(श्री रामखेलावन चौधरी)
शारीरिक स्वास्थ्य जीवन में आवश्यक है परन्तु उससे कहीं अधिक मानसिक स्वास्थ्य की आवश्यकता है। मनोवैज्ञानिक खोजों से यह सिद्ध हो चुका है कि यदि मनुष्य का मन स्वस्थ नहीं है, तो शरीर भी स्वस्थ नहीं रह सकता। बहुत से लोग सिर दर्द, अपच, भूख की कमी, जोड़ों के दर्द तथा इसी प्रकार के अन्य रोगों से कष्ट पाते रहते हैं, परन्तु जब वे डाक्टरों के पास जाकर अपने शरीर के विभिन्न अंगों की जाँच करवाते हैं, तो उन्हें यह जानकर आश्चर्य होता है कि शरीर में कहीं कोई खराबी नहीं है। वास्तव में उनके कष्ट का कारण कोई न कोई मानसिक विकार होता है और डॉक्टर कोई दवा देकर उसे दूर करने में असमर्थ होता है। प्रायः वह यही कह देता है कि आपको कोई रोग नहीं है, खाइये, पीजिये, ठीक हो जायेगा। वास्तव में ऐसे लोगों को मानसिक उपचार की आवश्यकता है। मानसिक उपचार के अंतर्गत औषधियों को कोई स्थान नहीं प्राप्त है। उसके लिये आवश्यक है मनुष्य के दृष्टिकोण में परिवर्तन। यह काम कुछ परिस्थितियों में मनोवैज्ञानिकों को सौंपा जा सकता है क्योंकि वे ही ऐसी विधियों से अवगत होते हैं जिनसे किसी व्यक्ति के जीवन के प्रति उसके दृष्टिकोण को बदला जा सकता है। मानसिक स्वास्थ्य के लिए मनोवैज्ञानिकों पर बहुत अधिक निर्भर रहना, बहुत उचित नहीं कहा जा सकता। मनोवैज्ञानिक तो केवल पागलों, असाधारण मानसिक असंतुलन की दशा वाले व्यक्तियों का उपचार करने में विशेष होता है। उसका काम इतना खर्चीला होता है कि सामान्य मानसिक स्वास्थ्य के लिए उसकी सेवायें प्राप्त करना कठिन है। यदि साधारण जन कुछ बातों का ध्यान रखें तो वे अपने आप मानसिक स्वास्थ्य की रक्षा मनोवैज्ञानिकों की सहायता के बिना ही कर सकते हैं। अतः हम इन बातों पर संक्षेप में प्रकाश डालेंगे।
सबसे पहले हमें यह जानना चाहिए कि मनुष्य का मन कैसे बनता है और उसकी शक्ति का स्रोत क्या है? अब से दो-सौ वर्ष पहले प्राच्य तथा पाश्चात्य दर्शन और धर्म की मान्यता यह थी कि ‘मन’ और ‘शरीर’ दो अलग-अलग संज्ञाएं हैं। शरीर नाशवान है परन्तु ‘मन’ आत्मा की शक्ति है, जो शरीर के नष्ट होने पर अपना काम बन्द कर सकती है परन्तु नष्ट नहीं होती। जीव-विज्ञान की खोजों के फलस्वरूप इस मान्यता में परिवर्तन हो गया है। मन-शक्ति भी शरीर का एक धर्म है। उसका निवास मस्तिष्क और स्नायु मंगल में होता है। इन शरीराँगों के सबल-निर्बल या नष्ट होने पर मन भी सबल निर्बल और नष्ट होता है, ऐसा आधुनिक मनोवैज्ञानिकों का विश्वास है। हो सकता है कि इस मान्यता पर कुछ लोग विश्वास न करें। परन्तु इतना तो मानना ही पड़ेगा कि मन और शरीर का अन्योन्याश्रित संबंध है। यों तो शरीर के गुण अधिकाँश रूप में वंश परम्परा के अनुसार निश्चित होते हैं परन्तु जन्म के बाद से मनुष्य जैसी वायु, जल और भोजन का सेवन करता है, उसका प्रभाव शरीर पर पड़ता है और शरीर के अनुसार मस्तिष्क बनता है तथा मस्तिष्क के अनुरूप मन बनता है। भारतीय साहित्य में सात्विक, राजसिक और तामसिक भोजनों की चर्चा है। इन तीन प्रकार के भोजनों से तीन प्रकार का मन बनता है। स्पष्ट है कि प्राचीन काल में भी विद्वानों का विचार था कि शरीर का मन से संबंध है परन्तु उस बात को ठीक वैज्ञानिक तरीके से समझाया नहीं गया था।
मनोवैज्ञानिक प्रयोगों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला गया है कि यदि मनुष्य निरन्तर अशुद्ध वायु का सेवन करता रहे, तो उसका रक्त दूषित हो जायेगा, उसके मस्तिष्क को शुद्ध रक्त न मिलने से उसकी मानसिक क्रियाएं निर्बल हो जायेंगी। बुद्धि का विकास रुक जायेगा, अवधान शक्ति नष्ट होगी, एकाग्रता भी न पैदा हो सकेगी, आलस्य बढ़ जायेगा, शरीर पर गन्दी वायु के प्रभावों से मन पर भी प्रभाव पड़ेगा। मदिरा का सेवन करने से तर्क और चिन्तन की शक्ति निर्बल पड़ जाती है। मनुष्य की मानसिक दशा ऐसी हो जाती है कि वह व्यावहारिक जीवन व्यतीत करने में असमर्थ हो जाता है। अन्त में वह सामाजिक परिस्थितियों के साथ साम्य स्थापन नहीं कर पाता। पास-पड़ोस, सगे-संबंधी, ईष्ट-मित्र सभी उसे त्यागने लगते हैं और अन्त में उसका मानसिक स्वास्थ्य पूर्णतया नष्ट हो जाता है। विभिन्न खाद्य पदार्थों का भिन्न-भिन्न प्रभाव मन पर पड़ता है। कोई मनुष्य की संवेगात्मक शक्तियों को बल देता है, जैसे क्रोध को उद्दीप्त करता है, कोई काम शक्ति को अनावश्यक रूप से जाग्रत करता है, कोई मन को स्थिर बनाता है। इन सब बातों से स्पष्ट है कि मानसिक स्वास्थ्य को उत्तम बनाने के लिए प्रत्येक मनुष्य को शुद्ध वायु, बल तथा भोजन की व्यवस्था रखनी चाहिये। खेद की बात है कि आजकल बहुत कम लोगों का ध्यान इस ओर आता है। शहरी जीवन ऐसा खराब हो गया है कि लोग भेड़-बकरियों की तरह रहते हैं, घर का बना शुद्ध ताजा भोजन न पसंद करके होटलों और जलपान गृहों की खाक छानते घूमते हैं, तम्बाकू और चाय का इतना अधिक सेवन होने लगा है कि मनुष्य अपनी आय का एक बड़ा अंश इन पर फूँक देता है। खानपान संबंधी इन आदतों को दूर किये बिना मानसिक स्वास्थ्य अच्छा नहीं बनाया जा सकता।
शुद्ध वायु, जल और भोजन के संबंध में अच्छी जानकारी प्राप्त करने के लिए सत्संबंधी साहित्य यदा-कदा पढ़ते रहना चाहिए, यद्यपि इस संबंध में मनुष्य का दृष्टिकोण सदा प्रयोगात्मक रहना चाहिए। थोड़ा विवेक से काम लेने पर मनुष्य अपनी कठिनाइयों का हल अपने आप निकाल सकता है। उदाहरण के लिए यदि आप की आय कम है, आप कोई अच्छा मकान खुली जगह में बनवा नहीं सकते और अधिक किराया देकर कोई हवादार बंगला नहीं ले सकते जिससे आपको किसी घनी आबादी वाले मोहल्ले में रहना पड़ता है, तो रोने से काम नहीं चल सकता। सवेरे तड़के उठकर खुले मैदान या पार्क में जाकर शुद्ध वायु और धूप का सेवन किया जा सकता है। यही बात खान-पान के लिए सत्य है। मनुष्य को अपने लिए भोजन की मात्रा और प्रकार का निश्चय कर लेना चाहिए। यदि ध्यान पूर्वक मनुष्य प्रायोगिक तौर पर एक अवधि तक एक प्रकार का भोजन करता रहे, तो उससे यह जान सकेगा कि वह भोजन उसके मन को स्वस्थ रखने में कहाँ तक सहायक हो सकता है। बाद में वह अपने भोजन के विषय में कोई निश्चित निर्णय कर सकता है।
श्रम-विश्राम का ध्यान रखना भी बहुत आवश्यक है। अत्यधिक श्रम से, चाहे वह शारीरिक हो या मानसिक, मनुष्य अपना मानसिक संतुलन खो बैठता है। सीमा से अधिक काम करते रहने पर मानसिक शक्तियाँ कुण्ठित हो जाती हैं। मनोवैज्ञानिक प्रयोगों ने सिद्ध कर दिया है कि अधिक श्रम करने और निरन्तर करने से स्नायु दुर्बल हो जाते हैं। सोचने, कंठस्थ करने, कल्पना करने की और दूसरी शक्तियाँ जवाब दे देती हैं। इसलिए आप जो काम करें इस बात का ध्यान रखें कि यदि अपनी कार्यकुशलता घट रही है और काम की उत्तमता गिर रही है तो काम बन्द कर दीजिए। यदि आप एक काम लगातार छः घंटे करते हैं, तो उसकी उत्तमता, उस काम की उत्तमता से कम होगी यदि वह अलग-अलग दो या तीन टुकड़ों में किया गया है। जिस काम में अधिक एकाग्रता और गम्भीर चिन्तन आवश्यक होता है, उसे अधिक समय तक नहीं किया जा सकता। देर तक काम करने से वह याँत्रिक बन जाता है।
मानसिक स्वास्थ्य के लिये विश्राम भी उतना ही आवश्यक है जितना कि भोजन। विश्राम से मनुष्य खोई हुई शक्ति पुनः वापिस पा जाता है। विश्राम के अंतर्गत सोना, निश्चल लेटना, मौन रहना आदि बात आ जाती है। इन्हें कितनी देर करना चाहिए, इसकी सीमा नहीं निर्धारित की जा सकती। जिस व्यक्ति में जीवनी शक्ति अधिक होती है, वह काम भी अधिक कर सकता है और उसे कम विश्राम की आवश्यकता होगी। इसलिए आवश्यकतानुसार ही विश्राम करना चाहिए। आप प्रायोगिक तौर पर विश्राम की सीमा निर्धारित कर सकते हैं। अधिक धन कमाने के लोभ, मनोरंजन की लत और अनियमित जीवन के कारण विश्राम की ओर से मनुष्य उदासीन हो जाता है। अन्त में उसकी जीवनी शक्ति नष्ट होगी और मानसिक शक्तियाँ कुण्ठित हो जायेंगी। आप ठीक से न सोयें तो आपकी स्मृति, ध्यान और बुद्धि पर प्रभाव पड़ेगा और उन्माद का रोग लग सकता है। इसलिए मानसिक स्वास्थ्य के लिए विश्राम आवश्यक है।