हंसने और रोने की अभिव्यक्ति दबायें नहीं

September 1973

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मनुष्य के लिए ठीक तरह सोचना और करना तभी सम्भव होता है जब तक उसकी बुद्धि सावधान होती है। बुद्धि भ्रष्ट होते ही सारा चिन्तन लड़खड़ा जाता है। उलटा सोचता है और उलटे ही काम करता है। फलतः परिणाम भी उलटे होते है। सारे प्रयास सत्परिणाम उत्पन्न करने के स्थान पर उलटी विपत्ति खड़ी करते है। अस्तु मनुष्य का सर्वप्रथम प्रयास यह होना चाहिए कि बुद्धि को भ्रष्टता की दलदल में न फंसने दे।

इस सम्बन्ध में गीता की उक्ति है-

यदा ते मोह कलिलं बुद्धिर्व्धतरिष्यति। त्दा गन्तेसि निवदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य श्र॥

अर्थात्- भगवान अर्जुन से कहते है जब तेरी बुद्धि मोह रूपी दल-दल से निकल आवेगी। जब उस रास्ते पर चलेगा जो करने वालों और सुनने वालों सभी के लिये श्रेयस्कर है।

बुद्धि भ्रष्ट कैसी होती है? वह किस दल-दल में फस जाती है। इसका कारण और निवारण बताया है।

धन का लालच लोभ कहलाता है और व्यक्तियों के प्रति असाधारण लगाव मोह। यह मोह ही बुद्धि को मगर की तरह निगल जाता है । मनुष्य की अपनी आवश्यकताएँ तो बड़ी सीमित है। उनकी सूची बनाई जायी, और उतने साधन जुटाये जाये तो यह सब सरलतापूर्वक जुट जाता है। सात्विक आवश्यक और उपयोगी का ध्यान रखा जाय तो वे इतनी सरल होती है कि अपने निजी परिश्रम से उतना सब दो चार घण्टे में ही उपार्जित हो सकता है। वासना की लिप्सा पहनाने पर शरीर की आवश्यकताएँ भी बढ़ जाती है। बहुत ही विलासी साधन की आवश्यकता पड़ती है। बहुत परिश्रम भी अभीष्ट है। तो भी आदमी जितना कमा सकता है उसे देखते हुए शरीर की शोभा सज्जा की एक सीमा है और वह इतनी अधिक नहीं है कि उसके लिए पूरा जीवन ही निछावर करना पड़े।

न पार हो सकने वाला दलदल तो मोह का है। मोह को ममता भी कहते है। मेरे पन का विस्तार इतना बड़ा हो सकता है कि उसकी पूर्ति हो सकना कठिन है। कुटुंबियों, मित्रो, की परिधि तो और भी बड़ी है। अपनी संपत्ति, जायदाद, वाहन, नौकर आदि का विस्तार कितना भी किया जा सकता है। यह मोह है। जिन्हें मेरा कह सके उनकी सूची बनाई जाय तो वह इतनी बड़ी हो सकती है कि बुद्धि की मर्यादा छोटी पड़ जाय। बुद्धि अपनी सामर्थ्य और शक्ति के अनुरूप ही उपार्जन का ताना-बुना बुन सकती है। परिश्रम के सहारे तो वह थोड़ा सा ही हो सकता है। चोरी, बेईमानी के आधार पर कमाने की भी हर व्यक्ति की सीमा होती है। सत्प्रयोजन में साधनों का कितना ही व्यय किया जा सकता है। पुण्य परमार्थ की कोई सीमा नहीं। किन्तु मात्र संग्रह या उपभोग करना हो तो बहुत बड़ा झंझट है। ऐसा संग्रह अहंकार को बढ़ाना है, पर उसके साथ में इतने झंझट है कि यह मोह ममता बहुत भारी पड़ती है और विनाश का कारण बनती है।

मोह ममता निजी प्रयोजनों से आगे बढ़कर जब कुटुंबियों, संबंधियों तक में फैलती है तो उसकी सीमा और भी बढ़ जाती है। फालतू कमाने वाले के कुटुंबियों की सीमा नहीं रहती। सगे तो स्त्री पुत्र आदि थोड़े ही होते है। बिना सगे भी सगे बन बैठते है और अपने को सम्बन्धी सिद्ध करते हुए फालतू सम्पदा पर अपना अधिकार जताते है। हिस्सेदारी की माँग करते है। जब अनावश्यक धन संग्रह है ही तो उसे चाटुकारों में वितरण करके उनसे प्रशंसा सुनने, आत्मीयता की दुहाई कान में पड़ने का लोभ भी संवरण नहीं होता। इसके लिए जितने भी साधन एकत्रित करे कम है।

बुद्धि के उपयोग करने के लिए यह मोहजन्य ताना-बाना इतना सुविस्तृत होता है कि इतनों के लिए सोचने और करने के अतिरिक्त कुछ बचता ही नहीं। बीज का विकसित रूप पौधा है। चिन्तन का विकसित रूप कर्म है। कर्म से साधन एकत्रित होते है। जो एकत्रित है उसी को तो वितरण किया जायेगा। सामान्य मनुष्य बुद्धि को मोह जाल में फंसाये रहता है। पूरा जीवन इसी में खप जाता है। सारी योजनाएँ इसी की बनती है। अवांछनीय उपार्जन जितना पेचीदा है उससे अधिक उसका उपभोग और वितरण है। इन दोनों कामों में आदि से अन्त तक अनौचित्य भरा रहता है। अतएव उसकी गुत्थियों को सुलझाना लोभ की पूर्ति में भी कठिन पड़ता है। मोह को लोभ का बड़ा भाई बताया गया है । जिन्हें अपना मानकर धन दिया जाता है उनके सम्बन्ध में यह इच्छा भी होती है कि यह हमारा कहना माने। लेने को तो हर कोई तैयार है पर मानने को कदाचित ही कोई तैयार होता है।

आत्म-कल्याण के लिए, पुण्य परमार्थ के लिए, जीवन को सार्थक बनाने के लिए मानव परायणता के लिए भी बुद्धि और कर्म की आवश्यकता पड़ती है। यह कार्य इतने सरल नहीं है कि तनिक से पूजा-पाठ को चिन्ह पूजा भर में सम्भव हो सके। इसके लिए जीवन को एक विशेष ढाँचे में ढालना होता है। उच्चस्तरीय कर्म व्यवस्था अपनानी पड़ती है। इस निमित्त बुद्धि का नियोजन उससे भी अधिक चाहिए जितना कि लोभ और मोह के निमित्त लगाना होता है। यह लगे कैसे? जो कुछ है वह तो सारा मोह रूपी दलदल में फँसा रहता है।

आत्म कल्याण के लिए साधारण बुद्धि से भी काम नहीं चलता। इसके लिए प्रज्ञा, मेधा चाहिए। विवेकवान दूरदर्शिता अभीष्ट होती है। इस स्तर की बुद्धि उपजे कैसे? उसका एक ही उपाय है कि उसे मोह रूपी दलदल में से किसी प्रकार बाहर निकाला जाय। यह दलदल ही समस्त मेघा को उदरस्थ कर जाता है। इसलिए परमार्थिक जीवन के लिए प्रथम आवश्यकता इस बात की है कि चिन्तन को मोह-ज्ञान में से निकाला जाय। सौम्य, सात्विक, सरल, निर्लोभ, निर्मोह जीवन का लक्ष्य बनाया जाय। गीता की यही उक्ति ऐसी है जिसे अपनाये बिना और कोई गति नहीं।


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