परम कल्याणी-मंगलमयी वाणी

September 1971

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सामान्यतया यह समझा जाता है कि मनुष्य का शारीरिक दृष्टि से बलिष्ठ होने में आहार-बिहार का और मानसिक दृष्टि से बुद्धिमान होने में शिक्षा व्यवस्था का हाथ होता है। आमतौर से दानों प्रकार की समर्थताएँ प्राप्त करने के लिए इसी प्रकार के उपाय भी अपनाए जाते हैं। शरीर को स्वस्थ सुदृढ़ बनाने की इच्छा होते ही पौष्टिक आहार एवं व्यायाम, संयम-ब्रह्मचर्य जैसे साधनों को जुटाया जाता है। स्वयं विद्वान बनने या स्वजन सम्बन्धियों को बुद्धिमान बनाने के लिए अध्ययन-अभ्यास का उपक्रम अपनाया जाता है। ज्ञान वृद्धि के लिए सत्संग, स्वाध्याय की और कला-कौशल की प्रवीणता के लिए अभ्यास, अनुभव का आश्रय लिया जाता है। यह उपयुक्त भी है और प्रचलित भी। इतने पर भी इस मार्ग में एक भारी असमंजस यह बना रहता है कि बहुतों की मूल प्रकृति ही कुछ विचित्र होती है और उन पर इस उत्कर्ष प्रयत्नों का काई कारगर परिणाम प्रस्तुत नहीं होता। मन्दबुद्धि, चंचल, उद्धत, अनगढ़ प्रकृति के ऐसे कितने ही व्यक्ति पाये जाते हैं जिन पर उपयुक्त शिक्षण का प्रभाव भी नगण्य जितना ही होता है। यही बात शारीरिक विकास के संदर्भ में भी है। कुछ बालक ऐसे होते हैं जिनकी लम्बाई, मोटाई अपनी निज विलक्षणताओं के साथ जुड़ी होती है। कई ठिगने दुबले शरीर वाले ऐसे होते हैं जिन्हें कुछ भी खिलाया या कराया जाय अपनी निजी विशेषता से बहुत अधिक आगे-पीछे नहीं हटते बढ़ते। साधनों की असमर्थता वहाँ भी प्रकट होती है जहाँ दरिद्र परिवारों के व्यक्ति भी लम्ब-तड़ंग और भारी-भरकम पाये जाते हैं जबकि साधन सम्पन्न परिवारों में जन्मे, पले व्यक्ति भी दुबले, ठिगने एवं शारीरिक दृष्टि से असमर्थ जैसी स्थिति में बने रहते हैं।

विकास साधनों की उपयोगिता आवश्यकता से कोई इन्कार नहीं करता। वे अपना काम करते हैं और करना चाहिए। इतने पर भी यह असमंजस अपने स्थान पर यथावत् ही बना रहता है कि मनुष्य की अपनी निजी विशेषता एक सुनिश्चित तथ्य जैसी बनकर भारी चट्टान की तरह अड़ी बैठी रहती हैं और बहुत हिलाने-डुलाने, उठाने-हटाने का प्रयत्न करने पर भी उत्साहवर्धक परिणाम उपलब्ध करने के मार्ग में बाधा ही बनी बैठी रहती है। देखा गया है कि शारीरिक और मानसिक विकास में मनुष्य की निजी विशेषता का असाधारण महत्व है। सुधार प्रयत्नों ने उस पर सीमित प्रभाव ही होता है और परिवर्तन भी यत्किंचित् ही हो पाता है। उदाहरण के लिए मनुष्य के चेहरे, रंग एवं कार्यशक्ति पर दृष्टिपात किया जा सकता है। अफ्रीका के नीग्रो, यूरोप के गोर, चीन के मंगोल, अरब के तगड़े, कांगो के बौने एकत्रित करके यह जाना जा सकता है कि उनकी आकृति ही नहीं प्रकृति में भी भारी अन्तर पाया जाता है। चेहरा, नाक, आँख, होंठ, दाँत, बाल, नाखून जैसे अंगों को देखकर यह जाना जा सकता है कि यह भिन्नता उन समुदायों को निजी विशेषता है। इसका परिस्थितियों या साधनों से कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है। काले नीग्रो, अमेरिका जैसे शीत प्रधान देश में गोरों के बीच बसते हुए भी अपने रंग और चेहरे को पीढ़ी-दर पीढ़ी यथावत बनाये रहते हैं। इसी प्रकार गोरे लोग दक्षिण अफ्रीका जैसे गर्म क्षेत्र में शताब्दियों से बसे होने पर भी काले नहीं हुए। उनकी सन्तानें गोरे रंग की तथा माँ-बाप जैसे चेहरों की होती हैं जबकि पड़ौस में बसे मूलनिवासी अपने काले रंग, घुँघराले छोटे बाल, चौड़ी नाक, मोटे होंठ जैसी विशेषताएँ यथावत बनाए रहते हैं। सन्तानें इसी प्रकार उत्पन्न होती रहती हैं।

इससे प्रतीत होता है कि प्रान्त, क्षेत्र वातावरण आदि का प्रभाव मनुष्य की शारीरिक स्थिति पर उतना नहीं पड़ता जितना कि वंश परम्परा का। पख्तूनिस्तान के पठान बंगाल में बस जाने पर भी प्रायः वैसी ही पीढ़ियों बनाये रहते हैं और दुबले बंगाली पख्तूनिस्तान में बस जाने पर भी अपने वंशजों के काय-कलेवर में कोई विशेष परिवर्तन कर नहीं पाते।

यही बात बौद्धिक संरचना के सम्बन्ध में भी है। मारवाड़ी, बंगाली, द्रविड़, केरली, ब्राह्मण, कायस्थ, आदिवासी जैसे वंशजों के चिन्तन, स्वभाव, कौशल,स्वर, चातुर्य आदि पर एक विशेष आवरण चढ़ा पाया जाता है। यों सुधार प्रयत्नों का कुछ लाभ तो होता ही है, पर जन्मजात विशेषता में उतना परिवर्तन नहीं होता जितना कि होना चाहिए।

एक ही पेड़ पर रहने वाले, एक ही वातावरण में पलने वाले, एक जैसा आहार करने वाले पक्षियों की आकृति और प्रकृति का अन्तर स्पष्ट देखा जा सकता है। पशुओं, पक्षियों से लेकर कृमि-कीटकों तक के अगणित प्राणी, पास-पड़ौस में बसते और एक ही प्रकार के साधनों पर निर्भर रहते हुए भी अपनी मौलिक विशेषताएं बनाये रहते हैं और उसे पीढ़ी दर पीढ़ी चलाते रहते हैं। इसे वंश-परम्परा कहते हैं।

वंश परम्परा की चर्चा यहाँ इसलिए की जा रही है कि अगले दिनों मानवी विकास के लिए किये जाने वाले प्रबल प्रयत्नों में यही कठिनाई सबसे अधिक आड़े आयेगी कि परम्परागत आकृति एवं प्रकृति में हेर-फेर कैसे किया जाय? धीमी गति से यत्किंचित् सुधार होते चलने की प्रतीक्षा करते रहना अब इस प्रगति युग में संभव नहीं। न इतना धैर्य है और न इतना अवकाश अवसर कि वंश परम्परा के साथ जुड़ी हुई विशेषताओं में क्रमिक परिवर्तन की आशा लगाये बैठा रहा जाय और सुधार प्रयत्नों से होने वाले अत्यन्त धीमे परिवर्तन पर संतोष किया जाय?

विकासवाद के अनुसार प्राणियों को आदिम काल से लेकर अर्वाचीन परिणति तक पहुँचने में लाखों वर्ष लगे हैं और उतार-चढ़ावों से होकर गुजरना पड़ा है। यह प्राणियों की मनःस्थिति और प्रकृतिगत परिस्थितियों के तालमेल का परिणाम हुआ। अब इसमें एक कड़ी प्रशिक्षण की-सुधार प्रयत्नों की और जोड़ी जा सकती है जो प्राणि-विकास के भूतकाल में नहीं जुड़ सकी। इतने पर भी प्राणियों की अपनी निजी विशेषता इतना हठीली है कि उसे द्रुतगति से बदल जाने और समय के माँग को पूरा कर सकने के लिए सहमत करना नितान्त कठिन है। अन्य प्राणियों की आकृति-प्रकृति में अन्तर हो सकता हो तो उनके स्वयं के लिए तथा विश्व-व्यवस्था के किए कितना उपयुक्त होगा? उस प्रसंग को छोड़ दे तो भी मानवी प्रगति की जो आकुल-व्याकुल आवश्यकता समझी जा रही है, उसकी पूर्ति में प्रधान अवरोध वंश-परम्परा की हठवादिता ही सबसे बड़ा कारण है जिसके कारण प्रशिक्षण और साधन का प्रबंध करने पर भी अभीष्ट सफलता मिलती दिख नहीं रही है।

मानवी प्रकृति के चार अंग है-(1) कायिक बलिष्ठता (2) मानसिक कुशाग्रता (3) मान्यताएं एवं आदतें (4) आकाँक्षाएं एवं सम्वेदनाएँ। सुधार प्रयत्नों से इन चारों विभूतियों में कुछ भी सुधार नहीं हो सकता ऐसा तो नहीं कहना चाहिए। तो भी इतना तो मानना ही होगा कि वंश परम्परा से चली आ रही निजी विशेषताओं में आवश्यक हेर-फेर किए बिना सुधार प्रयत्नों में सीमित प्रगति ही संभव हो सकेगी और उसकी गति बहुत ही धीमी होगी। खासतौर से तब, जबकि उपरोक्त विशेषताओं को एक साथ विकसित करके नवयुग के अनुरूप समान व्यक्तित्व सम्पन्न, परिपूर्ण, सुविकसित, समर्थ, समुन्नत एवं सुसंस्कृत मनुष्य समाज के विनिर्मित करने की आवश्यकता अनुभव की जा रही हो।

इस संदर्भ में विज्ञजनों का ध्यान इस तथ्य पर गया है कि नवयुग के अनुरूप समुन्नत मनुष्य की पीढ़ियाँ विकसित करने के लिए उसकी मौलिक संरचना एवं विशेषता का द्वार खटखटाया जाय और उस मर्म स्थल में हेर-फेर करके वह मार्ग निकाला जाय जिससे व्यक्तित्व के मर्मस्थल को सुधारना और मौलिक विशेषताओं से युक्त मनुष्य काक निर्माण संभव हो सकेगा। घटिया पीढ़ियां इन दिनों शिक्षा और स्वास्थ्य संवर्धन के प्रयासों को निरर्थक बना रहा है। पर यदि अगले दिनों बढ़िया व्यक्तित्व ढल सके तो भविष्य में उनकी पीढ़ियां समुन्नत स्तर की बनती चली जाएँगी। तब उनके लिए न तो सुधार शिक्षण को भारी प्रयत्न करने होंगे और न प्रगति प्रवासों के असफल होते रहने का रोना, रोना पड़ेगा।

कुछ समय पूर्व यह माना जाता था कि मनुष्य की निजी विशेषताएँ ईश्वर प्रदत्त हैं, वे भाग्य-विधान, या पूर्व संचित संस्कारों के कारण पल्ले बँधी होती है और उन्हें बदल सकना मनुष्य के बस से बाहर है। तब इस क्षेत्र के परिवर्तन के लिए किसी दैवी शक्ति के अनुग्रह से ही गुत्थी सुलझने की आशा की जाती थी। व्यक्ति का परिवर्तन, पीढ़ियों का समुन्नतिकरण यों अभीष्ट तो सदा से रहा है और उसके लिए यथा संभव प्रयत्न भी चला है। इतने पर भी परिणाम की दृष्टि से प्रायः निराश जैसा ही होना पड़ा है। प्रयत्नों की असफलता को दैवी दुर्विपाक मानकर मन समझाने और असंतोष करने के अतिरिक्त उन दिनों और काई चारा था भी नहीं।

अब परिस्थितियों में भारी अन्तर हुआ है। वंश परम्परा को विधि-विधान मानते रहने की अपेक्षा अब मनुष्य के हाथ में ऐसे सूत्र लग गए हैं जिनसे यह विश्वास बँधा है कि मानवी व्यक्तित्व के हर क्षेत्र में परिवर्तन सम्भव हो सकता है। वंश-परम्परा के उद्गम स्रोतों को ढूँढ़ निकालने में अब सफलता मिल गई है। तद्नुसार यह योजना बन रही है कि भावी पीढ़ियों का इच्छित निर्माण उन मर्मस्थलों में परिवर्तन करने से सम्भव हो सकेगा जो व्यक्ति की आकृति एवं प्रकृति को गढ़ने के लिए मूलतः उत्तरदायी है।

वंश परम्परा को अब शाप, वरदान, भाग्य या अपरिवर्तनीय तथ्य नहीं माना जाता वरन् उसे एक ऐसा प्रवाह माना जाता है जो शुक्राणुओं और डिम्बाणुओं के माध्यम से पीढ़ी-दर-पीढ़ी बहता चला जाता है यह प्रवाह जटिल भी और हठी भी। फिर भी यह गुँजाइश विद्यमान है कि उसमें प्रयत्नपूर्वक परिवर्तन किया जा सकता है और प्रवाह की पुरातन दिशाधारा को उलटकर उसे अभीष्ट दिशाधारा में बह चलने के लिए सहमत किया जा सकता है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि वंश परम्परा के कारण स्वास्थ्य, कौशल, स्वभाव आदि की जो शारीरिक, मानसिक एवं अन्तःकरण परक जो परिस्थितियाँ वर्तमान पीढ़ी के गले बँधी हुई हैं उन्हें उतारा जा सकता है साथ ही उनमें ऐसा सुधार समावेश किया जा सकता है जो भविष्य के समुन्नत मनुष्य के लिए अभीष्ट आवश्यक समझा गया है।

प्रजनन का उत्तरदायित्व वहन करने के लिए भूतकाल में मात्र शुक्राणु और डिम्बकीट के सम्मिलन को श्रेय दिया जाता रहा है। पर अब उसके भीतरी अति सूक्ष्म एवं अति समर्थ घटकों का पता चला है जिन्हें ‘गुण सूत्र’ कहा जाता है। भूतकाल में पदार्थ की सबसे छोटी इकाई परमाणु थी। पर अब उसके अन्तराल में उनके लघुकाय घटक ढूँढ़ निकाले गए हैं। इन्हें इलेक्ट्रान, प्रोटोन, न्यूट्रोन, पाजिट्रान आदि नामों से जाना जाता है । ठीक इसी प्रकार अब प्रजनन घटक शुक्राणु-डिम्बाणु नहीं रहे वरन् उनके भीतर पाये जाने वाले अत्यन्त सूक्ष्मघटक ‘गुणसूत्र’ न केवल प्रजनन के वरन् वंश परम्परा के साथ लिपटी हुई अनेकानेक क्षमताओं एवं विशेषताओं को हस्तान्तरित करने वाले माने गये हैं।

यों यह ‘गुण सूत्र’ शरीर की समस्त कोशिकाओं में निहित है, पर प्रजनन कृत्य को सफल बनाने में शुक्राणुओं और डिम्बाणुओं में पाये जाने वाले घटक ही तात्कालिक भूमिका का निर्वाह करते हैं। इनके अन्तराल में न केवल नई सन्तान की आकृति वरन् प्रकृति भी घुली होती है जो पीढ़ी दर पीढ़ी पानी की लहर की तरह आगे-आगे बढ़ती जाती है। इन गुण सूत्रों के साथ संरचना करने वाले रासायनिक पदार्थ तो रहते ही है साथ ही एक ऐसा अदृश्य विद्युत प्रवाह भी घुला रहता है जिसमें पूर्व पीढ़ियों के अनेकानेक रहस्य सभी कायिक, मानसिक विशेषताएँ जुड़ी रहती है। इन गुण सूत्रों में पितृ-पक्ष और मातृ-पक्ष दोनों का सम्मिश्रण रहता है। न केवल पिता, दादा, परदादा सरदादा आदि की वरन् माता, नानी, परनानी, सरानानी आदि कितनी ही पूर्व पीढ़ियों की विरासत सन्निहित रहती है। आवश्यक नहीं कि वे सभी विशेषताएँ एक साथ नई संतान में प्रकट हों वरन् अनुकूलता के अनुरूप उनमें से कुछ विशेषताएँ संतान में प्रकट होती हैं और कुछ फिर किसी आयुक्त अवसर की प्रतीक्षा में चुपचाप पड़ी रहती है। इनके प्रवाह में हर नई पीढ़ी के अनुभव अनुदान जुड़ते चले जाते हैं। आदि मानव की तुलना में अर्वाचीन पीढ़ी में पाये जाने वाले गुण सूत्र अत्यधिक विकसित है। उनके साथ एक के बाप दूसरी पीढ़ी के अनुदान जुड़ते चले आये है और सब मिलाकर स्थिति इतनी साधन सम्पन्न बन गई है कि उनमें पाये जाने वाले पक्षों में यदि उपयोगी का भेद एवं उपयोग करना संभव हो सके तो हर स्तर की संतति उत्पन्न कर सकना भी सरल सिद्ध हो सकता है।

गुणसूत्र की संरचना एवं व्याख्या विवेचना काफी जटिल है तो भी मोटी जानकारी के रूप में वंशानुक्रम के विद्यार्थी भी सामान्य ज्ञान से सम्बन्धित कुछ जानकारियाँ प्राप्त कर लेते हैं। इस प्राथमिक परिचय में जो सिखाया जाता है उसका साराँश यह है कि-”मानव जीवन के विधायक कुछ उत्पादन तत्व होते हैं, उन्हें बीजकोष कहते हैं। प्रत्येक व्यक्ति की बीजकोष अपने विशिष्ट गुणों से युक्त होते हैं। इन्हीं विशिष्ट गुणों को लेकर बालक जन्म लेता है। किसी भी व्यक्ति के गुण उसके जनक माता और पिता पर ही आधारित नहीं हैं, वरन् उसके दादा, परदादा और पूर्वजों से भी संक्रमित होकर आते हैं।”

“प्रत्येक सेल में वंशसूत्र (क्रोमोसोम्स) कुल 46 होते हैं जिनमें से 23 शुक्र (पिता) एवं 23 अण्डकोष (माता) से आते हैं। इन 46 में से 44 ओटोजोम्स (शरीर निर्माण सम्बन्धी) एवं 2 सेक्स क्रोमोसोम्स (लिंग निर्धारण सम्बन्धी) होते हैं। ग् मादा का एवं ल् नर का प्रतीत माना जाता है। ग्ल् का संयोग लड़के को एवं ग्ग् का संयोग लड़की को जन्म देता है।”

“माता और पिता के 23-23 वंश सूत्रों के जीन्स (पित्रैकों) का फ्यूजन एक रासायनिक क्रिया के रूप में होती है। यही रासायनिक संयोग के वंशानुगत गुणों का विधायक होता है। परीक्षण यही बताते हैं कि व्यक्ति की शारीरिक विशेषताएँ जैसे रंग, रूप, लम्बाई, स्वास्थ्य आदि पित्रगत होते हैं साथ ही मानसिक, चारित्रिक एवं स्वभाव जन्य विशेषताओं में भी बहुत कुछ समानता पाई जाती है।”

यही घटक वे जीवन तत्व है जो ने केवल नई पीढ़ियाँ विनिर्मित करते हैं वरन् उन्हें पूर्वजों की चिर संचित शारीरिक, मानसिक एवं भावनात्मक बहुमूल्य सम्पदाओं के रूप में उन्हें हस्ताँतरित भी करते रहते हैं। नई पौध किस स्तर की हो इस संदर्भ में इसी बीज को संभालने-सुधारने की आवश्यकता पड़ेगी। खेत में क्या उगाना है यह निश्चय करने के उपरान्त सर्वप्रथम उसके लिए उपयुक्त बीज की तलाश करनी पड़ती है। यह ठीक है कि खाद-पानी की सहायता से बीज को अंकुरित, विकसित एवं फलित होने का अवसर मिलता है। किन्तु साथ ही यह भी निर्विवाद है कि जो बोया जायेगा वही उगेगा। वृक्ष का स्वरूप और वैभव उसी स्तर का होगा जो कि बीज था। अतएव नव निर्माण में उच्चस्तरीय व्यक्तित्वों की फसल उगाने और उससे विश्व-वसुधा का भंडार भरने की योजना बनाते समय ध्यान इस बात पर भी केन्द्रित करना होगा कि उसके लिए उपयुक्त स्तर के बीज की व्यवस्था की जाय। अच्छी फसल उगाने के लिए बीज भंडारों का दरवाजा खटखटाया जाता है। अच्छी नस्ल उत्पन्न करने के लिए परिपुष्ट नर ढूंढ़े जाते हैं। नवयुग की संरचना में अग्रगामी भूमिकाएँ प्रस्तुत कर सकने वाले महामानवों की पौध उगाने के लिए भी उच्चस्तरीय गुण सूत्रों की तलाश करनी पड़ेगी। वे प्रस्तुत न मिलें तो फिर जो है उन्हीं को इस स्थिति तक परिष्कृत करना होगा कि अभीष्ट पीढ़ियों का निर्माण संभव हो सके।


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