(डॉ. रामचरण महेन्द्र एम. ए., पी. एच. डी.)
प्रत्येक मनुष्य में ईश्वरीय तत्त्व विद्यमान है, जो उसे धर्म और अधर्म, भले और बुरे, उचित और अनुचित का विवेक कराता है और निरन्तर सत्य मार्ग पर चलते रहने की प्रेरणा देता है। इस नीर-क्षीर विवेक शक्ति को हम धर्म-बुद्धि कह सकते हैं। ईश्वरीय दैवी विधान का स्वरूप कुछ ऐसा है कि सत्य, नीति और धर्म के मार्ग पर चलते रहने से हमें मानसिक और आत्मिक शान्ति मिलती है। इसके विपरीत असत्य, झूठ, पाप, अनीति, मिथ्याचार के रास्ते का अनुसरण करने से मानसिक क्लेश उत्पन्न होता हैं। नाना प्रकार की चिन्ताएँ व्यर्थ ही सताती रहती हैं।
धर्मबुद्धि प्रत्येक व्यक्ति में जन्म से ही होती है, पर कुछ व्यक्ति अपनी परिस्थितियाँ ऐसी बना लेते हैं कि वे उसके संकेत को नहीं सुनते। पर्याप्त समय तक समस्या पर सोच विचार नहीं करते। धार्मिक दृष्टि से निर्णय नहीं करते। फल यह होता हैं कि धीरे-2 धर्म बुद्धि का क्षय हो जाता है। निर्णयों में धर्म के प्रतिकूल आचरण करना पड़ जाता है। धर्म बुद्धि को दबा कर प्रतिकूल निर्णय और आचरण से मनुष्य को हानि या प्रतिशोध का गुप्त डर बना रहता है। मनुष्य चिन्ता में घुलता जाता है। शूल की तरह धर्म बुद्धि के प्रतिकूल आचरण मनुष्य में भय चिंता, बुरे स्वप्न, हृदय की धड़कन, सिर दर्द और अशाँति पैदा करता है।
एक बार महाराज हरिश्चंद्र कर्त्तव्य और अकर्त्तव्य का निर्णय न कर सकने के कारण चिंता में फँस गये। क्या उचित है, क्या अनुचित है, यह न सोच सकने के कारण वे मानसिक क्लेश से पीड़ित थे। उनका मन अशान्ति से भरा हुआ था। मोह का पर्दा उन पर बुरी तरह छाया हुआ था। महारानी शैव्या ने इन शब्दों द्वारा उनके मानसिक क्लेश का निराकरण किया और धर्म बुद्धि को जाग्रत किया-
त्यज चिन्ता महाराज स्वमत्य मनुपालय।
श्मशानवद वर्जनीयों नरः सत्य बहिष्कृतः॥
नातः परतरं धर्म वदन्ति पुरु षस्य तु।
यादृशं पुरुषव्याघ्र स्वसत्यपरिपालनम्॥
अग्निहोत्रमधीतं वा दानाद्याश्चाखिलाः क्रियाः।
भजते तस्य वैफल्यं यस्य वाक्यमकारणम्॥
सत्य मत्यन्त मुदितं धर्मशास्त्रेषु धीमताम्।
ताराणायनृतं तद्वत् पातनायाकृतात्मनाम्॥
मार्क. 8।17-20
महारानी शैव्या ने अपने पति महाराज हरिश्चन्द्र से कहा-
“महाराज। चिन्ता छोड़िये। अपने सत्य की रक्षा कीजिए। जो मनुष्य सत्य से विचलित होता है, वह श्मशान की भाँति त्याग देने योग्य है।
हे नरश्रेष्ठ। पुरुष के लिए अपने सत्य की रक्षा से बढ़ कर कोई धर्म नहीं बतलाया गया है।
जिसका वचन निरर्थक हो जाता है (जो धर्म-बुद्धि के अनुसार कर्तव्य निश्चित नहीं करता), उसके अग्निहोत्र, स्वाध्याय तथा दान आदि सम्पूर्ण निष्फल हो जाते हैं।
धर्मशास्त्रों में बुद्धिमान पुरुषों ने (धर्म बुद्धि द्वारा पोषित) सत्य को संसार सागर से तरने के लिए सर्वोत्तम साधन बताया है। इसी प्रकार जो धर्म बुद्धि की अवहेलना करता है, जिसका मन वश में नहीं है, ऐसे पुरुषों को पतन के गर्त में गिराने के लिए असत्य को ही प्रधान कारण बतलाया गया है। धर्मबुद्धि के अनुसार कार्य करना ही जीवन का सबसे बड़ा लाभ है।”
आसक्ति रहित धर्मबुद्धि द्वारा ही आचरण करना चाहिए। धर्म के पालन से, प्रतिदिन के कार्यों में धर्म प्रयोग करने से मनुष्य के अन्तःकरण की शुद्धि होती है। सब प्रकार के क्लेश दूर होते हैं। धर्म केवल पुस्तकों में पढ़ने मात्र की ही वस्तु नहीं है, प्रत्युत नित्यप्रति के जीवन में उतारने की वस्तु है धर्म बुद्धि के अनुकूल आचरण करने से मनुष्य दैनिक व्यवहार में ऐसी कोई गल्ती नहीं करता, जिसके लिए बाद में प्रायश्चित करना पड़े।
मनुष्य के मन की अनेक वृत्तियाँ हैं-स्वार्थवृत्ति, भोगवृत्ति, दम्भवृत्ति और धर्मवृत्ति। जब कोई समस्या सामने आती है, तो इन नाना वृत्तियों में संघर्ष चलने लगता है। जब जिस वृत्ति की प्रधानता या प्रभुत्व होता है, तब वैसा ही निर्णय हो जाता है लेकिन मन के शान्त संतुलित अवस्था में आते ही पाशविक वृत्तियों के निर्णय की असत्यता प्रकट हो जाती है। तब धर्मबुद्धि अपना दिव्य प्रकाश दिखलाती है। उसमें हमें भोगवृत्तियों की निस्सारता प्रकट हो जाती है। पश्चाताप होता है और धर्मबुद्धि इस कुकृत्य की सजा देती है। मनुष्य को स्वयं अपने आप ही ग्लानि हो जाती है। आत्म-भर्त्सना के फलस्वरूप अनेक व्यक्ति आत्म हत्याएँ तक कर लेते हैं।
धर्मबुद्धि के पालने से चरित्र में सद्गुणों का विकास होता है। धर्मबुद्धि का सुख अमल में है, केवल ज्ञान में नहीं। धर्म को दैनिक जीवन का आधार बना लेने से ही जीवन सुखद और फलदायी हो सकता है। धर्मबुद्धि के विकास से चित्त की शुद्धि, विचारों की पवित्रता और आचरण की स्वच्छता आती है।
जब आप पूरी तरह शान्त रहते हैं, मन संतुलित रहता है, किसी प्रकार का बाहरी दबाव आप पर नहीं होता, तो आपके मन-मन्दिर में भगवान् उदित होते हैं, और आपको नेक सलाह देते हैं। इसी पर निरन्तर अग्रसर होते रहिए। ईश्वरीय प्रेरणा पर भरोसा रखने वाला कठिन अवसरों पर भी नेक सलाह पाता है। भविष्य उसके लिये अन्धकार की वस्तु न रह कर दिन जैसा स्पष्ट रहता है।