परमात्मा को भूलो मत

September 1971

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“महत्वाकांक्षाओं का लक्ष्य यदि आदर्शवादी वरिष्ठता को  रखा जा सके तो ही उभयपक्षीय प्रयोजन पूरे होते हैं। आरम्भ से ही आत्म सन्तोष मिलने लगता है। इस प्रयास में सत्प्रवृत्तियाँ उभरती और उपयोगी आदतें परिपक्व होती है। व्यक्तित्व का परिष्कार इस मार्ग पर चलने वालों को दैवी वरदान की तरह मिलता है। जिसकी कीमत पर जो महत्वपूर्ण है, ऐसा कुछ भी आसानी से खरीदा जा सकें।

आदर्शवादी महत्वाकाँक्षा अपने लिये जितनी लाभदायक होती है उससे अधिक जन साधारण के लिये उपयोगी सिद्ध होती है। महामानवों को अनिवार्यतः लोकसेवा में प्रवृत्त होना होता है अतएव उनके प्रयास परिश्रम से अनेकों का भला होना और बदले में श्रद्ध भरा सहयोग मिलना स्वाभाविक है।

भौतिक महत्वाकांक्षाएं पानी के बबूले की तरह अपना चमत्कार दिखाती और थोड़ी-सी स्वार्थ सिद्धि का जायका चखाती विस्मृति के गर्त में चली जाती है जबकि आदर्शवादिता समुद्र में खड़े प्रकाश स्तम्भों की तरह अपना गर्वोन्नत मस्तक उठाये खड़ी रहती है। उस ऊंचाई और रोशनी से नाविक अपनी प्राण रक्षा करते और दर्शन सराहते हुये उधर से निकलते हैं।

महत्वाकांक्षाएं श्रेयस्कर भी है और हेय भी। यदि वे क्षुद्र प्रयोजनों में लगे तो हेय और यदि सत्प्रयोजनों की दिशा में चल पड़ें तो समझना चाहिए कि उनसे अधिक श्रेष्ठ उपलब्धि और कोई हो ही नहीं सकती।


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