संकल्प बल कैसे बढ़ाएं?

February 1960

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(एक साधक)

सब तरह के आध्यात्मिक साधन का आधार मन के संयम और नियंत्रण पर रहता है। मन ही इन्द्रियों का स्वामी है और इन्द्रियाँ उस हालत में सुमार्ग पर चल सकती हैं जब कि मन कुमार्ग गामी न हो। यदि मन हमारे वश में नहीं है, उच्छृंखल है, तो उससे कोई भजन साधन ठीक तरह से हो सकना असंभव है और उस हालत में आत्मोन्नति की आशा ही व्यर्थ है।

सत्संग

मन को साधने में बहुत कुछ सहायता ऐसे पुरुषों की संगति से मिल सकती है जिन्होंने हमसे अधिक उन्नति करली है और जिनकी मानसिक शक्ति हम से बहुत अधिक बड़ी चढ़ी है। उच्च विचार वाला पुरुष हमें वास्तविक सहायता दे सकता है, क्योंकि जिस प्रकार के कम्प (गति) हम पैदा कर सकते हैं, उससे अधिक उच्च प्रकार के कम्प (गति) वह पुरुष पैदा करके जगत में प्रेरित करता रहता है। पृथ्वी पर पड़ा हुआ लोहे का टुकड़ा अपने आप गरम नहीं हो सकता, पर वह अग्नि के समीप रख दिया जाता है तो उष्ण कम्पों को ग्रहण करके गरम हो जाता है।

उसी प्रकार जब हम किसी शक्तिशाली विचार वाले महापुरुष के पास पहुँचते हैं, तो उसके मानसिक कम्पन हमारी देह पर प्रभाव डालते हैं और उसमें भी वैसे ही सजातीय कम्प उत्पन्न कर देते हैं। इस कारण हमारा स्वर उनसे मिल जाता है अर्थात् उनके और हमारे मन में एक ही प्रकार के संकल्पों की प्रेरणा होती है। उस समय ऐसा प्रतीत होता है कि हमारी मानसिक शक्ति बढ़ गई है और हममें ऐसे सूक्ष्म भावों को ग्रहण करने की सामर्थ्य आ गई है जो साधारण अवस्था में हमारी समझ आ सकने में बहुत कठिन थे। किन्तु जब हम फिर अकेले रह जाते हैं तो सूक्ष्म भाव ग्रहण करने की शक्ति फिर गायब हो जाती है।

श्रोतागण एक बड़े व्याख्यानदाता का भाषण सुनने जाते हैं, उसे भली प्रकार समझते जाते हैं और उसके सार को तत्काल बुद्धि में ग्रहण कर लेते हैं। वे प्रसन्न होकर लेक्चर से वापिस जाते हैं और दिल में समझते हैं कि आज हमें ज्ञान का उत्कृष्ट लाभ हुआ। पर अगले दिन जब वे किसी मित्र से उस व्याख्यान की चर्चा करते हैं, तो वे उन बातों को स्पष्ट रूप से नहीं बतला सकते, जो कल उनकी समझ में भली प्रकार आई थी। उस समय उनको यही कहना पड़ता है कि निःसंदेह कल मैंने व्याख्यान का आशय भली प्रकार समझ लिया था, पर आज वह पकड़ में नहीं आता।” इसका कारण यही होता है कि व्याख्यानदाता के भावों का अनुभव हमारे मानसिक शरीर और जीवात्मा को तो हो चुका है, पर वह अभी इतना शक्तिशाली नहीं हुआ है कि हम उसको बाह्य रूप में भी स्पष्ट प्रकट कर सकें। पहले दिन जब हम व्याख्यान के असली मर्म को भली प्रकार समझ रहे थे तब सामर्थ्यवान उपदेशक के शक्तिशाली कम्पों ने जिन रूपों की रचना की थी और उनको हमारी मानसिक देह ने ग्रहण कर लिया था। पर दूसरे दिन जब उन बातों को दोहराने में असमर्थता प्रतीत होती है तो इससे यह प्रकट होता है कि हमको उन विचारों को कई बार दोहराना चाहिये। वैसे भाषण कर्ता और श्रोता में एक ही शक्ति काम कर रही है, किन्तु एक ने उसे उन्नत बना लिया है और दूसरे में वह सोई हुई शिथिल पड़ी हुई है। ऐसी शिथिलता किसी बलवान व्यक्ति की शक्ति का संसर्ग होने से तेज हो सकती है।

अपने से अधिक उन्नत पुरुषों की संगति से दूसरा लाभ यह भी होता है कि उनके संसर्ग से हमारा कल्याण होता है और उनके उत्साह प्रदायक प्रभाव से हमारी वृद्धि होती है। इस रीति से सद्गुण शिष्यों को अपने समीप रख कर जो लाभ पहुँचा सकते हैं, वह केवल भाषण द्वारा उपदेश करने की अपेक्षा कहीं अधिक होता है। यदि इस प्रकार बिल्कुल निकट रहने का अवसर न मिल सके तो पुस्तकों द्वारा भी बहुत कुछ लाभ उठा सकते हैं। पर पुस्तकें भी सावधानी के साथ चुनी जानी चाहिये। किसी वास्तविक महापुरुष के ग्रन्थ को पढ़ते समय हमें पूर्ण रीति से शिष्य की भावना रखनी उचित है। अर्थात् हमको अपना चित्त ऐसी निरपेक्ष अवस्था (साम्यावस्था) में रखना चाहिये कि जिससे हम उसके संकल्पों के कम्पों को, जहाँ तक संभव हो ग्रहण कर सकें। जब हम शब्दों को पढ़ चुकें तो हमें चाहिये कि उन पर ध्यान देवें, उनका चिन्तन करें, उनके असली आशय को अनुभव करें, उनके तमाम गुप्त अर्थों को उनमें से निकाल लेवें। हमारी चित्त वृत्ति एकाग्र होनी चाहिये ताकि शब्दों के अवसरण को छोड़कर हम ग्रंथकर्ता की चित्त वृत्ति का भाव ग्रहण कर सकें। इस प्रकार का पाठ करना अथवा पढ़ना शिक्षा का काम देता है और हमारी मानसिक उन्नति में बड़ा सहायक होता है। जिस पाठ में इतना प्रयत्न नहीं किया जायगा वह दिल को बहलाने वाला और हमारे ज्ञान भण्डार को कुछ बढ़ाने वाला ही हो सकता है, पर उससे हमारी उतनी मानसिक उन्नति और वृद्धि नहीं हो सकती जैसी कि पूर्ण चिन्तन और मनन द्वारा संभव होती है।

एकाग्रता

मन की शक्ति को बढ़ाकर संकल्पों को जोरदार बनाने का दूसरा साधन है चित्त की एकाग्रता। हम ऊपर इस बात को दिखला चुकें हैं कि जिन विषयों की ओर वृत्ति लगाई जाती है, उन्हीं के रूप को मानसिक देह ग्रहण कर लेती है। पातंजलि योग सूत्र में “चित्तवृत्ति के निरोध” का यही अभिप्राय है कि बाह्य सृष्टि के मनोरम प्रतिबिंबों को जो प्रतिक्षण पलटते रहते हैं रोका जावे। मानसिक देह की निरन्तर चंचल वृत्तियों को रोकना, और नियत विशेष ध्येय के आकार में उनको संलग्न अथवा स्थित करना, एकाग्रता का प्रथम अंग है। यह एकाग्रता जड़रूप (मानसिक) देह से सम्बन्ध रखती है। उसको चित्तवृत्ति के साथ इतना संयुक्त करना चाहिये कि वह हमारे अन्तर में उतर जावें। यह एकाग्रता का दूसरा अंग होता है।

एकाग्रता के अभ्यास में अपने चित्त को केवल एक ही मूर्ति (रूप) पर टिकाया जाता है। अभ्यास करने वाले (ज्ञाता) का पूरा ध्यान एक ही लक्ष्य पर बिना हल चल के दृढ़ता पूर्वक स्थिर किया जाता है। बाह्य विषयों से आकर्षित होकर चित्त को निरन्तर इधर उधर जाने और भिन्न भिन्न बातों की चिन्ता करने से रोका जाता है। इसके लिये इच्छा शक्ति का प्रयोग करना पड़ता है कि वह मन के अन्यत्र भटकते ही उसे पुनः खींच कर लक्ष्य पर ले आवे।

जब चित्त एक मूर्ति को स्थिरता से धारण कर लेता है, और ज्ञाता (अभ्यास) एकाग्र भाव से उसका ध्यान करता है, तो उसको ध्येय वस्तु का इतना ज्ञान हो जाता है जितना किसी अन्य वाचिक वर्णन (बातचीत) से नहीं हो सकता। किसी चित्र या प्राकृतिक दृश्य का जितना साँगोपाँग ज्ञान उसके प्रत्यक्ष दर्शक से होता है उतना उसके वर्णन को पढ़ने अथवा सुनने से नहीं हो सकता। पर यदि हम ऐसे वर्णन पर चित्त को एकाग्र कर लें तो उसका चित्र मानसिक देह पर बन जायेगा, और तब हमको जितना लाभ होगा उतना केवल शब्दों का पाठ करने से नहीं हो सकता। शब्द तो किसी विषय के संकेत मात्र हैं और उन पर मनन करने से उनकी मूर्ति हमारे मन में उत्पन्न हो सकती है। अगर हम उस पर बराबर ध्यान लगाते रहें तो वैसे वैसे ही उसका रूप हमारे मन में अधिकाधिक स्पष्ट होता जायेगा और हम उसके विषय में कही अधिक ज्ञान प्राप्त कर लेंगे।

संकल्प शक्ति का विकास करने के जो अनेक मार्ग हैं उनमें सत्संग अथवा स्वाध्याय तथा चित्त को एकाग्र बनाना मुख्य है, क्योंकि उनको मनुष्य थोड़े प्रयत्न से कहीं भी प्राप्त कर सकता है। चित्त के एकाग्र होने से प्रत्येक प्रकार के जप और भजन का फल स्पष्ट देखने में आता है।


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