सत्य का निवास सुविस्तृत ज्ञान में है।

September 1971

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‘गति’ शब्द का अर्थ है- हलचल। पदार्थ अपने ढंग की हलचलें करते हैं और प्राणी अपने ढंग की। पदार्थ की छोटी इकाई परमाणु परिवार और बड़ी इकाई ब्रह्माण्ड के भीतरी और बाहरी क्षेत्रों में अनवरत गतिशीलता पाई जाती है। क्या जड़, क्या चेतना इस संसार को कोई भी वर्ग सर्वथा निष्क्रिय नहीं है, यह दूसरी बात है कि उस क्रियाशीलता की दौड़ दूसरे पदार्थों की तुलना में मन्द हो या तात्र। चेतन प्राणियों की तुलना में वनस्पतियों की हलचल सीमित और स्वल्प है किन्तु मिट्टी, पत्थर, खनिज आदि में जो गतिशीलता दृष्टिगोचर होती है वह वनस्पतियों की तुलना में भी न्यून है। मिट्टी से पत्थर, पत्थर से लोहे में प्रत्यक्ष गतिशीलता कम पाई जाती है किन्तु जो सर्वथा निष्क्रिय दिखाई पड़ते हैं, उनकी सूक्ष्म संरचना पर दृष्टि डालने से प्रतीत होता है कि जिन परमाणुओं से मिलकर वस्तुओं का निर्माण हुआ है, वे अपने क्षेत्र में पूरी तरह सक्रिय हैं। ग्रह नक्षत्रों समेत यह समूचा अन्तरिक्षीय परिवार धुरी या कक्षा में और अन्ततः किसी बड़े केन्द्र की प्रदक्षिणा में दौड़ लगाता हुआ देखा जा सकता है। इसलिए तत्वतः यहाँ ‘अगति’ जैसी कोई बात है नहीं।

इतने पर भी शब्द कोष में अगति, अवगति, दुर्गति एवं प्रगति का उल्लेख ये व्यवहार में भी प्रयुक्त होते हैं। पर इनकी कोई स्थिर विवेचना नहीं हो सकती। इन्हें सापेक्ष ही माना जा सकता है और किसी से तुलना करके ही यह बताया जा सकता है कि उपरोक्त शब्द कहीं लागू हुए या नहीं। एक बच्चे ने शरीर विकास की दृष्टि से प्रगति की, लेकिन बौद्धिक क्षेत्र में वह दूसरे बच्चों से पिछड़ा रहा तो फिर उसकी स्थिति पर प्रगति शब्द कहाँ लागू हुआ। ऐसे तो चोर के डाकू बन जाने पर भी उसने प्रगति की है- ऐसा कहा जा सकता है फिर भी सज्जनता के क्षेत्र में वह पिछड़ता ही चला गया है। अगति, अवगति एवं दुर्गति के सम्बन्ध में भी ऐसा ही कहा जा सकता है। भले और बुरे वर्ग अपने-अपने क्षेत्रों में उपलब्ध होने वाली सफलताओं को प्रगति कहते हैं। जबकि वह उन्नति दूसरे वर्ग के लोगों की दृष्टि में पतन, पराभव के रूप में गिनी जाती है। गायिका ने नृत्य सीख लिया और अधिक ग्राहक पटाने लगी तो उस समुदाय में उसकी यह सफलता सराही जायेगी। पर कुलीनता की मर्यादाओं को महत्व देने वाले अवगति, दुर्गति के रूप में भर्त्सना भी कर सकते हैं। ऐसी दशा में किसे प्रगतिशील, किसे असफल अधःपतित कहा जाय ? इस संदर्भ में सहज ही असमंजस सामने आ खड़ा होता है।

यही निर्णय पर पहुँचने के लिए तुलनात्मक विवेचना से निष्कर्ष पर नहीं पहुँचा जा सकता पर ‘प्रगति’ को मान्यता देने कुछ कसौटियाँ निर्धारित करनी होंगी। जीवधारी के भीतर जिस अनुगमन की उत्कंठा पाई जाती है- जिस प्रेरणा से उसकी बुद्धि और काया प्रयत्नरत रहती है, उस आकाँक्षा का प्रवाह किस दिशा में चल पड़ा ? यह देखना होगा और जाँचना होगा कि वह प्रवाह साथ में बहने वाले के लिए श्रेयस्कर हुआ या नहीं ? लोक-हित की दृष्टि से उसकी उपयोगिता मानी गई या नहीं ? यदि प्रयत्नों की दिशाधारा सही है तो उसे ‘प्रगति’ शब्द से सम्मानित करने में हर्ज नहीं। इसके विपरीत यदि ऐसी सफलताएँ अर्जित की गई हैं जो पहले की अपेक्षा उन्नति करने के रूप में तो दृष्टिगोचर होती हैं किन्तु उनकी परिणति में दुष्परिणाम ही सामने आने वाले हैं तो समझना चाहिए कि तात्कालीन सफलता प्रकारान्तर से असफलता की ही पर्यायवाचक मानी जायेगी।

प्रतिभा की अभिवृद्धि उत्साहवर्धक तो है पर देखना यह भी होगा कि उत्पन्न हुआ पराक्रम एवं कौशल किस दिशा में नियोजित हुआ। जिस दिशा में प्रगति हुई, वह प्रकृति अनुशासन मानवी नीति, नियम एवं सामाजिक सहयोग सन्तुलन की दृष्टि से उपयोगी सिद्ध होती है या नहीं। अन्यथा प्रतिभाशाली तो उद्दण्ड, उच्छृंखल, ठग और अनाचारी आतंकवादियों को भी कहा जाने लगेगा। तर्क यह दिया जा सकता है कि सामान्य जनों के स्वभाव एवं क्रिया-कलापों की तुलना में वे अपनी अधिक समर्थता एवं तत्परता प्रकट करते हैं जिसके लिए उन्हें भी उन्नतिशील कहा जाना चाहिए।

इस संदर्भ में विवेकयुक्त निर्धारण यही है कि प्रगति की दिशा विश्व मानव के नियत नीतिमान के अनुरूप रही या नहीं ? इस बात की जाँच पड़ताल करके ही किसी नतीजे पर पहुँचा जाय। कई तोड़-फोड़ करने वाले ही अपने कुकृत्यों से उत्पन्न आतंक को भी अपनी विशिष्टता में गिनी, शेखी बघारते एवं मूंछें ऐंठते देखे गये हैं। जिन्हें इस अनाचार के लाभों में हिस्सा मिलता है वे ‘कसाई के कूकर’ ऐसे आतंकवाद की प्रशंसा भी कर सकते हैं और जिस तिस तर्क के सहारे उसका औचित्य बताने में भा बुद्धि कौशल के सहारे तीर तुक्का बिठा सकते हैं। इतने पर भी अवाँछनीय कृत्यों में निरत लोगों का मूंछें ऐंठना और चमचागिरी करने वालों से वाह-वाही सुनना इस बात का प्रमाण नहीं हो सकता कि उस विशेषता या सफलता को प्रगतिशीलता की सराहनीय संज्ञा दी जाय या नहीं।

मानवी मूल्याँकनों का निर्धारण इसी शाश्वत सिद्धान्त के आधार पर होता रहा है कि उसने निजी जीवन में नीतिमत्ता के अनुशासन को कितनी सच्चाई एवं कड़ाई के साथ पाला एवं सम्पादित समर्थता का कितनी उदारता के साथ कितने उच्चस्तरीय कार्यों के लिए नियोजित किया। सर्वजनीन विवेक ने ऐसे ही लोगों की ऐसे ही प्रयासों की प्रशंसा की है। उन्हें उपयोगी माना और कृतज्ञता भरा सम्मान प्रदान किया है। यह कसौटी हर दृष्टि से उपयोगी भी है। इस मार्ग का अवलम्बन करने वाले कई दृष्टि से नफे में रहते हैं।

नीति और अनीति की विवेचना करने वाली, औचित्य और अनौचित्य के बीच अन्तर करने वाली एक ऐसी कभी न बुझने वाली ज्योति हर मनुष्य के अन्तराल में तभी से प्रज्वलित है जबसे उसे मानवी कलेवर में प्रवेश करने का अवसर मिला। अति आरम्भ काल में तो प्रसुप्त मूर्च्छित अनुग्रह भी हो सकती है किन्तु जैसे -जैसे परिपक्वता आती है उसी अनुपात से यह विवेक भी जागृत होता है कि उचित और अनुचित की विभाजन रेखा कहाँ है ? इसे परतंत्र की अन्तरात्मा कहते हैं। यह अनौचित्य अपनाने पर अन्तर्द्वन्द्व खड़े करती है। स्वार्थवश अनुचित काम करने के आवेश में किया कुछ भी जाता रहे । अन्तराल औचित्य का पक्ष समर्थन करने और अवाँछनीय को हेय ठहराने का झण्डा हर हालत में बुलंद किये ही रहेगा। दबा देने पर उसकी आवाज धीमी तो हो सकती है किन्तु सर्वथा किसी भी दशा में नहीं हो सकता। अनीति अपनाने पर अन्तर्द्वन्द्व हर हालत में बना ही रहेगा और उस मार्ग पर चलने वाले का आन्तरिक असन्तोष भले ही पश्चाताप एवं परित्याग के रूप में प्रकट न हो पर इतना तो निश्चित है कि चैन से भी बैठने नहीं देगा। आत्मधिक्कार की छोटी-बड़ी चिनगारी अवसर मिलते ही फूटती रहेगी।

इस स्तर के अन्तर्द्वन्द्व व्यक्तित्व की छवि उभारने एवं बिगाड़ने में कितनी बड़ी भूमिका निभाते हैं, इसे सामान्य जन तो नहीं जानते पर मनःशास्त्र के विशेषज्ञ एक स्वर से कहते पाये जाते हैं कि अंतर्जगत में दो व्यक्तित्वों का विकसित होना वैसा ही अनुपयुक्त है जैसा एक म्यान में दो तलवारों का घुस पड़ना। एक मुख में दो जीभों का होना। शरीर में विजातीय द्रव्य घुस पड़ते या भूत-पलीत के आवेश आते हैं तो स्थिति कितनी विचित्र हो जाती है। मस्तिष्क की स्वाभाविक सम्पदा विवेक को छीनकर जब नशा उस संस्थान पर अपना अड्डा जमाता है तो दोनों की खींचतान में सोचने से लेकर करने तक की समस्त प्रक्रिया बेतरह लड़खड़ाने लगती है और नशेबाज की स्थिति उपहासास्पद एवं दयनीय बन जाती है।

एक मर्द की दो औरतें-एक औरत के दो मर्द होने पर आये दिन कैसी खींच-तान चलती है इसे सभी जानते हैं। एक नौकर के दो मालिक होने पर भी उसकी नाक में दम आती है। दो मस्तिष्क, दो दिल, दो मुख, दो जननेन्द्रिय वाले व्यक्ति की स्थिति कैसी विचित्र होगी, इसकी कल्पना करने भर से बड़ा अजीब लगता है। एक जंगल में दो शेर- एक राज्य में दो राजा कहाँ रह पाते हैं। एक खेत को चरते दो साँड जा पहुँचे तो उन्हें मल्ल युद्ध करते देर न लगेगी। मुहल्ले के अधिकारी कुत्ते दूसरे मुहल्ले वालों को कहाँ फटकने देते हैं। रक्त के प्रहरी कण तक विजातीयों को सहन नहीं करते और अवाँछनीय प्रवेश को मार भगाने के लिए अच्छा-खासा महाभारत खड़ा करते हैं। सूजन, व्रण, दर्द, ज्वर आदि विग्रहों की अनुभूति इसी नियम के अंतर्गत होती है कि शरीर की स्वस्थ चेतना विजातीय द्रव्य को सहन न करे और उसे खदेड़ने के लिए जान हथेली पर रखकर संघर्ष करे।

ठीक ऐसा ही तब होता है जब अन्तरात्मा की मूल प्रकृति उत्कृष्टता के विपरीत चिन्तन या आचरण अपनाये जाते हैं। नीति की पक्षधर यह चिनगारी अपना अस्तित्व पूर्णतया किसी भी स्थिति में खोती नहीं। उपेक्षित, तिरस्कृत, दुर्बल होने पर भी उसका अनीति विरोधी संघर्ष चलता ही रहता है भले ही वह परिस्थिति के अनुरूप कितना ही धीमा या धूमिल क्यों न हो।

अंतर्द्वंद्वों के परिणाम कितने घातक होते हैं-इसकी जानकारी कुछ समय पहले तक लोगों को उतनी अच्छी तरह नहीं थी जितनी कि इन दिनों अचेतन मनःसंस्थान के विशेषज्ञ विश्लेषणकर्ताओं ने प्रस्तुत की है। आधुनिकतम मनोविज्ञान के निष्कर्ष इस तथ्य का विश्वासपूर्वक उद्घाटन करते हैं कि अन्तर्द्वन्द्वों से भयानक अवरोध मनुष्य की समग्र प्रगति में और दूसरा नहीं हो सकता। भीतरी लड़ाई में चेतना की इतनी शक्ति खप जाती है कि वास्तविक प्रगति की सही रूपरेखा बनाना और उसके लिए समग्र सरंजाम जुटाना बन ही नहीं पड़ता। अस्तु अन्तर्द्वन्द्वों से ग्रसित व्यक्ति मात्र दुष्टता और भ्रष्टता के क्षेत्रों में ही अपनी उछल-कूद मचाते रह सकते हैं। ऐसी मानसिक प्रखरता वे सम्पादित कर ही नहीं सकते जिसके सहारे उन लाभों को प्राप्त कर सकना शाक्य हो सके जो उच्चस्तरीय प्रगति के लिए आवश्यक है।


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