कुण्डलिनी योग का स्वरूप और प्रयोग

September 1971

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आस्था को प्रभावित करने वाले विचार प्रवाह को दर्शन कहते हैं। समय, देश एवं काल की परिस्थितियों के अनुरूप विश्व के सभी दर्शन इसी लक्ष्य की आपूर्ति करते आये हैं। उनके स्वरूप एवं प्रतिपादनों में भिन्नता हो सकती है। पर मूल प्रयोजन में नहीं। प्रकारान्तर में सभी दर्शनों का एक ही लक्ष्य है-मानवी चिन्तन को आदर्शनिष्ठ और सिद्धान्त निष्ठ बनाना। ऐसे विचार प्रवाह देना जिससे मनुष्य उत्कृष्टता की ओर चल पड़े। विश्व भर में प्रचलित समस्त आस्तिकवादी दर्शन अपने अपने ढंग से इस लक्ष्य की ही आपूर्ति करते हैं। मनुष्य श्रेष्ठ कैसे बनें आदर्शों भरा जीवनयापन कैसे अपनायें, यही है मूलभूत लक्ष्य जिसके लिए अनेकों प्रकार के दर्शन समय-समय पर बने। मानवी चिन्तन प्रवाह की श्रेष्ठता की ओर घसीट ले जाने में दर्शन की असामान्य भूमिका होती है।

विश्व भर में प्रचलित सभी दर्शनों में विवादों की भरमार हैं प्रयोजन स्पष्ट होते हुए स्वरूप में मतभेद को देखते हुए सामान्य व्यक्ति दिग्भ्रांत हो जाता है। स्वरूप की अस्पष्टता अनेकों को भटकाती है। भारतीय ऋषियों की यह विशेषता रही है। मानव समाज के लिए सबसे उपयोगी एवं कल्याणकारी रहस्यों को ऐसे सरल एवं ग्राह्य ढंग से प्रस्तुत किया जिनको समझने एवं अपनाने में कोई कठिनाई न हो। ‘यज्ञ’ इसका सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है । यज्ञ दर्शन में समाहित विचार एवं प्रेरणायें आस्था परिशोधन एवं आदर्शों की प्रतिष्ठापन की एक सशक्त माध्यम है। इसमें सन्निहित विचार प्रवाह में मनुष्य को श्रेष्ठ, उदार एवं उदात्त बनाने के सारे तत्व विद्यमान है। उतने छोटे शब्द में उत्कृष्ट दर्शन के वे सारे तत्व विद्यमान है जो आस्था को परिशोधित परिमार्जित करते हो। ऐसे किसी दर्शन की खोज करनी हो तो विवादों से रहित एवं बोधगम्य हो तो वह यज्ञ दर्शन ही हो सकता है।

यज्ञ अपने में एक समर्थ और समग्र दर्शन हैं। इसकी सरल और सुबोध प्रेरणाओं में मनुष्य को उदार एवं उदात्त बनाने के वे सारे तत्व मौजूद है जो संसार के अन्य किसी भी दर्शन में नहीं है। यही कारण है कि भारतीय संस्कृति का पिता कहा गया है। पिता अर्थात् पालनकर्ता। समाज का परिपालन एवं संरक्षण देने वाला। यही है वह प्रमुख आधार जिससे समाज प्रगति करता एवं समुन्नत बनता। यज्ञीय दर्शन व्यक्ति एवं समाज को श्रेष्ठ, शालीन व समुन्नत बनाने में समर्थ है। अपने वह समग्र है। और असीम संभावनाएं समाहित किये हुए हैं। यज्ञीय प्रेरणाओं को व्यवहार में उतारा जा सके तो स्थायी सुख शाँति का मजबूत आधार बन सकता है।

यज्ञ के क्रिया पक्ष में कोई आस्था व्यक्त करने से इन्कार कर सकता है। पर उसका दर्शन पक्ष इतना सशक्त एवं प्रेरणादायक है जिसको देखकर किसी प्रकार के मतभेद की गुंजाइश नहीं हो सकती हैं वह इतना जबरदस्त है। कि एक नास्तिक भी सन्निहित प्रेरणाओं की उपयोगिता से नकार नहीं कर सकता। महत्व तो क्रिया पक्ष का भी कम नहीं है। आस्था परिशोधन एवं आदर्शवादिता की स्थापना में यज्ञ प्रक्रिया एक सशक्त अध्यात्मिक पद्धति सिद्ध होती है। मनोविज्ञान के विशेषज्ञ जानते हैं कि मनुष्य स्वभावतः स्थूल प्रतीकों के माध्यम से कोई भी बात शीघ्रता से सीखता है। शिक्षण, प्रेरणायें उद्बोधन उतना काम नहीं करते। यज्ञ प्रक्रिया मनोवैज्ञानिक शिक्षण की एक सशक्त विधि है जिसके द्वारा परोक्ष किन्तु स्थायी प्रभाव मनुष्य के मन पर पड़ता है सुसंस्कारों की प्रतिष्ठापना होती है। दृष्टि खुली रखी जाये तो यज्ञ के प्रत्येक कर्मकाण्ड मनुष्य को उपयोगी प्रेरणाएं देने में सक्षम है। वे मात्र कृत्य कल्प नहीं है। अंतःकरण में श्रेष्ठ संस्कारों की स्थापना की एक सफल मनोवैज्ञानिक विधि है।

मतभेद यज्ञ-प्रक्रिया को देखकर उठ सकता है। उस पक्ष को छोड़ भी दिया जाये तो भी यज्ञीय दर्शन स्वयं समस्त मानव जाति को उपयोगी प्रेरणाएं देने में सक्षम हैं। यज्ञ के तीन अर्थ शास्त्रों में बताये गये है। 1. दान 2. संगति करण, 3. देवपूजन सेवा इन्हें व्यक्ति एवं समाज निर्माण के तीन महत्वपूर्ण आधार तीन सिद्धान्त समझा जा सकता है। यज्ञ में सन्निहित इन तीनों आधारों को अपनाया जा सके तो नव निर्माण की समग्र प्रगति की सुदृढ़ आधारशिला तैयार हो सकती है।

दान से अभिप्राय अपनी क्षमता, प्रतिभा एवं सम्पन्नता को लोक कल्याण के लिए समर्पित करने के लिए मन को तैयार कर लेना । यह उदारवादी दृष्टिकोण ही मनुष्य को त्याग बलिदान के लिए परमार्थ पर पर बढ़ने के लिए प्रेरित करता है। दान प्रवृत्ति पर ही सृष्टि का अस्तित्व है। संसार की गतिशीलता कायम है। पिण्ड से लेकर ब्रह्मांड तक में यही परम्परा क्रियारत है। सृष्टि के सन्तुलन एवं सुव्यवस्था का कारण है। एक भ्रूण के लिए भी यह भंग हो जाये तो सम्पूर्ण गतिचक्र में अवरोध उत्पन्न हो जायेगा। मनुष्य से लेकर मनुष्येत्तर जीवों का अस्तित्व इस बात पर ही निर्भर करता है। सहयोग की त्याग की प्रवृत्ति पर ही व्यक्ति एवं समाज का विकास निर्भर करता है। मनुष्य को जीवन्त अस्तित्व स्वयं में माँ के परिपोषित करती हुई नौ माह तक कष्ट सहती है। इस उत्कृष्ट त्याग के फलस्वरूप ही सुन्दर आकर्षक मनुष्य आकृति प्रकट होती है। पिता के संरक्षण, परिपोषण से लेकर सामाजिक सहयोग की परम्परा में यज्ञ को दान की ही प्रवृत्ति काम करती दृष्टिगोचर होती है। मनुष्य ही नहीं, मनुष्येत्तर जीवों और वृक्ष वनस्पतियों में भी सहयोग की प्रवृत्ति ही उनके अस्तित्व को बनाये रखती है। परस्पर एक दूसरे को आबद्ध करती है। दान के महत्व और इसके व्यक्ति एवं समाज के उत्कर्ष में योगदान के रहस्य से ऋषि अवगत थे। यही कारण है कि उन्होंने सक्षम एवं समर्थ व्यक्ति को अपनी क्षमता और प्रतिभा को समाज के लिए उत्सर्ग करने की प्रेरणा दी हैं समर्थों को अनुदान अभावग्रस्तों, निर्बलों को न मिले तो समाज की सुव्यवस्था स्थिर नहीं रह सकती। समर्थ यदि अपनी समर्थता को समाज के लिए न प्रस्तुत करें तो अव्यवस्थाएं फैलती है। यह प्रवृत्ति मानवी गरिमा के प्रतिकूल और कठोरता अमानवता का परिचायक है।

यज्ञ की प्रेरणा है दान त्याग एवं बलिदान के लिए संघर्ष अपने को प्रस्तुत करने के लिए प्रेरित सहमत करना। दूसरा आधार भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। संगतिकरण से अभिप्राय है एक रूप कर लेना। समान बन जाना। आकृति एवं प्रकृति में एकरूपता स्थापित हो जाना। यज्ञ संगतिकरण की प्रेरणा देता है। ईश्वर के प्रतीक स्वरूप विश्व से तादात्म्य स्थापित कर सबमें उसका दर्शन कर एकरूप हो जाना। अपनी चेतना को विश्व चेतना में विलीन कर देना। लकड़ी अग्नि के संपर्क में आकर उसी का रूप ग्रहण कर लेती है। सामान्य नदी नाले भी गंगा में मिलकर गंगाजल बन जो है। ईश्वर श्रेष्ठ एवं दिव्यताओं से ओत-प्रोत है। उसकी संगति व्यक्तित्व में इन्हीं विशेषताओं के रूप में परिलक्षित होना चाहिए। संगतिकरण सम्पूर्ण प्रकृति में आमूल चूल परिवर्तन कर देता है। आकृति भी बदल जाती है। विश्व चेतना विश्व मानव के साथ संगतिकरण अन्त की उदात्तता एवं महानता के रूप में दृष्टिगोचर होती है। विश्व चेतना के साथ तादात्म्य आत्मवत् सर्वभूतेषु, वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना के रूप में प्रकट होती है।

सामान्यतया मनुष्य का संगतिकरण पदार्थों से होता है। फलतः पदार्थों के जड़ संस्कार को ही ग्रहण करता है। भौतिक वस्तुओं की आसक्ति मृग तृष्णा के समान है। अतृप्ति एवं असंतोष का कारण बनती है। चेतना की दिव्यता, सरसता एवं मधुरता की अनुभूति नहीं हो पाती। संगतिकरण पदार्थों से होता है। फलतः शाश्वत सुख से सदा वंचित बने रहते हैं। यज्ञ अपनी सत्ता से चेतना का विश्व चेतना के साथ संगतिकरण करने की प्रेरणा देता है। अपनी सत्ता आत्म सत्ता के रूप में सभी प्राणियों में विद्यमान है। उसको परम सत्ता से प्राणी मात्र में समायी चेतना के साथ संपर्क जोड़ा जा सकें। एकरूपता बन सके तो विश्व चेतना की विशेषताओं एवं विभूतियों से सम्पन्न बना जा सकता है। यज्ञ उसी की प्रेरणा देता है।

संगतिकरण की फलश्रुति है। मानव मात्र प्राण मात्र में अपनी ही सत्ता की अनुभूति करना। यही है वह मानवी आधार जिसकी भाव अभिप्रेरणा द्वारा मनुष्य उदात्त बन सकता है। जब सबमें अपनी ही सत्ता विद्यमान है तो अपने पराये का भेद कैसा ? प्रत्येक के दुख अपने जैसे लगने लगेंगे। मनुष्य को समाज के समष्टि की प्रगति में ही अपनी उन्नति दिखाई देगी। संकीर्णताओं के बन्धन कट जाते हैं। परमार्थ में मनुष्य मात्र के कल्याण में ही सुख की अनुभूति होती है। संगतिकरण का सिद्धान्त विश्व बन्धुत्व की वसुधैव कुटुम्बकम् के सपने को साकार करने में सशक्त भूमिका सम्पादित कर सकता है।

यज्ञ का तीसरा अर्थ होता है - देवपूजन। लोक व्यवहार में उसे सेवा कहते हैं। देव पूजन अर्थात् देव प्रवृत्तियों की अभ्यर्थना, आराधना। इसके लिए सेवा का मार्ग अपनाना होता है। समाज के देवत्व बढ़े स्वर्गीय परिस्थितियों का निर्माण हो यह सवा अवलम्बन द्वारा ही संभव है। सेवा अर्थात् अपनी शारीरिक एवं मानसिक क्षमता को पीड़ा एवं पतन में नियोजित करना। यह मनुष्यता का मेरुदण्ड है। करुण हृदय मात्र दूसरों की पीड़ा को देखकर द्रवित ही नहीं हो उठता वरन् कुछ ठोस कदम उठाने के लिए प्रेरित भी करता है। देवता की पूजा इसी रूप में हो सकती है। अन्तः की करुणा उभरकर बाहर आ जाये सहयोग करने के लिए हृदय मचलने लगे यही है देवत्व और दैव पूजन का लक्ष्य। देव प्रवृत्तियों के संरक्षण, प्रचलन और परिवर्धन की आपूर्ति सेवा मार्ग के अवलम्बन से होती है। अभावग्रस्तों पीड़ितों को राहत मिलती और समाज में सत्प्रवृत्तियां पनपती है।

दान, संगतिकरण और देवपूजन का यज्ञीय दर्शन मनुष्य को उदार एवं उदात्त बनाने में हर दृष्टि से सक्षम है। इन तीनों सिद्धान्तों में मानवी विकास के लिए असीम संभावनाएं सन्निहित है। मानवी अंतःकरण में महानता का बीजारोपण करने एवं आस्थाओं को सुदृढ़ बनाने में इन तीनों की असाधारण भूमिका होती हैं। मनुष्य को उदार एवं उदात्त बनाने वाले इन तीनों आधारों में किसी प्रकार का कोई मतभेद नहीं हो सकता। थोड़े समय के लिए आस्तिकवादी सिद्धान्तों को लेकर विभिन्न दर्शनों में विभेद हो सकता है और होता भी है। पर मानवी मूल्यों की प्रतिष्ठापना करने वाले, व्यक्ति व समाज को श्रेष्ठ समुन्नत और शालीन बनाने वाले शाश्वत सिद्धान्तों के प्रति नहीं। यज्ञ दर्शन विवादों से परे ऐसा ही एक दर्शन है जिसमें वे सारे सिद्धान्त समाहित हैं जिनके अवलम्बन से व्यक्ति व समाज की उन्नति व शांति निर्भर करती है। सदियों से चली आ रही ऋषि प्रणीत इस परम्परा में सन्निहित प्रेरणाओं एवं शिक्षाओं को समझा एवं अपनाया जा सके तो समस्त मनुष्य जाति की समग्र प्रगति सुख शाँति का पथ प्रशस्त हो सकता है।


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