काल से अतीत, अतीत-ब्रह्माण्ड विज्ञानात्मा की अनुभूति

September 1971

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विकास इस सृष्टि की सुनियोजित व्यवस्था है। पदार्थ और प्राणी अपनी-अपनी आवश्यकता के अनुरूप अपने-अपने ढंग से विकास कर रहे हैं। सृष्टा एक से बहुत हुआ यही उसका विकास विस्तार है। सृष्टि के आरंभ में थोड़ा-सा घनीभूत पदार्थ था। उसी में अन्तः स्फुरणा हुई और फट पड़ा। फटने पर अनेकों निहारिकाएं और ग्रह उपग्रह जैसी इकाइयाँ बनी। बनने भर से काम नहीं चुका वे सभी घटक गतिशील हो गए। गतिशील क्या ? कि प्रयोजन के लिए ? किस दिशा में ?इनका समन्वित उत्तर एक ही है, विकास विस्तार के लिए। सभी ग्रह पिण्ड यहाँ तक कि समूचा ब्रह्मांड आगे बढ़ने के लिए द्रुतगति से आगे, और आगे, अधिक आगे अनवरत क्रम में बढ़ता ही चला जा रहा है। यह बात सृष्टि संरचना से सम्बन्धित है कि गति अन्ततः चक्र के रूप में परिवर्तित हो जाती है।

सृष्टा की चेतना का विकास भी इसी क्रम से हो रहा है। वह स्वयं सीमित रहने में सन्तुष्ट न रह सका और असीम होने के लिए मचल पड़ा। विश्व चेतना ने अपने को अनेक प्राणि घटकों में विभाजित किया और संख्या विस्तार देखते-देखते असीम हो गया। पर इतने से भी बात बनी नहीं। इन प्रत्येक प्राण घटकों में प्राणियों ने अपने उद्गम केन्द्र की मूलभूत आकाँक्षा को अपनाया और वे भी विकास क्रम को अपनाते हुए एक सुनियोजित योजना के अंग बन गए। जो कार्य प्राणी कर रहे हैं। वही पदार्थ सम्पदा में भी हो रहा है। पृथ्वी अपने आरम्भ काल में हर दृष्टि से अनगढ़, अविकसित, अस्थिर, मन्दगति और वैभवों हलचलों से रहित थी। अब उसकी वह स्थिति नहीं रही। आज की और आदिम पृथ्वी के स्तर में आकाश पाताल जितना अन्तर है। यह बात आदिम प्राणी और आज के प्राणी में देखी जा सकती है। स्वयं मनुष्य का आदिम काल कैसा अनगढ़ था और वह आज किस स्तर तक आ पहुँचा इसे देखते हुए विकास क्रम की अदम्य अभिलाषा एवं प्रक्रिया का दर्शन भली-भाँति किया जा सकता है।

न केवल प्राणि और पदार्थ के मूल स्वरूप में वरन् उनसे उत्पन्न होने वाले अनेकानेक सम्मिश्रणों में भी यही प्रगतिक्रम अनवरत गति से चल रहा है। शिक्षा, चिकित्सा, विज्ञान, व्यवसाय, कला, कौशल, नीति, चिकित्सा, विज्ञान, व्यवसाय, कला, कोशल, नीति, विग्रह, उपार्जन, उपभोग आज के तरीकों में असाधारण प्रति हुई है। विकास विस्तार की, सुविधा साधनों की दृष्टि से हम पूर्वजों से कही आगे हैं और यह मानने में किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए कि भावी पीढ़ियाँ हमसे ही अधिक बुद्धिमान तथा सुविधा सम्पन्न होंगी। गतिचक्र तो प्रगति की दिशा में चलता ही रहेगा।

चिन्ता और अवरोध का प्रसंग तक आता है जब गति अपने सामान्य क्रम से विचलित होकर अगति या दुर्गति का मूढ़ता या उच्छ खेलता का रूप धारण करती है। कभी मंगल और बृहस्पति के मध्य में वर्तमान ग्रह पिण्डों के अतिरिक्त कोई विशालकाय ग्रह पिण्ड भ्रमण करता था। उसे अब सूझी। अपनी कक्षा का अतिक्रमण करके अनिर्णीत मार्ग पर चल पड़ा। फलतः किसी अन्य ग्रह से जा टकराया, दोनों चूर-चूर हो गए। स्वयं भी मरा और दूसरे को भी ले बैठा । दोनों का चूरा आज भी क्षुद्र ग्रह खण्डों के रूप में अपनी कक्षा बनाए परिभ्रमण कर रहा है। उस पूर्ण ग्रह के सदस्यों को फिर कभी कभी अपने पूर्वजों की परम्परा का स्मरण हो आता है और छोटे हुए होते भी वैसी उच्छृंखलता बरतने लगते हैं। ये टुकड़े पृथ्वी, चन्द्रमा आदि पर आये दिन उल्काओं के रूप में बरसते रहते हैं। वायुमण्डल में प्रवेश होते ही वे स्वयं तो जल-भुनकर समाप्त होते ही रहते हैं, पर साथ ही जहाँ गिरते हैं उस धरातल को भी भारी क्षति पहुँचाए बिना नहीं रहते।

ऐसे व्यक्तिक्रम यदा-कदा न केवल प्रकृति पदार्थों में वरन् मनुष्यों के वैयक्तिक एवं सामूहिक जीवन में भी उत्पन्न होते रहते हैं। भूकम्प, ज्वालामुखी, उल्कापात, चक्रवात, तूफान जैसी प्रकृति दुर्घटनाओं से कितना संकट एवं विनाश प्रस्तुत होता है यह सभी जानते हैं। शासनों एवं समाजों में भी इतिहास के अनेकों अवसरों पर ऐसे ही विग्रह खड़े हुए हैं और उनके कारण सभी को भारी संकटों का सामना करना पड़ा है। हिम प्रलय जैसे कई भयानक अवसर धरती के इतिहास में आये है और उनने संचित सभ्यता एवं प्रगति पर वज्राघात जैसा प्रहार करके ऐसी परिस्थिति उत्पन्न की है जिसे उपलब्धियों को समाप्त करके नये सिरे से प्रारम्भ करने जैसा उपक्रम कहा जा सकता है।

ऐसे ही व्यक्तिक्रम समाजों, देशों के राज्यों में आते रहे हैं। जापान और जर्मनी की पिछली लड़ाइयों में कितना कुछ सहन करना पड़ा और चलते हुए विकास क्रम में कितना व्यवधान उत्पन्न हो गया इसे इतिहास का हर विद्यार्थी जानता है। सभ्यताओं के, शासनों के उत्थान-पतन के इतिहास भी ऐसे ही है। यदि प्रवाह समस्वरता पूर्वक चले रहे तो प्रगति क्रम उससे कहीं आगे होता जहाँ कि आज किसी प्रकार पहुँच सका है।

यदि आत्म-निरीक्षण के क्षेत्र में उतरा जा सके तो प्रतीत होगा कि उस अदृश्य जगत में अपने लिए विनाश और विकास की असीम साधन सामग्री और अनन्त सम्भावनाओं के भण्डागार भरे पड़े हैं। उत्थान के लिए आमतौर से बाहरी उपलब्धियों को ही सफलता कहा जाता है और उनके हस्तगत होने को ही सौभाग्य मान कर सराहा जाता है। पर वास्तविकता कुछ और ही है। सौभाग्य ऊपर से नहीं टपकता भीतर से उभरता है। पेड़ों को फल-फूलों से लदा देखकर कोई यह भी सोच सकता है कि यह ऊपर आसमान से टपककर पेड़ से चिपक गए होंगे। पर यथार्थता यह है कि जमीन में दबी जड़ खुराक खींचती और पतली नलिकाओं द्वारा पेड़ के हर अवयव तक पहुँचाकर उसे हरा-भरा, परिपुष्ट एवं फल-फूलों से लदा हुआ बनाती है। भले ही वे आवरण के पीछे छिपी हुई अपनी गतिविधियों गुपचुप रीति से सम्पन्न करती रहती हों।

गीतकार ने उत्थान और पतन के तथ्यों का रहस्योद्घाटन करते हुए कहा है कि ‘अपने आप ही अपना उत्थान करना चाहिए। अपने को गिराना नहीं चाहिए। इसका तार्त्पय यह हुआ कि व्यक्ति स्वयं ही अपने उत्कर्ष-अपकर्ष का पूरी तरह जिम्मेदार है। इस संदर्भ में और भी खुलासा करते हुए शास्त्रकार ने कहा है--’मनुष्य स्वयं ही अपना मित्र और स्वयं ही अपना शत्रु है।’ यहाँ चेतना के अनगढ़ और सुगढ़ होने की परस्पर विरोधी प्रतिक्रियाओं की ओर ही किया गया संकेत समझा जाना चाहिए। ईश्वर की अनुकम्पा, दैवी सहायता की बात सोचनी हो तो भी उस उक्ति को ध्यान में रखा जाना चाहिए जिसमें कहा गया है कि ‘ईश्वर केवल उन्हीं की सहायता करता है जो अपनी सहायता आप करते हैं।’

परमेश्वर के दस या चौबीस अवतारों की मान्यता में मत्स्य, कच्छम, वाराह, नृसिंह, वामन से लेकर क्रमशः कलाओं का बढ़ते जाना और मर्यादा पुरुषोत्तम राम के बारह कलाओं वाला, पूर्ण पुरुष कृष्ण की सोलह कलाओं वाला माना जाना यही बताता है कि अवतारों में भी इसी विकासक्रम के अनुरूप स्तर बढ़ता चला आया है। बुद्ध को बीस कलाओं का तथा निष्कलंक प्रज्ञावतार को चौबीस कलाओं वाला निरूपित किया गया है। समस्त कला” चौंसठ मानी गई है। उनमें से अवतारों का विकास अभी आँशिक रूप में ही हुआ है। जो जाना शेष है उसमें अभी यह प्रगतिशीलता का क्रम चलता ही रहेगा।

मनुष्य के बारे में भी यही बात है। आदिम काल में उसकी काया भले ही अधिक परिपुष्ट रही हो, पर वह चेतना की दृष्टि से निश्चय ही पिछड़ा हुआ रहा होगा। अब उसकी समझदारी, साधन-सम्पन्नता और कला के रूप में प्रकट होने वाली भाव-संवेदना पहले की अपेक्षा कहीं अधिक है। यह प्रगतिक्रम भविष्य में भी तब तक चलता रहेगा जब तक कि पूर्णता के लक्ष्य तक पहुँचने की बात बन न जाये। मनुष्य भविष्य में किन विशेषताओं से सम्पन्न होगा ? उसकी प्रगति का क्षेत्र और स्तर क्या रहेगा ? इस संदर्भ में विज्ञजनों ने अपने-अपने रुझान और चिन्तन के अनुरूप निष्कर्ष निकाले हैं। जिसकी दृष्टि में जिस तथ्य का अधिक महत्व है उसने उसी प्रकार की प्रगति की महत्व दिया और भविष्य का कल्पना चित्र उभारा है। समग्र चिन्तन ही समग्रता की बात सोच सकता है। इसमें कमी रहने के कारण भविष्य दृष्टाओं ने भविष्य की प्रगति के एकाँगी एवं अधूरे चित्र तैयार किए हैं।

मनुष्य की सर्वतोमुखी प्रगति का जो कल्पना चित्र आप्त पुरुषों ने खींचा है उसे एक शब्द में ‘देवता कहा गया है। कहते हैं कि ‘देवता’ स्वर्ग में रहते हैं। वे श्वेत होते हैं। अजर अर्थात्् जरा रहित प्रौढ़ परिपक्व रहते हैं। वे अमृत पीते और अमर रहते हैं। अदृश्य पंख रहने के कारण वे समूचे अन्तरिक्ष में उड़ते और कहीं भी जा पहुँचते हैं। श्रेष्ठता का समर्थन सहयोग करना उनका रुचिकर विषय और स्वभाव होता है।

काया से प्रोढ़, सुन्दर, युवा होना यह बताता है कि उनके व्यक्तित्व का बाह्य स्वरूप अशक्तता, रुग्णता आदि से मुक्त स्वस्थ, परिपुष्ट एवं सौन्दर्य सज्जित होना चाहिए । प्रौढ़ता संयम पर और सुन्दरता सुरुचि पर निर्भर है यह गुण जहाँ भी होंगे व्यक्ति स्वस्थ और सुन्दर लगेगा भले ही उसके अवयवों की प्रकृतिगत रचना कैसी भी क्यों न हो ? हब्शी लोग भी पारख्यों की दृष्टि में कुरूप नहीं होते। श्वेत कलेवर भी यहाँ प्रतीकात्मक ही है। कालिमा, कलुष की-तमिस्रा की प्रतीक मानी गई है। इस आधार पर उसे हेय ठहराया जाता है अन्यथा आँखों की पुतली को काले रंग की होने के कारण कौन कुरूप या हेय ठहराने की धृष्टता करेगा ? भगवान राम और कृष्ण काले रंग के बनाए जाते हैं। शंकर की छवि भी इसी प्रकार की है। पृथ्वी को धारण करने वाले तथा समुद्र मंथन की भूमिका निभाने वाले शेष भगवान का रंग भी काला था। कैश सौन्दर्य सज्ज में अग्रणी माने जाते हैं उनकी सराहना कालेपन के आधार पर ही होती है। इन तथ्यों पर ध्यान रखने पर देवताओं का श्वेत वर्ण कहा जाना उज्ज्वल, धवल, निष्कलंक व्यक्तित्व का प्रतीक ही समझा जा सकता है।

देवताओं का बहिरंग जिस रूप में प्रतिपादित किया गया है उसमें उनके धवल, प्रखर एवं परिपक्व व्यक्तित्व का ही आभास मिलता है देवता शब्द का मोटा अर्थ है ‘ देने वाला। जिसकी भावनाएं सही दूसरों को समुन्नत सुसंस्कृत देखने को उमंगती रहें, जिनकी गतिविधियाँ सत्प्रवृत्तियों के संवर्धन में निरत रहें उन्हें देव स्वभाव का अधिष्ठाता कहा जा सकता है। सद्भाव सम्पन्न, उदार, सेवाभावी, परमार्थ परायण व्यक्ति इसी वर्ग में गिन जा सकते हैं। जिनकी आत्मिक विभूतियाँ और भौतिक संपत्तियां उत्कृष्टता की समर्थक आदर्शवादिता में सहयोगरत हो उन्हें देव प्रकृति का कहा जा सकता है’ देवताओं के जो चित्र खींचे गए है उनमें उनकी आकृति, प्रकृति का विशेषण करने पर यही निष्कर्ष निकलता है कि वे जन सामान्य की अपेक्षा क्रियाशीलता, विचारणा, एवं भाव संवेदनाओं की दृष्टि से कहीं अधिक उच्चस्तरीय रहे होंगे। ऐसे लोग जहाँ भी रहेंगे वही सुख शान्ति एवं प्रगति का हंसता-हंसाता, खिलता-खिलाता वातावरण प्रस्तुत करेंगे। ऐसा वातावरण ही स्वर्ग है।

इन पंक्तियों में यह निरूपित किया गया है कि मनुष्य का समग्र विकास देवता के रूप में होना चाहिए। यह उत्कर्ष की चरम सीमा है। ‘देवत्व’ ही वह वैभव है जिसकी परिणति अनेकानेक ऋद्धि-सिद्धियों के रूप में प्रकट परिलक्षित होती है। देवत्व को अमृत, पारस, कल्पवृक्ष, ब्रह्मास्त्र आदि नामों से पुकारा जाता है। इन नामों में इस बात का संकेत है कि -देवत्व’ की विभूतियों से संपन्न व्यक्ति किस प्रकार लोहे जैसी अनगढ़ परिस्थितियों से घिरा रहने पर भी किस तरह देवत्व का पारस छूकर बहूमूल्य सोने की तरह सम्मानास्पद हो सकता है। उसका यश शरीर अमृत पीने वालों की तरह इतिहास के पृष्ठों पर अमिट रह सकता है। लोक सम्मान एवं जन-सहयोग की असीम मात्रा उपलब्ध करने के कारण वह कल्पवृक्ष के नीचे बैठकर मनोकामना पूर्ण कराने वालों की तरह किस तरह प्रचुर साधन सम्पन्न हो सकता है। पवित्र और प्रखर व्यक्तित्व ही इन्द्र वज्र की ब्रह्मास्त्र की कोटि में आते हैं। वे जिस भी अवाँछनीय पर टूट पड़ते हैं, उसे निस्सार करके रख देते हैं। ये समूची फलश्रुतियाँ उत्कृष्ट व्यक्तियों के मूल्य एवं प्रभाव की और--पूर्णता के लक्ष्य बिन्दु ‘देवत्व’ के स्वरूप की और ही इंगित कर देती हैं।


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