कि ऐसा सर्वव्यापक स्वरूप चेतन शक्ति विद्युतीय ऊर्जा का हो सकता है।

वैज्ञानिकों ने तो मात्र इतना ही कहा है कि उनके वर्तमान साधनों में ईश्वर के अस्तित्व का परिचय नहीं मिलता। यह कभी नहीं कहा कि यह उनका अन्तिम निष्कर्ष है, ज्ञान की चरम सीमा है, जो जान लिया है वही अन्तिम है। विनम्र शब्दों में कहे तो यह कि विज्ञान दुराग्रही नहीं है। भविष्य में सम्भावित नयी खोजो के लिये उसका द्वार हमेशा से खुला रहा है। बचपन का विज्ञान किशोरावस्था से गुजरकर अब जैसे-2 प्रौढ़ हो रहा है, जानकारियाँ अधिक संभावनाओं से भरी, संशोधित एवं नितनूतन उपलब्ध होती जा रही है। हर नवीन शोध पिछली को नकारती ही नहीं नये प्रतिपादन प्रस्तुत कर आगे बढ़ती है। ऐसी व्यवस्था न होती तो विज्ञान कैसे प्रगति कर पाता? उसकी शोध अनुसंधान के अनेकानेक विषयों में एक खोज ईश्वर ने की, विधि-व्यवस्था का संचालन करने वाले नियन्ता की भी है।

दर्शन शास्त्र के अनुसार ईश्वर का “ श्एकोहं बहुस्यामिश् का उद्घोष इस बात का प्रमाण है कि ब्रहा चेतना एक ही है। बिजली की धारा से जिस तरह अनेकानेक कार्य किये जा सकते है, उसी तरह ब्राहा चेतना का उपयोग अनेकों रूप में प्रकट होता हे। स्थूल का अस्तित्व भी बिजली के आधार पर टिका रहता है। ठीक इसी प्रकार निराकार ब्रहा शक्ति को प्रत्यक्ष जगत को क्रियाशीलता में अनुभव किया जा सकता है तथा प्रत्यक्ष जगत का प्राणाधार भी वही होता है।

ऋषियों ने इस जगत के गूढ रहस्यों का अध्ययन, यंत्रों के आधार पर नहीं, आत्मज्ञान के आधार पर किया है। उनने प्रमाणित कर दिखाया था कि जो मनुष्य के भीतर है वही बाहर भी है तथा जो बाहर है वही भीतर भी है। उनने मानव मात्र के अन्तराल की खोज को समस्त ब्रह्मांड की खोज बतलाई थी। एक शब्द में उनने इसे ‘आत्मिकी ‘ कहा था। जिसका भावार्थ है अपने आप को-अपने अन्तरंग में छिपे गूढ रहस्यों को जानने की साधना। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए ध्यान-साधना का रास्ता सुझाया गया था।

जल की सतह पर यदि हलचल मची हो तो उसकी परत को देखना सम्भव नहीं। ठीक उसी प्रकार मन में ज्वार-भाटे उठते रहे तो उसके अन्तराल में सन्निहित दिव्य चेतना का अनुभव अत्यन्त मुश्किल है। इसके लिए तो संयमित व एकाग्र मन की आवश्यकता है जो ध्यान-साधना से सम्भव है। वैज्ञानिकों को चाहिए कि वे अपनी मनः शक्ति को माया रूपिणी प्रकृति को समझने में समय नष्ट न करके दिव्यात्मा के अनुभवों की खोज में प्रयुक्त करें, जिससे परम सत्य की जानकारी तथा मानव जीवन के परम उद्देश्य का उद्घाटन हो सके।


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