गायत्री की सहस्र शक्तियाँ

December 1960

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कामचार प्रभंजिनी-

पराई नारी या पराये पुरुष के प्रति अनुचित आकर्षण होना या अपनी धर्मपत्नी के प्रति भी रमणीय भाव होना, विषय विकार की ओर अमर्यादित ध्यान जाना कामचार है। इससे शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य नष्ट होता है। पारिवारिक, अनुवाँशिक और सामाजिक व्यवस्था बिगड़ती है। इन्हीं कारणों से उसे हेय माना गया है। इतना सब जानते हुए भी लोग मनोविकारों से ग्रसित होकर उसी तरफ झुकते हैं और अपना सत्यानाश करते हैं। इस कामचार की हानिकारक प्रवृत्ति को गायत्री माता घटाती हैं। विकार शाँत होते हैं। गायत्री माता के चित्त के प्रति पवित्र और पूज्यभाव रखते-रखते साधक नारी मात्र के प्रति वैसी ही मातृबुद्धि रखने लगता है। काम सेवन की व्यर्थता और हानियों को वह अच्छी तरह समझता है और उस ओर से घृणा भाव जागृत करके इस कुमार्ग से विमुख होता जाता है।

कौशिकी-

गायत्री मंत्र का देवता सविता और ऋषि विश्वामित्र हैं। विश्वामित्र ने अत्यन्त कठोर तप करके गायत्री का तत्व दर्शन किया था इसलिए वे ही इसके दृष्टा कहलाये। विश्वामित्रजी के द्वारा ही उसका महत्व उद्घोषित हुआ और उन्होंने उसका विश्वव्यापी प्रचार किया। इसलिए गायत्री को विश्वामित्र प्राण प्रिय होने के कारण कौशिकी भी कहते हैं। कौशिक विश्वामित्र जी का ही दूसरा नाम है। विश्वामित्र के पास गायत्री की प्रचण्ड शक्ति का अतुलित भण्डार था इसलिये इस शक्ति को उसके संगठनकर्ता के नाम से भी पुकारते हैं।

कान्ति-

तेजस्विता, प्रतिभा, आत्मविश्वास, दृढ़ता, निर्भयता आदि गुणों को कान्ति कहते हैं। यों चेहरे की चमक तो कई व्यक्तियों को जन्मजात भी होती है और कई उसे तेल मालिश आदि उपचारों से पैदा कर लेते हैं, पर यह तो बनावटी और अस्थायी है। कच्ची कान्ति चेहरे पर नहीं नेत्रों में चमकती है। मनुष्यता के गुणों और कर्त्तव्यों के प्रति अटूट आस्था और निष्ठा के आधार पर मनुष्य की कर्मठता एवं दृढ़ता चमकती है वही सच्ची कान्ति है। गायत्री उपासक रंग रूप में कुरूप हैं तो भी उसमें यह काँति प्रवाह पर्याप्त मात्रा में रहता है।

कौमारी-

ब्रह्मचर्य की तेजस्विता और ही होती है, उसी में सतोगुण का भण्डार छिपा रहता है। यों नारी में धर्म तत्व और सतोगुण पुरुष की अपेक्षा स्वभावतः ही बहुत अधिक होते हैं, कुमारी अवस्था में ब्रह्मचारिणी कन्याओं में तो वह हिलोरें ही लेते रहते हैं। जिस प्रकार गीता के सातवें अध्याय में विशिष्ट महत्वपूर्ण वस्तुओं की विशेषता को अपनी विभूति बताया है उसी प्रकार गायत्री की स्वाभाविक विभूति का संसार में दर्शन करना हो तो वह कुमारी कन्याओं में किया जा सकता है। गायत्री अनुष्ठान आदि की पूर्णाहुति में कन्याओं को भोजन कराया जाता है। कन्याभोज, ब्रह्मभोज से किसी भी प्रकार कम महत्व का नहीं है। गायत्री कुमारी शक्ति है। ब्रह्मचर्य उसकी प्राप्ति के लिए आवश्यक नियम है।

कुंडलिनियां-

गायत्री का युग्म यज्ञ है। गायत्री को माता और यज्ञ को पिता माना गया है। यज्ञकुण्ड में गायत्री का निवास बताया जाना ठीक ही है। क्योंकि जिस प्रकार छोटी-सी आवाज को लाउडस्पीकर यंत्र द्वारा सैकड़ों गुनी बढ़ा देते हैं और जिस आवाज को पास बैठे सौ पचास आदमी ही मुश्किल से सुन सकते थे उसे लाखों आदमी सुनते हैं इसी प्रकार गायत्री शक्ति का प्रचण्डता यज्ञ के माध्यम से हजारों गुनी हो जाती है। यही कारण है कि प्रत्येक गायत्री अनुष्ठान के अन्त में हवन करना आवश्यक माना जाता है।

कमण्डलु धारा-

गायत्री के चित्रों में, मूर्तियों में उसे कमण्डलु धारिणी बताया है। कमण्डलु का जल शान्ति का, स्नेह का, सद्भाव का, वात्सल्य का प्रतीक है। गायत्री माता के एक हाथ में यह दिव्य अमृत भरा है। उसकी गोदी में चढ़कर पयपान करने का प्रयत्न करने वाले उपासक को यह कमण्डलु में भरा अमृत पीने का अवसर सहज ही प्राप्त हो जाता है।

कर्म निर्मूलकारिणी-

बन्धन रूप कर्म वे होते हैं जो कामना, वासना, स्वार्थ एवं अहंकार की पूर्ति के लिए किए जाते हैं। कर्म अनासक्त भाव से कर्त्तव्य समझ कर किये जाते हैं वे साधारण प्रकार के दीखते हुए भी पुण्य परमार्थ स्वरूप बन जाते हैं। ऐसे कर्म बन्धन कारक नहीं होते। गीता में यह कर्मयोग विस्तारपूर्वक समझाया गया है। इस तत्व ज्ञान को गायत्री माता अपने उपासक के अन्तःकरण में बहुत गहराई तक प्रवेश करा देती हैं। उसके जीवन में ही उतार देती हैं जिससे उसके किये हुए कर्म के बन्धनकारी परिणाम निर्मूल हो जाते हैं।

काम दुधा-

स्वर्ग में देवताओं के पास एक कामधेनु है जो अमृतमय दूध देती है साथ ही समस्त कामनाएं भी पूर्ण कर देती है। इस पृथ्वी पर भी एक कामदुधा-कामधेनु है जिसे गायत्री कहते हैं। यह अपनी सेवा करने वाले को अगणित सद्गुणों का, सत्कर्म और सत् स्वभावों का अमृतमय दूध पिलाती है जिसे पीकर आत्मा अनन्तकाल तक तृप्ति अनुभव करता रहता है। यह कामधेनु जहाँ है वहाँ अपूर्ण कामनाओं का कोलाहल दृष्टिगोचर नहीं हो सकता। कामनाएं या समाप्त हो जाती हैं, या फिर जो कुछ मंगलमयी आकाँक्षायें शेष रहती हैं उनके पूर्ण होने का सुयोग बन जाता है।

खड्ग-

खड्ग अर्थात् तलवार। हिंसक हत्यारे दुष्ट दानवों की दुरभिसंधि को दूर करने के लिए जैसे लपलपाती खड्ग ही अचूक औषधि है, उसी से उनका मद मर्दन होता है, उसी प्रकार गायत्री रूपी तलवार भी जीवन प्रगति में बाधक विघ्न-बाधाओं एवं तापों पर ऐसा आक्रमण करती है कि उनके भयावने स्वरूप को चूर-चूर ही होना पड़ता है। गायत्री उपासक बड़ी से बड़ी बाधाओं को पार करता हुआ अपने उस लक्ष को पूर्ण करने में सफल होता है।

खेटकरी-

खेटकरी अर्थात् शिकार करने वाली। जिस प्रकार कोई विवेकशील शिकारी सिंह, व्याघ्र, अजगर, मगर आदि त्रासदायक बुरे जीवों का आखेट कर उनके भय से संत्रस्त लोगों को अभय दान करते हैं उसी प्रकार गायत्री भी संसार में फैले हुए हानिकारक, पतनकारी, आसुरी तत्वों को वैसे ही साफ करती रहती है जैसे किसान अपने खेत में उगे हुए झाड़-झंखाड़ों को काटता उखाड़ता रहता है। जहाँ गायत्री देवी आखेट करती हुई विचरती हैं वहाँ संतापदायक तत्व फलते-फूलते नहीं, उनका उन्मूलन ही होता रहता है।

खेचरी-

बन्धन एवं मुद्रायें योग साधना में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। मस्तक के मध्य बिन्दु त्रिकुटी में एक आध्यात्मिक अमृत कलश रहता है। जिह्वा को उलट कर तालु मूल में लगाने और अन्य नियमों के साथ उस अमृत कलश का विन्दुपान करने की विधि खेचरी मुद्रा कहलाती है। इसका विस्तृत विधान योग ग्रंथों में मौजूद है तथा अनुभवी गुरुओं से सीखा जा सकता है। 24 मुद्राओं में खेचरी को अधिक फलप्रद माना गया है, वह गायत्री स्वरूप ही है। गायत्री साधक प्रायः उसे ही करते हैं।

खलघ्नी-

खलों को, दुष्टों को माने वाली। भगवान के अवतार का उद्देश्य ‘परित्राणय साधूनाँ विनाशायाच दुष्कृताम्’ है। इसी प्रकार भगवती गायत्री भी दुष्कृतों खलों का शमन करती है। साधक को अपने भीतरी और बाहरी क्षेत्रों में अनेक खलों से नित्य ही काम पड़ता है, इनके निराकरण में गायत्री माता का सहारा लिया जा सकता है। इन खलों को निर्मलों में बदल देना असन्तों को सन्त बना देना इस महाशक्ति का प्रधान कार्य है।

गंगा-

जैसे भौतिक जगत में अनेक पाप तापों को हरण करने वाली, हरितमा, शीतलता शाँति और सम्पत्ति बढ़ाने वाली गंगा है, उसी प्रकार आध्यात्मिक क्षेत्र की भी एक गंगा है जिसे गायत्री कहते हैं। शिवजी की जटाओं से लेकर गंगासागर तक जिस प्रकार वह पुण्य नदी बहती है उसी प्रकार मस्तिष्क के मध्य बिन्दु ब्रह्मरंध्र ने निकल कर मेरुदण्ड में अवस्थित ब्रह्मनाड़ी में होती हुई यह मूलाधार तक जाती है और वहाँ कुण्डलिनी रूप बनकर विराजती है। इड़ा पिंगला के माध्यम से यह गंगा प्रवाह निरन्तर ज्वार-भाटे की तरह हिलोरें लेता रहता है। इस दृश्य गंगा में स्नान करने पर भव सागर से तरना संदिग्ध हो सकता है पर आध्यात्मिक गंगा गायत्री में अभिमंजन करने से परम श्रेय का अधिकारी बन जाना निश्चित ही है।

गोमयी-

गो माता के सहित ही गायत्री है। हिन्दू धर्म की चार शक्तियाँ गौ, गंगा, गीता और गायत्री मानी गई हैं। नदियों में जिस प्रकार गंगा की तुलना गायत्री से की जाती है उसी प्रकार पशुओं में गौ माता भी गायत्री रूप है। गायत्री उपासक के लिए गौ दुग्ध का सेवन, गौमूत्र से स्नान, गोमय से लिपे हुए घर में निवास, गोघृत से हवन तथा गौचारण । (गौओं का चराना) गायत्री शक्ति गोमयी है। गाय के शरीर में ओत-प्रोत है। गौ पालन, गौ सेवा भी गायत्री उपासना का ही एक अंग है।

गीता-

श्रीमद्भगवद् गीता के 18 अध्यायों में जो ज्ञान भगवान कृष्ण ने अर्जुन को दिया है उसे गायत्री के 9 शब्दों का ही विस्तार कह सकते हैं। एक-एक शब्द की व्याख्या दो-दो अध्यायों में की गई है। गीता के ज्ञान में मानव जीवन को उच्च कोटी का सात्विक, कर्त्तव्य परायण एवं अनासक्त बनाने की शिक्षा दी गयी है यही शिक्षण गायत्री के 24 अक्षरों में भी है। गायत्री गीता और गायत्री स्मृति प्रकरण पढ़ने पर स्पष्ट हो जाता है कि जो ज्ञान इन अक्षरों में है उसी को भगवान ने और अधिक स्पष्ट और विस्तृत रूप में अर्जुन को बताया है। गीता को भी गायत्री की व्याख्या ही मानना चाहिये।

गुणत्रिय विभाविता-

गायत्री सत, रज, तम तीनों गुणों से परिपूर्ण है। जिस प्रकार वात, पित्त, कफ तीनों तत्व शरीर में सन्तुलित रहने पर ही स्वास्थ्य ठीक रहता है उसी प्रकार सत, रज और तम तीनों ही तत्व मनःक्षेत्र में आवश्यक मात्रा में उपस्थित रहें तभी उसका काम ठीक प्रकार चलता है। गायत्री की इन तीनों विशेषताओं को तीन देवियों के रूप में चित्रित किया गया है। सतोगुण की प्रतीक सरस्वती, रजोगुण की प्रतिमा लक्ष्मी, तमोगुण की प्रतिनिधि काली। इन तीनों को बुद्धि, सम्पत्ति और शक्ति इन तीन नामों से भी पुकारते हैं। सतोगुण को जीवन में प्रधान माना जा सकता है, पर शरीर निर्वाह के लिए अन्न, वस्त्र, मकान आदि के रूप से रजोगुण और अपनी या दूसरे की दुष्टता के प्रति क्रोध, उससे संघर्ष के रूप में तमोगुण भी आवश्यक है। गायत्री के तीन अक्षर इन तीनों गुणों के प्रतिनिधि हैं। वह साधक को आवश्यक मात्रा में इन तीनों को ही प्रदान करती रहती है। इसलिए गायत्री को ‘गुणत्रिय विभाविता’ कहा गया है।

गुणवती-

आकाश गंगा एक निहारिका मात्र नहीं है वरन् उसमें हजारों तारे भी जुड़े हुए हैं उसी प्रकार गायत्री केवल सद्बुद्धि दायिनी मन्त्रशक्ति मात्र नहीं है वरन् उसके साथ हजारों सद्गुण समन्वित हैं। जब गंगा दिखाई देती है तो उससे संबंधित तारे भी दृष्टिगोचर होते हैं, जिधर वह आकाश गंगा घूमती है उधर ही उसके तारे भी चलते हैं। इसी प्रकार जहाँ गायत्री का उदय होता है वहाँ उससे सम्बंधित अनेकों सद्गुण भी अपने आप प्रकट होने लगते हैं। उपासक को माता का अनुग्रह अनेक दिव्य गुणों के रूप में प्राप्त होता है। उसके मन, वचन और कर्म में एक से एक बढ़कर श्रेष्ठताएं जब उदय होती हैं तो जीवन तारागणों से विहँसित निशा की तरह झिलमिलाने लगता है।

गुर्वी-

गुर्वी कहते हैं भारी को। गायत्री को एक साधारण सी चीज नहीं मानना चाहिए, उसकी गुरुता इतनी बड़ी है कि संसार के सारे भौतिक पदार्थों को भी उसकी तुलना में तुच्छ माना जा सकता है। जिस क्षेत्र में भी गायत्री की शक्ति का चमत्कार देखा जाए वह अद्भुत और अद्वितीय दिखाई पड़ेगा। क्या लौकिक क्या पारलौकिक दोनों ही दिशाओं में, शारीरिक, बौद्धिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक सभी समस्याओं को सुलझाने में गायत्री एक बहुत बड़ी नितान्त असाधारण सिद्ध होती है। इसलिए उसकी गुरुता को जितना भी अधिक माना जाए कम ही रहेगा वह वस्तुतः गुर्वी है।

गुह्य अर्थात् गुप्त-छिपी हुई। यों गायत्री के 24 अक्षर प्रकट हैं, सबको मालूम है, पुस्तकों में छपे हैं फिर भी उसका सारा कलेवर छिपा हुआ है। कुछ पुस्तकों में उसका थोड़ा-सा विज्ञान प्रकट भी किया गया है पर अभी तक जितना अप्रकट है, जितना गुप्त है, जितना रहस्यमय है उसका अनुमान लगा सकना भी साधारण व्यक्ति के लिए कठिन है। उसके सामान्य विधान जो सर्व साधारण के लिए उपयोगी है जहाँ-तहाँ पुस्तकों में लिखे हैं, पर जो असाधारण तत्व ज्ञान एवं महत्वपूर्ण रहस्य है वह अप्रकट ही रखा गया है। उस ज्ञान और रहस्य को केवल अधिकारी व्यक्ति ही सदुपयोग के लिए उपलब्ध कर सके इसलिए उन बातों को गुप्त ही रखा गया है। अनुभवी मार्गदर्शक किन्हीं सत्पात्रों की प्रतीक्षा करते रहते हैं और जब कभी ऐसे जिज्ञासु मिल जाते हैं वे अपने अनुभव में आये हुए रहस्यों को बड़ी प्रसन्नता पूर्वक बता देते हैं। पर अनाधिकारी यदि उन्हें प्राप्त कर लें तो जल्दबाजी, अस्थिरमति और अशुद्ध भावनाओं के कारण या तो साधना काल में ही अपना कुछ अनिष्ट कर बैठते हैं, या फिर सफल भी हुए तो दूसरों को आश्चर्य चकित करने का एक खेल बनाने में या साँसारिक कामनाओं में दुरुपयोग करते हैं। ऐसे लोगों के हाथ यह विद्या, विशेषतया गायत्री का ताँत्रिक पक्ष पड़ने न पावे इसका बहुत ध्यान रखा गया है। गायत्री गुह्यातिगुह्य है। उसे अब तक के साधकों ने जितना जाना है प्रयत्न करने पर उससे भी बहुत अधिक जाना जा सकता है।

गर्वपहारिणी-

गर्व का अपहरण करने वाली, घमंड एवं अहंकार को नष्ट करने वाली शक्ति गायत्री है। धन, विद्या, सत्ता, रूप, प्रभुता आदि वस्तुओं को प्राप्त करके मनुष्य इतराने लगता है, अपने को दूसरों से बड़ा समझता है और अन्यों को छोटा समझ कर उनसे हेय व्यवहार करता है। यह मानसिक स्थिति मनुष्य के उथले, असंस्कृत, उद्धत एवं तुच्छ होने का चिन्ह है इस स्थिति के कारण मनुष्य आत्मिक दृष्टि से दिन-दिन अधिक पतनोन्मुख होता जाता है। उसके व्यवहार से लोगों में क्षोभ एवं रोष फैलता है सो अलग। घमण्डी आदमी एक प्रकार का असुर है जो अनेकों सद्गुणों से हाथ धो बैठता है। इसलिये गर्व का दूर किया जाना, चूर किया जाना आवश्यक है। गायत्री या तो ऐसी सद्बुद्धि देती है कि गर्व गलकर सज्जनता में परिणित हो जाए या फिर ऐसी विषम परिस्थितियाँ उत्पन्न करती है जिनकी ठोकर से गर्वचूर हो जाए। तात्पर्य यह है कि साधक का ही नहीं, दूसरे अन्य उद्धत व्यक्तियों का भी वह गर्व दूर करती रहती है।

घोषा-

घोष अर्थात् शब्द? घोषा अर्थात् शब्द स्वरूप शब्द को श्रुतियों में ब्रह्म माना गया है। शब्दों के ब्रह्म। शब्द की शक्ति अपार है। अखिल आकाश में व्याप्त ईश्वर तत्व में गायत्री मंत्र की स्फुट या अस्फुट उच्चारण से जो तरंगें उत्पन्न होती हैं वे विश्व के मानव मस्तिष्कों से टकराकर उनमें भी अपनी प्रतिध्वनि उत्पन्न करती हैं। जिस प्रकार उत्तम प्रवचन सुनते रहने से सुनने वालों में मस्तिष्कों में थोड़ी बहुत सद्वृत्ति बढ़ती ही है, उसी प्रकार गायत्री मंत्र का जप या उच्चारण करने से उनकी परम मंगलमयी तरंगें उठकर अगणित मस्तिष्कों में सूक्ष्म पर्दों तक टकराने लगती हैं। फलस्वरूप उनके मस्तिष्कों में भी किन्हीं अंशों में धार्मिकता का उदय होता है। इस प्रकार गायत्री का जप एक प्रकार से विश्व की महत्वपूर्ण मानसिक सेवा है। मंत्रोच्चारण से उत्पन्न ध्वनि तरंगें अपने अन्तराल में छिपे हुए अनेक सूक्ष्म चक्रों एवं उपत्यिकाओं को भी जाग्रत करती हैं। शब्द विज्ञान के आधार पर गायत्री मंत्र जाप आत्म जागरण का एक श्रेष्ठ साधन है।

चतुर्भुज-

चार भुजाओं वाली। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, यह चार भुजाएं गायत्री की हैं। चारों वेद भी गायत्री की चार भुजाएं हैं। चारों दिशाओं में यह चार भुजाएं फैली हुई हैं। इनमें से एक भी वरद्हस्त यदि साधक के मस्तक पर पड़ जाए तो वह उसी सम्पदा का अधिकारी होकर धन्य बन जाता है। जिसके ऊपर माता के चारों हाथों से स्नेह सिंचन हो जाता है वह जीवनमुक्त ही है समस्त दैवी ऐश्वर्यों का अधिपति ही मानना चाहिए।

चातुरी-

चातुर्य-चतुरता, बुद्धिमत्ता। यों तो लोगों में जेब काटने से लेकर ठगने तक की, धन कमाने से लेकर मिटाने तक ही अनेक प्रकार की कला-कुशलताएं होती हैं, पर सच्ची चतुरता वह है जिसके आधार पर कोई व्यक्ति मानव-जीवन का, नरतन धारण के सौभाग्य का समुचित लाभ उठा सके। गायत्री उपासक में वह चातुरी होती है। वह व्यर्थ के खेल खिलौनों में बच्चों की तरह न उलझ कर अपनी आत्मा का कल्याण करता है, अपने परलोक को बनाता है। जिसने इस दिशा में जितनी सफलता प्राप्त कर ली उसे उतना ही बड़ा चतुर कहा जा सकता है, उसी की चातुरी सराहनीय है। गायत्री में यह सच्ची चतुरता ओत-प्रोत है।

चरित्र प्रदा-

चरित्र को, आचरण को प्रशंसा योग्य बनाने में गायत्री माता बड़ा योग देती है। दुराचार से मन हटता है और सदाचार में प्रवृत्ति होती है। माता का अनुग्रह जिसे प्राप्त होगा वह चरित्र का धनी बनता जायेगा। पराई बहिन, बेटी को अपनी बहिन बेटी से बढ़कर मानना, पराये पैसे को ठीकरी के समान समझना, दूसरों के सुख-दुःख में अपने सुख दुख की अनुभूति करना यह तीन विशेषताएं उसके चरित्र में अधिकाधिक बढ़ती जाती हैं। आचार और विचार दोनों से मिलकर चरित्र बनता है। मातृभक्त न तो अशुद्ध विचार करता है और न दुष्कर्मों की ओर कदम बढ़ाता है।


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