वह स्वर्ग पुत्र जो संसार का उद्धार करते हैं।

February 1960

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(श्री पाल रिचार्ड)

संसार की सब जातियों में कुछ मनुष्य ऐसे हैं जो सर्वसाधारण के तुल्य नहीं होते। निस्संदेह उनकी आकृति और रूप रंग में कोई अंतर नहीं होता तो भी वे जन साधारण से उतने ही भिन्न होते हैं जितना कि स्वर्ग का प्रकाश और आनंद, मृत्युलोक के अधिकार और दुःख से भिन्न होता है। ऐसे लोगों में उसी स्वर्गीय प्रकाश का आनंद रहता है। संसार के पुत्रों में वे ही स्वर्ग के पुत्र है।

इन स्वर्गीय पुत्रों में अधिकाँश को कोई नहीं जानता। वे उन प्रकाशपूर्ण स्थानों में निवास करते हैं, जिनको जन साधारण ढूंढ़ते फिरते है और जिनके अदृश्य गुप्त द्वारों की तलाश में वे ठोकरें खाते फिरते हैं। वे स्वर्ग पुत्र उन सब बातों को समझते हैं जिनसे सर्वसाधारण प्रायः अनजान हैं। इसका कारण यह कि वे वास्तविक आदर्श जीवन बिताते हैं जीवन के ऊँचे दर्जे के सत्य पर आचरण करते हैं। जब तक अन्य व्यक्ति भी उस मार्ग पर न चलें तब तक वे उनको कैसे जान सकते हैं? उनके पास वह वस्तु है, जिसको प्राप्त करने के लिये लोग आकाँक्षा रखते हैं और जिसे तब तक कोई नहीं पा सकता, जब तक उसके मन में सच्ची आकाँक्षा जागृत न हो’ वह वस्तु जीवन का परम आनंद है।

ऐसे स्वर्ग के पुत्र कभी-कभी आपस में भी एक दूसरे को नहीं पहचानते। वे जगत भर में फैले हुये हैं। कभी-कभी जब उनमें से दो परस्पर मिल जाते हैं तो फौरन एक दूसरे को ताड़ जाते हैं। परन्तु साधारणतः मनुष्य समुदाय के बीच वे पृथक-पृथक ही रहते हैं। पर इस प्रकार प्रकट में विभक्त रहते हुये भी आत्मिक दृष्टि से वे निकटवर्ती होते हैं। वे दूर-दूर रहते हुये भी एक ही जगह रहते हैं, वे प्रायः एकान्तवासी होते हैं और संसार के कोलाहल के बीच में रहकर भी मौनता का आनंद भोगते हैं।

ऐसे लोग बहुधा गरीबी में ही जन्म लेते हैं या पीछे गरीब हो जाते हैं। पर भाई उनको इस गरीबी के बदले संसार भर का राज्य या धन भंडार भी दिया जाय तो भी वे इसके लिए तैयार न होंगे। वे तो अपने को समस्त लोकों के सम्राट मानते हैं और वास्तव में वे सब कर्मों और प्रारब्धों के स्वामी होते हैं। प्रारब्धों के कारण जो घटनाएं होती हैं उनके तो वे स्वामी हैं ही, पर स्वयं प्रारब्ध के भी वे स्वामी होते है। किसी की सामर्थ्य नहीं जो उनकी इस पूर्ण सत्ता में बाधा डाल सके। उनकी दरिद्रता की बराबरी संसार की समस्त संपत्ति भी नहीं कर सकती। वे पूर्ण रीति से विरक्त होने पर भी सब तरह से भरे पूरे हैं। संसार के सभी भंडार उन्हीं के हैं। वे कष्ट और क्लेशों को खूब समझते हैं। सर्वसाधारण के जीवन की तरह उनका जीवन भी संकटों से भरा होता है और दूसरों की तरह उनका जहाज भी कभी कभी टूट जाता है, पर बाह्य जगत में चाहे जितनी आँधी और तूफान चलता रहे, पर उनकी आन्तरिक शाँति पर उसका तनिक भी प्रभाव नहीं पड़ता। जैसे समुद्र की घोर गर्जन करने वाली लहरों के ही ऊपर वहाँ के पक्षी परिस्थितियों में भी इन स्वर्ग पुत्रों की आत्मा गम्भीरता की शक्ति का सहारा ढूंढ़ लेती है, और उसी पर विश्राम करती है। रणभूमि में भी वे शाँति का उपभोग करते हैं, और ऐसी शाँति भोगते हैं जो सब प्रकार के ज्ञान से भी आगे बढ़ी हुई है। कोई ऐसा नरक नहीं, जिसमें वे परमब्रह्म की मुस्कान की चमक न देखते हो।

इन लोगों की ऐसी सर्वोच्च स्थिति का कारण यह नहीं कि किसी खास धर्म के अनुयायी होने से उनको यह लाभ प्राप्त हुआ है। ऐसे स्वर्ग पुत्र प्रत्येक धर्म में पाये जाते हैं, परन्तु वे बहुधा सभी धर्मों की सीमा से बाहर रहते हैं। धर्म (मजहब) तो नीचे के मार्ग हैं और वे महात्मा तो शिखर पर रहते हैं- उस शिखर पर जहाँ सब मार्ग जाकर मिल जाते हैं, जहाँ सब धर्म सम्पूर्णता को पहुँच जाते हैं, वहाँ स्वर्ग पुत्र ही पृथ्वी के सच्चे पुत्र हैं। वे पृथ्वी को अपनी जननी की तरह प्यार करते हैं, क्योंकि वह मनुष्य, जो संसार से प्रेम नहीं करता, वह स्वर्ग को समझ ही क्या सकता है? वे संसार में ही स्वर्ग की रचना कर देते हैं और संसार में ही स्वर्गीय जीवन धारण करते हैं। वास्तव में संसार मनुष्य को स्वर्ग से पृथक नहीं करता, वरन् यह मनुष्य की ही करतूत होती है कि वह स्वर्ग को संसार से अलग कर देता है। जब मनुष्य संसार को नर्क बना सकता है, तो वह इसे स्वर्ग भी बना सकता है। संसार या शरीर मनुष्य को स्वर्ग से पृथक नहीं कर सकते। हाँ मनुष्य की स्वार्थपरता ऐसा कर सकती है। यदि मनुष्य स्वर्गीय आनंद को संसार में नहीं पा सकता तो फिर कहाँ पावेगा ? स्वार्थपरता इस मृत्यु के बाद तक, इस हाड़, माँस की देह के नष्ट हो जाने पर भी कायम रह जाती है। स्वार्थपूर्ण आत्मा पृथ्वी पर ही क्लेश नहीं भोगती यदि वह स्वर्गों के स्वर्ग में चली जाय तो वहाँ भी क्लेश ही भोगेगी। ऐसा कौन स्वर्ग है जो अपना आनंद ऐसी आत्मा को प्रदान करेगा?

जिस स्वर्ग में वे स्वर्गीय पुत्र रहते हैं, वह स्वर्ग उस स्वर्ग से, जिसे धर्म-सम्प्रदायों ने “स्वर्ग” मान रखा है- बड़ा दूर है। स्वर्ग और नर्क मनुष्य की वासनाओं और उसके भय के भड़कीले चित्र को अनंत में लटका देते हैं- अर्थात् स्वर्ग की लालसा और नर्क का भय मनुष्य की आत्मा को मुक्ति प्रदान करने में उलटे मार्ग के रोड़े बन जाते हैं- जब भय और लालसा बनी रही तो स्वर्ग कैसा? वासना और भय से बचना ही तो सच्चा स्वर्ग है। इस प्रकार स्वर्ग पुत्रों का आनंद और दुःख सर्वसाधारण के आनंद और दुःख से बहुत भिन्न होता है।

उपनिषद् में कहा गया है- “उसको ढूंढ़ो जिससे सब भूतों ने जन्म ग्रहण किया है, जिसके द्वारा भूत (प्राणीमात्र) जीवित रहते हैं और अंत में उसी में लय हो जाते हैं। सब कुछ आनंद ही से पैदा हुआ है, आनंद से ही सबका अस्तित्व कायम है और फिर सब आनंद में ही लय हो जाते हैं।” बस, स्वार्थपरता के गला घोट बन्धन को तोड़ते ही वे पुनः आनंद को प्राप्त कर लेते हैं और शाँतिपूर्वक उस सत्ता में मिल जाते हैं, जो अनादि, अनन्त, असीम, अखंड, अदोष, और अकलंक है। आत्मा को स्वार्थपरता से मुक्त करना बड़ा भारी बलिदान है। संसार के कुछ मनुष्य इस महान बलिदान में लगे हुये हैं। वे इस त्याग में इसीलिये लगे हैं कि क्लेश और अंधेपन (अज्ञानता) में भी एकाग्रता की शक्ति द्वारा परमात्मा के द्वार को खोल दें।

मैंने स्वर्ग के पुत्रों की खोज में संसार का पर्यटन किया है। अब वह अवसर आ गया है, जब उन सबको मिलाकर एकता के केन्द्र की रचना करनी चाहिये। अब वे भविष्य में जन्म लेने वाले नवीज संसार के हृदय की सृष्टि करें, क्योंकि इन पवित्र पुरुषों में अनेक सीधी सादी आत्मायें भी हैं। उनमें कोई खेतों के गड़रिये हैं, कोई जातियों के गड़रिये हैं और कोई साँसारिक रणक्षेत्र के योद्धा हैं। यदि उनमें से कुछ को आत्म चिन्तन के प्रकाश के सिवाय और किसी तरह का ज्ञान नहीं है, तो कई ऐसे भी हैं जो आत्मा के स्वर्ग को प्रकाशित कर रहे हैं। स्वर्ग अपना आनंद तो सबको देता है, परंतु अपनी शक्ति किसी किसी को ही प्रदान करता है। ऐसे प्राणी इस संसार में प्रतीत नहीं होते, फिर भी वे इसी संसार के हैं वर्तमान काल में उनको जैसा आत्म ज्ञान और बल प्राप्त हुआ है वैसा बहुत समय से नहीं हुआ था। उसी शक्ति से वे आज भूतकाल की समस्त वस्तुओं को चकनाचूर करके भविष्य की जातियों के लिये बिखेर रहे हैं।


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