आध्यात्म विद्या का प्रथम सोपान

February 1960

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(पं. श्रीराम शर्मा आचार्य)

भारतवर्ष की चिरकाल से प्रधान सम्पदा ‘आध्यात्म विद्या’ रही है। आज जिस प्रकार पाश्चात्य देशों में भौतिक विज्ञान का विकास हुआ है उसके आधार पर अनेकों छोटे बड़े आविष्कार हुए हैं और इन आविष्कारों से सुख सुविधाओं में वृद्धि हुई है। इसी प्रकार प्राचीन काल में भारतवर्ष में आध्यात्म विद्या का विकास था उसके साधारण तत्व ज्ञान एवं साधना विधान की जानकारी घर घर में थी और उनके आधार पर शान्ति और समृद्धि की सिद्धियाँ भी सभी को उपलब्ध थी।

इतिहास के पृष्ठों पर जब दृष्टिपात करते हैं तो प्रतीत होता है कि जब तक इस पुण्य भूमि में आध्यात्म ज्ञान का प्रकाश प्रज्ज्वलित रहा तब तक मनुष्य का आन्तरिक स्तर और सुख साधनों का बाहुल्य सन्तोष जनक स्थिति में बना रहा। कारण यह है कि इस विद्या के दो क्षेत्र हैं (1) आत्मनिर्माण (2) योग साधना। आत्म निर्माण की प्रक्रिया तत्वज्ञान के अंतर्गत आती है। धर्म सदाचार, इन्द्रिय निग्रह, ब्रह्मचर्य परलोक, पुनर्जन्म, व्रत, उपवास, दान पुण्य, स्वाध्याय, सत्संग कथा, कीर्तन, तीर्थ यात्रा, मौन तितीक्षा, यम, नियम आदि का उद्देश्य यह है कि व्यक्ति अपने भीतर निरन्तर काम करने वाली दैवी और आसुरी प्रकृतियों में से आसुरी प्रकृति का दमन करके दैव प्रकृति का विकास करें। इसके लिए स्वाध्याय और सत्संग पर इसलिए विशेष जोर दिया गया है कि मनुष्य अपनी बुराइयाँ और कमजोरियाँ जो साधारणतः समझ में नहीं आती, इन दोनों के आधार पर ढूंढ़े और पहचाने।

धर्म नियमों का पालन करने की विधि व्यवस्था का भी यही प्रयोजन है कि जो कार्य समाज और व्यक्ति के लिए अन्ततः दुखद हैं उन्हें तात्कालिक प्रलोभनों एवं आकर्षण की उपेक्षा करके भी त्याग करने का प्रयत्न किया जाय। परलोक, पुनर्जन्म, स्वर्ग, सद्गति आदि की मान्यताओं के पीछे भी यही लक्ष्य है कि व्यक्ति तुरन्त की लाभ हानि से प्रभावित होकर की बुराइयों को अपनाने एवं अच्छाइयों को त्यागने के लिए ढुलकने न लगे। आज नहीं तो कल उसके शुभ कर्मों का फल मिलने ही वाला है यह आशा स्थिर रहती है तो मनुष्य असफलताओं और आपत्तियों को भी धैर्य पूर्वक सह लेता है। आज कोई प्रारब्ध कर्म हमारे सत्प्रयत्नों का शुभ परिणाम उत्पन्न नहीं होने देता तो भी कुछ चिन्ता की बात नहीं, देर सवेरे में वह मिलेगा ही यह विश्वास अन्तःकरण में गहराई तक जमा हो तो ही व्यक्ति नैतिक आचरणों पर दृढ़ रह सकता है। यदि वे विश्वास ढीले हों तो व्यक्ति के किसी भी प्रलोभन पर फिसल जाने की आशंका बनी रहेगी।

ईश्वर की सर्वसत्ता और न्याय परायणता का,कर्म फल के सुनिश्चित परिणाम होने की मान्यता का भी यही आधार है कि व्यक्ति अपने दुष्कर्मों को छिपे चोरी करके कहीं यह न मानने लगे कि मैं लोक निन्दा या राजदण्ड से बच गया तो अब मेरा क्या बिगड़ने वाला है। ईश्वर की सर्वसत्ता का विश्वास ही इस मानसिक दुर्बलता को हटाने का एक मात्र उपाय है। भगवान सर्वत्र है वह सब को देखता है, छिपे हुए जो दुष्कर्म किये गये हैं उन्हें भी वह जानता हैं, वह न्यायकारी और निष्पक्ष होने के कारण पाप का दण्ड भी अवश्य देगा यह मान्यता यदि मन क्षेत्र में दृढ़ता पूर्वक जमी हुई हो तो बुराई करने की हिम्मत इसी प्रकार न पड़ेगी जैसे पुलिस के निष्ठुर न्यायाधीश के सामने खड़े हुए चोर का चोरी करने का साहस नहीं होता। बुराइयों से बचना और अच्छाइयों को अपनाना ही पुण्य माना गया है। पुण्य कर्मों से ईश्वर प्रसन्न होता है और सुखदायक सत्परिणाम प्रदान करता है यह मान्यता स्थिर रहने पर लोग उत्साहपूर्वक सन्मार्ग पर चलते हैं। भले ही परिस्थितिवश संसार में उन्हें कीर्ति प्रशंसा, प्रत्युपकार या सुख सुविधा प्राप्त न हो तो भी ईश्वर की सर्वज्ञता को समझने के कारण सन्मार्गगामी को किसी प्रकार की खिन्नता या निराशा नहीं होती है।

कथा पुराणों का, धर्मग्रन्थों का प्रधान लक्ष यह है कि भगवान, के ऋषियों के या देवताओं के ऐसे प्रवचन, संस्कार, जनता को सुनावें जिनमें धर्म पक्ष पर चलने का आदेश एवं अनीति पर चलने का निषेध हो, इन शास्त्र वचनों पर श्रद्धा करना, मानना और अपनाना अपना धर्म कर्तव्य है यह आस्था बना लेने पर उन सद्ग्रंथों का श्रवण एवं पठन करने वाला निश्चय ही आत्म निर्माण की दिशा में चलेगा। जो बुराइयां उसे अपने में दीखेंगी उन्हें छोड़ेगा और जो अच्छाइयाँ प्रसुप्त होंगी उन्हें जागृत करेगा।

पुराणों में अनेकों कथानकों का विस्तार पूर्वक वर्णन है। उन्हें सुनने सुनाने का पुण्य माना जाता है। इस पुनीत परम्परा के पीछे भी यही तथ्य काम करता है कि सत्कर्म करने वाले महापुरुषों के चरित्रों की श्रेष्ठता से प्रभावित होकर सुनने वाले वैसे ही आचरण अपनावें। दुष्कर्म करने वालों को असुर के निन्दित नाम से चिन्तन करके अन्त में उनकी दुर्गति का दृश्य उपस्थित करना और सत्कर्म करने वालों को देव संज्ञा में लेकर अंत में उन्हें विजय, समृद्धि कीर्ति, सद्गति, मुक्ति आदि से लाभांवित होते दिखाना यही पौराणिक उपाख्यानों का मूल प्रयोजन है। साधारण उपदेशों की अपेक्षा कथानक के रूप में कोई तथ्य उपस्थित किया जाय तो वह अधिक प्रभावशाली होता है इसलिए शिक्षा के आदेश ग्रन्थों की अपेक्षा पुराणों का ढंग अधिक आकर्षक एवं प्रभावशाली सिद्ध हुआ। जनता ने उसे पसंद भी किया। कथाएं स्वभावतः रोचक होती हैं। आवश्यकता के अनुरूप वस्तुएं बढ़ती घटती हैं। पुराण अधिक पसंद किये गये तो उनकी संख्या भी और कलेवर का भी विस्तार हुआ। कुछ अंश को छोड़कर शेष सारे ही कथानक इसी उद्देश्य सिद्ध के लिए है। पुराणों का सुनना पुण्य भी इसी लिए माना गया है कि लोग उनमें वर्णित सत् शास्त्रों से प्रेरणा ग्रहण करके आत्म निर्माण की स्थिति में अग्रसर हों।

संसार में दो ही प्रलोभन मुख्य हैं (1) लोभ (2) काम। इन दोनों के प्रलोभन में ही मनुष्य दुष्कर्मों की ओर बढ़ता है तथा स्वार्थी बनता है। इन पर नियंत्रण स्थापित किये बिना कोई व्यक्ति सदाचारी नहीं बन सकता। इस आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए दान पुण्य और इन्द्रिय निग्रह ब्रह्मचर्य पर जोर दिया गया है। ब्राह्मणों को, विद्या प्रसार के लिए गरीबों को दीन दुखियों की सेवा लिए, सत्प्रवृत्तियाँ बढ़ाने के लिए, समाज कल्याण के लिए, ईश्वर की प्रसन्नता पूजा के लिए धन खर्च करना दान पुण्य कहा जाता है। धन का लोभ त्यागने, अपनी कमाई का कुछ हिस्सा इन कार्यों में लगाने से शुभ पुण्य फल प्राप्त होते हैं। यह मान्यता धन की अनियंत्रित इच्छा पर अंकुश ही नहीं लगाती वरन् अपनी श्रम उपार्जित कमाई को बिना मूल्य दे डालने की भी अभिरुचि पैदा करती है। यह अभिरुचि यदि बढ़ती रहे तो मनुष्य लोभ से उत्पन्न होने वाले दुष्कर्मों से बच सकता है।

इन्द्रिय निग्रह, ब्रह्मचर्य, नारी मात्र को नरक का द्वार या माता, बेटी, बहिन मानने की धारणा के पीछे काम विकार को घृणित मानने, उस पर अंकुश लगाने की प्रेरणा है। काम विकार को मानसिक उद्वेगों की जड़ माना गया है। भोगेच्छा से समाज में जितनी विकृति, बुराई, दुराचार, विलासिता, फैशन परस्ती, बढ़ती है उतनी और किसी प्रकार नहीं। अनियंत्रित भोगेच्छा से शारीरिक और मानसिक व्यभिचार फैलता है। शारीरिक व्यभिचार से अनेकों रोग पैदा होते हैं, स्वास्थ्य चौपट होता है, आयु घटती है, तेज नष्ट होता है, बुद्धि क्षीण होती है। दुर्बलता घेरती है, इसका प्रभाव जीवन के हर क्षेत्र पर पड़ता है, हर कार्य में अपूर्णता और असफलता रहती है। ऐसे लोगों की संतान कमजोर, बीमार, अल्पजीवी, अविकसित, बेढंगी एवं दुर्गुणी होती है। इन से भी बढ़कर मानसिक हानि है। जिनके मन में व्यभिचार के विचार घूमते रहते है, जो युवा नारियों का भोग दृष्टि से चिन्तन करते रहते हैं, उनकी अधिकाँश मानसिक शक्तियाँ इसी जंजाल में उलझ कर नष्ट भ्रष्ट हो जाती हैं।

जिस प्रकार तेज शराब से पीने वाले का कलेजा जल जाता है और उसका दिल दिमाग खोखला हो जाता है उसी प्रकार काम सेवन का चिन्तन करते रहने वाले व्यभिचारी इस वासना की तेज और नशीली शराब में अपना आध्यात्मिक कलेजा जला डालते हैं। मूल्यवान मानसिक शक्तियाँ इसी आग में जल जाती हैं। ऐसे लोगों के अंदर कोई ऐसी महत्वपूर्ण प्रतिभा जीवित नहीं रहती जिसके आधार पर वह कोई आदर्श या आध्यात्मिक पुरुषार्थ का उदाहरण उपस्थित कर सके। मानसिक व्यभिचार की बीमारी से ग्रसित लोग एक के बाद एक नीची सीढ़ी पर ही उतरते हैं, उनके विचार और कार्य दिन दिन दुर्बल ही होते जाते हैं। इन हानियों को ध्यान में रखते हुए आत्म विद्या के तत्व दर्शियों ने ब्रह्मचर्य एवं इन्द्रिय निग्रह को धर्म का अंग माना है। नारी के विषय में अशुभ चिन्तन की अपेक्षा पवित्र भावनाएं रखने का निर्देश किया है। गृहस्थों की भी भोग सीमा को मर्यादित किया है। यह सब प्रतिबंध आत्मनिर्माण की दृष्टि से आवश्यक है। धन के लोभ की भाँति, कामवासना पर नियंत्रण स्थापित करना व्यक्ति तथा समाज के स्वस्थ विकास में सहायक होने के कारण इन्हें धर्म का महत्व पूर्ण अंग मान लिया गया है।

इस संसार में सबसे बड़े स्थूल भौतिक प्रलोभन दो ही हैं। (1) लोभ (2) काम। इनसे यदि कोई व्यक्ति बच सके तो वह उसकी शारीरिक एवं मानसिक शक्तियों का अपव्यय एवं दुरुपयोग रुक सकता है। जिस प्रकार बूँद बूँद टपकने से घड़ा खाली हो जाता है और कन कन जोड़ते रहने से मन भर जमा हो जाता है, उसी प्रकार अपव्यय से बचाकर शरीर एवं मन की क्षमताओं को सन्मार्ग पर चलने दिया जाय तो साधारण प्रकार का जीवन यापन करते हुए भी मनुष्य आध्यात्मिक पूर्णता की ओर तेजी से बढ़ता रह सकता है।

मनुष्य की आत्मा तो ईश्वरीय अंश होने के कारण उन्हीं सब विशेषताओं और शक्तियों से परिपूर्ण है जो उसके उद्गम परमात्मा में है विशुद्ध हुई कोई आत्मा वही सब करने से समर्थ हो सकती है जो परमात्मा कर सकता है। अवतारी, देव पुरुष और ऋषि महर्षि इसी कक्षा में प्रवेश करने वाले जीव थे। इस ऊँची कक्षा का आत्मिक विकास मार्ग भिन्न होकर मानवता के धार्मिक आचरणों पर आधारित लोभ और काम से बचा लिया गया साधारण जीवन भी ऐसा होता है कि उसकी विशेषताओं को जन साधारण की तुलना में चमत्कारी ही कहा जा सकता है।

महाभारत में कथा आती है कि एक साधू अपने तपबल से गीले वस्त्रों को हवा में अधर लटकाकर कपड़े सुखाने की सिद्धि प्राप्त कर चुका था। एक दिन वह पेड़ के नीचे लेटा था। ऊपर डाली पर बैठी चिड़िया को तेज दृष्टि से देखा तो चिड़िया उस दृष्टि तेज में जल कर नीचे गिर पड़ी। अपनी इन सिद्धियों पर उसे बहुत अहंकार हुआ। एक दिन वह नगर में जिस घर भिक्षा माँगने गया उसमें गृह स्वामिनी पतिव्रता नारी अपने पति की सेवा में लगी हुई थी। उसने कहा महात्मा जी थोड़ी देर बैठ जाइए, पति सेवा करलूँ तब आपको भिक्षा दूँगी। स्त्री के इस वचन को साधू ने अपना अपमान समझा और क्रोधित होने लगा। साधु को क्रोधित देख कर गृह स्वामिनी ने कहा-महात्मन् में चिड़िया नहीं, पतिव्रता हूँ। अपना कर्तव्य पालन निष्ठा पूर्वक करती हूँ। मुझे आपके क्रोध से कुछ हानि नहीं पहुँच सकती।

साधु को आश्चर्य हुए कि उसने चिड़ियां जलाने की बात कैसे जानी। इस रहस्य को उसने विनय पूर्वक पूछा तो उसने कहा-अमुक नगर में अमुक नाम का वैश्य रहता है वह इसका रहस्य बतावेगा। साधू वहीं चल दिया। जाकर देखा तो एक बनिया अपनी दुकान चला रहा था। उसने साधु को देखते ही कहा-भगवन् मैं तो ईमानदारी से व्यवसाय करने वाला दुकानदार मात्र हूँ। आपके यहाँ आने का प्रयोजन जानने लायक सिद्धि मिली है वह तो इस ईमानदारी के व्यवसाय के कारण ही है। अधिक जानने के लिए आपको अमुक नगर में अमुक चाण्डाल के पास जाना पड़ेगा। साधु वही पहुँचा तो पिता माता की सेवा कार्य को भी पूर्ण निष्ठा से करते देखा। उस चाण्डाल ने बिना पूछे ही साधू के आगमन का प्रयोजन कह दिया और निवेदन किया कि वह योगाभ्यास तो नहीं जानता पर उसकी आत्मा कर्तव्य परायणता की साधना से ही इतनी पवित्र हो गई है कि उस से अनायास ही कितनी ऐसी बाते प्रकट होने लगी हैं जो साधारण लोगों में नहीं होती। पतिव्रता स्त्री ईमानदार वैश्य और कर्तव्य परायण चाण्डाल की उत्तम जीवन यापन साधना का महत्व तब साधु की समझ में आया और जाना कि वह साधारण दिखने वाली बातें भी किसी बड़े योगाभ्यास की भाँति ही शक्तिशाली हैं।

आत्म निर्माण का तात्पर्य तामसी प्रवृत्तियों से छुटकारा पाकर सर्वागुणी प्रकृति को अपनाना है। आध्यात्म विद्या का आधा भाग इसी प्रयोजन के लिए है। यह प्रयोजन जितना जितना पूर्ण होता जाता है मनुष्य की दैवी शक्तियाँ अपने आप उसी प्रकार निखरती जाती हैं जैसे अंगार के ऊपर जमी हुई राख को हटा देने से भीतर की दहकती आग प्रत्यक्ष दिखाई देने लगती है, या जंग लगी तलवार पर से जंग छुड़ा दी जाय तो वह दमकने लगती है। संसार में अनेकों ऐसे महापुरुष हुए हैं। जिनने यद्यपि कोई योगाभ्यास नहीं किया था अपने उज्ज्वल चरित्र और स्वस्थ मनोभूमि के कारण महापुरुषों की श्रेणी में पहुँचे और संसार में महा कार्य प्रतिपादित कर सकने में समर्थ हुए। यदि उन्हीं की शारीरिक और मानसिक दिशाएं कुमार गामिनी रही होती तो निश्चय ही वे सदा महापुरुष ने होकर कोई चोर, डाकू, भोग-विलासी धनी-अमीर मात्र बनकर जिंदगी के दिन पूरे करके अपने पीछे निन्दा की सम्पत्ति छोड़ कर मरे होते।

आत्म निर्माण का लाभ कम लाभ नहीं है व्यक्ति के अपनी साँसारिक सुख शाँति एवं उन्नति के लिए यह परम उपयोगी है। इन्द्रियों पर संयम रखना, नियमितता, प्राकृतिक जीवन की अभिरुची इसी प्रवृत्ति के द्वारा संभव है और स्पष्टतः स्वास्थ्य और दीर्घ जीवन का यही मार्ग है। लोभ से बचकर ही मनुष्य ईमानदार उदार, परोपकारी, कर्तव्य परायण रह सकता है, जो ऐसा है उस पर सर्वत्र विश्वास किया जाएगा, उसके कंधे पर दुनिया बड़ी से बड़ी जिम्मेदारी डालते हुए प्रसन्नता अनुभव करेगी, उन्नति का यही सीधा रास्ता है। ईमानदारी से व्यापार चला सकते हैं। ईमानदारी से पदोन्नति होती है। ईमानदार पर हर कोई विश्वास करता है और उसके साथ साझा, सहयोग करने को उद्यत होता है। ईमानदार पर दूसरे कृपा करते हैं और अनायास ही उसकी उन्नति की, समृद्धि में सहयोग करते हैं। कभी कभी कुछ ईर्ष्यालु लोग उनसे चिढ़ते और हानि पहुँचाते भी देखे गये हैं, पर ऐसे लोग या अवसर कम ही सामने आते हैं। ईमानदारी से अन्ततः मनुष्य लाभ से ही रहता है। बेईमानी की नीति काठ की हाँडी की तरह एक बार ही विश्वासघात का लाभ उठा सकती है, दूसरी बार लोग उनसे सावधान हो जाते हैं और फिर उसके लिए किसी का विश्वास और सहयोग प्राप्त करना कठिन हो जाता है। चोर उठाईगीरों की जिंदगी ही एक तरह से बरबाद हो जाती है।

नारी मात्र के प्रति पवित्र भावना रखकर काम विकार से बचे रहने वाले व्यक्ति समाज में भव्चरित्र और शूरवीर आदर्शवादी एवं जीवटदार माने जाते हैं। ऐसे लोग अपनी आत्मा के सामने ही नहीं जन समाज के सामने भी सीना चौड़ाकर गर्व से मस्तक ऊंचा उठाकर स्वाभिमानी, धर्म परायण और एक बड़े प्रलोभम की विजय करने वाले सफल सेनापति की तरह सम्मान के अधिकारी होते हैं। उनकी हर बात में बल रहता है और हर कोई उनसे प्रभावित होता है। निर्लोभ होने की भाँति ही इन्द्रिय निग्रही होना भी इस संसार की एक बहुत बड़ी बहादुरी है। इन अग्नि परीक्षाओं में उत्तीर्ण लोग खरे सोने की तरह चमकते हैं, आदर पाते हैं और समाज में अपने लायक उचित स्थान उपलब्ध कर लेते हैं। जो इन परीक्षाओं में खोटे उतरे वे कितने ही चतुर, विद्वान, गुणवान क्यों न हो सर्वत्र संदेह और अविश्वास की दृष्टि से ही देखे जाते रहे हैं। जन मानस में अपनी स्थिति आदरणीय बनाये बिना निश्चय ही कोई व्यक्ति ऊँचा नहीं उठ सकता, आगे नहीं बढ़ सकता। बेईमानी के व्यापार देर तक नहीं चलते वे आज नहीं तो कल असफल होकर ही रहते हैं। नारी मात्र के प्रति पवित्र दृष्टि रखना एक उच्च कोटि की नैतिक ईमानदारी है। इस कसौटी पर खरा उतरने वाले के लिए लौकिक उन्नति के अनेकों प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष साधन उत्पन्न होते चलते हैं। मानसिक शक्तियों के क्षरण का रुकना और उनका विकासोन्मुख होना तो प्रत्यक्ष लाभ स्पष्ट ही है।

अत्याचारी लोगों के दाम्पत्ति जीवन में कितनी निष्ठा, आत्मीयता एवं शाँति रहती है, इसे बेचारे अनपढ़ लोग क्या समझ पायेंगे ? उनका गृहस्थ जीवन गरीबी में भी अमीरी के आनंद और संतोष से भरा होता है। ऐसे परस्पर संतुष्ट दंपत्ति ही स्वस्थ मन की संतान उत्पन्न कर सकते हैं। जिन स्त्री पुरुषों में खिचाव तनाव, क्षोभ अविश्वास बना रहता है उनकी सन्तानें अनेक मानसिक दोषों और दुर्गुणों से त्रस्त देखी गई हैं। व्यभिचार जन्म संतानें आम तौर से कुपात्र और चरित्रहीन निकलती हैं। वैश्याओं के गर्भ से आज तक कोई महापुरुष जन्मते नहीं सुना गया। यदि हमें अपने कुल उज्ज्वल करने हैं, संतान सुख प्राप्त करने की कामना है तो भी यौन सदाचार की रक्षा करनी ही होगी। यह स्मरण रखने की बात है कि शारीरिक संयम तक का ही सदाचार अपूर्ण है। मानसिक व्यभिचार से दूर रहे बिना, मजबूरी का ब्रह्मचर्य थोथे चने की भाँति है जिसकी बाहरी शक्ल तो अवश्य होती है पर भीतर जीवन कुछ भी नहीं होता। शारीरिक असंयम कुछ देर ही शरीर का क्षरण करता है पर मानसिक व्यभिचार तो निरन्तर ही वह हानि पहुँचाता रहता है।

अध्यात्म विद्या का प्रथम भाग, आत्म निर्माण की आवश्यकता, न केवल लौकिक वैयक्तिक, समाजिक जीवन में उत्कर्ष के लिए है वरन् उसके दूसरे भाग साधना द्वारा शक्ति उद्भव करने के लिए भी वह आवश्यक शर्त है। सूक्ष्म और कारण शरीरों में जिन रहस्य मय ऋद्धि-सिद्धियों का अक्षय भण्डार भरा हुआ है उनका खुलना भी उन्हीं के लिए संभव है जिसने लोभ और काम पर विजय प्राप्त करके आत्म निर्माण किया है। राजयोग में पहले (1) पाँच नियम (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह) और (2) पाँच नियम (शक्ति, संतोष, तप, स्वास्थ्य, ईश्वर प्रणिधान) आवश्यक बनाये गये हैं। इनकी साधना हो जाने पर ही (3) आमन, (4) प्राणायाम, (5) प्रत्याहार (6) धारणा (7) ध्यान (8) समाधि का अष्टांग योग पूर्ण होता है और तभी साधक उन अलौकिक दिव्य शक्ति सामर्थ्यों को प्राप्त करने का अधिकारी बनता है।


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