मार्टिन प्रिंस मनोवैज्ञानिक जगत के प्रसिद्ध विद्वान है। उन्होंने मानवी व्यक्तित्व का गहन अध्ययन एवं विश्लेषण किया है। व्यक्तित्व संबंधी अपनी खोजों में मार्टिन ने अनेकों रहस्यात्मक और महत्वपूर्ण तथ्य प्रकट किए हैं। उनका कहना है कि “मनुष्य के भीतर एक साथ कई प्रकार के व्यक्तित्व कार्य करते हैं। उनमें आपस में यदि सामंजस्य और सहयोग है तो मनुष्य के विकास में असाधारण योगदान मिलता है। परस्पर असहयोग होने से विकासक्रम अवरुद्ध हो जाता है। मानसिक एवं शारीरिक रोग भी मनुष्य के भीतर दो व्यक्तित्वों के आपसी संघर्ष के प्रतिफल होते हैं।”
व्यक्तित्वों की भिन्नता और आपसी संघर्ष कैसी-कैसी समस्याओं को जन्म देते हैं इसका एक रोचक उदाहरण ‘प्रिंस’ ने अपनी पुस्तक में ‘मैकनवारो’ नामक महिला का प्रस्तुत किया है। वे लिखते हैं कि इस मैकनवारों के भीतर एक साथ तीन व्यक्तित्व रहते थे। एक सामान्य स्वभाव का था। दूसरा सन्त और तीसरा शैतान प्रकृति का। इन तीनों में एकरूपता न रहने से उक्त महिला का जीवन पागलों जैसा बन गया है। साधारण व्यक्तित्व को अन्य दो व्यक्तित्वों का ज्ञान न था जबकि ‘शैतान’ व्यक्तित्व को अन्य दो व्यक्तित्वों की क्रियाओं का ज्ञान रहता था। फलस्वरूप शैतान व्यक्तित्व अन्य दो के कार्यों में निरन्तर बाधा पहुँचाता था। उदाहरणार्थ यदि सामान्य ‘व्यक्तित्व’ कोई वस्तु आलमारी में एक निश्चित स्थान पर रख देता तो शैतान उसे वहाँ से हटाकर कहीं अन्यत्र छिपा देता था। अपनी ही रखी हुई वस्तु को ढूंढ़ने में उस महिला को विशेष कठिनाई होती थी। उसकी इच्छा के विरुद्ध भी कितनी ही बार शैतान व्यक्तित्व अनेकों काम करा देता था जो नैतिक दृष्टि से उचित न होते थे। अपनी गल्तियों का भान बाद में होने पर वह महिला पश्चाताप करती रहती थी। मानसिक द्वन्द्वों के कारण उसकी स्थिति विक्षिप्तों जैसी बन गई।
मार्टिन द्वारा प्रस्तुत किया गया उदाहरण अचरज भरा लगता है किन्तु बारीकी से अध्ययन किया जाय तो पता चलेगा कि अधिकाँश व्यक्तियों की यही स्थिति होती है। मनुष्य के भीतर दो व्यक्तित्वों का संघर्ष चलता रहा है। पौराणिक भाषा में जिसे देवासुर संग्राम कहा जा सकता है। अमुक स्थान में देवता निवास करते हैं और अमुक में असुर तथा उनके बीच युद्ध होते रहते हैं का वर्णन भारतीय धर्म पुराणों में ही नहीं विश्व के अन्यान्य धर्म ग्रन्थों में भी आता है। यह व्यक्तित्व के दो भिन्न स्वरूप का अलंकारिक वर्णन - चित्रण है जो यह दर्शाता है कि देव और असुर के बीच अर्थात् मनुष्य के भीतर काम करने वाले दो व्यक्तित्वों के बीच परस्पर मतभेद एवं संघर्ष होने पर व्यक्तित्व छिन्न-भिन्न हो जाता है। विकास अवरुद्ध हो जाता है तथा अनेकों प्रकार के शारीरिक, मानसिक विक्षोभ उत्पन्न होते हैं। पुराणों में वर्णन आता है कि देवता और असुर जब तक एक दूसरे से अलग रहे - असहयोग करते तथा लड़ते रहे। परिस्थितियाँ विपन्न और प्रतिकूल बनी रहीं। सर्वत्र अव्यवस्था फैली दोनों ने जब परस्पर सहयोग करना स्वीकारा तो समुद्र मन्थन जैसे दुस्तर एवं कठिन काम का सिलसिला चल पड़ा जिसकी परिणति चौदह दिव्य रत्नों की उपलब्धियों के रूप में सामने आयी। जिसे प्राप्त कर विश्व वसुधा धन्य हो गई।
मनुष्य के मानसिक जगत में चलने वाले संग्राम का यह अलंकारिक चित्रण है। संघर्ष रुकने - देव और असुर रूपी दो व्यक्तित्वों के बीच सहयोग का क्रम चलते ही मनुष्य के सर्वांगीण विकास का दौर द्रुतगति से चल पड़ता है।
आधुनिक मनोविज्ञान की खोजों द्वारा एक सर्वथा नवीन तथ्य उजागर हुआ है कि विभिन्न प्रकार के शारीरिक एवं मानसिक रोग मन के द्वन्द्वों से पैदा होते और द्वन्द्वों की उत्पत्ति दो प्रकार के व्यक्तित्वों के परस्पर टकराहट से होती है। संघर्ष की प्रतिक्रिया की अनुभूति अनेकों प्रकार के शारीरिक एवं मानसिक असन्तुलनों के रूप में तो होती है किन्तु इसका बोध नहीं रहता कि अपनी ही सत्ता दो घटकों में बैठे टकराव उत्पन्न कर रही है। जो अशान्ति, असन्तोष, व्यग्रता विक्षोभ, भय, चिन्ता जैसे असन्तुलनों से आरम्भ होकर अनेकों प्रकार के मानसिक रोगों का कारण बनते हैं।
क्रिया विचारणा एवं भावना के तीनों ही क्षेत्रों में एकरूपता हो तो मनुष्य असामान्य शक्ति का स्वामी बन सकता है। इसके विपरीत इन तीनों में एकता न होने पर विकास क्रम अवरुद्ध हो जाता है। सामान्यतया इन तीनों में एकता कम ही स्थापित हो पाती है। प्रायः युग्म दो का बन जाता है। प्रत्यक्ष दिखायी पड़ने वाला व्यक्तित्व उन्हीं के समन्वय से बनता है जिसे ज्ञात व्यक्तित्व कहते हैं। अपने इस व्यक्तित्व का बोध अधिकाँश व्यक्तियों को होता है। सम्भव है मनुष्य अपने ज्ञात स्वत्व में चरित्रवान, आदर्शवादी एवं सिद्धान्त निष्ठ हो किन्तु अज्ञात व्यक्तित्व में अनुदार, अनैतिक, क्रूर एवं व्याभिचारी हो सकता है। इसका प्रमाण कितने ही व्यक्तियों में मिलता रहता है। नीति, सदाचार, आदर्श एवं सिद्धान्त की बातें करते कितने ही व्यक्ति देखे जाते हैं किन्तु लोभ मोह के वासना तृष्णा के अवसर आते ही वे उस प्रवाह में बह जाते हैं। इसका कारण यह होता है कि भीतरी अज्ञात व्यक्तित्व में निकृष्ट प्रवृत्तियों के संस्कार जड़ जमाये रहते हैं और अवसर उपस्थित होते ही प्रबल हो उठते तथा बाह्य-प्रत्यक्ष व्यक्तित्व पर हावी हो जाते हैं। न चाहते हुए भी कितनी ही बार मनुष्य कितने ही ऐसे कार्य कर जाते हैं जो सामाजिक एवं नैतिक दृष्टि से अनुचित होते हैं और जिसके लिए वे बाद में भारी पश्चाताप करते हैं। यह अचेतन व्यक्तित्व का ही प्रभाव है कि मनुष्य अपने को अशक्त एवं असमर्थ पाता है। मनोवैज्ञानिकों का मत है कि बाह्य, भीतरी सामंजस्य न होने से द्विमुखी व्यक्तित्व का निर्माण होता है। “डबल पर्सनालिटी” को मनोवैज्ञानिक क्षेत्र में सभी प्रकार के मनोरोगों का कारण माना गया है।
द्विमुखी व्यक्तित्व के निर्माण के बाह्य परिस्थितियाँ कारण हैं अथवा मनुष्य स्वयं ? क्या उनमें एकता स्थापित कर व्यक्तित्व को श्रेष्ठ, शालीन बनाया जा सकता है जैसे प्रश्नों के संबंध में मनोवैज्ञानिकों एवं मनोचिकित्सकों का कहना है कि अपने व्यक्तित्व को छिन्न-भिन्न करने का जिम्मेदार स्वयं मनुष्य है। उसकी चिन्तन एवं क्रिया प्रणाली के सूक्ष्म संस्कार जमा होते रहते हैं और अचेतन पक्ष का निर्माण करते हैं। यदि उनका स्तर निकृष्ट हुआ तो भारी विक्षोभ पैदा करेंगे। फ्रायड जैसे मनोवैज्ञानिक का कहना है कि “मनुष्य चिन्तन कुछ और करता है तथा उसका प्रत्यक्ष भूमिका भिन्न प्रकार की होती है। चिन्तन में यदि वासना, तृष्णा एवं लोभ के तत्व विद्यमान हैं तथा वाणी से वह आदर्शों की बात करता है तो व्यक्तित्व में विघटन यहीं से आरम्भ हो जाता है और द्विमुखी व्यक्तित्व का निर्माण होता है।”
इससे स्पष्ट है कि व्यक्तित्व को समग्र एवं एकरूप बनाये रखने के लिए चिन्तन वाणी एवं क्रिया-कलाप तीनों में एकरूपता स्थापित करनी होगी। प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष व्यक्तित्वों में जिसकी भूमिका मनुष्य के विकास में सहायक हो सकती है, इसका निर्धारण कैसे हो ? क्योंकि कभी-कभी स्थिति उलटी भी हो सकती है। अप्रत्यक्ष व्यक्तित्व सुसंस्कारी हो सकता है और प्रत्यक्ष कुसंस्कारी। इस विषम स्थिति में किसकी बात मानी जाय और चिन्तन एवं अभ्यास द्वारा किसे सशक्त बनाया जाय, उसका उत्तर प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक कार्ल युग ने दिया है जो प्रकारान्तर से भारतीय अध्यात्म का ही समर्थन करता है। वे कहते हैं कि “प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष से परे मनुष्य की मूल सत्ता” दी अनडिसकवर्ड सेल्फ है। जो अपनी प्रेरणाएँ उदात्त भावनाओं के रूप में सतत् संप्रेषित करता रहता है। अपने चिन्तन एवं गतिविधियों को उसकी प्रेरणा के अनुरूप ही ढाला जाय। व्यक्तित्व को पूर्ण तभी बनाया जा सकता है।