मन को एकाग्र करने से बिखरी हुई शक्ति का एकीकरण होता है। बिखराव से क्षमता अस्त व्यस्त होती ह; पर उसे एकाग्र करने से क्षमता का केन्द्रीकरण होता है। केन्द्रित होने से शक्ति का उद्भव होता है। सूर्य किरणें बिखरी हुई हो तो उनसे सामान्य ताप की अनुभूति होगी किन्तु यदि काँच पर थोड़े से क्षेत्र की भी किरणें इकट्ठी करली जाये तो आग जलने लगेगी। बारूद को बिखरी हुई स्थिति में जलाया जाये तो एक चमक भर उठेगी; किन्तु बारूद को बन्दूक की नली में केन्द्रित करके जलाने से गोली का निशाना लगता है।
ध्यान आँख बन्द करके बैठने भर का नाम नहीं। आँख तो बन्द करनी पड़ती है ताकि बहुमुखी मन अन्तर्मुखी हो सके। किन्तु मात्र इतना ही ध्यान के लिए पर्याप्त नहीं है। आंखें बन्द करने के उपरान्त भी कल्पनाओं की दौड़ जारी रखी जा सकती है? ऐसी दशा में ध्यान कहाँ हुआ। आंखें बन्द, कल्पना लोकरचा और उसमें भ्रमण किया जा सकता है। ध्यान का उद्देश्य समेटना और समेटे हुए को केन्द्रीभूत करना है। इतना बन पड़े तो समझना चाहिए कि ध्यान की दिशा में कदम बढ़े।
यह सृष्टि तीन पदार्थों की बनी है। ताप, ध्वनि और प्रकाश। इन्हीं की तरंगें निकलती , बिछुड़ती और नाना प्रकार के पदार्थों की रचना करती है। ध्यान में इन तीनों को पकड़ना और एक स्थान पर केन्द्रित करना होता है। तीनों का सम्मिश्रण ॐ होता है। उसकी ध्वनि स्वरूप है ॐ अथवा ओउम् दोनों में से कोई भी ध्वनि ध्यान के लिए चुनी जाती है। अब मात्र ओंकार के अक्षरों को ही पर्याप्त नहीं मान लेना चाहिए वरन् उसे सूर्य के मध्य में अवस्थिति गोलाकार ध्यान करना चाहिए। यह प्रकाश मात्र गोल न हो वरन् उसमें प्रचण्ड गर्मी का समावेश होना चाहिए। ऐसी और लक्षण वाली ध्वनि जिसके चारों ओर गोलाकार गर्म प्रकाश हो; ध्यान के लिए उपयुक्त है। प्रकृति के इन त्रिविध झलको को आंखें बन्द करके सब ओर से मन एकाग्र करके ध्यान करना चाहिए।
इन तीनों माध्यमों का अर्थ प्रयोजन भी ध्यान रहे। अज्ञान को अंधकार की उपमा दी गई है। प्रकाश स्वरूप ओंकार मन के अंधकार को हटाता है। अनेक प्रकार की भ्रांतियां मन में छाई रहती हे। प्रकाश उन सबका निराकरण करता है। ओंकार में नाम और रूप दोनों है। इष्टदेव का जप स्मरण करने के लिए कोई न कोई इष्टदेव नियत करना पड़ता है। इसके लिए ओंकार की शब्द ध्वनि और आकृति काम दे जाती है। ओंकार सार्वभौम है। उसे सभी धर्मों और संप्रदायों में समान मान्यता दी गई है। अब तीसरी विशेषता ओंकार की ताप है। ताप अर्थात् ऊर्जा। ऊर्जावान को मनस्वी, ओजस्वी तेजस्वी कहते है।
ओंकार जप ध्वनि के साथ उसकी ऊर्जा आभा और आकृति का ध्यान करने से इन तीनों विशेषताओं का समावेश होता है जो ओंकार में सन्निहित है। यों ओंकार एक अक्षर है, पर व्याकरण शास्त्र के हिसाब से वह तीन भी हो जाता है अ उ म् । तीनों के सम्मिश्रण से ओउम् बना। जप ध्यान के लिए एक भर पर्याप्त है। ताप , शब्द और आभा यही इन अक्षरों के अर्थ है। ध्यान करते समय भी इन तीनों तथ्यों का समावेश होना चाहिए। तब यह पूर्ण हो जाता है। इसमें ईश्वर, जीव और प्रकृति तीनों का समावेश हो जाता है। इसी त्रिक से संसार बना है। मन यदि कही भागे तो उन तीनों में से किसी की परिधि में गया माना जाय और उसे परब्रह्म की एकता की परिधि माना जाय। आंखें बन्द करने का तात्पर्य है अन्तर्मुखी होना। अन्तर्मुखी होने के उपरान्त ध्वनि ताप और आभा युक्त ओंकार पर अपने ध्यान एकत्रित किया जाये। ध्यान योग की यह सर्वोत्तम साधना है।