उत्तम जीवन व्यवहार ही हमारा धर्म है।

February 1960

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(श्री राजगोपालाचार्य)

वर्तमान समय में अपने को धार्मिक कहने वाले व्यक्ति प्रायः यह मत प्रकट किया करते हैं कि संसार में धर्म ही सर्वोपरि है, इसलिये जीवन से सम्बन्ध रखने वाले आर्थिक, राजनीतिक, वैज्ञानिक आदि विषयों को गौण समझना चाहिये, और उनका निर्णय धर्म को प्रमुख स्थान देकर ही करना चाहिये। यह बात सुनने में तो बहुत अच्छी लगती है, पर कार्य रूप में इसका पालन संभव नहीं होता। क्योंकि धर्म राजनीति, विज्ञान आदि सभी मानव-प्रकृति के अंग हैं और उनका आधार “सत्य” पर है। जिस चीज का आधार सत्य के बजाय असत्य पर होगा, वह न तो कल्याणकारी हो सकती है और न स्थायी। इसलिये जो लोग अर्थ और राजनीति, विज्ञान आदि की उपेक्षा करके धर्म को ही प्रधानता देते हैं, वे प्रायः पाखंडी और ढोंगी हो जाते हैं, उनके कहने और करने में ऐक्य का भाव नहीं पाया जाता। वे मुँह से धर्म के लिये गला फाड़-फाड़ कर चिल्लाने पर भी जहाँ अपना स्वार्थ होता है वहाँ सर्वथा विपरीत मार्ग से चलते हैं और इस प्रकार संसार के अन्य लोगों को भी धर्म-विमुख करने में सहायक बनते हैं।

प्राचीनकाल में मनुष्य जीवन में इतना अधिक विरोध-भाव नहीं पाया जाता था। इसका खास कारण यह था कि उस समय विज्ञान की इतनी प्रगति नहीं हुई थी, और जो कुछ हुई थी वह साधारण जनता में वर्तमान समय की भाँति प्रचारित नहीं की गई थी। इसलिये धर्म और दर्शन के सिद्धान्तों के अनुसार ही राज्य और समाज के नियम भी निश्चित किये गये थे। इससे लोगों के व्यवहार और सिद्धान्तों में इतना परस्पर विरोधी-भाव उत्पन्न नहीं होता था। अब विज्ञान का विकास बहुत अधिक हो गया है और उसे सर्वसाधारण की शिक्षा का एक प्रमुख अंग बना दिया गया है, इससे परस्पर विरोधिता का भाव अकल्पित रूप से बढ़ गया है।

इससे भी अधिक विचारणीय दशा धर्म और राजनीति के सम्बन्ध में दिखलाई पड़ती है। इसका बहुत स्पष्ट उदाहरण देखना हो तो वर्तमान ईसाई राष्ट्रों पर निगाह डालना चाहिये। कहाँ तो ईसा का पूर्ण क्षमा-भाव रखने का उपदेश, और कहाँ आज कल के ईसाई कहलाने वाले शासकों की कूट नीति, हथियारों की प्रतिद्वंदिता और करोड़ों व्यक्तियों का संहार करने वाले महासमरों का आयोजन। ये ईसाई जिस प्रकार अपने व्यापारिक लाभ को अधिकाधिक बढ़ाने के लिये युद्ध-कला की दृष्टि से निर्बल राष्ट्रों का शोषण करते हैं और बराबरी वाले राष्ट्रों को युद्ध की भीषणता द्वारा नष्ट करने के उपाय करते हैं- ये दोनों बातें ईसा के उपदेशों के सर्वथा विपरीत हैं। पर ईसा के इन्हीं उपदेशों को बाईबल में प्रतिदिन पढ़ते और स्कूलों में सर्वत्र उनकी शिक्षा देते हुये ये लोग किस हृदय से लाखों करोड़ों लोगों के संहार की योजना बनाते रहते हैं, यह समझ में नहीं आता। एक ओर तो ये लोग गिरिजाघरों के लिये करोड़ों रुपए खर्च करते रहते हैं और बाईबल का संसार के कोने-काने में प्रचार करने का प्रयत्न कर रहे हैं, और दूसरी ओर वे ही लोग घातक से घातक अस्त्र तैयार करके अन्य देशों के बड़े-बड़े नगरों को दो चार मिनट के भीतर ही मटियामेट कर डालते हैं। इस प्रकार का कार्य एक बड़ा मिथ्याचार है और उसके फल से ईसाई सभ्यता का भवन ढहे बिना नहीं रह सकता।

इसमें तनिक भी संदेह नहीं कि जो धर्म अथवा दर्शन आधुनिक विज्ञान के विरुद्ध होगा, उसकी गिनती आज दंभ और पाखंड में ही की जायगी। यदि मानव जाति को प्रगति और कल्याण के मार्ग पर अग्रसर करना है तो विज्ञान तथा धर्म और राजनीति तथा धर्म के बीच पाई जाने वाली सब प्रकार की विसंगतियों (परस्पर विरोधी बातों) का अंत कर देना चाहिये। इसी से मनुष्यों में ऐक्य की स्थापना होकर शाँति का प्रसार हो सकता है। सौभाग्यवश भारतवर्ष का दर्शनशास्त्र अत्यंत प्राचीन होने पर भी विज्ञान के बहुत कुछ अनुकूल है। उस धर्म मूलक दर्शन शास्त्र से जो नीति शास्त्र विकसित हुआ है, वह बहुत न्यायपूर्ण है और उसके आधार पर आध्यात्मिकता की रक्षा करते हुये समाज का उचित आर्थिक और राजनैतिक संगठन किया जा सकता है। विदेशी लोगों को यह बात कुछ आश्चर्य जनक जान पड़ती है, पर इसमें संदेह नहीं कि विकास के सिद्धान्त और नीतियुक्त शासन का निरूपण हिंदू धर्म में पहले ही कर दिया गया है। हिंदू धर्म के मुख्य आधार वेदान्त में परमात्मा की जो परिभाषा की गई है, वह किसी ऐसे परमात्मा से सम्बन्ध नहीं रखती जिसे मनुष्य की कल्पना ने उत्पन्न किया हो। गीता में ईश्वर की चर्चा जिन शब्दों में की गई है और उसके जो लक्षण बतलायें गये हैं उनसे वैज्ञानिक भी विरोध नहीं कर सकते। नौवें अध्याय में एक जगह स्पष्ट कह दिया गया है-

“सब चराचर सृष्टि मुझ में स्थिति है, और फिर आश्चर्य की बात यह है कि मैं उससे अलग हूँ और प्रकृति अकेली ही काम किया करती है। प्रकृति ही मेरे हस्तक्षेप बिना, चर और अचर सृष्टि को उत्पन्न करती है।”

उपनिषदों में स्पष्ट शब्दों में यह घोषित कर दिया गया है कि आदि शक्ति का क्रम से जो विकास हुआ है, उसी से विश्व की उत्पत्ति हुई है। यही बात आज कल के वैज्ञानिक भी कह रहे हैं। विज्ञान पिछले कुछ वर्षों में अणु और परमाणुओं द्वारा जगत के निर्माण के जिस सिद्धान्त पर पहुँचा है, वह भी हिंदू दर्शन में ज्यों का त्यों हजारों वर्ष पहले से मिलता है।

पर इन बातों से आगे बढ़कर उपनिषदों ने यह भी प्रतिपादित किया है कि प्रकृति से उत्पन्न होने पर भी मनुष्य को आत्मा की ही भक्ति और खोज करना चाहिये। क्योंकि आत्मा ही सत्य है और जो व्यक्ति उससे विमुख होकर केवल भौतिक उन्नति पर ही ध्यान देते है वे अंत में भ्रष्टाचार और कपट के कैद में फँस जाते हैं।

व्यक्तिगत लाभ का उद्देश्य न रख कर केवल समाज के हित की दृष्टि के काम करना ही भगवत् गीता में जीवन का मार्ग बतलाया गया है। उसमें सब कामों को समान रूप से प्रतिष्ठा के योग्य बतलाया गया है, और प्रत्येक कार्य को निर्लिप्त भाव से सच्चाई के साथ करने पर जोर दिया गया है। वास्तव में गीता एक अनोखी रीति से धार्मिक दृष्टि कोण से समाजवादी विचारधारा का प्रतिपादन करती है। गीता में कहा गया है कि “अपने नियत कर्मों को उचित रीति से पूरा करते रहना ईश्वर की बहुत बड़ी उपासना है।”

वेदान्त सिद्धान्त के अनुसार समाज-संगठन का उचित मार्ग यही है कि कुछ लोगों को विशेष अधिकार प्राप्त कर लेने के बजाय समस्त कामों का बँटवारा जनसाधारण के हित की दृष्टि से बुद्धिमत्ता पूर्वक किया जाय। यदि हम चाहते हैं कि समाज व्यक्तिगत जीवन का इस प्रकार नियंत्रण करें कि प्रत्येक व्यक्ति सुविधापूर्वक जीवन निर्वाह कर सके, तो यह कार्य केवल कानून, पुलिस और फौज के द्वारा नहीं हो सकता। इसके लिये हमको जनता के विचारों में आध्यात्मिकता का समावेश करना पड़ेगा, जिससे हम अपना निर्धारण कर्तव्य आनंदपूर्वक करते रहें और समस्त समाज के हित का ध्यान रखें।


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