भाई रे भक्ति की शक्ति अपार

September 1971

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तीन वर्ष पूर्व अमेरिका में ‘स्वाइन फलू’ निरोधक योजना बड़े पैमाने पर लागू की गयी। इन्फ्लुएंजा के वायरस निरोधक टीके सभी को सुरक्षा उपचार के नाते लगाने का निश्चय किया गया। इसके बावजूद भी व्यक्ति रोगी हुए शरीर और काल कवलित हुए। कारण था फ्लू निरोधी टीका, जिसका स्नायु संस्थान पर घातक प्रभाव सरकार के चेतने तक करीब पाँच सौ व्यक्तियों की जान ले चुका था। रोग की आशंका मात्र से जन समुदाय के स्वास्थ्य से अदूरदर्शितापूर्ण खिलवाड़ का यह एक छोटा-सा उदाहरण है।

ऐलोपैथी आज की सुविकसित अत्याधुनिक चिकित्सा पद्धति है। रोग विज्ञान, शरीर विज्ञान एवं शरीर क्रिया विज्ञान की दृष्टि से गहन अध्ययन एवं शोध के आधार पर रोगों की संभावना, स्वरूप एवं जटिलताओं के सम्बन्ध में बड़ी मजबूत नींव इस पद्धति के वेत्ताओं ने खड़ी की है। यह बात चिकित्सा के सम्बन्ध में खरी नहीं उतरती । एक नहीं अनगिनत उदाहरण इस बात को गले नहीं उतरने देते कि यह पद्धति सुनिश्चित है हानि रहित है।

आधुनिक चिकित्सालयों में हृदय सम्बन्धी कष्टों के लिए विशेष यूनिट होती है। इन्हें इन्टेन्सिव केयर यूनिट कहा जाता है। एक-एक के निर्माण पर लाखों रुपये खर्च आता है। 1838, 1848, 1868, में हृदय कष्ट के लिए जितने व्यक्ति अमरीकी अस्पतालों में भर्ती किये गये, उनमें मरने वालों की संख्या में पहले की अपेक्षा कोई कमी नहीं थी। जबकि इन्हीं व्यक्तियों के प्रयोगशाला परीक्षण इलेक्ट्रो कर्डियोग्राम, एक्सरे आदि के प्रयोग से होने वाले खर्च में तिगुनी वृद्धि हुई है। 22 अप्रैल 1879 का लैसेट पत्र लिखता है कि “हृदय कष्ट का उपचार घर में भी उतनी ही दक्षता से संभव है ,जितना कि अस्पताल में।” एक अध्ययन से वैज्ञानिकों ने यह पता लगाया कि हृदय कष्ट के संकटपूर्ण छह सप्ताह के बाद घर पर रहने वाले को आय0 सी0 यू0 में चिकित्सा कराने वाले दलों में मरने वालों की संख्या में कोई विशेष अन्तर नहीं था।

एक्सरे एक व्यय साध्य प्रयोग है, पर पूरे विश्व में परीक्षण का महत्वपूर्ण अंग है। जितने एक्सरे कराये जाते हैं, उनमें से आधे व्यर्थ होते है। इसकी कैंसर उत्पादकता पर भी लोगों का अब ध्यान गया है। बचपन में एक्सरे कराने वाले कई व्यक्तियोँ को चढ़ती उम्र में कैंसर से ग्रस्त होते पाया गया है। उपचार एवं परीक्षण के अलावा तीसरा महत्वपूर्ण पक्ष चीर-फाड़ का है। एक अमेरिकी विशेषज्ञ डा0 एलबर्ट हैवरकैम्प का कहना है कि गर्भस्थ बालकों के परीक्षण हेतु आज सैंसर उपकरण का प्रयोग अधिकाधिक हो रहा है एवं बिना किसी प्रयोजन के माँ के पेट की आपरेशन कर बच्चे की प्रसूति कराई जा सकती हैं। अब अमरीका में चार में से एक बच्चे का जन्म ऑपरेशन द्वारा होता है। 9 अक्टूबर 1977 के लैंसेट के अनुसार ऐसे बच्चों का स्वास्थ जन्म के कुछ माह अधिक ही खराब रहता है। उन्हें श्वास संस्थान सम्बन्धी रोग अधिक होते हैं। न्यूकोनिया एवं आगे चलकर टी.वी. होने के अवसर उन्हें अधिक होते हैं। इन माँओं के गर्भाशय की झिल्ली में भी सूजन आ जाती है। आगे जब भी प्रसव हो तो उसमें ऑपरेशन की आवश्यकता होती है।

उपचार, परीक्षण, सर्जरी के अतिरिक्त एक चौथा आहार का है। जितनी उदारता इस क्षेत्र में आधुनिक चिकित्सा पद्धति ने दर्शायी है उतना ही रोगों का प्रत्याक्रमण बढ़ता चला गया है। बीसवीं शताब्दी के भोजनक्रम में मैदा, चीनी चोकरमुक्त भोजन की ही प्रधानता है। चोकर रहित भोजन आंतों की सक्रियता को कम करता है। जगह-जगह थैलियाँ बन जाती है, जिन्हें डायवटिकुलोसिस रोग का कारण कहा जाता है। यह रोग कैंसर को जन्म देने वाला माना जाता है। सामान्य प्राकृतिक आहार करले वाले आदिवासियों में यह कष्ट नहीं के बराबर होता है।

उपरोक्त चारों पक्षों की समीक्षा करने के बाद चिकित्सा पद्धति के औचित्य पुनर्विचार करना आवश्यक हो जाता है। आरम्भिक लाभ के बावजूद अन्ततः घाटा कहा तक स्वीकार्य है, इस पर विवेक बुद्धि यही कहती है कि यह अदूरदर्शिता से पूर्ण अन्धविश्वास यथाशीघ्र जन मानस से मिटाया जाना चाहिए। तुरन्त का चमत्कार हतप्रभ तो कर देता है, पर अपने दूरगामी दुष्परिणाम छोड़ जाता है। वह उपेक्षणीय तो नहीं है, पर एलोपैथी वह चिकित्सा का शब्दार्थ भी कुछ ऐसा ही इंगित करता है। ‘द बुक ऑफ नालेज एनसाइक्लोपीडिया” के अनुसार एलोपैथी वह चिकित्सा पद्धति है जो औषधि के प्रयोग से व्याधि के अलावा अन्य दूसरे लक्षण पैदा करती है, कष्टों को जन्म देती है। भावार्थ यही कि वह एक बीमारी का उपचार करने के लिए दूसरा रोग उत्पन्न कर देना हैं एण्टी बायेटिक्स शब्द का अर्थ है वे औषधियां जो जीवन के घातक है। एण्टी अर्थात् विरुद्ध, बायेसिस अर्थात् जीवन। इसीलिए ‘हीलिंग एण्ड कान्क्वेस्ट ऑफ पेन” के लेखक डा0 जे0 फील्ड कहते हैं कि वर्तमान चिकित्सा पद्धति एक प्रयोग मात्र है। इसमें वैज्ञानिक अन्धविश्वास की ही प्रधानता है।

इन सब तथ्यों पर विचार करने पर यही श्रेयस्कर जान पड़ता है कि उन पक्षों का पुनर्मूल्यांकन किया जाये जो रोग का कारण बनते हैं। इतना बन पड़ने पर ही अभीष्ट चिकित्सा पर कुछ टिप्पणी की जा सकनी संभव है। शरीर का धर्म है अपनी रक्षा के लिए व्यवस्था बनाना। जीवन शक्ति के रूप में उसे एक सुरक्षा संस्थान मिला हुआ है। रक्त के श्वेत कण एवं इम्यून संस्थान सुरक्षा सेना, सीमा आरक्षी बल का कार्य करते हैं। बाह्य आक्रमणकारी जीवाणु विषाणु पहले मानव शरीर में सुरक्षा पंक्ति की कमजोरी का जायजा लेते हैं। उनकी घातक सामर्थ्य में वृद्धि शरीर की कमजोरी के साथ बढ़ती जाती है एवं शरीर रोगी हो जाता है। रोग से निवृत्ति भी इस पर निर्भर करती है कि कितना शीघ्र विकार द्रव्यों का निष्कासन सम्भव हो पाता है। शरीर के निष्कासन संस्थानों का सक्षम होना व्यक्ति के समग्र स्वास्थ्य पर निर्भर करता है। आन्तरिक अंगों में से एक का भी व्याधिग्रस्त होना कमजोर जीवनी शक्ति, अपाहिज शारीरिक स्थिति एवं नये-नये रोगों के आक्रमण में निकलता है। गुर्दे छन्नी की तरह रक्त में से विजातीय द्रव्यों को निकालकर मूत्र रूप से बाहर निकाल फेंकते है। यही गुर्दे जब रोगग्रस्त हो जाते हैं तब सारा विजातीय द्रव्य शरीर में एकत्र होता चला जाता है। ऐसे व्यक्ति जीवित लाश की तरह अपनी यात्रा खींचते हैं। न श्वास ढंग से ले पाते हैं और न ही ठीक से सो पाते हैं। बाह्य जीवाणु विषाणुओं का घातक प्रभाव उन्हें शीघ्र मृत्यु के मुख में ले जाता है। चयापचय के परिणाम स्वरूप उत्पन्न विकार द्रव्य जब एकत्र होते चले जाते हैं , आहार विहार में व्यतिक्रम आ जाता है, प्रकृति के अनुकूल दिनचर्या का निर्धारण नहीं हो पाता है तो रोगों की बाढ़-सी आ जाती है।

इस मूल आधार को समझने के बाद चिकित्सा व्यवस्था का स्वरूप निर्धारित कर सकना संभव है। किसी भी लक्षण को दबाने के बजाय उसे जन्म देने वाले कारण को जड़ से मिटाना ही श्रेयस्कर है। तुरन्त लाभ की दृष्टि से तो यही उचित लगता है कि सामयिक दृष्टिगत होते ही लक्षण को मिटा दिया जाये। गन्दगी पर मिट्टी को डालने पर वह उस समय तो आँखों से ओझल हो सकती है, पर वह नष्ट नहीं होती । दर्द को, वेदना को हरेक औषधियों से उस समय तो मिटाया जा सकता है। परन्तु मूलरूप में बैठे रोग को यदि समूल नष्ट नहीं किया गया तो वह नये रूप में आधिक तीव्रता से उभर कर आ सकता है। अन्ततः निष्कर्ष यही निकलता है कि इस चिकित्सा पद्धति के अन्तराल में छिपे अन्य विश्वास को जड़ से निकाल फेंककर अब जन मानस को अपनी सृष्टि का परिमार्जन करना ही चाहिए। जितना भी श्रेष्ठ है, वह तो ग्राहय है, पर सामयिक लाभ का दर्शन किसी भी मूल्य पर जीवन में नहीं उतारा जा सकता है।

विकल्प के रूप में हमारे समक्ष एक ऐसा जीवन दर्शन आता है जिसे प्राकृतिक आहार विहार, रोगों के प्रति परिष्कृत दृष्टिकोण एवं औषधीय पौधों के रूप में सब ओर उपलब्ध जड़ी-बूटियों की प्रधानता हो

अनियमित एवं प्रकृति के जीवनक्रम विजातीय द्रव्य को एकत्र होने के लिए बाध्य करता है। ऐसे में खान-पान के विषय में सर्वव्याप्त अन्धविश्वासों के प्रति जनमानस का सचेत होना अत्यावश्यक है। सर्वसुलभ वनस्पतियोँ हरी सब्जियों में अन्य खनिज पदार्थों की अपेक्षा नमक इतना होता है कि शरीर की आवश्यकता की पूर्ति बराबर होती रहे। पर इससे भी अधिक मात्र स्वाद पूर्ति हेतु लिया जाने वाला ‘सोडियम क्लोराइड’ नामक यह रसायन हृदय, रक्त संस्था, गुर्दों पर प्रतिकूल प्रभाव डालकर अनावश्यक तत्वों के जमाव तथा आवश्यक घटकों के निष्कासन में सहायक होता है। दूध, हरी सब्जियाँ, अंकुरित श्रम में रुचि लेने वाले व्यक्ति को पूरी मात्रा में कैलोरी दे सकने में समर्थ है, ऐसा मत विख्यात चिकित्सकों का है। फिर भी अनावश्यक चर्बी युक्त, जिव्हा को रुचिकर भोजन जिस मात्रा में पूरे विश्व के लिया जाता है, वह मात्र एक प्रकार की भ्राँति ही है जो विश्वमानस को जकड़े हुए है।

वनस्पतियोँ के जीवनी शक्ति संवर्धन एवं रोग निवारण में उपयोग कर चिर पुरातन काल से प्रतिपादित होता चला गया है। कहा जाता है कि एक बार ब्रह्माजी ने च्यवन ऋषि को निर्देश दिया कि पृथ्वी पर जो भी पौधा व्यर्थ हो, तोड़ लाओ। 11 वर्ष भटकने के उपराँत वे ब्रह्माजी के सामने नतमस्तक होकर बोले-”प्रभो! पृथ्वी पर एक भी पत्ता ऐसा नहीं मिला जो किसी न किसी रोग के उन्मूलन में सहायक न हो।” उससे पेड़ पौधों, जड़ी-बूटियाँ की महत्ता समझ में आती है। चरक ऋषि के बारे में वर्णित है कि वे औषधियों से उससे गुणों को पूछते जाते थे एवं तदनुसार उपयोग हेतु उनका संकलन करते थे।

इन सब आख्यानों से औषधीय पौधों की विलक्षण प्रभावकारी क्षमता पर प्रकाश पड़ता है। इसी मान्यता के कारण हिन्द अध्यात्म में पौधों को देव समान मानकर पूजा अभ्यर्थना करने का स्वरूप बनाया गया है। पौधों को को मध्यम योनि प्राप्त देव पुरुष माना गया है। उपनिषद्कारों का कथन है कि-

यो देवो अग्नौ यो अप्सु या विश्व, भुवनमाविवेश। य औषधीषु योवनस्पतिषु तस्मै, देवाय नमोरमः॥ वेश्ताश्वतरोपनिषद 2।17

अर्थात्-”जो परमात्मा अग्नि में है, जो जल में है, जो समस्त लोकों में समाविष्ट है, जो औषधियाँ में है तथा वनस्पतियों में है, उस परमात्मा को नमस्कार कर लिया है। इसी पर शोधें केन्द्रित भी है।

पाश्चात्य जगत में सबसे महत्वपूर्ण शोध इन दिनोँ ‘एजींग’ (वार्धक्य) पर चल रही है कि किस तरह अपनी मृत्यु को आगे बढ़ाया जा सके, इसी पर सारे प्रयास केन्द्रीभूत है। हिमालय की तराई में प्रारम्भ, कायाकल्पी एवं अमरकंटकी नामक पौधे इन्हीं विशेषताओँ से भरे पूरे हैं। इस पर विशद खोज की आवश्यकता है। वार्धक्य को नियन्त्रित करने से मानव को कैंसर रूपी असाध्य रोग का उपचार भी हस्तगत हो सकता है। काया कल्प एक ऐसी प्रक्रिया है जिसका सपना चिकित्सकगण देखते आये है। इन दोनों औषधियों में ये क्षमताएं छिपी पड़ी है। ‘चंदलिया’ नामक औषधि से पथरी का उपचार राजस्थान में लोकप्रिय है। इसी प्रकार सहज सुलभ शंख पुष्पी स्मरण शक्ति को तेर करने के लिए बड़ी तादाद में गाँवों में प्रयुक्त होती आयी है।

आज कैंसर का उपचार रेडियो आइसोटोपो के माध्यम से किया जाता है। हिमालय के ऊपरी भाग में पाये जाने वाले ‘कुमारिका’ पौधे में भी इन आइसोटोपो का पहचान लिया गया है। कैंसर का उपचार इससे संभव है। प्रत्यक्ष प्रयोग परीक्षण द्वारा यह सिद्ध किया जा सके तो चिकित्सा विज्ञान की यह सबसे बड़ी क्राँति होगी। रतनजोत, इल्लर विल्लर,सेल्सिया, भापिया, निकोटियाना आदि पौधों में भी कैंसर का उपचार ढूंढ़ा जा रहा है। केन्द्रीय भैषज्य अनुसंधान संस्थान लखनऊ एवं बनारस हिन्दू विश्व विद्यालय में इन पर प्रयोग चल रहे हैं।

एक्यूपंक्चर पद्धति के जन्मदाता चीन ने जड़ी बूटियां पर आधारित चिकित्सा पद्धति का विकास करके कम खर्च में ही अपनी आबादी को अच्छा स्वास्थ्य देने में सफलता प्राप्त की है। आधुनिक चिकित्सा पद्धति भले ही इन जड़ी-बूटियों पर आधारित प्राचीन उपचार पद्धतियों की भर्त्सना करती हो, लेकिन यह एक सुनिश्चित तथ्य है कि प्रयोगशालाओं में रासायनिक विधियों से तैयार इन दवाओं में से अनेक के गुणकारी तत्वों की जानकारी सर्वप्रथम जड़ी-बूटियों के माध्यम से ही हुई थी।

ल्हासा में स्थापित तिब्बती चिकित्सा संस्थान में चीनी आयुर्वेद से सम्बन्धित अनेक असभ्य पुस्तकें सुरक्षित है। एवं विशेषज्ञ के अनुसार चीन में लगभग 5000 जड़ी-बूटियाँ इलाज के काम प्रयुक्त हो रही है। आधुनिक शोध उपकरणों का उपयोग का चीन ने अपनी जड़ी-बूटी कोष में निरन्तर अभिवृद्धि की है। ‘वर्मवुड’ नामक जड़ी से चीनी आयुर्वेदज्ञों ने ‘चिगं हाओस्’ नामक दवा निकाली है जो मलेरिया रोग में क्लोरोक्विन से भी बढ़कर उपयोगी पाई गयी है। चीन में सड़कों के दोनों ओर पेड़-पौधे लगाते समय यह ध्यान रखा जाता है कि चिकित्सा की दृष्टि से उपयोगी पौधे अवश्य लगाए जाये। स्वास्थ्य कार्यकर्ता उन्हें एकत्र करने व उगाने में सतत् व्यस्त रहते हैं। वे इन औषधियों से काढ़ा, चूर्ण, अवलेह बनाकर गाँव-गाँव घूमकर बाँटते रहते हैं। सन 1971 से अब तक चीन सरकार तीन लाख स्वास्थ्य कार्यकर्ता प्रशिक्षित कर ग्रामीण क्षेत्रों में भेज चुकी है। हृदयाघात में ‘साल्विया मिल्टिरोइजा’, ब्लड कैंसर में ‘सिफेलोटेक्सस’, साँस अवरोध में ‘रियम टाँकुटीमकम तथा रेफेनर’ का चीन में बड़ी सफलता से प्रयोग किया गया है। यह चीनी आयुर्विज्ञान ईसा से 600 वर्ष पूर्व का है जबकि भारत का आयुर्वेद का इतिहास इससे भी पुराना है।

चीन की तरह भारत को भी इस गरिमा के प्रति सचेत हो जाना चाहिए। इस देश की विशाल जनसंख्या के स्वास्थ्य की सुरक्षा और रोगों से बचाव के लिए महंगी चिकित्सा पद्धति कतई उपयोगी नहीं है। पीपल, तुलसी जैसी दिव्य वनौषधियों की हमारे यहाँ पूजा की जाती रही है। इनकी रोग निवारण क्षमता के अतिरिक्त भी इनमें कई ऐसे गुण है जो मनुष्य के सर्वांगीण विकास में सहायक हो जाते हैं भरामाँसी, पीलीक कनेर, सर्पगंधा, गुग्गल, हरिद्रा, दारुहल्दी जैसी औषधियोँ पर विशद अनुसंधान किया गया है एवं फलदायी परिणाम सामने आये है। शरीर औषधि अनुसंधान परिषद के निर्देशक डा. पी.एन.बी. कुरुप के अनुसार अब भारतीय जड़ी-बूटियों से ऐसी दवाओं को बनाने में सहायता मिल सकने की संभावना है जो असाध्य रोगों को ठीक कर सके।

आयुर्वेद की प्रतिष्ठा अक्षुण्ण है। आवश्यकता मात्र उसे आधुनिक परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुतीकरण की है। पिछले दिनों अमेरिका के एक विद्यार्थी ने पूना आयुर्वेद कॉलेज से आयुर्वेद में स्नातक की उपाधि ली है। प्रथम श्रेणी में प्रथम स्थान प्राप्त इस प्रतिभाशाली वैज्ञानिक ने आयुर्वेद के इस महान स्वरूप को विश्व व्यापक बनाने का संकल्प लिया है। रूस के राष्ट्रपति लियोनिड ब्रेजनेव के हृदयाघात के उपचार के लिए भारत से ही आँध्र प्रदेश के एक जड़ी-बूटी विशेषज्ञ द्वारा ‘सुनुम-ए-मुख्रीफ ए सतावन’ नामक जड़ी बूटी भेजी गयी थी।

यह विज्ञान चिर प्रतिष्ठित चिकित्सा विज्ञान है । बड़े सुनिश्चित एवं मजबूत आधारों पर खड़ी यह पद्धति प्रकृति के अनुकूल जीवनचर्या को प्रधानता देती है। हमारे चारों ओर पायी जाने वाली इन दिव्य वनौषधियाँ के उपयोगी को यदि बढ़ावा दिया जा सके तो एक वैकल्पिक जीवन दर्शन एवं पीड़ित मनुष्यता के लिए समग्र चिकित्सा प्रणाली का प्रतिपादन किया जा सकता है। आर्थिक दृष्टि से यह पद्धति कम खर्च की भी है और हानि रहित भी। रोग निवारण में कुछ समय भले ही अधिक लगें, पर प्रतिकूल परिणाम सामान्यतया इसके नहीं होते। जीवनी शक्ति संवर्धन एवं जैविक वातावरण के अनुकूल ही शरीर की व्यवस्था का सुनियोजन इन औषधियों का उद्देश्य है। अध्यात्मवादी दर्शन यही है। आज इसी को अपनाये जाने का नितान्त आवश्यकता है।


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