हिमालय का हृदय-धरती का स्वर्ग

December 1960

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(कोई एक)

बहुत दिन पूर्व किसी मासिक पत्रिका में एक लेख पढ़ा था जिसका शीर्षक था- ‘स्वर्ग इस पृथ्वी पर ही था।’ लेखक ने धार्मिक या आध्यात्मिक दृष्टि से नहीं, यह लेख भूगोल और इतिहास को दृष्टि में रखकर लिखा था। उसमें अनेकों युक्तियों से यह सिद्ध किया था कि- ‘हिमालय का मध्य भाग प्राचीन काल में स्वर्ग कहलाता था। आर्य लोग मध्य एशिया से तिब्बत होकर भारत में आये थे। उन दिनों हिमालय इतना ठंडा न था, पिछली हिमप्रलय के बाद ही वह हिमाच्छादित हो जाने के कारण मनुष्यों के लिए दुर्गम हुआ है। इससे पूर्व वहाँ का वातावरण मनुष्यों के रहने योग्य ही नहीं, अनेक दृष्टियों से अत्यन्त सुविधाजनक एवं शोभायमान भी था। इसलिए आर्यों के प्रमुख नेतागण-जिन्हें देव कहते थे- इसी भूमि में निवास करने लगे। गंगा यमुना के दुआवा, आर्यावर्त और जम्बूद्वीप में बसे हुए अपने साथियों और अनुयायियों का मार्ग दर्शन वे यहीं रहकर करते थे। सम्पत्ति, आयुध ग्रंथ तथा अन्य आवश्यक उपकरण वे यहीं सुरक्षित रखते थे ताकि आवश्यकतानुसार तथा समयानुसार उनका उपयोग समतल भूमि भिखारियों के लिए होता रहे और वे वस्तुएं युद्ध के समय दस्युओं, असुरों अनार्यों के हाथ न लगने पावे। देवताओं के राजा की पदवी ‘इन्द्र’ होती थी। प्रत्येक इन्द्र का सिंहासन इस हिमालय के हृदय प्रदेश स्वर्ग में ही होता था।

इस लेख में यद्यपि अनेकों प्रबल युक्तियाँ थीं, पर उस समय वे अपने मन में उतरती नहीं थी, क्योंकि जिस स्वर्ग की इतनी महिमा गाई गई है, जिसे प्राप्त करने के लिए हम इतना त्याग और तप करते हैं क्या वह इसी पृथ्वी का एक साधारण क्षेत्र मात्र होगा? फिर स्वर्ग को एक लोक कहा गया है। लोक का अर्थ है, पृथ्वी से बहुत दूर अंतरिक्ष में स्थित कोई ग्रह नक्षत्र जैसे स्थान। इसके अतिरिक्त मानव की अन्तरात्मा में अनुभव होने वाली सुख शान्ति को भी स्वर्ग माना जाता है। फिर हिमालय के एक भाग विशेष को स्वर्ग कैसे माना जाए?

लेकिन उसे पढ़कर यह एक बात कुछ समझ में आई कि आध्यात्मिक दृष्टि से स्वर्ग कोई लोक विशेष हो सकता है, सुख शाँति की अमुक आन्तरिक स्थिति को भी स्वर्ग कहा जा सकता है पर यही शब्द पृथ्वी के किसी महत्वपूर्ण भाग के लिए प्रयुक्त हुआ हो, ऐसा भी हो सकता है। इस तथ्य पर विचार किया तो कई ऐसी बातें सूझ पड़ी जो पृथ्वी पर स्वर्ग होने की संभावना को प्रकट करती है।

राजा दशरथ अपनी पत्नी समेत इन्द्र की सहायता के लिए अपने रथ पर सवार होकर स्वर्ग गये थे। जब रथ का पहिया धुरी में से निकलने लगा तब साथ में बैठी हुई कैकयी ने अपनी उंगली धुरी के छेद में डालकर रथ को टूटने से बचाया था। एक बार अर्जुन भी इन्द्र की सहायता के लिए स्वर्ग गये थे, तब इन्द्र ने उर्वशी अप्सरा को उनके पास भेजकर उन्हें प्रसन्न करने का प्रयत्न किया था। एक बार इन्द्र का इन्द्रासन खाली होने पर नीचे से राजा नहुष को वहाँ ले जाया गया था और उन्हें वहाँ बिठाया गया था। त्रिशुँक भी सशरीर वहाँ पहुँचे थे। राजा ययाति सशरीर स्वर्ग गये थे। पर जब उन्होंने वहाँ अपने पुण्यों की बहुत प्रशंसा करनी आरंभ की तो उनके पुण्य क्षीण हो गये और उन्हें स्वर्ग से नीचे धकेल दिया गया। देवर्षि नारद बहुधा देव सभा में आया जाया करते थे। इस प्रकार के अनेकों उदाहरण ऐसे हैं जिनसे स्वर्ग में मनुष्यों का सशरीर आना-जाना सिद्ध होता है। देवता तो प्रायः नीचे आया ही करते थे। रामायण और भागवत में पचासों जगह देवताओं के पृथ्वी पर आने और मनुष्यों से संपर्क स्थापित करने के वर्णन आते हैं। अप्सराएं स्वर्ग से ऋषियों के आश्रमों में आती थीं और कइयों को मोहित करके उनके साथ रहती तथा संतान उत्पन्न करती थीं। शृंगी ऋषि को उनने मोहित किया था, विश्वमित्र के साथ रहकर मेनका ने शकुन्तला को जन्म दिया था। यह सूक्ष्म शक्ति वाले सूक्ष्म रूप वाले देवी-देवताओं का वर्णन नहीं है वरन् उनका है जो मनुष्यों की तरह ही शरीर धारण किये थे। चन्द्रमा और इन्द्र ने ऋषि पत्नियों से व्यभिचार किया और फलस्वरूप उन्हें शाप का भागी भी होना पड़ा था।

इन घटनाओं पर विचार करने पर ऐसा लगता है कि यदि स्वर्ग नामक कोई स्थान पृथ्वी पर भी रहा तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। यदि ऐसा न होता तो देवताओं का पृथ्वी पर और भूलोक वासियों का स्वर्ग में पहुँचना कैसे सम्भव रहा होता?

पुराणों में सुमेरु पर्वत का विस्तृत वर्णन आता है जिसमें कहा गया है कि देवता सुमेरु पर्वत पर रहते थे। पतंजलि योग प्रदीप में इसका वर्णन इस प्रकार किया गया है- ‘---मध्य में सुवर्णमय पर्वत राज सुमेरु विराजमान हैं। उस सुमेरु पर्वत राज के चारों दिशाओं में चार शृंग (पहाड़ की चोटी) हैं। उनमें जो पूर्व दिशा में शृंग है वह रजतमय है। दक्षिण दिशा में जो है वह वैदूर्यमणिमय है, जो पश्चिम दिशा में शृंग है वह स्फटिकमय (प्रतिबिम्ब ग्रहण करने वाला) है और जो उत्तर दिशा में शृंग है वह सुवर्णमय (या सुवर्ण के रंग वाले पुष्प विशेष के वर्ण वाला) है। ----सुमेरु पर्वत देवताओं की उद्यान भूमि है, जहाँ मिश्रवन, नन्दनवन, चैत्ररथ वन, सुमानसवन-चार वन हैं। सुमेरु के ऊपर सुधर्म नामक देवसभा है, सुदर्शन नामक पुर है और वैयरुनत नामक प्रसाद (देव महल) है। ----इसके ऊपर स्वर्ग लोक है जिसको महेन्द्रलोक कहते हैं। उसमें त्रिदश, अग्निष्बाद, याम्य, तुषित, अपरिनिर्मित वशवर्ती, परिनिर्मित वशवर्ती ये छः देवयोनि विशेष निवास करते हैं। ये सब देवता संकल्प सिद्ध अणिमादि ऐश्वर्य सम्पन्न और कल्पायुष वाले तथा वृन्दारक (पूजने योग्य) कामभोग और औपपादिक देह वाले हैं और उत्तम अनुकूल अप्सराएं इनकी स्त्रियाँ है --- सुमेरु अर्थात् हिमालय पर्वत उस समय की ऊंची कोटि के योगियों के तप का स्थान था।’

महाभारत में पाण्डवों के स्वर्गारोहण का विस्तार पूर्वक वर्णन है। स्वर्ग जाने के लिए द्रौपदी समेत पाँचों पाण्डव हिमालय में गये हैं। अन्य सब तो बीच में ही शरीर त्यागते गये पर युधिष्ठिर सर्वोच्च शिखर पर पहुँचे पर सशरीर स्वर्ग जाने में समर्थ हुए हैं। इन्द्र का विमान उन्हें स्वर्ग को ले गया है। यह स्वर्गारोहण स्थान सुमेरु पर्वत के समीप ही है। बद्रीनाथ से आगे तेरह मील चलने पर सीढ़ियों की तरह एक के ऊपर एक यह स्वर्गारोहण शिखर दिखाई पड़ते हैं। इन्हें स्वर्ग की सीढ़ियाँ भी कहते हैं चौखम्भा शिखरों को भी स्वर्ग की सीढ़ी कहा जाता है। इस प्रदेश से पहले यक्ष गंधर्व किन्नर रहते थे, जिनने स्वर्गारोहण के लिए जाती हुई द्रौपदी का अपहरण कर लिया था। भीम ने उनसे युद्ध करके द्रौपदी को छुड़ाया था।

पुराणों में सुमेरु के स्वर्णमय होने का वर्णन है। कवियों ने स्थान-स्थान पर सोने के पहाड़ के रूप में सुमेरु की उपमा दी है। अब भी इस हिमाच्छादित सुमेरु पर्वत पर पीली सुनहरी आभा दृष्टिगोचर होती है। देवताओं के कोषाध्यक्ष कुबेर देवता की नगरी अलकापुरी यहाँ से समीप ही है। अलकनंदा के उद्गम स्थल को अलकापुरी कहा जाता है। इससे भी प्रदेश में स्वर्ग होने की बात पुष्ट होती है।

सुमेरु पर्वत, स्वर्गारोहण, अलकापुरी, नन्दनवन यह सभी स्थान हिमालय के उस भाग में आज भी मौजूद हैं। इसे ही हिमालय का हृदय कहते हैं। इस स्थान को यदि प्राचीन काल में स्वर्ग कहा जाता हो तो असम्भव नहीं है। गंगाजी का उद्गम भी यह पुण्य क्षेत्र है। पुराणों में वर्णन है कि गंगा स्वर्ग से नीचे उतरी। गंगा ग्लेशियर इसी प्रदेश में फैला हुआ है। भगवती शिवजी के मस्तक पर उतरी इस आख्यान की भी पुष्टि इस तरह होती है कि शिवलिंग शिखर गोमुख से ऊपर है। गंगा वहीं होकर आती हैं। शिवलिंग शिखर के पास ही नन्दन वन है। नन्दन वन स्वर्ग में ही था इसका वर्णन पुराणों में आता है। नन्दिनी नदी वहीं बहती है। स्वर्ग में रहने वाली कामधेनु की पुत्री नन्दिनी के साथ इस नदी की कुछ संगति बैठती है। चन्द्र पर्वत इसी प्रदेश में है। कहते हैं चन्द्रमा पर्वत पर निवास किया करते थे। बद्रीनाथ क्षेत्र से मिले हुए सूर्य कुण्ड, वरुण कुण्ड, गणेश कुण्ड अब भी मौजूद हैं कहते हैं कि इन देवताओं का निवास इन-इन प्रदेशों में रहता था। केदार शिखर होकर इन्द्र का हाथी मिलते हैं। एक बार ऐरावत पर चढ़े हुए इन्द्र दुर्वासा ऋषि के आश्रम के समीप होकर गुजरे और ऋषि के स्वागत का तिरस्कार किया तो उन्हें दुर्वासा ऋषि ने शाप दे दिया था।

गंगोत्री से गोमुख की ओर चलते हुए मार्ग में यह विचार आया कि यदि किसी प्रकार सम्भव हो सके तो इस धरती के स्वर्ग के दर्शन करने चाहिये। भावना धीरे-धीरे अत्यन्त प्रबल होती जाती थी पर इसका उपाय न सूझ पड़ता था। गोमुख से आगे वह धरती का स्वर्ग आरंभ होता है। मीलों की दृष्टि से इसकी लम्बाई चौड़ाई बहुत नहीं है। लगभग 30 मील चौड़ा और इतना ही लम्बा यह प्रदेश है। यदि किसी प्रकार इसे पार करना सम्भव हो तो बद्रीनाथ केदारनाथ इसके बिलकुल नीचे ही सटे हुए हैं। यों बद्रीनाथ गोमुख से पैदल के रास्ते लगभग 250 मील है पर इस दुर्गम रास्ते से तो 25 मील ही है। ऊंचाई की अधिकता, पर्वतों के ऊबड़-खाबड़ होने के कारण चलने लायक मार्ग न मिलना तथा शीत अत्यधिक होने के कारण सदा बर्फ जमा रहना, रास्ते में जल, छाया, भोजन, ईंधन आदि की कुछ भी व्यवस्था न होने आदि कितने ही कारण ऐसे हैं जिनसे वह प्रदेश मनुष्य की पहुँच से बाहर माना गया है। यदि ऐसा न होता तो गंगोत्री, गोमुख आने वाले 250 मील का लम्बा रास्ता क्यों पार करते? इस 25 मील से ही क्यों न निकल जाते?

इस मार्ग से कितने ही वर्ष पूर्व स्विट्जरलैंड के पर्वतारोही दल ने चढ़ने का प्रयत्न किया था। उसे उस आरोहण में काफी कठिनाई का सामना करना पड़ा था। सुना था कि शिवलिंग पर चढ़ते हुए दल के एक कुली का पैर टूट गया था और एक आरोही केदार शिखर पर चढ़ते हुए बर्फ की गहरी दरारों में फंस कर अपने प्राण गंवा बैठा था। फिर भी उस दल ने वह मार्ग पार कर लिया था। इसके बाद दुस्साहसी हिम अभ्यस्त महात्माओं के एक दल भी उस दुर्गम प्रदेश को पार करके बद्रीनाथ के दर्शन कर चुके हैं।

साहस ने कहा-’यदि दूसरे इस मार्ग को पार कर चुके हैं तो हम क्यों पार नहीं कर सकते?’ बुद्धि ने उत्तर दिया- ‘उन जैसी शारीरिक और मानसिक सामर्थ्य अपनी न हो, ऐसे प्रदेशों का अभ्यास और अनुभव भी न हो तो फिर किसी का अन्ध अनुकरण करना बुद्धिमत्ता नहीं है।’ भावना बोली- ‘अधिक से अधिक जीवन का खतरा ही तो हो सकता है यह कोई बहुत बड़ी बात नहीं है। कहते भी हैं कि स्वर्ग अपने मरने से ही दीखता है। यदि इस धरती के स्वर्ग को देखने में प्राण संकट का खतरा मोल लेना पड़ता है तो कोई बड़ी बात नहीं है। उसे उठा लेना पड़ता है तो कोई बड़ी बात नहीं है। उसे उठा लेने में संकोच न करना चाहिए।’ व्यवहारिकता पूछती थी- ‘यक्ष भी दिये तो रास्ता कौन दिखावेगा? उतनी सर्दी को शरीर कैसे सहन करेगा? सोने और खाने-पीने की क्या व्यवस्था होगी? अब तक समुद्रतल से 11 हजार फुट ऊंचाई चढ़ी गई है। ऋषिकेश से यहाँ तक आने में 170 मील में 9 हजार फुट चढ़े जिससे पैरों के देवता कूच कर गये हैं। अब आगे 12 मील के भीतर 9 हजार फुट और चढ़ना पड़ेगा तो उस चढ़ाई की दुर्गमता पैरों के बस से सर्वथा बाहर की बात होगी।

इस प्रकार अंतर्द्वंद्व चल रहा था। निर्णय कुछ नहीं हो पा रहा था। प्रश्न केवल साहस का ही न था, अपनी सीमित शक्ति के भीतर भी वह सब है या नहीं, यह भी विचार करना था। मस्तिष्क सारी शक्ति लगाकर समस्या का हल खोज रहा था, पर कोई उपाय सूझ नहीं पड़ता था। अन्तरात्मा कहती थी कि-’अब धरती के स्वर्ग के बिलकुल किनारे पर आ गये तो उसके भीतर प्रवेश करने का लाभ भी लेना चाहिये। गंगातट पर से प्यासे लौटने में कौन समझदारी है। मरने पर स्वर्ग मिला या न मिला कौन जाने। यहाँ बिल्कुल ही समीप धरती का स्वर्ग मौजूद है तो उसका लाभ क्यों नहीं लेना चाहिये?’

स्मरण शक्ति ने इस दुर्गम पथ की स्थिति बताने वाला एक प्राचीन श्लोक उपस्थित कर दिया-

तत ऊर्ध्वंतु भृमीद्घ्रा मर्त्य संचार दूरगाः।

आच्छन्नाः संततस्थापि धनोत्तुँग महाहिमै॥

गोमुखी तो विशाला दूर्नाति दूरे विराजते।

तत्रायं गमने मार्गः सिद्धानाँचामृताँघसाम्॥

‘उस (गोमुख) से आगे के पर्वत अतीवस घन, ऊंचे और भारी बर्फ से ढके हैं। वे मनुष्य की पहुँच से बाहर हैं। उस ओर से बद्रीनारायण पुरी बहुत दूर नहीं है, लेकिन वह मार्ग मनुष्य के लिए असम्भव है, वह सिद्ध और देवताओं का मार्ग है। इस मार्ग से वे ही जाते है।’

‘अपने ऐसे भाग्य कहाँ जो इस सिद्ध और देवताओं के मार्ग पर चल सकें।’ इस प्रकार की निराशा बार-बार मन में आती थी, पर साथ ही आशा की एक बिजली सी कौंधती थी और कोई कहता था कि- ‘जाकी कृपा पंगु गिरि लंघहि, रंग चलें और छत्र धाराई’ वाली कृपा उपलब्ध होती है तो वह भूतल का दुर्गम प्रदेश ही क्या और भी ऊंचे से ऊंचे दुर्गम स्तरों को पार और प्राप्त किया जा सकता है।’

यह भाव जैसे-जैसे प्रबल होते गये वैसे-वैसे ही अन्तःकरण में एक नवीन आशा और उत्साह का संचार होता गया। सर्वशक्तिमान की सत्ता कैसी अपरम्पार है कि वह कामना पूर्ण होकर रही, वह दिन भी आया जब उस पुण्य प्रदेश में प्रवेश करके वह तन सार्थक बना। न भूलने योग्य उन क्षणों का जब भी स्मरण हो आता है तब रोमाँच खड़े हो जाते हैं, आत्मा पुलकित हो उठती है और सोचता हूँ कि प्रभु यदि उन्हीं आनन्दमय क्षणों में चिरशाँति प्राप्त हो जाती तो कितना उत्तम होता। पर जो कर्मफल अभी और भोगना है उसे कौन भोगता, यह सोच कर किसी प्रकार मन को समझाना ही पड़ता है।

इस पुण्य प्रदेश हिमालय के हृदय और धरती के स्वर्ग की यात्रा और स्थिति का वर्णन करने से पूर्व, इस क्षेत्र की महत्ता पर विचार करेंगे। जिस प्रकार हृदय में स्थित रक्त धमनियों के द्वारा सारे शरीर में फैलता है, जैसे उत्तर ध्रुव का चुम्बकत्व सारी पृथ्वी पर अपना आकर्षण फैलाये हुए है, लगता है कि उसी प्रकार हिमालय का यह हृदय अपने-अपने दिव्य स्पन्दनों के द्वारा दूर-दूर तक आध्यात्म तरंगों को प्रवाहित करता है।

जिस प्रकार हृदय के ऊपर कितने ही प्रकार के स्वर्ण रत्नों से जटित आभूषण धारण किये जाते हैं, उसी प्रकार इस हिमालय के हृदय के चारों ओर एक घेरे के रूप में कितने ही महत्वपूर्ण तीर्थों की एक सुन्दर शृंखला पहनाई हुई है। महाभारत के बाद जो तीर्थ इस क्षेत्र में अस्त-व्यस्त हो गये थे उनका पुनरुद्धार करने की प्रेरणा जगद्गुरु आद्य शंकराचार्य को हुई और उन्होंने कठिन प्रयत्न करके उन तीर्थों को पुनः स्थापित कराया। जिस प्रकार चैतन्य महाप्रभु ने ब्रजभूमि के विस्मृत पुण्य क्षेत्रों को अपने योग बल से पहचान कर उन स्थानों का निर्माण कराया था, उसी प्रकार जगद्गुरु शंकराचार्य को भी यह प्रेरणा हुई थी कि वे उत्तराखण्ड की विस्मृत देव भूमियों तथा तपोभूमियों का पुनरुद्धार करावें। वे दक्षिण भारत के केरल प्रान्त से चलकर उत्तराखण्ड आये और उन्होंने बद्रीनाथ आदि अनेकों मन्दिरों का निर्माण कराया। आज उत्तराखण्ड का जो गौरव परिलक्षित होता है उसका बहुत कुछ श्रेय उन्हीं को है।

इस ‘हिमालय के हृदय’ के किनारे-किनारे जितने तीर्थ हैं उतने भारतवर्ष भर में और कहीं नहीं हैं। देवताओं की निवास भूमि सुमेरु पर्वत पर बताई गई है। सुमेरु पर पहुँचना मनुष्यों के लिए अगम्य है। इसलिए जनसंपर्क की दृष्टि से कुछ नीचे उत्तराखण्ड की तपोभूमि में देवताओं ने अपने स्थान बनाये। राजा का व्यक्तिगत समय अपने राजमहलों में व्यतीत होता है, वहाँ हर कोई नहीं पहुँचता। पर राजदरबार का स्थान राजा जनकार्यों के लिए ही सुरक्षित रखता है। सुमेरु यदि देवताओं का राजमहल कहा जाए तो उससे कुछ ही नीचे के समीपतम देव स्थानों को राजदरबार कहा जा सकता है। उत्तराखण्ड के नक्शे पर एक दृष्टि डाली जाए तो यह निश्चय हो जाता कि ‘हिमालय के हृदय’ से नीचे के भाग का देवभूमि कहा जाना सार्थक ही है।

हरिद्वार से ही लीजिये। यहाँ ब्रह्माजी ने यज्ञ किया था। दक्ष प्रजापति ने कनखल में यज्ञ किया था और उनकी पुत्री सती अपने पति शिव का अपमान सहन न करके इसी यज्ञ में कूद पड़ी थी। यह मायापुरी, सप्तपुरियों में से एक है। देवप्रयाग में बारह भगवान का निवास हुआ है। सूर्य तीर्थ यहाँ है रघुनाथ जी तथा काली भैरव की भी स्थापना है आगे ढुँढप्रयाग तीर्थ में गणेशजी ने तप किया था। श्रीनगर में भैरवी पीठ है, चामुण्डा, भैरवी कंसमर्दिनी, गौरी, महषिमर्दिनी, राजेश्वरी देवियों का यहाँ निवास है। चण्ड-मुण्ड, शुँभ-निशुँभ महिषासुर आदि असुरों का उन्होंने यहीं वध किया था। सौडी चट्टी से 5 मील ऊपर स्वमि कार्तिक का स्थान है। इससे पूर्व मठचट्टी के सामने सूर्य प्रयाग में सूर्यपीठ है और वहाँ से दो मील भणगा गाँव में छिन्न मस्ता देवी तथा वहाँ से दो मील आगे जैली में कूर्मासना देवी विराजमान हैं। गुप्त काशी में अन्नपूर्णा देवी का निवास है। नारायण कोटी में लक्ष्मी सहित नारायण की प्रतिष्ठा है। 1 मील पच्छिम के पहाड़ पर यक्ष देवता का मेला लगता है रामपुर से दो मील आगे शाकम्बरी देवी हैं जहाँ एक मास शाक खाकर तप करने का बड़ा महत्व मान जाता है। त्रियुगी नारायण में नारायण मन्दिर के अतिरिक्त लक्ष्मी, अन्नपूर्णा और सरस्वती की स्थापना है। शिव पार्वती विवाह भी यहीं हुआ था उस विवाह की अग्नि एक चतुष्कोण कुँड में आज तक जलती रहती है। नारायण मन्दिर में अखण्ड दीपक भी जलता है। सोन प्रयाग में मन्दाकिन और वासुकी गंगा है। वासुकी नाग का निवास इन गंगा के तट पर था। पास ही कालिका देवी का स्थान है। सोन प्रयाग से आघ मील आगे व स्थान है जहाँ शिव ने गणेश का सिर काटा था और फिर हाथी का सिर लगाया था। यहाँ बिना सिर गणेश की प्रतिमा है।

केदारनाथ तीर्थ में वह स्थान है जहाँ पाण्डव अपने कुलघात के दोष का निवारण करने के लिए शंकर भगवान के दर्शनों के लिए गये थे। पर उन पाप को देखते हुए शिवजी वहाँ से भैंसे का खल बनाकर भागे। भागते हुए भैंसे को पीछे से पाँडवों ने पकड़ लिया। जितना अंग पकड़ में आया उतना वहाँ रह गया शेष अंग को छुड़ा कर शिवजी आगे भाग गये। हिमालय में पाँच केदार हैं- केदारनाथ, मध्यमेश्वर, तुँगनाथ, रुद्रनाथ, कल्पेश्वर। रुद्रनाथ के समीप वैतरणी नदी बहती है। पुराणों में वर्णन आता है कि यमलोक में जाते समय जीव को रास्ते में वैतरणी नदी मिलती है। गोपेश्वर में एक वृक्ष पर लिपटी हुई बहुत पुरानी कल्पलता है जो प्रत्येक ऋतु में फूल देती है। स्वर्ग में कल्पवृक्ष या कल्पलता होने की बात की संगति इस कल्पलता से बिठाई जाती है। पास ही अग्नि तीर्थ है। यहीं कामदेव का निवास था। शंकरजी से छेड़छाड़ करने के अपराध में उसे यहीं भस्म होना पड़ा था। काम की पत्नी रति ने यहाँ तप किया था इसलिए वहाँ रति कुण्ड भी है।

पीपल कोटि से 3 मील आगे गरु गंगा है यहाँ विष्णु के वाहन गरुड़ का निवास माना जाता है। जोशीमठ में नृसिंह भगवान विराजते हैं। विष्णु प्रयाग में विष्णु भगवान का निवास है। यहाँ ब्रह्म कुँड, शिवकुँड, गणेशकुँड, टिंगी कुँड, ऋषि कुँड, सूर्यकुँड, दुर्गाकुँड, कुबेर कुँड, प्रहलाद कुँड अपने अधिपतियों के नाम से विख्यात हैं। पाण्डुकेश्वर से एक मील आगे शेष धारा है जहाँ शेष जी का निवास माना जाता है। बद्रीनाथ में नर, नारायण, गरुड़, गणेश, कुबेर, उद्धव तथा लक्ष्मी जी की प्रतिमाएं हैं। सरस्वती गंगा और अलकनन्दा के संगम पर केशव प्रयाग है, पास ही सम्याप्रास तीर्थ है। यहाँ गणेश गुफा तथा व्यास गुफा है। व्यास जी ने महाभारत गणेश जी द्वारा यहीं लिखाया था।

केदार खंड में वर्णन है कि कलियुग में मलेच्छ शासन आ जाने और पाप बढ़ जाने से शंकरजी काशी छोड़कर उत्तरकाशी चले गये अब यहीं उनका प्रमुख स्थान है। विश्वनाथ का मन्दिर यहाँ प्रसिद्ध है। देवासुर संग्राम के समय आकाश से गिरी हुई शक्ति की स्थापना भी दर्शनीय है। आगे ढोढी तालाब है, जहाँ गणेश जी का जनम हुआ था।

गंगोत्री के समीप रुद्रगैरु नामक स्थान है यहाँ से रुद्र गंगा निकलती है, यहाँ एकादश रुद्रों का निवास स्थान है। जाँगला चट्टी के पास गुँगुम नाला पर वीरभद्र का निवास है।

इस प्रकार हिमालय के हृदय स्थल पर खड़े होकर जिधर भी दृष्टि घुमाई जाए उधर तीर्थों का वन ही दिखाई देता है। गंगोत्री आदि ठंडे स्थानों के निवासी जाड़े के दिनों में ऋषिकेश उत्तरकाशी आदि कम ठंडे स्थानों में उतर आते हैं। उसी प्रकार लगता है कि देवता भी सुमेरु पर्वत से नीचे उतर उत्तराखण्ड में अपने सामुदायिक निवास स्थल बना लेते होंगे। इन देव स्थलों में आज भी जन कोलाहल वाले बड़े नगरों की अपेक्षा कहीं अधिक सात्विकता एवं आध्यात्मिकता दृष्टिगोचर होती है। देव तत्वों की प्रचुरता का यह प्रत्यक्ष प्रमाण कोई व्यक्ति अब भी देख सकता है।

तपस्वी लोग तपस्या द्वारा देवतत्वों को ही प्राप्त करते हैं। जहाँ देवतत्व अधिक हो वहीं उनका प्रयोजन सिद्ध होता है। इसलिए प्राचीन इतिहास, पुराणों पर दृष्टि डालने से यही प्रतीत होता है कि प्रायः प्रत्येक ऋषि ने उत्तराखण्ड में आकर तप किया है। उनके आश्रम तथा कार्यक्षेत्र भारत के विभिन्न प्रदेशों में रहे हैं पर वे समय-समय तप साधना करने के लिए इसी प्रदेश में आते रहे हैं। विविध कामनाओं के लिए विभिन्न व्यक्तियों ने भी तपस्याएं इधर ही की हैं। अनेक असुरों ने भी अपने उपासना क्षेत्र इधर ही बनाये थे। कतिपय देवताओं ने भी तप यहीं किया था। करते भी क्यों न? धरती का स्वर्ग और हिमालय का हृदय तो यहीं से समीप पड़ता है।

बद्रीनाथ में विष्णु भगवान ने तपस्वी का रूप धारण कर स्वयं घोर तप किया था। उस तीर्थ में जाने का प्रधान द्वार होने के कारण हरिद्वार नाम पड़ा। राजा वेन ने यहीं तप किया था। कुशावर्त पर्वत पर दत्तात्रेय जी ने तप किया था। हरिद्वार से तीन मील आगे सप्त सरोवर नामक स्थान पर गंगा के बीच में बैठ कर सप्त ऋषियों ने तप किया था। गंगाजी ने उनकी सुविधा के लिए उनका स्थान छोड़ दिया और सात धाराएं बन कर बहने लगीं। बीच में सातों ऋषियों के तप करने की भूमि अलग-अलग छूटी हुई है। इसी स्थान पर जन्हुमुनि तप करते थे। जब भागीरथ गंगा को लाये और भगवती बड़े वेग से गर्जन-तर्जन करती आ रही थी तो मुनि को यह कौतुहल बुरा लगा। उन्होंने गंगा को अंजली में भरकर पी लिया। भागरथी आगे-आगे चल रहे थे उन्होंने गंगा को लुप्त हुआ देखा तो आश्चर्य में पड़े। कारण मालूम होने पर उन्होंने जन्हु मुनि की बड़ी अनुनय-विनय की तब उन्होंने गंगा को उगल दिया। इसी से सप्त सरोवर के बाद की गंगा को जन्हु पुत्री या ‘जाह्वी’ कहते हैं। इससे ऊपर की गंगा ‘भागरथी’ कहलाती है। जन्हु के उदर में रहने के कारण वे जन्हुतनया कही गई।

रावण, कुम्भकरण, मेघनाद आदि को मार डालने के कारण रामचन्द्रजी, लक्ष्मण जी को ब्रह्म हत्या का पाप लगा। इस पाप के फलस्वरूप लक्ष्मण जी को क्षयरोग और रामचन्द्र जी को उन्निद्र रोग हो गया। वशिष्ठजी ने इस पाप से छूटने के लिए उन्हें तप करने को कहा- ‘लक्ष्मणी जी ने लक्ष्मण झूला में और रामचन्द्रजी ने देव प्रयाग में दीर्घ काल तक घोर तप किया। बड़े भाइयों को इस प्रकार तप करते देखकर भरत और शत्रुघ्न ने भी उनका अनुकरण किया। भरत ने ऋषिकेश में और शत्रुघ्न ने मुनी की रेती में तप किया। इसी क्षेत्र में बाबा कालीकमली वालों का बनाया हुआ ‘स्वर्गाश्रम’ नामक स्थान है जहाँ आज भी अनेकों सन्त महात्मा तप करते हैं। लक्ष्मण झूला से 30 मील आगे व्यास घाट में व्यासजी ने तप करके आत्मज्ञान पाया था।

देव प्रयाग में ब्रह्मा जी ने भी तप किया था। अलकनंदा और गंगा के संगम का दृश्य बहुत ही मनोहर है। प्रसिद्ध विद्वान मेघातिथि ने यहीं तप करके सूर्य शक्ति को प्रत्यक्ष किया था। वशिष्ठ तीर्थ भी यहीं है जहाँ वशिष्ठजी ने तप किया था। वहाँ वशिष्ठ गुफा नाम की एक विशाल गुफा भी नगर से कुछ पहले है। रघुवंशी राजा दलीप, रघु और अज ने यहीं तप किये थे, शाप पीड़ित बैताल और पुष्पमाल किन्नरी ने भी अपने पापों से मुक्ति प्राप्त करने के लिए देवप्रयाग के समीप ही तप किया था।

आगे चल कर इन्द्रकील नामक स्थान पर अर्जुन ने तप करके पाशुपति अस्त्र प्राप्त किया था। खाण्डव ऋषि जहाँ तप करते थे उसके समीप बहने वाली नदी खाण्डव-गंगा कहलाती है। श्रीनगर के पास राजा सत्यसंघ ने तप करके कोलासुर राक्षस को मारने योग्य सामर्थ्य प्राप्त की थी। राजा नहुष ने भी यहीं तप करके इन्द्र पद पाया था। वन्हि धारा और वन्हि पर्वत के बीच अष्टावक्र ऋषि का तप स्थान है। राजा देवल ने भी समीप ही कठोर साधना की थी।

रुद्र प्रयाग में नारदजी ने तप करके संगीत सिद्धि प्राप्त की थी। अगस्त मुनि ने जहाँ अपना सुप्रसिद्ध नवग्रह अनुष्ठान किया था वह उन महर्षि के नाम पर ‘अगस्त मुनि’ कहलाने लगा। शौनक ऋषि ने यहाँ एक यज्ञ किया था। भीरी चट्टी के पास मन्दाकिनी के समीप भीम ने तप किया था। इससे आगे शोणितपुर में वाणासुर ने अपने रक्त का यज्ञ करके तपस्या की थी और शिवजी को प्रसन्न करके सम्पूर्ण जगत को जीत लेने में सफलता प्राप्त की थी।

चन्द्रमा को जब क्षय रोग हो गया था तो उसने कालीमठ से पूर्व मतंग शिला से पाँच मील आगे राकेश्वरी देवी स्थान पर तप करके रोग मुक्ति पायी थी। फाटा चट्टी से आगे जमदग्नि ऋषि का आश्रम है। सोमद्वार से आगे-2 मील पर गौरी कुण्ड है। पास ही नाथ संप्रदाय के आचार्य गुरु गोरखनाथ का आश्रम है। उन्होंने यहीं तप किया था। केदारनाथ तीर्थ में इन्द्र ने जिस स्थान पर तप किया था वह स्थान इन्द्र पर्वत कहलाता है। ऊखीमठ में राजा मान्धाता ने तप किया था। गुप्त काशी के पूर्व मन्दाकिनी नदी के दूसरी पार राजा बलि ने तप किया था, यहीं वलिकुण्ड है। तुँगनाथ के पास मार्कण्डेयजी का आश्रम है। मण्डल गाँव चट्टी के पास बालखिल्य नदी है। यह नदी बालखिल्य ऋषियों ने अपनी तप साधना के लिए अभिमंत्रित की थी। राजा सगर ने अश्वमेध यज्ञ यहीं किया था और सन्तान के लिए सौ वर्ष तक तप आयोजन भी इसी स्थान पर किया था।

नन्द प्रयाग से आगे विरही नदी के तट पर सती विरह में दुखी शंकर ने अपने शोक को शाँत करने के लिए तप किया था। कुम्हार चट्टी के 6 मील पश्चिमोत्तर ऊर्गम गाँव है यहाँ राजा अज ने तप किया था। कल्पेश्वर के समीप दुर्वासा ऋषि का स्थान था। एक दिन ऐरावत हाथी पर सवार होकर इन्द्र उधर से निकले तो महर्षि ने उन्हें फूलमाला भेंट की। इन्द्र ने अभिमान पूर्वक उसे हाथी के गले में पहना दिया। इससे क्रुद्ध होकर दुर्वासा ने इन्द्र को शाप दिया था। समीप ही कल्प स्थल है जहाँ पूर्व काल में कल्प वृक्ष का होना माना जाता है। वृद्ध बद्री के पास गुफाएं हैं जहाँ प्राचीन काल में तपस्वी लोग अपनी साधनाएं किया करते थे। जोशीमठ में जगद्गुरु शंकराचार्य ने तप किया था, उपनिषदों के भाष्य लिखे थे और ज्योतिष पीठ नामक गद्दी स्थापित की थी। यहीं उन्होंने अपना नश्वर शरीर भी त्यागा। जोशीमठ से छः मील आगे तपोवन है। यहाँ व्यास जी का वेद विद्यालय था। शुकदेवजी का आश्रम भी यहाँ से समीप में ही है। पाण्डुकेश्वर में पाण्डवों के पिता राजा पाण्डु ने तप किया था। यहाँ से 6 मील आगे हनुमान चट्टी है जहाँ वृद्ध होने पर हनुमान जी ने तप किया है। एक बार भीम उधर से निकले, उन्हें अपने बल पर अभिमान था। हनुमानजी ने कहा ऐ वीर! मैं बहुत वृद्ध बन्दर हूँ। अब मुझ से मेरे अंग भी नहीं उठते, तुम मेरी पूँछ उठाकर उधर सरका दो तो बड़ी कृपा हो। भीम ने पूँछ उठाई पर उठ न सकी। तब उन्होंने हुनमानजी को पहचाना और क्षमा माँगी। हनुमान चट्टी के पास अलकनन्दा के उस पार क्षीर गंगा और घृत गंगा का संगम है। पूर्व काल में इनका जल दूध और घी के समान पौष्टिक था। यहीं वैखानस मुनि तप करते थे। राजा मरुत ने यहीं एक बड़ा यज्ञ किया था जिसकी भस्म अभी भी वहाँ मिलती है। कर्णप्रयाग में कर्ण ने सूर्य का तप करके कवच और कुण्डल प्राप्त किये थे।

गंगोत्री मार्ग में उत्तरकाशी तपस्वियों का प्रमुख स्थान रहा है। परशुराम जी ने यहीं तप करके पृथ्वी को 21 बार अत्याचारियों से विहीन कर देने की शक्ति प्राप्त की थी। जड़भरत का र्स्वगवास यहीं हुआ था, उनकी समाधि अब भी मौजूद है। नचिकेता का तपस्थल भी यहीं है। नचिकेता सरोवर देखने योग्य है। यहाँ से आगे नाकोरी गाँव के पास कपिल मुनि का स्थान है। पुरवा गाँव के पास मार्कंडेय और मतंग ऋषियों को तपोभूमियाँ हैं। इसके पास ही कचोरा नामक स्थान में पार्वती जी का जन्म हुआ था। हरिप्रयाग (हर्षिल) गुप्तप्रयाग (कुप्ति घाट) तीर्थ भी इसी मार्ग में पड़ते हैं। आगे गंगोत्री का पुण्य धाम है जहाँ भागीरथी ने तप करके गंगा का स्वर्ग से पृथ्वी पर अवतरण किया था। यहाँ अभी भी कितने ही महात्मा प्रचंड तप करते हैं। शीत ऋतु में जब कि कभी-कभी तेरह फुट तक बर्फ पड़ती है ये तपस्वी बिल्कुल नग्न शरीर रह कर अपनी कुटियाओं में तप करते रहते हैं। गोमुख गंगा का वर्तमान उद्गम यहाँ से 18 मील है। उस मार्ग में भी कई महात्मा निवास करते और तप साधना में संलग्न रहते हैं।

सिखों के गुरु गोविंद सिंह ने जोशीमठ के पास हेम कुण्ड में 20 वर्ष तक तप करके सिख धर्म को प्रगतिशील बनाने की शक्ति प्राप्त की थी। स्वामी राम तीर्थ का यहीं सबसे प्रिय प्रदेश था। वे गंगा और हिमालय के सौंदर्य पर मुग्ध थे। टिहरी के पास गंगा जी में स्नान करते समय वे ऐसे भाव विभोर हुए कि उसकी लहरों में ही विलीन हो गये।

उत्तराखण्ड को साधना क्षेत्र चुनने में इनमें से प्रत्येक ने सूक्ष्म दृष्टि से ही काम लिया है। वे जानते थे कि हिमालय के हृदय-धरती के स्वर्ग प्रदेश की दिव्य शक्ति अपनी ऊष्मा को अपने निकटवर्ती क्षेत्र में ही अधिक बिखेरती है इसलिये वहीं पहुँचना उत्तम है। अग्नि का लाभ उठाने के लिये उसके समीप ही जाना पड़ता है। आध्यात्मिक तत्वों की किरणें जहाँ अत्यन्त तीव्र वेग से प्रवाहित होती हैं वह स्थान सुमेरु केन्द्र ही है। केवल पानी वाली गंगा ही वहाँ से नहीं निकली आध्यात्मिक गंगा का उद्गम भी वहीं है। उस पुण्य प्रदेश-धरती के स्वर्ग को देख सकना कैसे सम्भव हुआ? वहाँ क्या देखा और क्या अनुभव किया? वहाँ की दुर्गमता किस प्रकार सुगम बनी है? इसका विवरण अब उपस्थित करना है।

(शेष अगले अंक में)


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