सुख शान्ति का सच्चा मार्ग

February 1960

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बाह्य जीवन में सुख और आन्तरिक जीवन में शान्ति प्राप्त करने की आकाँक्षा सभी को होती है। आनन्द के भी दो रूप हैं। एक स्थूल और दूसरा सूक्ष्म। स्थूल सुख वह है जो पंच भौतिक वस्तुओं के द्वारा होता है और जिनका रसास्वादन इन्द्रियाँ करती हैं। स्वादिष्ट भोजन, काम क्रीडा, धन, वैभव, महल मोटर श्री संपन्नता, स्त्री पुत्र, स्वस्थ सौंदर्य आदि के द्वारा जो प्रसन्नता की अनुभूति होती है वह बाह्य जीवन से संबंधित स्थूल सुख की श्रेणी में गिनी जाती है। उन्हें मनुष्य अपने परिश्रम, प्रतिभा एवं पुरुषार्थ द्वारा उपार्जित करता है।

आन्तरिक जीवन में सूक्ष्म सुख की अनुभूति जिसे शान्ति कहते हैं विद्या विवेक, संस्कृति, ज्ञान, विचार, गुण, आचरण, आदि मनःक्षेत्र की उच्च भूमिका से संबंधित हैं। कीर्ति, प्रतिष्ठा, श्रद्धा, सम्मान के रूप में इसकी छाया दूसरों के चेहरे पर झलकती देखी जा सकती है। अपने भीतर अनुद्वेग, निर्भयता, निश्चिन्तता, प्रसन्नता, उत्साह, आशा, सेवा उदारता, मैत्री स्नेह आत्मीयता, करुणा, संयम, संतोष, साहस, धैर्य आदि के रूप में इसे देखा जा सकता है।

सुख आधार वस्तुएं हैं। अपनी इच्छाओं के अनुकूल जितनी वस्तुएं प्राप्त होती हैं मनुष्य को उतनी ही सुखानुभूति होती है। इसके विपरीत उसकी आकांक्षाओं की तुलना में वस्तुओं का जितना अभाव होता है उतना ही उसके अभाव जन्य दुख अभाव होता है। किसी बीमारी या चोट से उत्पन्न दर्द एवं ताप का कष्ट सर्दी गर्मी, भूख, आकस्मिक दुर्घटना आदि के कष्ट भी कभी कभी आते हैं पर उनकी मात्रा पाँच प्रतिशत से अधिक नहीं होती। अधिकाँश दुख तो आकाँक्षाओं की तुलना में कम मात्रा में या घटिया श्रेणी की वस्तुएं प्राप्त होने के कारण होते हैं। जहाँ इच्छा और उपलब्धि का ताल मैल बैठ जाता है, लगभग समानता रहती है वहाँ मनुष्य सुखी और संतुष्ट रहते देखे जाते हैं।

दस प्रतिशत ऐसे दुख हैं जो ज्ञानी और अज्ञानी को समान रूप से होते हैं। बीमारी, मृत्यु, ऋतु प्रभाव, दुर्भिक्ष भूख, दुर्घटना आक्रमण, असफलता, आदि आकस्मिक दुख जो कई बार मनुष्य के प्रयत्नों से बाहर होते हैं प्रारब्ध जन्म या अधिदैविक दुख माने जाते हैं। प्रतिरोध और उपाय तो सभी का पर कभी कभी ऐसा भी हो जाता है कि सारी बुद्धिमता और प्रयत्नशीलता एक और रखी रह जाती है और विपत्ति सिर पर आ धमकती है, टाले नहीं टलती। ऐसे अवसरों पर मनुष्य के साहस, विवेक, धैर्य की परीक्षा होती है। कायर प्रकृति के अविवेकी लोग ऐसे अवसरों पर हड़बड़ा जाते हैं। अधीर होकर रोते चिल्लाते हैं, आत्म हत्या आदि की बात सोचते हैं। पर जिन्हें थोड़ा धैर्य, साहस और पुरुषार्थ प्राप्त है वे जानते हैं कि मानव जीवन सुख दुख के ताने बाने में बुना हुआ है। रात और दिन की तरह, शीत और गर्मी की तरह, भली बुरी परिस्थितियाँ भी आती जाती रहती हैं। इनमें धैर्य पूर्वक रहना और उस विपत्ति के पार निकलने का मार्ग ढूँढ़ना यही कर्तव्य है। अविवेकी लोग जहाँ अटल प्रारब्ध अन्य कष्टों को देखकर किंकर्तव्य विमूढ़ एवं कायर हो जाते हैं वहाँ विवेकवान व्यक्ति संसार चक्र की विषमता को समझते हुए किसी प्रकार मन समझा कर अपना दुख हलका कर लेते हैं।

जीवन में नब्बे प्रतिशत दुख इस आधार पर अवलम्बित है कि मनुष्य अपनी आकाँक्षा और परिस्थितियों का अन्तर कम करने का प्रयत्न नहीं करता। यह खाई जितनी ही चौड़ी होगी उतना ही अधिक दुख अनुभव होता रहेगा। एक मनुष्य लखपती बनना चाहता है इसके लिए उसके मन में अत्यंत तीव्र आकाँक्षा है। पर योग्यता एवं परिस्थितियों की विषमता के कारण हजार पाँच सौ भी इकट्ठे नहीं हो पाते, ऐसी दशा में उस मनुष्य को घोर असंतोष रहेगा और अपने को असफल, अभागा, दुखी एवं दरिद्री अनुभव करेगा। इसके विपरीत यदि उसकी आकाँक्षा पाँच सौ रुपये मात्र संग्रह करने की होती और लगभग उतना ही या उससे कुछ न्यूनाधिक उसे प्राप्त हो गया होता तो दुख का लेश भी अनुभव न होता वरन् सन्तोष एवं आनन्द ही मिलता।

जिस प्रकार दरिद्रता अन्य दुख में अधिकाँश लोग दुखी देखे जाते हैं उसी प्रकार रूप, सौंदर्य, स्त्री सन्तान, प्रशंसा, प्रतिष्ठा, ऐश, आराम एवं दूसरों के उचित अनुचित व्यवहार को जब इच्छानुकूल नहीं पाते तब भी दुखी होते हैं। बहुधा इसी प्रकार के दुखों का जीवन में बाहुल्य होता है। इनसे छुटकारा कैसे मिले इस प्रश्न पर विचार करने से दो ही हल समझ में आते हैं। एक यह कि जितनी हमारी आकाँक्षाएं हैं उतनी ही परिस्थितियाँ उपलब्ध हों। दूसरा यह कि- जैसी परिस्थितियाँ प्राप्त हैं उसके अनुरूप अपनी वर्तमान आकाँक्षाओं को सीमित कर लिया जाय। संसार में असंख्यों मनुष्य ऐसे हैं जो हमारी अपेक्षा हर दृष्टि से गये बीते हैं, उनसे अपनी तुलना करके हम अपनी वर्तमान स्थिति को भी सन्तोषजनक अनुभव कर सकते हैं।

अपनी एक आँख छोटी, कानी तिरछी या भोंड़ी है तो इसका दुख तभी होगा जब हम दूसरे बहुत सुन्दर बड़ी बड़ी आंखों से अपनी तुलना करें। अमुक आँखें इतनी सुन्दर हैं और हमारी ऐसी छोटी या भोंड़ी है इस तुलना में दुख अनुभव होना स्वाभाविक है। पर जब यह विचार किया जाय कि वे ऊँचे लोग जिनकी आँखें बिल्कुल ही नहीं हैं इस प्रकार की भोंड़ी आँख के लिए भी तरसते हैं तो अपनी स्थिति काफी सन्तोष जनक दिखाई देती। यही बात अन्य अभावों के बारे में भी सोची जा सकती है। हमें स्त्री, पुत्र, सौंदर्य, सम्मान आदि के कुछ अभाव हो सकते हैं, जैसा हम चाहते हैं उसकी अपेक्षा कम या घटिया किस्म की परिस्थितियाँ उपलब्ध हों तो उन लोगों से अपनी तुलना कम करनी चाहिए जो सर्व सुख सम्पन्न हैं या जिन्हें अधिक सुख साधन प्राप्त हैं, वरन् उन लोगों से अपनी तुलना करनी चाहिए जो हमारी वर्तमान परिस्थिति प्राप्त करने के लिए भी तरसते हैं।

मनुष्य जाति में ही लाखों करोड़ों मनुष्य अत्यन्त विपन्न परिस्थितियों में जीवन यापन करते हैं फिर भी वे हमारी अपेक्षा कम दुखी रहते हैं। फिर हमें क्यों थोड़े से अभावों के लिए इतने अधिक खिन्न हो रहे हैं? इतर योनियों के कीट पतंग पशु पक्षी आदि शरीर में रहने वाले जीवों की दृष्टि से तो हमारी स्थिति उतनी ही ऊँची हो सकती जैसा कि हम अपने मुकाबले में स्वर्ग के देवताओं को अधिक सुखी सोचते हैं। यदि हम किसी ऐसे वन्य पशु के शरीर में जन्म धारण किये होते जो विद्या, बुद्धि, वाणी, कुटुम्ब, घर वस्त्र, चिकित्सा सम्पत्ति, सम्मान, सुरक्षा, सहानुभूति, न्याय शासन आदि सभी साधनों से वंचित हैं तो निश्चय ही हम दरिद्र से दरिद्र मनुष्य को भी अपनी तुलना में अत्यन्त सौभाग्यवान मानते और सोचते कि यदि किसी दीन दरिद्र परिस्थिति में भी मानव देह की उपलब्धि हो सके तो कितना उत्तम हो। यदि कोई मनुष्य कहता कि हम मनुष्यों को तो धन संतान आदि का बहुत दुख है तुम पशु शरीर छोटा कर इसमें आकर क्या करोगे? तो निश्चय ही उसका उपदेश उपहासास्पद माना जाता। बेचारा जंगली पशु जो सभी साधनों से वंचित है वह बुरी से बुरी परिस्थिति के मनुष्य को भी अपनी अपेक्षा लाखों गुना सुखी अनुभव करता है। सुख दुख वस्तुतः सापेक्ष हैं। दूसरों की तुलना से ही इनकी अनुभूति होती है, इसलिए यदि हम दुखी रहना पसंद करें तो यही उचित है कि अपने से अधिक सुखी लोगों से तुलना करके अपने आपको दीन हीन मानें और खिन्न रहें। किन्तु यदि यह ठीक न लगे और इच्छा यह हो कि मन को सुखी एवं संतुष्ट रखा जाय तो एकमात्र उपाय यही है कि हम अपने से गिरी हुई विपन्न स्थिति वालों के साथ तुलना करके अपने आपको कहीं अधिक सौभाग्यशाली एवं सुखी अनुभव करें।

इसका अर्थ यह कदापि नहीं हैं कि हम वर्तमान की अपेक्षा भविष्य में और अधिक अच्छी स्थिति प्राप्त करने का प्रयत्न न करें। इस प्रकार की अकर्मण्यता तो मानवीय आदर्शों के ही प्रतिकूल होगी। मनुष्य का स्वाभाविक धर्म उन्नति की और अग्रसर होना ऊपर उठना आगे बढ़ना है। इस प्रकृति धर्म को त्याग देने वाला धर्मद्रोही या पापी कहा जाता है। आलसी, अकर्मण्य, अनुत्साही लोगों को इसीलिए समाज में तिरस्कृत माना जाता है। कीर्ति और लक्ष्मी ऐसे लोगों को त्याग देती है। अस्तु आज की अपेक्षा कल अधिक उत्तम, अधिक विकसित, अधिक समृद्ध हो इसके लिए शक्ति भर प्रयत्न करना हर एक का कर्तव्य है। पर यह सब कर्तव्य भावना से, प्रसन्नता और उत्साह पूर्वक ही करना चाहिए। निराशा, खिन्नता, शोक और दुख को मन में धारण कर आज की स्थिति पर रुष्ट रहना एक ऐसी मानसिक बुराई है जिससे उन्नति के पथ पर बढ़ने में किसी प्रकार की सहायता नहीं मिलती वरन् बाधा ही उत्पन्न होती है। उन्नतिशील भविष्य के लिए उत्साह और पुरुषार्थ पूर्वक प्रयत्न करना अलग बात है, इसके लिए वर्तमान स्थिति से दुखी या असंतुष्ट रहने की आवश्यकता नहीं। जिस प्रकार मैट्रिक का विद्यार्थी अपनी वर्तमान सफलताओं पर संतोष और गर्व अनुभव करते हुए ग्रेजुएट बनने की महत्वाकांक्षा रखता है और उसके लिए शक्ति भर चेष्टा करता है इसी प्रकार हम भी बिना वर्तमान स्थिति पर दुखी हुए और अधिक उज्ज्वल भविष्य के लिए प्रयत्न कर सकते हैं।

आकांक्षाओं के अनुरूप परिस्थितियाँ उपलब्ध कर लेना हर किसी के लिए संभव नहीं, ऐसे सुयोग तो किसी विरलों को ही मिलते हैं। आकाँक्षाओं पर कोई प्रतिबंध नहीं, एक गरीब आदमी बे रोक टोक राजा बनने के सपने देख सकता है। पर इसके लिए जिस योग्यता, परिस्थिति, एवं साधना सामग्री की जरूरत है उसे जुटा लेना कठिन है, हमारी आकाँक्षाएं बहुधा ऐसी होती हैं जिनका वर्तमान परिस्थितियों से मेल नहीं खाता इसलिए उनका पूरा होना प्रायः बहुत कठिन होता है। ऐसे बुद्धिमान लोग विरले ही होते हैं जो अपनी वर्तमान परिस्थितियों के अनुरूप आकाँक्षाएं करते हैं और उनके पूर्ण होने पर सफलता एवं प्रसन्नता का सुख अनुभव करते हैं। अधिकाँश लोग यह नहीं देखते कि अपनी परिस्थितियों में इन दिनों कितनी उन्नति संभव है। संभावनाओं के अनुरूप इच्छाएं तो आसानी से पूरी हो जाती है पर जिन आकाँक्षाओं का ऐसा तालमेल नहीं बैठता वे असफल ही रह जाती हैं और आकांक्षी को अभाव और असफलता जन्य दुख की आग में जलाती रहती है।

दुख और क्लेशों की आग में जलने से बचने की जिन्हें इच्छा है उन्हें पहला काम यह करना चाहिए कि अपनी आकाँक्षाओं को सीमित रखें। अपनी वर्तमान परिस्थिति में प्रसन्न और संतुष्ट रहने की आदत डालें। गीता के अनासक्त कर्मयोग का तात्पर्य वही है कि महत्वाकांक्षायें वस्तुओं की न करके केवल कर्तव्य पालन की करें। यदि मनुष्य किसी वस्तु की आकाँक्षा करता है और उसे प्राप्त भी कर लेता है तो उस प्राप्ति के समय उसे बड़ी प्रसन्नता होती है। इसी प्रकार यदि कोई व्यक्ति सर्वांगीण आत्मोन्नति के प्रयत्न कर कर्तव्य पालन करने की आकाँक्षा करे तो उसे सफलता मिलते समय मिलने वाले आनन्द की प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती, वरन् जिस क्षण में कर्तव्य पालन आरम्भ करता है उसी समय से आकाँक्षा की पूर्ति आरम्भ हो जाती है और साथ ही सफलता का आनन्द भी मिलता चलता है।

किसी व्यक्ति की इच्छा है कि उसका पुत्र विद्वान बने। अब उसे तभी सन्तोष एवं आनन्द प्राप्त होगा जब वह छोटा बच्चा बड़ा होकर पूर्ण विद्वान बन जाये यदि वह ऐसा न बना तो पिता को सदा असंतोष ही रहेगा और यदि उसकी इच्छापूर्ण भी होती है तो भी उसे बच्चे के विद्वान बनने में जो बीस वर्ष लगते तब तक उसे सफलता मिलने पर प्राप्त होने वाली प्रसन्नता की प्रतीक्षा में दिन गुजारने पड़ते। कहने का अर्थ यह है कि वस्तुओं और परिस्थितियों पर अवलंबित आकाँक्षाएं एक तो बहुत समय बाद ही पूर्ण हो सकती हैं। दूसरे पूर्ण सफलता मिल ही जायेगी यही भी निश्चित नहीं, तीसरे जिस समय वह सफलता मिली उनके बाद थोड़े ही समय तक वह प्रसन्नता स्थिर रहेगी। इसके बाद वह कार्यक्रम पूरा हो जाने पर वह प्रकरण समाप्त हो जायेगा और नई आकाँक्षा आरम्भ होगी। ऐसी दशा में वह पिछली सफलता का आनन्द भी समाप्त हो जायेगा। बहुत दिन प्रतीक्षा के बाद, अनिश्चित और क्षणिक सुख प्राप्त करना हो तो हम अपनी आकाँक्षाओं को साँसारिक वस्तुओं पर अवलंबित कर सकते हैं। पर यदि ऐसी इच्छा हो कि आकाँक्षा आरंभ करते ही तत्काल सफलता का सुख अनुभव होने लगे, असफलता मिलने पर भी वह वह सुख नष्ट न हो तथा वह सुखानुभूति जीवन भर बनी रहे तो हमें अपना दृष्टिकोण बदलना पड़ेगा। अपनी आकाँक्षाओं का केन्द्र किन्हीं पदार्थों को न बनाकर कर्तव्य पालन को प्रधानता देनी होगी।

अपने पुत्र को विद्वान देखने की आकाँक्षा करने वाला व्यक्ति यदि अपनी आकाँक्षा को थोड़ी सी मोड़ दे और यों सोचने लगे कि “बच्चे को विद्वान बनाने के लिए जो कुछ मेरा कर्तव्य है सो शक्ति भर पूरा करूंगा’ तो परिस्थिति बिल्कुल बदल जायगी। वह कर्तव्य पालन की प्रक्रिया आज से ही आरंभ हो गई तदनुसार प्रसन्नता अनुभूति भी आज से ही आरंभ हो गई। विद्वान बनना न बनना केवल अपने प्रयत्न पर ही अवलम्बित नहीं है। उसके अभिरुचि, मस्तिष्क की बनावट, श्रमशीलता, परिस्थिति, स्वास्थ्य, आदि अनेक कारण ऐसे हैं जिनमें थोड़ी सी गड़बड़ी हो जाने पर यह भी संभव है कि हजार प्रयत्न करने पर भी लड़का विद्वान न बना सके। जो कुछ हम चाहते है वह अवश्य ही पूरा हो जायगा इसका कोई निश्चय नहीं। शक्ति भरा प्रयत्न करने पर भी अनेकों बार केवल असफलता ही हाथ रहती है। सफलता केवल अपने प्रयत्नों पर ही निर्भर नहीं है वरन् दूसरे ऐसे अनेकों कारण भी हैं जिनके ऊपर सफलता असफलता बहुत कुछ निर्भर रहती है और वे कारण जब अपने हाथ में नहीं हो यही मानना होगा कि किसी आकाँक्षा की सफलता पर ही यदि हमारा सुखी होना निर्भर रहा तो उसके पूर्ति भी अनिश्चित ही रहेगी।

कर्तव्यपालन पर आधारित आकाँक्षाओं के बारे में यह बात नहीं है। इसमें किसी दूसरे का हस्तक्षेप नहीं। अपनी जैसी योग्यता एवं परिस्थिति है उसके अनुसार हर आदमी कर्तव्य पालन कर सकता है और साथ ही उसका संतोष भी प्राप्त हो सकता है। गीता कार ने बार बार यह स्पष्ट किया है कि “मनुष्य का अधिकार केवल कर्तव्य पालन तक सीमित है परिणामों पर उसका कोई अधिकार नहीं।” जिस चीज पर अपना अधिकार नहीं उस पर अपनी प्रसन्नता को आधारित करना गलती है। अपने आनंद को दूसरों के हाथ बेच देना है। इसलिए जीवन को सुखी बनाने के लिए यही नीति सर्वोत्तम है कि हम जीवन को सर्वांगीण उन्नति की ओर अग्रसर करने के लिए पूरी सच्चाई और परिश्रमशीलता के लिए प्रयत्न करें। इस प्रयत्नशीलता को अपना धर्म कर्तव्य मानें और हर घड़ी इस बात का संतोष एवं गर्व अनुभव करें कि “कर्तव्य पालन में हम पूरी तत्परता एवं ईमानदारी के साथ जुटे हुए हैं।” हमारे संतोष एवं आनंद के लिए इतना ही पर्याप्त है।

-क्रमशः


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