सर्वांगीण प्रगति को ही प्रगति कहा जा सकता है। यदि शरीर के किसी एक अंग की उन्नति हो और शेष अंग अवनत पड़े रहें तो उससे कोई सन्तोषजनक परिणाम नहीं निकल सकता। पेट खूब मोटा हो जाए और हाथ पैर पतले रहें तो इससे कुरूपता और असुविधा ही बढ़ेगी। फील पाँव रोग में एक पैर मोटा हो जाता है और शेष सब अंग स्वाभाविक रहते हैं तो वह एक पैर का मोटा होना किसी प्रकार की प्रसन्नता नहीं बढ़ा सकता। इसी प्रकार यदि हमारी आर्थिक स्थिति अच्छी रहे और जीवन की अन्य दिशाएं अविकसित रहें तो वह आर्थिक उन्नति सुखदायक न होकर मोटे पैर वाले व्यक्ति की तरह कष्ट कारक ही होगी।
माना कि धन बहुत है। पर उसकी उपयोगिता तभी है जब उसका सदुपयोग होने की व्यवस्था हो, यदि उसका दुरुपयोग होने लगा तो वह अमीरी वस्तुतः गरीबी से भी अधिक कष्टदायक एवं विपत्ति उत्पन्न करने वाली होती है। उपार्जित धन को अकेला कमाने वाला ही खर्च नहीं करता उसका लाभ वह अकेला ही नहीं उठाता वरन् परिवार के सब लोग मिलजुल कर ही उसका उपयोग करते हैं। घर के अन्य सदस्य यदि बुद्धि वाले हों तो संग्रहित धन ही उनके लिये आपस में लड़ मरने या तरह-तरह के दुरुपयोग करके अन्ततः रोग, अपकीर्ति, कलह, पाप एवं दण्ड के भोगने का कारण बनता है।
आज धन उपार्जन को प्रवृत्ति बड़े प्रबल वेग से हर मनुष्य के मस्तिष्क में काम कर रही है। व्यक्ति का एक ही लक्ष्य मालूम पड़ता है, अधिकाधिक धन उपार्जन करना और उसकी होली जलाकर तमाशा देखना। आमतौर से यही प्रधान आकाँक्षा है, यह दूसरी बात है कि सफलता किसे कितनी मात्रा में मिले। धन को महत्व देना उचित है और आवश्यक भी। पर उसे इतना महत्व मिलना नहीं चाहिये कि जीवन की अन्य महत्वपूर्ण दिशाएं उपेक्षित ही पड़ी रहें।
धन की आवश्यकता परिवार के लिये होती है। मनुष्य जितना कमाता है उसका अपने लिये तो एक बहुत स्वल्प भाग ही काम में लाता है, शेष तो परिवार के प्रयोजनों में ही खर्च होता है। मरने के बाद भी मनुष्य अपने उपार्जन को अपने परिवार के लिये ही छोड़ जाता है। जिस परिवार के प्रति मनुष्यता की ममता धन के ही समान नहीं, वरन् उससे भी अधिक है, उसकी संतुलित उन्नति के लिए समुचित ध्यान न दिया जाए तो यह दुर्भाग्यपूर्ण बात ही होगी। जेवर, कपड़ा भोजन, सवारी, जायदाद आदि के साधन लोग अपने परिजनों के लिये जुटाते हैं। उनकी बीमारी, शादी आदि के अवसरों पर भी मनमाना खर्च करते हैं, पर यह ध्यान नहीं देते कि इनकी योग्यता, शक्ति, सामर्थ्य, प्रतिभा एवं व्यक्तित्व को विकसित करने के लिये भी कुछ किया जाना चाहिये। बहुत हुआ तो स्कूल कॉलेजों की शिक्षा का प्रबंध कर दिया। इससे नौकरी तो मिल सकती है पर वे सद्गुण नहीं आते जो जीवन के वास्तविक विकास के लिए आवश्यक हैं। इन्हीं सद्गुणों को विकसित करने का प्रयत्न परिवार के प्रति सच्ची सेवा एवं ममता कही जा सकती है।
प्राचीन काल में यह देश नग-रत्नों की खान था। घर-घर में महापुरुष पैदा होते थे। उनके विचार और कार्य इतने उच्च कोटि के थे कि संसार भर में वे देव श्रेणी में गिने जाते थे। यहाँ के तैंतीस करोड़ निवासी, तैंतीस कोटि देवताओं के नाम से विख्यात थे। भारतीय समाज के इतने सुविकसित और सुसंस्कृत होने की महत्ता को सारे संसार ने स्वीकार किया था और इसी आधार पर भारत को जगद्गुरु एवं चक्रवर्ती शासक का सम्मान प्रदान किया था। ऐसे सद्गुणी कभी गरीब रह ही नहीं सकते। लक्ष्मी उनका पीछा छोड़ ही नहीं सकती यह देश स्वर्ण सम्पदाओं का स्वामी था। यहाँ के लोग सोने को पहनते ही न थे वरन् उसके भवन तक बनाते थे। बल और पुरुषार्थ में उनका कोई सानी न था।
भारतीय समाज प्राचीन काल में इसलिए समुन्नत था कि प्रत्येक व्यक्ति अपने परिवार की सर्वांगीण उन्नति का ध्यान रखता था, आज की तरह केवल धन के पीछे पागल न था। सर्वांगीण प्रगति के महत्व को जब से भुलाया जाने लगा तब से पारिवारिक प्रगति रुक गई। धन कमाने वाले, ऊंचे औहदों पर नौकरी करने वाले लड़के बच्चे अब भी घरों में पैदा होते हैं, पर उनके द्वारा कोई ऐसा कार्य नहीं होता जिस पर गर्व करने की जी चाहे।
यह स्पष्ट है कि व्यक्ति का निर्माण उसकी माता करती है। माता का ज्ञान अनुभव और अन्तःकरण जितना विकसित होगा, उतना ही बालकों का मन और मस्तिष्क भी विकसित होगा। अच्छे पेड़ हमेशा अच्छी भूमि में पनपते हैं। बीज कितना ही बढ़िया क्यों न हो यदि भूमि ऊसर है तो वहाँ न तो फसल पक सकती है और न अच्छा बगीचा लग सकता है। इसी प्रकार अच्छी माताओं के होने पर ही सुसंतान की आशा की जा सकती है और जिन घरों में सुसंतति है उन्हें ही घर कहना चाहिये। अन्यथा दुर्बुद्धि और दुर्गुणी, रोगी और आलसी बालकों के घर को तो नरक का नमूना ही कह सकते हैं। वहाँ निरन्तर कलह, ईर्ष्या, द्वेष, असंतोष, चोरी, अवज्ञा, अपकीर्ति एवं उत्पात की आग जलती रहेगी। ऐसे घरों में उसी तरह गुजारा करना पड़ता है जैसे सूत मरघट में अपनी जिन्दगी गुजारता है।
माता के संस्कार बालक पर जाते हैं यह एक निश्चित तथ्य है। इसलिये जिन्हें अपने घर को सुसंतति से हरा-भरा, फला-फूला देखना हो उन्हें पहले माता का निर्माण करना चाहिए। लोग इतना ही करते हैं कि बालक स्वस्थ हो इसके लिये गर्भावस्था में स्त्री को घी दूध, मेवा, लड्डू आदि खिलाते हैं। दूध अधिक निकले इसके लिए माता को जीरा, सोंठ, बबूल का गोंद आदि खिलाते हैं। इससे लोगों की बुद्धि में इतनी समझदारी तो जान पड़ती है कि वे माता को खिलाने से उसका लाभ बालक को मिलने की बात स्वीकार करते हैं। बच्चा बीमार हो तो माता को परहेज से रहने की अमुक चीज खाने, अमुक न खाने की हिदायत करते हैं। पर यह बुद्धिमानी यहीं समाप्त हो जाती है। कैसा अच्छा होता यदि लोग यह भी अनुभव करते कि माता के ज्ञान, अनुभव और अन्तःकरण के विकास का प्रभाव बालकों पर भी अवश्य पड़ेगा। इसलिये सन्तान को सुयोग्य बनाने के लिए पहले उसकी माता को सुयोग्य बनाना आवश्यक है। यदि इतनी जानकारी लोगों की रही होती तो आज हमारे समाज का स्तर ही दूसरा हुआ होता।
राम हमारे घरों में आये, इसके लिए कौशल्या की जरूरत है। कृष्ण का अवतार देवकी की कोख ही कर सकती है। कर्ण, अर्जुन और भीम के पुनः दर्शन करने हों तो कुँती तैयार करनी पड़ेगी। हनुमान चाहिये तो अंजनी तलाश करनी होगी। अभिमन्यु का निर्माण कोई सुभद्रा ही कर सकती है। शिवाजी की आवश्यकता हो तो जीजाबाई का अस्तित्व पहले होना चाहिये यदि इस ओर से आँखें बंद कर ली गई और भारतीय नारी को जिस प्रकार अविद्या और अनुभव हीनता की स्थिति में रहने को विवश किया गया है, उसी तरह आगे भी रखा गया हो आगामी पीढ़ियाँ और भी अधिक मूर्खता उद्दंडता लिए युग आवेगी और हमारे घरों की परिपाटी को नरक बना देंगी। परिवारों से ही समाज बनता है फिर सारा समाज और भी घटिया लोगों से भरा होने के कारण अब से भी अधिक पतनोन्मुखी हो जायेगा।
आज हमारे बालकों की क्या स्थिति है, इसे बाहर ढूंढ़ने जाने या कोई रिपोर्ट तैयार कराने की जरूरत नहीं है। हममें से हर कोई अपने-अपने घरों को देख सकता है और छाती पर हाथ रखकर कह सकता है कि अपने बच्चों के गुण कर्म स्वभाव के संबंध में संतोष है या असन्तोष? अब अंधे माता-पिता को कंधे पर बिठा कर तीर्थ यात्रा कराने वाले श्रावण कुमार ढूंढ़ने न मिलेंगे। पिता का संकेत और विमाता की इच्छा मात्र प्रतीत होते ही वन गमन करने वाले राम आज किसी घर में तलाश तो किये जाएं? भाई के लिये जान देने वाले भरत और लक्ष्मण शायद ही किसी विरले घर में मिलें? पति के आदेश पर बिक जाने वाली शैव्या आज कितने पतियों को प्राप्त है यह जानना कठिन है। ऐसे उच्च मानसिक स्तर से भरे हुए परिवार आज ढूंढ़े नहीं मिल सकते। इसका एकमात्र कारण है- नारी की अधोगति। जब सोता ही सूखा गया तो नाले में पानी कहाँ से बहेगा? जब नारी की दुर्दशाग्रस्त स्थिति में पड़ी है तो उससे उत्पन्न होने वाली सन्तान के समुन्नत होने की आशा करना दुराशा मात्र ही है।
शरीर के सुख साधन पैसे के बल पर खरीदे जा सकते हैं पर आत्मा को विकसित करने वाले सद्गुण धन के बदले में नहीं मिल सकते। परिजनों की भौतिक समृद्धि के सुखोपभोग के ऐशोआराम के साधन कोई धनी व्यक्ति आसानी से जुटा सकता है पर बालकों पर संस्कार डालने का काम धन खर्च करने मात्र से नहीं हो सकता। यदि इतने में ही परिवार की उन्नति हमने मान रखी हो तो बात दूसरी है पर यदि हमने विकसित व्यक्तित्व का मूल्याँकन किया हो और यह माना हो कि बात की बात में नष्ट हो जाने वाली दौलत की अपेक्षा व्यक्तित्व की प्रतिभा की महत्ता अधिक है तो निश्चय ही उसके लिए वे प्रयत्न करने होंगे जिनसे व्यक्तित्व विकसित होता है। ऐसे प्रयत्नों में सबसे प्रधान, सब में आवश्यक यह है कि नारी के मानसिक संस्थान को प्रबुद्ध किया जाए। इसके लिए उसे एकदम घुटाने वाली पराधीनता से गुण करना होगा। इन बंधनों में रहते, किताबी ज्ञान करा देने जैसे उपायों से न उसे आगे बढ़ाया जा सकता है और न ऊंचा उठाया जा सकता है।
भविष्य की चिन्ता प्रत्येक व्यक्ति को रहती है। आने वाले कल की निश्चिन्तता के लिये जो कुछ बन पड़ता है सुरक्षात्मक प्रयत्न करते हैं। बीमा व्यवसाय इसी आधार पर टिका हुआ है। हमारा बुढ़ापा शान्तिमय बीते इसके लिये कुछ बचा लेना, जमा कर लेना ही पर्याप्त न होगा वरन् जिन लोगों के साथ जीवन के अंतिम दिन काटने हैं उन्हें सज्जन और सौम्य बना लेना ही वह कार्य होगा जिससे भावी जीवन की शाँति के संबंध में निश्चिन्तता हो सके। आज हमारे बच्चे उद्दंडता, अवज्ञा, आलस्य एवं विलासिता की ओर तेजी से बढ़ रहे हैं। यह स्थिति अभिभावकों से लेकर अध्यापकों तक को चिन्तित बनाये हुए है। राष्ट्र का भविष्य जिस भावी पीढ़ी के हाथ में है वह यदि सद्गुणी न हुई तो समाज में बुराइयाँ ही बढ़ेंगी। जिस भ्रष्टाचार का, अनैतिकता का, विलासिता का, स्वार्थता का आज चारों ओर बोलबाला है उसके कारण अवाँछनीय कार्यों की संख्या दिन-दिन बढ़ती जा रही है। यदि यह अभिवृद्धि न रुकी तो उन्नति की अनेक योजनाओं के होते हुए भी भविष्य अन्धकारमय ही रहेगा।
हमारा व्यक्तिगत और राष्ट्रीय भविष्य इस बात पर निर्भर है कि भावी पीढ़ियाँ सुसंस्कृत हों। स्कूली शिक्षा से आजीविका उपार्जन करने तथा विविध क्षेत्रों की साधारण जानकारी मिलने की बात पूरी हो सकती है, पर वे सद्गुण जो मानव की प्रधान सम्पत्ति हैं और जिनके ऊपर व्यक्ति तथा राष्ट्र की श्रेष्ठता निर्भर करती है, स्कूलों में नहीं सीखे जा सकते। उनके शिक्षण का सही स्थान है- घर का वातावरण और उसका निर्माण करती है- गृहिणी व्यक्ति और राष्ट्र की उन्नति के लिए हो रहे अनेकों प्रयत्नों में सुगृहिणी निर्माण कार्य अत्यधिक आवश्यक है। उपेक्षा करने पर बड़ी से बड़ी प्रगति भी व्यर्थ सिद्ध होगी। क्योंकि जब आगामी पीढ़ियों का व्यक्तित्व ही विकसित न हो सका तो बढ़ी हुई समृद्धि का भी कुछ लाभ न उठाया जा सकेगा वरन् बन्दर के हाथ में पड़ी हुई तलवार की तरह उसका दुरुपयोग एवं दुष्परिणाम ही हाथ लगेगा।
56 लाख साधुओं एवं भिखारियों का प्रश्न राष्ट्रीय प्रश्न है। इतने लोगों की उपार्जन क्षमता कुण्ठित पड़ी रहे और उनका निर्वाह भार जनता को वहन करना पड़े तो यह अर्थ संतुलन को बिगाड़ने वाली बात है। उससे भी बढ़कर चिंता की बात यह है कि हमारी आधी आबादी-नारी, कैदियों की भाँति घरों की चार-दीवारी में कलंकियों की तरह मुँह पर पर्दा डाले, घर वालों के लिए एक भार बनी बैठी रहे। इससे भी हमारा पारिवारिक एवं राष्ट्रीय अर्थ तंत्र असंतुलित ही होगा। यदि उनकी सामर्थ्य को विकसित किया जाए तो राष्ट्र के अर्थ तंत्र को समुन्नत बनाने में इतना योग मिल सकता है जितना कितनी ही विशालकाय योजनाएं भी नहीं दे सकती। इस समस्या के सामने भिखारियों की समस्या तुच्छ है। यदि हम नारी के विकास की समस्या को हल कर लें तो भिखारियों से भी अनेकों गुनी समस्या का हल हुआ समझना चाहिए।
जिन नारियों को हम माता, पत्नी, बहिन या पुत्री के रूप में प्यार करते हैं, जिन्हें सुखी बनाने की कुछ चिन्ता करते हैं उनके लिये रूढ़िवादी मान्यताओं द्वारा हम अपकार भी पूरा-पूरा करते है। किसी स्त्री का जब सूर्य अस्त हो जाता है और घर की आर्थिक स्थिति भी अच्छी नहीं होती तो उस बेचारी पर कैसी बीतती है इसे हममें से हर कोई जानता है। पर्दा प्रथा के कारण जो नारी बाजार से साग खरीदकर लाना भी नहीं सीख सकी, किसी के बात करना भी जिसे नहीं आता वह मुसीबत के समय पति या बच्चों के लिये दवा खरीदने या चिकित्सक को बुलाकर लाने में भी समर्थ नहीं हो सकती। ऐसी स्त्रियों को जब अपने और अपने बच्चों के गुजारे की समस्या सामने आती है तब आगे केवल अंधकार ही दीखता है। किसी के दरवाजे पर भिखारी की तरह अपमान पूर्वक टुकड़ों से पेट भरते हुए उन्हें जिस व्यथा का सामना करना पड़ता है उसकी कल्पना यदि नारी को बन्धन में रखने वाले करें तो उनकी छाती पसीजे बिना न रहेगी। मानवता का दृष्टिकोण अपनाया जाए तो यही निष्कर्ष निकलेगा कि नारी का भविष्य अंधेरे में लटकता हुआ छोड़ना अभीष्ट न हो तो उसे स्वावलंबी, अपने पैरों पर खड़ी होने योग्य बनाना ही चाहिये।
दहेज की समस्या कोई स्वतंत्र समस्या नहीं, नारी की अयोग्यता की ही समस्या है। दहेज वे लोग माँगते हैं जिनकी आर्थिक स्थिति अच्छी है। उनका कहना है कि हमारे घर की अच्छी आर्थिक स्थिति का लाभ तुम्हारी लड़की उपयोग करे इसके बदले में हमें दहेज की कीमत मिलनी चाहिए। इस माँग का दूसरा उत्तर यह हो सकता है कि दहेज का पैसा लड़की की योग्यता बढ़ाने में खर्च कर दिया जाए और उसे किसी गरीब किन्तु योग्य लड़के के साथ ब्याह दिया जाए। लड़की अपनी योग्यता से कुछ उपार्जन करके उस लड़के की आय को बढ़ा सकती है और उससे अधिक आनन्द में रह सकती है जितनी किसी अमीर घर में-केवल उन लोगों के अनुग्रह और अपनी दीनता के बल पर सुखी रहती है। यदि लड़कियाँ सुशिक्षित हो जाएं तो माँगने वालों को सौदा पटाने की हिम्मत ही न पड़े। फिर भी यदि दहेज का राक्षस न मरे तो लड़कियाँ अपनी शिक्षा के बल पर आर्थिक स्वावलम्बन प्राप्त करके अविवाहित जीवन भी व्यतीत कर सकती हैं।
किसी भी दृष्टिकोण से विचार किया जाए यह नितान्त आवश्यक है कि नारी को वर्तमान दुरावस्था में न पड़ा रहने देकर उसे ऊपर उठाया जाए, आगे बढ़ाया जाए। उसकी शक्ति और सामर्थ्य बढ़ने से हानि किसी की नहीं, लाभ सभी का है। पुरुष के कंधे से कंधा मिलाकर प्रत्येक क्षेत्र में उसे सहयोग देने वाली नारी, इस वंचित, अशिक्षित, अनुभवहीन, अयोग्य एवं भार रूप नारी की अपेक्षा कहीं अधिक उपयोगी सिद्ध होगी। विवेक की पुकार यही है कि स्वार्थ और परमार्थ की दृष्टि से, न्याय और कर्त्तव्य की दृष्टि से, नारी के विकास में सहयोग दें- बाधक न बनें।