(डॉ. चमनलाल गौतम)
इमन्युएल काण्ट जर्मनी के प्रसिद्ध दार्शनिकों में से हुए हैं। उन्होंने दर्शन संबंधी बहुत पुस्तकें लिखी हैं। एक पुस्तक के उपसंहार में वह लिखते हैं कि मुझे दो बातों से भय लगता है। पहली यह कि रात्रि के समय जब मैं नक्षत्र खचित आकाश की ओर देखता हूँ तो मेरे मन में विचार उत्पन्न होते हैं कि इन लाखों और करोड़ों सितारों की रचना करने वाली शक्ति कितनी महान होंगी? इस विशालतम सृष्टि की रचना की कल्पना भी नहीं की जा सकती। जब एक ओर उस सर्वशक्तिमान की असीम शक्तियों के बारे में सोचता हूँ और दूसरी ओर अपनी क्षुद्र और सीमित शक्तियों पर नजर डालता हूँ तो मुझे भय लगता है कि वह सृष्टि की रचना करने वाला कितना महान है और मैं कितना छोटा हूँ।
दूसरी बात जिससे भय लगता है, यह है कि जब मैं कोई अनुचित कार्य करता हूँ तो मेरे अन्दर से एक आवाज आती है कि यह कार्य तुम्हें नहीं करना चाहिए, यह अनुचित है। वह आवाज इतनी शक्तिशाली होती कि मुझ पर अपना हुक्म चलाती है। जब मैं इस संबंध में गम्भीरता पूर्वक विचार करता हूँ तो प्रतीत होता है कि यह मेरे अंतर से आनी वाली आवाज मुझ से किसी महान शक्ति के द्वारा प्रसारित होती है।
काण्ट लिखते हैं कि इन दोनों बातों से उन्हें भय लगता है और उनका अनुमान है कि सृष्टि की रचना करने वाली महान शक्ति और मेरे अन्तर से प्रेरणा देने वाली शक्ति दोनों एक है। परन्तु इनका कोई वैज्ञानिक तथ्य प्राप्त नहीं होता और बुद्धि से इसका समाधान भी नहीं होता, इसलिये मैं इसको मानने के लिये तैयार नहीं हूँ। वह मान भी कैसे सकते हैं? बुद्धि तो तर्क-वितर्क करती है। अनुभव से ही विश्वास की नींव पक्की होती है।
भारतीय ऋषियों का आधार अनुभव था, अनुमान नहीं। जिस बात को इमेन्युएल काण्ट ने अनुमान मात्र कहकर छोड़ दिया, उसकी अनुभूति लाखों वर्ष पहिले भारतीय ऋषियों ने यहाँ कर ली थी। वह अनुभूति स्थल लाखों और करोड़ों आत्माओं का तारक गायत्री मंत्र है। गायत्री मंत्र के अर्थ पर विचार करने पर यह बात स्वयमेव सिद्ध हो जाती है। भूः भुवः स्वः- पृथ्वी, अन्तरिक्ष और द्युलोक, तीन लोकों की रचना करने वाले ॐ रूपी परमात्मा है। उनकी वरणीय ज्योति का हम ध्यान करते हैं। क्यों करते हैं? उनसे हमारा क्या संबंध है? इसलिये कि वह ‘धियो यो नः प्रचोदयात्’ हमारी यह है कि जो सृष्टि की रचना करने वाले हैं वही हमारी बुद्धि के प्रेरक हैं। इन दोनों शक्तियों में कोई अन्तर नहीं है।
जिस बात को काण्ट अनुमान के साथ कहते हैं, उसे गायत्री मंत्र के ऋषि निश्चय के साथ कहते हैं कि ऐसा ही है क्योंकि यह उनकी साक्षात अनुभूतियों का परिणाम है।
गायत्री मंत्र के अर्थ पर कुछ और गम्भीरता पूर्वक विचार करें तो प्रतीत होता है कि इससे तीन बातों का ज्ञान होता है- 1. ‘सवितुर्वरेण्यं भर्ग’ वह तेजस्वी वरण करने योग्य और पाप नाशक शक्ति अर्थात् परमात्मा तत्व। 2. ‘धियो यो नः’ जीव का बुद्धि तत्व 3. ‘प्रचोदयात्’ परमात्मा और बुद्धि बल को मिलाने वाला प्रेरक संबंध। एक अखिल ब्रह्माण्ड का केन्द्र है, दूसरा जीवन का केन्द्र। तीसरा उनको मिलाने वाला प्रचोदयात्मक तत्व।
गायत्री मंत्र वह दिव्य शक्ति है जो मनुष्य की क्षुद्रताओं को नष्ट करती है, मलिनताओं को धोती है, उसके आसुरी तत्वों को समाप्त कर दैवी तत्वों का विकास करती है। क्षुद्र से क्षुद्र प्राणी की अनुभूति है कि छोटे से छोटे अनुचित कार्य करते हुए उसके अपने अन्दर से एक आवाज आती है कि यह कार्य अविवेक पूर्ण है। इससे उसको या समाज को हानि होगी। यह उसे करना न चाहिए। लोभ के वशीभूत होकर मनुष्य घृणित से घृणित कार्य करने पर उतारू हो जाता है परन्तु एकबार यह आवाज अवश्य आती है। गायत्री मंत्र का साधक उसे स्पष्ट और शक्तिशाली रूप में अनुभव करता है। साधना और तप के अभाव से वह उस आवाज के अनुसार भले ही आचरण न कर सके परन्तु यह निश्चित है कि वह अपनी कमी को अनुभव करता है। यह सफलता की पहली सीढ़ी है। प्रायः देखा जाता है कि लोग अपनी कमियों और कमजोरियों का अनुभव ही नहीं करते, उनके मानस क्षेत्र में अंधकार का पर्दा पड़ा रहता है। उनके दोष उन्हें दोष ही दिखाई नहीं देते, दोषों की निवृत्ति कैसे हो? गायत्री का साधक ज्यों-ज्यों आगे बढ़ता जाता है त्यों-त्यों उसे अपने दोष स्पष्ट दिखाई देने लगते हैं। उसकी आत्मा उसे निरंतर नोचती रहती है। एक दिन वह भी आ जाता है कि उसे छोड़ने पर उतारू हो जाता है। जिस बात को साधारण व्यक्ति एक कठिन समस्या मानते हैं, गायत्री के सहायक के लिए वह एक सहज बात होती है क्योंकि गायत्री मंत्र मनुष्य के स्थूल तत्व को कम करके सूक्ष्म तत्व को विकसित करता जाता है। सूक्ष्म तत्व के विकास होने पर शक्ति की वृद्धि होती है। शक्ति वृद्धि होने पर दोषों और दुर्गुणों के विरुद्ध संघर्ष करने और उन पर विजय पाने की शक्ति प्राप्त होती है। ज्यों-ज्यों यह सामर्थ्य बढ़ती जाती है त्यों-त्यों मनुष्य अणु से महान बनता जाता है। यही गायत्री मंत्र की साधना का उद्देश्य और यही उसकी अनुभूति है।
गायत्री मंत्र की साधना से अंतःकरण में एक दिव्य-ज्योति की उत्पत्ति होती है जो हृदय गत अंधकार को नष्ट करती है, जिस प्रकार से साबुन से कपड़े उजले हो जाते हैं, झाड़ू से कमरे को साफ किया जाता है, उसी प्रकार से गायत्री मंत्र रूपी दिव्य साबुन मन रूपी कपड़ों को साफ करता है। यह ऐसा चमत्कारी दिव्य झाड़ू है कि मन रूपी कमरे में जो दुर्गुण, दोष आसक्ति राग-द्वेष सभी कूड़ा पड़ा हुआ है, उसको धीरे-धीरे निकाल देता है। यह कूड़ा-करकट निकलने के बाद ही मन भगवान के बैठने योग्य पवित्र आसन बनता है। गायत्री मंत्र की साधना भगवान को बुलाने का एक प्रकार का निमन्त्रण पत्र है क्योंकि इससे बुद्धि शुद्ध व पवित्र होती है और ऐसे साधक को परमात्मा का साक्षात्कार होता है।