आध्यात्म से जीवन समस्याओं का हल

February 1960

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(महात्मा करुणानंद सरस्वती)

अनेक लोग कहा करते हैं कि यह संसार दुःखों का घर है। यहाँ आकर मनुष्य को तरह तरह के बन्धनों में फँस कर व्याकुलता पूर्ण जीवन बिताना पड़ता है। इसमें सुख तो नाम मात्र का है और दुख तथा क्लेश सदा ही सहन करने पड़ते हैं। कभी धन की कमी से भर पेट भोजन न मिलने का रोना रहता है, तो कभी अन्धाधुन्ध खाने और भोग से शरीर में तरह तरह की व्याधियाँ उत्पन्न हो कर कष्ट देने लगती हैं। कभी सन्तान न होने से मन में खिन्नता रहती है तो कुछ समय बाद पुत्र की काली करतूतें तमाम इज्जत और प्रतिष्ठा को धूल में मिला कर बदनामी की गठरी सिर पर लाद देती हैं। इसलिए संसार को एक सा समझना ठीक नहीं, यह सुख दुख, आशा और निराशा, हर्ष और शौक का सम्मिश्रण है। तो भी इसके मुख प्रायः दिखावटी और क्षणिक होते हैं और उनका अंतिम परिणाम प्रायः दुःखपूर्ण ही होता है।

इन दुखों के निवारण के लिए लोग प्रायः विचार किया करते हैं। अनेक लोग इसी के लिए जप-तप, पूजा, प्रार्थना आदि का सहारा लेते हैं। पर इसमें न तो सब लोगों को सफलता मिलती है और न इसका परिणाम स्थायी ही होता है। वास्तव में सुख और दुख ऊपरी चीज नहीं है वरन् उसका संबन्ध हमारे आत्मा और अन्तरात्मा से है। अगर हमारे अन्तःकरण में शाँति है तो हमें संसार की अधिकाँश बातें और परिस्थितियाँ सुख रूप ही जान पड़ेंगी और अगर मन में अशाँति अथवा असंतोष है तो राजमहल का जीवन भी घोर यंत्रणादायक प्रतीत होगा इसलिये जो लोग स्थायी सुख और शाँति के इच्छुक हैं उनको आत्मा के स्वरूप को जानने और उसकी वाणी को सुनने का प्रयत्न करना चाहिये। इस प्रकार की आध्यात्मिकता ही मनुष्य को तुच्छ साँसारिक विषयों से ऊपर उठाकर जीवन में वास्तविक सुख और शाँति का समावेश कर सकती है। इस विषय की विवेचना करते हुए एक बड़े विद्वान ने लिखा है-

व्रत और प्रार्थना को आराधना नहीं कहा जा सकता। उसके लिये तो सबसे पहली आवश्यकता पवित्र और आकुल हृदय की है। कस्तूरी मृग के अन्दर होती है, पर वह समझता है कि सुगन्धि कहीं बाहर से आ रही है, इसलिये वह उसकी खोज में पागल बन जाता है। इसी प्रकार ईश्वर हमारे हृदय में निवास करता है, उसका अनुभव करने के लिये हमको अन्तर्मुख होना चाहिये। परमात्मा की आराधना के लिये मूर्ख मनुष्य जंगल, पहाड़, नदी, झील आदि दुर्गम स्थानों में सुन्दर फल ढूंढ़ता हुआ फिरता है, पर वह इस बात का विचार नहीं करता कि उसके पास ही भेंट चढ़ाने के लिये एक बहुत सुन्दर कमल का पुष्प है। यह पुष्प उसका मन है। मनुष्य को चाहिए कि वह अपने को एक जीता जागता यज्ञ बनावे। हम कोई भी दूषित, अपवित्र, विकृत और अपूर्ण वस्तु भगवान को अर्पण नहीं कर सकते। हमको यह समझ लेना चाहिये कि भगवान का मंदिर पवित्र है और हम स्वयं ही वह मंदिर हैं। उसमें से हमें एक ऐसे चरित्र का निमार्ण करना है जो बड़ी बड़ी कठिनाइयों में भी उज्ज्वल रहे। अगर ऐसा नहीं किया जायगा तो जीवन ऐसी निरर्थक और ऊटपटाँग घटनाओं का एक संग्रह बन जायगा जिनका कोई विशेष उद्देश्य नहीं है। ऐसे जीवन से कोई लाभ नहीं। जो बात जीवन को महत्वपूर्ण बनाती है वह है एक उच्च उद्देश्य। हमारा मुख्य कर्तव्य यही है कि जिन रुकावटों से उस उद्देश्य की पूर्ति में बाधा पड़ती हो उनको दूर करते हुये चलें। ........ऐसी ही मनुष्यता जीवन को जीने योग्य बनाती है। वह मनुष्यता शारीरिक स्वास्थ्य और धन-सम्पत्ति से भी अधिक मूल्यवान है। सचमुच बड़े लोग वे नहीं हैं जिनके पास अधिक धन है, या जो अधिक बुद्धिमान हैं, या जिनकी समाज में अधिक प्रतिष्ठा है। ईश्वर लोगों को इसलिये छोटा नहीं समझता कि वे गरीब और कम बुद्धि वाले है। महत्व की बात तो यह है कि कहाँ तक हमने दूसरों के साथ उदाहरण का व्यवहार किया है और हम अपने और दूसरों के साथ कहाँ तक ईमानदार और सच्चे रहे हैं।”

जो लोग अपनी आत्मा की आवाज सुनने और तदनुकूल व्यवहार करने का प्रयत्न नहीं करते वे कितने भी बड़े क्यों न हो जायें उनकी प्रतिष्ठा दिखावटी ही रहती है और समय-समय पर वे स्वयं भी इस बात को अनुभव करते है। उनको प्रायः अपने भीतर किसी बात का अभाव खटकता रहता है। वे इस बात के लिये संसार को दोषी बनाते हैं और कहा करते हैं कि यहाँ सब अपने-अपने स्वार्थ पर निगाह रखने वाले हैं, सच्चा प्रेम करने वाले कोई नहीं है। और वास्तव में बात ऐसी ही होती है कि अवसर पड़ने पर ऐसे लोगों के स्त्री, बच्चे भी उन का साथ नहीं देते उनको अपने जीवन में सच्चे सुख के दर्शन नहीं होते और वे दिन पर दिन अधिक दुखी होते जाते हैं। प्रकट में चाहे उनके चेहरे पर मुस्कुराहट क्यों न दिखाई पड़े और वे लोगों पर रौब तथा शान क्यों न गाँठते रहें, पर उनके हृदय में व्यथा और वेदना छिपी रहती है। जहाँ उनकी उम्र कुछ अधिक हुई कि उनको अपना जीवन निरर्थक जान पड़ने लगता है, और उनके भीतर संसार से चले जाने की एक अप्रत्यक्ष भावना पैदा होने लगती है। जब हम उनके अंतिम परिणाम पर दृष्टि डालते हैं तो उनकी अपेक्षा उन लोगों का जीवन कही अधिक धन्य जान पड़ता है जो दूसरों के लिये दुःख सहन करते, कष्ट पाते और रोते रहते हैं। इससे मनुष्य को संसार की वास्तविकता का ज्ञान होता है और वे कष्ट सहन द्वारा अपनी आत्मा को पवित्र तथा उन्नत बनाने में समर्थ होते हैं। इसके विपरीत जो लोग अपने को किसी प्रकार से बड़ा समझ कर दीन−हीन लोगों के प्रति उपेक्षा का भाव रखते हैं वे कमी आध्यात्मिक जीवन में विशेष अग्रसर नहीं हो सकते इस सम्बन्ध में निम्नलिखित विचार ध्यान देने योग्य हैं-

“कमजोर और असहाय लोगों की सहायता करने की प्रवृत्ति, परिष्कृत स्वभाव के लोगों की, एक विशेषता होती है। कोई मनुष्य दूसरे के हृदय की बात नहीं जानता, फिर वह उसके सम्बन्ध में निर्णय कैसे दे सकता है? हम दूसरे लोगों को उनके शब्दों या कार्यों से ही जानते हैं। हम उनके विचारों को नहीं जान सकते। उनके हृदय में कौन सी मूक भावनाएँ काम कर रही हैं, यह हम नहीं जानते। उनकी आत्मा के गुप्त-प्रदर्शन तक हमारी पहुँच नहीं है जब तक मनुष्य दूसरे के अनुभव को स्वयं भी प्राप्त न कर ले तब तक वह उसे जान नहीं सकता। फिर किस व्यक्ति का जीवन इतना पवित्र और चरित्र निष्कलंक है कि वह दूसरों के विषय में निर्णय ले सके? अगर आध्यात्मिक दृष्टि से विचार किया जाय तो हममें से कोई भी ऐसा नहीं निकलेगा जो दण्ड से बच सके। जब कोई शक्तिशाली पाशविक प्रवृत्ति हमको अविवेकी बना देती है तब हम बड़ी विचित्र परिस्थिति में पड़ जाते हैं और ऐसा कार्य कर बैठते हैं जिसे हम दूसरों के लिये दण्डनीय समझते हैं।

इस लिये हमारा कर्तव्य यही है कि हम पवित्रता और पुण्यात्मा होने के मिथ्या अभिमान को त्याग कर उन लोगों की सहायता करने को तत्पर रहें जिन्हें संसार ने स्वार्थ अथवा उपेक्षा वश निकृष्ट समझ रखा है। हमको स्मरण रखना चाहिये कि सबसे अधिक दुष्ट मनुष्य के अंदर भी उस दिव्य शक्ति की एक चिनगारी होती है। यही कारण है कि अनेक इतिहास प्रसिद्ध दुष्ट और भोग विलासी व्यक्ति अकस्मात् परिवर्तित होकर सच्चे ज्ञानी और महात्मा बन गये। इतना ही नहीं यदि हम स्वयं सच्चा आध्यात्मिक जीवन व्यतीत करना चाहते हैं उसके लिये भी दीन हीन और पतित कहलाने वालों की सहायता और सेवा से बढ़कर और कोई मार्ग नहीं है। यही कारण है कि भगवान स्वयं पतित पावन कहे जाते हैं। शास्त्र में भी आत्मज्ञानी व्यक्ति का लक्ष्य यही बतलाया गया है-

न त्वहं कामये राज्यं न स्वर्ग न पुनर्भवम्।

कामये दुख तप्तानाम् प्राणिनाम आर्तनाशनम्॥


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