मनुष्य की सत्ता और उसका कर्त्तव्य

December 1960

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(श्री भारतीय जोगी)

सनातनमेनमाहुरुताद्य स्यात् पुनर्णवः।

अहोरात्रे प्रजायेते अन्यो अन्यम्य रुपयो॥

(अथर्व 10-8-23)

‘आत्मदेव सनातन कहे जाते हैं पर फिर भी यह नवीन रूप में प्रकट होते रहते हैं। इन्हीं में दिन-रात्रि एक दूसरे के रूप में उत्पन्न होते रहते हैं।’

इस मंत्र में परमात्मा और उनकी सृष्टि के वास्तविक स्वरूप पर प्रकाश डाला गया है। हम संसार में इस सम्बंध में विशेषतः दो तरह की बातें सुना करते हैं। ज्ञानी और तत्वदर्शी इसे अनादि, अनन्त, नित्य, शाश्वत बतलाते हैं। संसार में जो कुछ नित्य नई घटनाएं हुआ करती हैं उन सबको वे स्वप्न अथवा माया कहते हैं और उनकी दृष्टि में वे सर्वथा ‘मिथ्या’ है। दूसरी तरफ साधारण लोग दृश्य जगत को ही सत्य मानते हैं। वे चाहे मुँह से परलोक, परमात्मा, ब्रह्म का नाम लेते रहें, पर व्यवहार में उनको काल्पनिक ही मानते हैं। भारतवर्ष ‘कर्मवाद’ का सबसे बड़ा गढ़ा है और यहाँ बालक से लेकर बुड्ढे तक के मुख से ‘भाग्य’ ‘तकदीर’ और ‘कर्म’ के शब्द सुनने में आते हैं। पर झूठ, बेईमानी, विश्वासघात, छल, कपट, निर्दयता आदि का व्यवहार करते समय कोई ‘कर्म-फल’ का भय नहीं करता। अगर कोई परलोक का, पाप का भय दिखाकर समझाता भी है, तो यही उत्तर मिलता है ‘परलोक को किसने देखा है?’ ‘अब तो आराम से गुजरती है, आकवत की खुदा जाने।’

इस दृष्टि से विचार किया जाए तो आत्मा की नित्यता, पाप-पुण्य के परिणाम और सृष्टि के नियम का ज्ञान सर्व साधारण को होना अत्यावश्यक है।

जब तक उनके हृदय में यह विश्वास नहीं हो जायेगा कि यह दृश्य-जगत, अदृश्य परमात्मा के आधार पर ही टिका हुआ है और हम इसमें जो कुछ भी देख रहे हैं वह सब उसी महाशक्ति के द्वारा उसकी प्रेरणा से हो रहा है, तब तक वे सच्चे अर्थ में ‘धार्मिक’ नहीं बन सकते। वे चाहे भजन, पूजा, मन्दिर में दर्शनों के लिए जाने, कथा-वार्ता सुनने, व्रत-उपवास आदि का कितना भी दिखावा क्यों न कर लें, सच्ची आस्तिकता का, सच्ची भक्ति का, सच्ची धार्मिकता का उनमें विकास नहीं हो सकता। इसके विपरीत जिसको आत्मा की सत्ता, उसकी अविनश्वरता और कर्मफल की अनिवार्यता का ज्ञान हो चुका है, जो इनमें अन्तर से विश्वास रखता है, वह कभी पाप-मार्ग की ओर नहीं आ सकता।

इसी तथ्य को दृष्टिगोचर रखकर वेद हमको बतलाते हैं कि यद्यपि यह संसार और इसके पदार्थ हमको नित्य बिगड़ते और नवीन बनते दिखलाई पड़ते हैं, पर वास्तव में यह ‘सनातन’ है। इसके रूपों का बनना-बिगड़ना और नवीन वस्तुओं का प्रकट होना एक ऊपरी बात है। यह परिवर्तन केवल ‘व्यक्तिगत’ है। अर्थात् हम जिस नई चीज या प्राणी को उत्पन्न होते देखते हैं वह उसके अपने लिए और थोड़े से सम्बंधित मनुष्यों के लिए तो ‘नवीनता’ का अर्थ रखता है, पर समस्त संसार की अथवा सृष्टि की दृष्टि से उसमें कुछ भी नयापन नहीं है। वह एक ही सनातन नियम या प्रणाली का एक अति क्षुद्र परिवर्तन मात्र है। उदाहरण के लिए आज हमारे घर एक बच्चे का जनम हुआ, तो उसके माता-पिता, सम्बंधी और कुछ पास-पड़ोस के व्यक्तियों के लिए वह अवश्य नवीन जान पड़ेगा, आगे चलकर उसका एक नया नाम और रूप भी उनको दिखलाई पड़ेगा, पर यदि संसार के मानव समूह की दृष्टि से देखें तो वह भी अन्य करोड़ों वर्षों के सदृश्य है जिसमें कोई नहीं विशेषतः नहीं है। जिन तत्वों से यह बच्चा बना है उन्हीं से और भी सब बच्चे बने हैं और बड़ा होने पर यह भी उन्हीं की तरह खायेगा, पियेगा, सोयेगा और अन्य काम करेगा। इसलिए मनुष्यत्व की निगाह से इस बच्चे में कोई नयापन नहीं है।

इस बात को वेद मंत्र में भी एक उदाहरण देकर भलीभाँति समझा दिया गया है। जिस प्रकार सदैव नये दिन-रात आते रहते हैं, उनमें होने वाली घटनाओं में कुछ भिन्नता जान पड़ती है, उनको भिन्न तारीख और वार के रूप में स्मरण रखा जाता है, पर वास्तव में देखा जाए तो सूर्य के उदय अस्त होने के द्वारा उत्पन्न होने वाले सभी दिन और सभी रात एक से हैं। जैसा दिन सोमवार का वैसा ही शुक्रवार का। जैसा दिन आज दिखाई पड़ रहा है वैसा ही आज से दस-बीस हजार वर्ष पहले भी दिखाई देता था। इसलिए नित्य नवीन दिन का आगमन होने पर भी काल की दृष्टि से वह अपरिवर्तनीय- सनातन ही है।

इस प्रकार उपर्युक्त वेद मंत्र में हमको एक महान सत्य का उपदेश दिया गया है जिसको हृदयंगम करके हम प्रतिदिन जीने मरने वाले क्षुद्र कीड़ों की श्रेणी से उठकर दैवी शक्ति से ओत-प्रोत ‘देव’ की श्रेणी में पहुँच सकते हैं। जो मनुष्य दृश्य जगत को, अपने स्थूल शरीर को और संसार में प्राप्त साधारण भोगों को ही सब कुछ समझता है, उसकी स्थिति उस कीड़े, मछली या चौपायों से उत्तम नहीं कही जा सकती जो सदैव भोजन को खोजते-फिरते हैं और निकृष्ट पदार्थों को उदरसात करके खूब मोटे हो जाते हैं। ऐसे जीव पेट भर जाने से खूब संतुष्ट क्यों न रहते हों, अपनी बुद्धि के अनुसार अपने को ‘सुखी’ क्यों न मानते हों, पर संसार में न तो उनकी कोई विशेषता है और न नवीनता। एक मनुष्य की दृष्टि में वे करोड़ों रेंगने वाले या तैरने वाले जीव समूह में से एक है जिनका न कोई नाम है, न पहिचान। इसी प्रकार जो मनुष्य खाने, पीने, सोने और भोगने को ही जीवन मानते हैं, उनका अन्त कुछ ही वर्षों में हो जाता है, वे मिट्टी से उत्पन्न होकर मिट्टी में ही मिल जाते हैं। पर जो इस स्थूल जगत में रहते हुए भी अपने मूल स्वरूप को जानता है और उसके अनुरूप व्यवहार करता है, वह कभी नाश को प्राप्त नहीं होता। शरीर का अथवा काल का परिवर्तन तो उसके लिए एक खेल या स्वप्न की तरह है जो सदा से होता आया है और आगे भी सदा होता रहेगा। पर वह स्वयं जिस अविनाशी तत्व और नियम का एक अंश है वह तो सनातन है। वह न कभी नष्ट हुआ है और न होगा। यदि वह न होता तो आज यह सृष्टि दिखलाई ही न पड़ती।

भारतीय जीवन की सबसे बड़ी विशेषता यह अध्यात्म भावना ही है। संसार के सभी देशों ने प्राचीन काल से इसकी शिक्षा भारत से ही ग्रहण की है। यद्यपि मिश्र, चीन, जापान आदि के लोगों को भी अध्यात्म-विद्या से प्रेम है, पर वहाँ भी इसका प्रसार भारतीय मनीषियों द्वारा ही हुआ था। वास्तव में यह भारतवर्ष की अमूल्य धरोहर है जिसकी रक्षा करना हमारा परम कर्त्तव्य है।

वेदों का स्पष्ट आदेश, घोषणा यही है कि मनुष्य हाड़-माँस अथवा पंचतत्व का पुतला नहीं है। जो अपने को ऐसा समझता है वह महा मूर्ख और अभागा है। मनुष्य तो चैतन्य स्वरूप, प्रकाश रूप और सबका कर्ता-धर्ता है। वह नित्य नया जान पड़ने पर भी वास्तव में उस सनातन सत्ता परमात्मा का अंश है जिसका न कभी नाश हुआ और न होगा। इसलिए ज्ञानी मनुष्य को तदनुरूप ही व्यवहार करना चाहिए।


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