मानव की सद्वृत्तियों एवं शक्तियों को जगाना आवश्यक है।

December 1960

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(श्री अगरचन्द नाहटा)

संसार विचित्रताओं का भण्डार है। प्रकृति ने प्रत्येक प्राणी में रूप, रंग, आकृति, आवाज, रुचि आदि की भिन्नता रखी है, जिससे प्रत्येक व्यक्ति का अपना-अपना व्यक्तित्व सिद्ध है। अर्थात् बहुत बातों में समानता होने पर भी कुछ बातों में ऐसा मौलिक भिन्नता या विशेषता पाई जाती है, जिससे उनकी स्वतंत्र रूप से पहचान हो सके।

वैसे तो समय-समय पर मानव की रुचि और मान्यता पर अच्छाई और बुराई आधारित है। पर बहुत सी बातें ऐसी भी होती हैं, जिन पर देश, काल एवं परिस्थिति का प्रभाव नहीं पड़ता। कोई बुरी बात सब समय के लिए बुरी ही मानी जाती है, तो कई अच्छी बातें भी चिरकाल से अच्छी ही मानी जाती रही है। अच्छाई और बुराई का भी संबंध जुड़ा हुआ सा है। एक ही व्यक्ति में कुछ बातें भली हैं, तो कुछ बुरी भी मिलती है। सब समय व्यक्ति के भाव एक जैसे ही नहीं रहते। अतः अच्छा व्यक्ति बुरा भी बन जाता है और बुरा अच्छा। इससे यह सिद्ध होता है कि प्रत्येक व्यक्ति में बुराई के साथ अच्छाई भी रहती है और सदा के लिए कोई व्यक्ति बुरा ही नहीं होता।

भारतीय मनीषियों ने मानव की वृत्त एवं प्रवृत्तियों को दो या तीन भागों में बाँट दिया है। वे हैं दैवी और आसुरी तथा सात्विक, राजसिक, तामसिक। ये इनके ग्रंथोक्त भेद हैं। प्रकृति से ही प्रत्येक मानव में अच्छी और बुरी वृत्तियों का चक्र चलता रहता है, उसे देवासुर संग्राम कहा गया है।

दुष्ट व्यक्तियों में भी सात्विक भाव होते अवश्य हैं। इस बात का हम इस तरह से भी अनुभव कर सकते हैं कि पवित्र वातावरण एवं सन्तपुरुषों की संगति में रहने से दुष्ट भी शिष्ट बन जाते। इससे यह मालूम होता है कि सात्विक भाव उसमें विद्यमान अवश्य था, पर वह दबा हुआ था, जो अच्छे निमित्त को पाकर प्रकट हो गया। इसलिए महापुरुषों ने पापियों से घृणा न कर, पाप से घृणा करने का उपदेश दिया है। सन्त-महात्माओं ने सदा यही काम किया है। उन्होंने जनता की सोई या दबी हुई अच्छी वृत्तियों एवं शक्तियों को जागृत एवं प्रकट कर दिया है। इसके लिये सबसे पहले उन्होंने अपने जीवन को ऊंचा उठाया, महान साधना की। क्योंकि व्यक्ति का प्रभाव बिना उसमें विशेष गुण प्रकट हुए, दूसरों पर यथेष्ट रूप में नहीं पड़ता। साधक का कान, असाधक के लम्बे व्याख्यानों से भी अधिक प्रभावशाली होता है, क्योंकि उसके पवित्र जीवन से दूसरों के हृदय में उनके लिये आदर एवं भक्ति-भाव स्वयं प्रकट हो जाता है और उस आदर-भाव से प्रकट होने के बाद उस व्यक्ति का एक-एक शब्द जादू-का-सा असर करता है। हम देखते हैं कि ‘अंगुलिमाल’ जैसा भयानक डाकू और महान घातक भी भगवान बुद्ध से संपर्क में आते ही साधु-पुरुष बन जाता है। इसी तरह ‘अंगुलिमाल’, भगवान महावीर का शिष्य बन जाता है, जो कि सात व्यक्तियों की हत्या रोज करता था। अर्थात् महापुरुषों के उपदेश, सत्संग या घटना विशेष से हृदय में परिवर्तन हो जाता है।

इस युग में भी महात्मा गाँधी जैसे युग-प्रवर्त्तक महापुरुष हुए, जिन्होंने अहिंसा सत्य एवं सेवा के द्वारा लाखों व्यक्तियों को अपना अनुगामी बना लिया। उनकी वाणी में इतना बल आ गया था कि लाखों व्यक्ति उनके संकेत मात्र से स्वराज के लिये प्राणों का बलिदान देने को तैयार हो गये उसी के परिणाम स्वरूप भारत स्वतंत्र हुआ। आज भी महामना विनोबा, जो मानव में रही हुई सद्वृत्तियों पर अटल विश्वास रखते हैं, हजारों लाखों व्यक्तियों के प्रेरणा केन्द्र हैं। जो काम सरकार नहीं कर सकती, हजारों व्यक्ति, सत्ता एवं अधिकार के बल पर नहीं किया जा सकता, वह काम उन्होंने मानव-हृदय को उद्बुद्ध करके सहज ही में कर दिखाया है। लाखों एकड़ भूमि, उन्होंने गाँव-गाँव घूमकर लोगों का हृदय परिवर्तन करके प्राप्त कर ली है। कइयों ने तो जीवन दान तक दे दिया है। हृदय परिवर्तन एवं सद्वृत्तियों को जागृत करने का यह अनुपम उदाहरण है।

हाल ही में कई बड़े-बड़े डाकू आत्मसमर्पण करते हुए उनके शरणापन्न हो गये। इस युग का यह महान चमत्कार मानव में रही हुई सद्वृत्तियों के प्रति आस्था पैदा करता है और उन वृत्तियों को जागृत करने का महान संदेश देता है।

हम देखते हैं कि माँ का कुक्षि से जन्म ग्रहण करते ही कोई भी बच्चा दुष्ट नहीं होता। सरल एवं भोला सा लगने वाला सीधा लड़का, क्रमशः आस-पास के वातावरणादि से दुष्ट बन जाता है। अनेक कुसंस्कार उसमें प्रवेश कर जाते हैं। बुरी आदतें पड़ जाती हैं। इसलिए संग का अभाव बड़ा काम करता है, यह तो प्रत्यक्ष ही है। चाहे कुछ देरी से हो या कम मात्रा में हो, पर सत्संग का प्रभाव भी इसी तरह पड़ेगा ही। इसलिए संत-समागम में आते रहने से आत्मा की सद्वृत्तियों के जागृत होने में बड़ी सहायता मिलती है। यह प्रत्येक व्यक्ति के अनुभव का विषय है, अतः सत्संग के महात्म्य पर विशेष लिखने की आवश्यकता नहीं प्रतीत होती।

आत्मा अनन्त शक्तियों का भण्डार है। उसका हमें ज्ञान व भान नहीं है। अभ्यास से शक्तियों का विकास होता है। नारी को अबला कह कर उसे पुरुषार्थ हीन बना दिया गया, अन्यथा शक्ति की उसमें कमी नहीं। इसी तरह प्रत्येक व्यक्ति की गुप्त शक्तियों को जागृत कर उसे सन्मार्ग में लाने की परमावश्यकता है।

विज्ञान ने आज बहुत से बहुत आविष्कार करके परमाणु की अनन्त शक्ति को प्रत्यक्ष कर दिया है। जब भौतिक जड़ पदार्थों में भी इतनी महान शक्ति है एवं अभी और अनंत संभावनाएं हैं तो चैतन्य स्वरूप आत्मा की शक्ति का तो पार ही नहीं है। हमारे ऋषि-मुनियों के प्राप्त विवरणों से उसका कुछ आभास हमें मिल ही जाता है। योगसूत्र के विभूतिपाद में एवं जैनागमों में जो शक्तियों का विवरण है उससे स्पष्ट है कि अभी तक विज्ञान भी बहुत सी बातों में वहाँ तक पहुँच नहीं पाया है। देवों एवं विद्याधरों में तो अचिन्त्य शक्ति थी ही पर मनुष्यों में भी आध्यात्मिक शक्तियाँ इतनी विकसित हो चुकी थी कि आकाश में उड़ने के लिए वायुयानों आदि वाह्य साधनों के बिना केवल मंत्र, विद्या या इच्छा बल से ही जहाँ जाना हो वायुयानों की गद्दी से भी पहले पहुँच सकते थे। अवधिज्ञान मनपययि एवं केवल ज्ञान की शक्ति देखें तो आज का ज्ञान-विज्ञान उनके सामने कुछ भी नहीं है। कहने का आशय यही है कि आत्मा में अचिन्त्य एवं अनन्त शक्ति है, उन्हें जागृत एवं प्रकट करना है। सद्वृत्तियों, सद्गुणों का विकास करना है, हृदय परिवर्तन की कला प्राप्त करनी है जिससे मानव मात्र का मंगल हो।


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