अपने गुरु स्वयं बनिये

February 1960

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(श्री लक्ष्मी नारायण टंडन ‘प्रेमी’ एम. ए.)

बच्चा जब पैदा होता है तो उसकी बुद्धि, उसका ज्ञान, उसकी समझदारी गीली मिट्टी के लोंदे के समान होती है जिसका निर्माण किसी भी रूप आकार में कुम्हार अपनी इच्छा के अनुसार कर सकता है। अपने चारों ओर के वातावरण से धीरे-धीरे शिशु सीखता रहता है और उसकी बुद्धि क्रमशः परिपक्व होती रहती है। यह सीखने का कार्य मानव के सारे जीवन भर चलता रहता है। हम एक बुजुर्ग के अनुभव को महत्व क्यों देते हैं। क्योंकि उसने दुनिया हमसे अधिक देखी है। दुनिया की ठोकरों से उसने अधिक सीखा है। संसार की अच्छाइयों बुराइयों ने उसकी आँखें अधिक खोली हैं।

बड़ा होने के बाद मनुष्य पढ़ता है, लिखता है। वह दूसरों के अर्जित ज्ञान से लाभ उठाता है। पर पुस्तकीय ज्ञान व स्वअर्जित ज्ञान होता है। जो उसने अपनी आंखें, कान और मस्तिष्क को खुला रखकर प्राप्त किया है। कहावत भी है कि पढ़ने से गुनना अधिक काम आता है।

अपना सुधार, अपना संस्कार मनुष्य स्वयं करता है। हम किसी के कहने से कदाचित् ही अपने को परिवर्तित करते हों। हम किसी की बात ग्रहण करते हैं या उसे अग्रह समझते हैं तभी जब हमारी निज की बुद्धि हमें वैसे करने को कहती हैं और यह ठीक भी है। ‘सुनो सब की करो मन की’ कहावत का उद्देश्य ही यही है।

गिवन ने कहा है कि ‘प्रत्येक मनुष्य को दो प्रकार की शिक्षाएं मिलती हैं, एक वह जो वह दूसरों से ग्रहण करता है, और दूसरी वह जो वह स्वयं अपने को देता है और निश्चय ही दूसरी शिक्षा अधिक महत्वपूर्ण है।”

बहुत से लोगों की प्रवृत्ति अंतर्मुखी नहीं होती। बहुत से लोगों की प्रकृति ग्रहणशील नहीं होती। ऐसे ही लोगों के लिए कहावत कही गई है कि ‘गुजर गई बिसर गई।’ उनके सुधार की आशा कैसे की जा सकती है जिन्हें अपनी शक्तियों को समझने की क्षमता ही न हो। जो अपने को ही नहीं समझ सकते वे भला दूसरों को क्या समझेंगे। ऐसे आदमियों पर जब उन्हीं की गलती के फलस्वरूप कोई कष्ट या दुर्भाग्य की आँधी आती है तो उनके हाथ पैर फूल जाते हैं। वे क्या करें और क्या न करें यह नहीं समझ पाते। उन्हें अपने पर विश्वास ही नहीं होता। मन की बुद्धि तो सदा दूसरों के हँकाये हकती रही है। कवि वर्डसवर्थ ने कहा है कि ‘वे दो चीजें जो देखने में तो विरोधी लगती है पर वे अवश्य साथ ही साथ चलेगी और वे है मानवोचित स्वतंत्रता और मानवोचित परतंत्रता, मानवोचित आत्मनिर्भरता और मानवोचित परामितता।’ मनुष्य को दूसरों के ज्ञान से अवश्य लाभ उठाना चाहिए, दूसरों के अनुभव, बुद्धि ज्ञान पर उसे अवश्य निर्भर रहना चाहिए, पर साथ ही साथ अपनी स्वयं की बुद्धि, सोचने विचारने की शक्ति तथा निर्णय करने की क्षमता को ताक पर उठाकर नहीं रख देना चाहिए। दूसरों को गुरु अवश्य बनाओ, पर अपने गुरु बिना स्वयं बने काम नहीं चलेगा, ठीक से काम नहीं चलेगा।

सर वाल्टर स्काट ने कहा है कि प्रत्येक मनुष्य की शिक्षा का सर्वोत्तम भाग वह है जो वह स्वयं अपने को देता है।” अन्धानुकरण बुरा है। किसी ने सत्य कहा है कि समझदारी से नास्तिक होना अच्छा है। पर नासमझी में आस्तिक होना भी लाभप्रद नहीं है। कोई जो कुछ कहता है उसे करने या मानने के पहले अपनी बुद्धि से भी तो उसको निर्धारित करने की क्षमता रखो। अपना मार्ग स्वयं प्रशस्त करो, अपने मार्ग का स्वयं निर्माण करो। दूसरों के बनाये फावड़े, कुदाली, हथौड़ी ढलिया, आदि का अवश्य उपयोग करो पर उनकी सहायता से मार्ग स्वयं ही बनाओ। तुम एक काम केवल इसलिए मत करो, एक बात केवल इसीलिए मत मानों क्योंकि उसे तुम्हारे पिता, गुरु या बड़ा कहता है। आज्ञा पालन धर्म है अवश्य पर अपनी बुद्धि, अपनी आत्मा अपने मन की सलाह लेना उससे बड़ा धर्म है।

सैमुएल स्माइल्स ने अपनी पुस्तक ‘सेल्फ-हेल्प’ में कहा है कि जो शिक्षा हम स्कूल तथा कालेज में पाते हैं वह तो केवल प्रारम्भिक शिक्षा मात्र है। उसका महत्व विशेष रूप से इसीलिए है क्योंकि उससे मस्तिष्क को ट्रेनिंग (प्रशिक्षण) मिलती है और वह हमें अनवरत बनाती है इसमें शिक्षा कार्य की निरन्तरता भी दी जाती है वह निश्चय ही हमारी ‘उतनी’ नहीं होती बनिस्बत उसके जो हम स्वयं अर्जित करते हैं। वह ज्ञान जो परिश्रम के फलस्वरूप प्राप्त किया जाता है वह हमारे अधिकार की वस्तु होती है- एक ऐसी सम्पत्ति जो केवल हमारी होती है। वह प्रयत्न जो प्रत्यक्ष रूप से हमारी होती है, वही प्रमुख और महत्वपूर्ण वस्तु है। दी हुई सुविधाएं, पुस्तकें, न शिक्षक गण, रटे-रटाए पाठ हमें सक्षम बना सकेंगे उस समय तक जब तक हम अपने ही प्रयत्नों से अपनी ही बुद्धि तक मस्तिष्क से उन्हें प्राप्त न करेंगे।

हमें अपने ही पैरों पर खड़े होना चाहिए। अधिक अनुभव पर ही हमें अधिक निर्भर रहना चाहिए हमारे इस कहने का तात्पर्य यह नहीं है कि गुरु का महत्व ही नहीं है, गुरु की आवश्यकता ही नहीं है। गुरु की आवश्यकता, उपयोगिता तथा पूजनीयता तो सर्वमान्य है ही हमारे एक महर्षि ने जो कुत्ता बिल्ली आदि तक शिक्षा से ग्रहण किया था। और यह दृष्टान्त ही इस बात का द्योतक है कि मनुष्य को ग्रहणशील प्रकृति का होना चाहिए। उसे जो जहाँ से अच्छा मिले उसे निःसंकोच ग्रहण करना चाहिए। अर्थ यही होता है कि आपको अपने गुरु स्वयं बनना पड़ेगा और बनना चाहिए भी।

भगवान ने आखिर हमें बुद्धि काहे के लिए दी है? इसी के लिए कि हम उसका प्रयोग करें। यह भगवान ही की इच्छा है। उसकी इच्छा को न समझना, वैसा न करना तो ईश्वर विमुखता है। अतः अंतर्मुखी प्रवृत्ति, ग्रहणशील प्रकृति, अपने को तथा अपने चारों ओर के फैले वातावरण को समझने और उससे लाभ उठाने की क्षमता, आत्म-निर्भरता अनुभवों को बटोरने और उन्हें अपने जीवन की प्रगति के हथियार के रूप में काम में लाने की समझदारी प्रत्येक मनुष्य के लिए आवश्यक है, अनिवार्य है।

संसार की ठोकरें भी बुरी नहीं होती, बशर्ते वह आँखें खोल दें। एक शायर ने ठीक कहा है “लात दुनिया ने जो मारी, बन गया दीदार (धार्मिक) वह, थी बुरी ठोकर मगर शैतान, रुखसत हो गया।”

आत्म अनुभव, आत्म शिक्षण मनुष्य को कठिनाइयाँ और विरोधों के बीच शान्त और संतुलित बुद्धि का रहने की योग्यता देता है और वह क्या कम बात हुई। अतः अपने गुरु स्वयं बनिये।


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