हे दयामय! हमें अंधेरे से निकाल

December 1960

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(महात्मा गाँधी)

इस जगत में कोई अवर्णनीय छिपी शक्ति घट-घट में भरी हुई है। वह मुझे इन आँखों से तो नहीं दिखाई देती है, फिर भी मुझे यह प्रतीति जरूर होती है कि वह है। वह अदृष्ट शक्ति हम पर किसी-न-किसी तरह अवश्य प्रभाव डालती है। उसके वर्णन के लिये कोई विशेषण काफी नहीं हो सकता क्योंकि वह इन्द्रियातीत है, अपनी इन्द्रियों से हम जो कुछ भी जान सकते हैं, उससे वह भिन्न है।

फिर भी थोड़े अंश में ईश्वर की हस्ती को सिद्ध करने के लिये बुद्धि-तर्क का प्रयोग हो सकता है। सामान्यतः प्राकृत जगत में भी हम जानते हैं कि कई लोग अपने राजा को न तो पहचानते ही हैं, न उसके विषय में उन्हें कुछ ज्ञान ही होता है कि वह राजा कैसे और क्यों राज्य करता है? ऐसा होते हुए भी लोग इतना निश्चित जानते हैं कि कोई-न-कोई राजा अवश्य है। मैसूर यात्रा में मैंने ऐसे अबोध लोग पाये जिनको पता नहीं था कि मैसूर में कौन राज्य करता है, जब मैंने उनसे पूछा, तब उन्होंने जवाब दिया- ‘कोई देव राज्य करता होगा’ इससे यह नतीजा निकलता है कि जब इन लोगों का ज्ञान अपने राजा के बारे में इतना कम है, तब मेरा ज्ञान ईश्वर के बारे और भी कितना कम होना चाहिये, क्योंकि जितना अन्तर उन लोगों के और उनके राजा के बीच में है, उससे बहुत अधिक अन्तर मेरे और ईश्वर के दरम्यान है। ऐसी दशा में यदि मैं उस राजेश्वर-परमात्मा का साक्षात्कार नहीं कर पाता हूँ तो इसमें कौन-सा आश्चर्य हो सकता है? परन्तु जिस प्रकार मैसूर के गरीब लोग अपने राजा को न जानते हुए भी यह जानते हैं कि हमारे देश में कुछ-न-कुछ व्यवस्था जरूर है, ठीक उसी प्रकार मैं भी जानता हूँ कि इस जगत में एक बड़ी व्यवस्था कायम है। मैं अनुभव करता हूँ कि इस विश्व की प्रत्येक वस्तु और प्रत्येक जीवधारी एक अविचल नियंत्रण के मातहत काम कर रहे हैं। वह नियंत्रण जड़ नहीं हो सकता, क्योंकि कोई जड़ नियंत्रण चैतन्यमय मनुष्य पर शासन नहीं कर सकता। और अब तो श्री जगदीशचन्द्र बसु ने हमें सिद्ध कर दिखाया है कि इस जगत में सब चीजें चैतन्यमय हैं। इसलिए हम यह क्यों न कहें कि जो शक्ति जीव-मात्र को नियमबद्ध रखती है, वही ईश्वर है। इसमें शक्ति और उसका संचालक, नियम और नियन्ता एक ही है। परन्तु इसलिये कि मैं उस नियम और नियन्ता से अनजान हूँ, मुझे कोई अधिकार नहीं है कि मैं उसकी हस्ती से ही इन्कार कर दूँ। जिस तरह प्राकृत राजा की हस्ती से इन्कार करने से उसकी हस्ती मिट नहीं सकती, न कोई लाभ ही हासिल हो सकता है, ठीक इसी प्रकार ईश्वर की हस्ती से इनकार या अज्ञान से कुछ हासिल नहीं हो सकता, मैं ईश्वरीय कानून की पाबन्दी से किसी प्रकार छूट नहीं सकता। बल्कि जैसे प्राकृत राजा की हस्ती और उसके नियमों को मानने से उलटा उसके शासन में रहना सरल होता है, उसी तरह ईश्वर और उसके नियमों के ज्ञान और स्वीकार करने से इस संसार में जीवन सरल बनता है।

मुझे यह निरन्तर अनुभव होता है कि मेरे इर्द-गिर्द सब वस्तुओं में परिवर्तन होता ही रहता है और इस परिवर्तन के अन्दर कोई अपरिवर्तनीय तत्व समाया हुआ है। वह अपरिवर्तनीय, अविचल शक्ति सबको धारण कर रही है, सबको पैदा करती है, सबका नाश करती है और फिर से रचना करती है, इसी शक्ति को ईश्वर कहिये। क्योंकि दृष्ट पदार्थ-मात्र का नाश होता रहता है, इससे मैं इस नतीजे पर पहुँचता हूँ कि एक अदृश्य ईश्वर ही कायम है।

अब प्रश्न है कि यह शक्ति पोषक है या नाशक? दैवी है या राक्षसी? मैं उसे पोषक और दैवी अनुभव करता हूँ, क्योंकि इस मृत्युमय संसार में जीवन प्रवाह अविच्छिन्न चल रहा है। असत्य नाशवान है, एक सत्य ही स्थिर है। अंधेरे में भी प्रकाश भरा ही है। इससे यह सिद्ध होता है कि ईश्वर चेतन है, सत्य है, प्रकाश है, ईश्वर प्रेम की मूर्ति है, वही शुभतम शुभ है।

परन्तु जो केवल बुद्धि को ही तर्क को ही संतुष्ट करके रह जाए, वह ईश्वर कहाँ से हो सकता है? फिर बुद्धि को तो निश्चित रूप से संतुष्ट करना असंभव सा है। इसलिये ईश्वर तो वही है, जो हृदय का स्वामी बन सकता है, जो उसको हिला सकता है। अपने भक्त के प्रत्येक कार्य में उस प्रभु की प्रतीति होनी चाहिये और यह मैं कर सकूँगा। मेरे नम्र और मर्यादित अनुभव से मेरा यह मन्तव्य दृढ़ हुआ है। जितना मैं शुद्ध होने की कोशिश करता हूँ, उतना ही मैं ईश्वर के नजदीक जा रहा हूँ- ऐसी प्रतीति होती है। आज तो मेरी श्रद्धा यत्किंचित् ही कहीं जा सकती है, लेकिन जब वह हिमालय जैसी अचल और उसकी चोटी पर बसने वाले हिम की तरह शुद्ध और स्वर्णमय बन जायेगी, तब तो मैं उसके कितना नजदीक पहुँच जाऊंगा? तब तक तो स्वर्गीय ‘न्यू मैन’ के शब्दों में हम गावें-

हे दयामयी ज्योति!

इस अंधेरे में तू ही मेरा अगुआ बन।

रात-अंधेरे से छा गयी है।

मैं घर से दूर-दूर भटक रहा हूँ।

तू ही मेरा अगुआ बन।

मेरे पैरों को साबित रख।

मुझे दूर के दृश्यों की कोई दरकार नहीं है।

बस, मेरे लिए तो एक कदम ही काफी है।


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