समस्त ज्ञान का आधार परमात्मा ही है।

August 1960

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नाहं तन्तुँ न वि जानाम्योतुँ,

न यं वयन्ति समरेऽतमानाः।

कस्य स्तित्पुत्र इह वक्त्वानि,

परो वदात्यवरेण पित्रा ॥

-ऋग. 6-9-2

“मैं ताना या बाना कुछ नहीं जानता तथा प्रयत्न द्वारा जो वस्त्र प्रस्तुत किया जाता है, उसके सम्बन्ध में भी मुझे विशेष ज्ञान नहीं है। इहलौकिक पिता की बातें सुनने वाला पुत्र अन्य लोक का रहस्य कैसे जान सकता है?”

यह संसार उस परमात्मा की कृति है जो सबका आदि कारण है। जब उसने इच्छा की तभी मूल तत्त्व में स्फुरण होकर जगत का विकास हुआ। इसलिए किसी मनुष्य की सामर्थ्य नहीं कि वह इस जगत की उत्पत्ति का यथार्थ वर्णन कर सके। स्वयं वेद ने स्पष्ट शब्दों में कह दिया है कि “प्रकृति के तत्व को कोई नहीं जानता तो उनका वर्णन कौन कर सकता है? इस सृष्टि की उत्पत्ति कारण क्या हैं? यह विभिन्न सृष्टियाँ किस उपादान-कारण से प्रकट हुई?

देव-गण भी इन सृष्टियों के पश्चात ही उत्पन्न हुए हैं, तब कौन जानता है कि यह सृष्टि कहाँ से उत्पन्न हुई? यह विभिन्न सृष्टियाँ किस प्रकार हुई? इन्हें किसने रचा? इन सृष्टियों के जो स्वामी दिव्य धाम में निवास करते हैं वही इनकी रचना के विषय में जानते हैं?” इसी तथ्य को समझ कर उपर्युक्त मन्त्र में कहा गया है कि इस सृष्टि रूपी वस्त्र का ताना-बाना किस प्रकार ताना गया और फिर वस्त्र को किस प्रकार बुना गया है, इसका वर्णन कर सकना मनुष्य की शक्ति के बाहर है। हम तो अपने नेत्रों से तैयार सामग्री को ही देख रहे है। हमारे पूर्वज भी हम को इसी प्रकार देखते आए हैं। तब हम किस प्रकार जानें कि आदि में इसकी रचना किस प्रकार की गई थी ? इसका अगर कोई मार्ग है तो यही कि हम सच्चे हृदय से इसके रचयिता परमात्मा की पूजा, उपासना करें, उसके आदेशों का यथार्थ रूप में पालन करें और अपने जीवन को उसके बनाये नियमों के अनुकूल बनावें। ऐसा करने से ही हम आत्मा और प्रकृति के रहस्य को जानकर अपने सच्चे स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करने में समर्थ हो सकते हैं। वास्तव में परमात्मा ही इस संसार का धारक है और वहीं इसमें ओत-प्रोत है। वही सब का स्वामी और सच्चा पिता है। जो कोई बालकोचित सरलता से उस भगवान की गोद में बैठने की अभिलाषा करेगा- उसकी शरण में जायेगा, वही सच्चे ज्ञान का अधिकारी बन सकेगा।

इस मन्त्र से दूसरी शिक्षा हम को यह प्राप्त होती है कि परमात्मा के स्वरूप, सृष्टि के रहस्य और प्रकृति के नियमों के विषय में मनुष्य को हठधर्मी-कट्टरता नहीं करनी चाहिए। जब हम इन बातों का निश्चयात्मक ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं, जब कि बड़े से बड़े ज्ञानी और विद्वान को भी इस विषय में अनुमान और अटकल से काम चलाना पड़ता है, जबकि अति प्राचीन मुनियों और आचार्यों के मतों में भी इस सम्बन्ध में पर्याप्त भेद दिखलाई पड़ता है, तो किसी एक मत या सिद्धान्त को लेकर उसी को एक मात्र सत्य बतलाना, उसे दूसरों पर जबर्दस्त लादने की कोशिश करना और जो उसे स्वीकार न करे उसे “पापी, राक्षस, नारकीय, काफिर आदि कहना, ज्ञानी का नहीं वरन् अज्ञानी होने का चिन्ह है। इसका अर्थ यह नहीं कि आप अपने पूर्वजों द्वारा निश्चित किये अथवा अपनी आत्मा से उद्भूत धर्म-मार्ग को न मानें, तदनुसार आचरण न करें, वरन् इसका आशय यह है कि धर्म के विषय में आप उदारता से काम लें, कट्टरपंथी न बनें। गीता में भगवान कृष्ण ने जो कहा है, कि “स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहा” उसका भी आशय यही है कि प्रत्येक मनुष्य को अपने विचार और आत्मा के अनुकूल मार्ग पर चलना उचित है, इसी में कल्याण है और उसे जबर्दस्ती या बहका कर मार्गच्युत करना पाप है।

खेद के साथ कहना पड़ता है कि कितने ही लोगों ने इस सत्य सिद्धान्त को भुलाकर अपने से भिन्न विचार वालों पर आक्षेप करना, गुमराह बतलाना और वश चले तो उनको बल पूर्वक अपने मार्ग से च्युत करना ही महत्वपूर्ण और प्रशंसनीय कार्य समझ लिया है। ईसाई और मुसलमान धर्माध्यक्षों के कारनामे तो इतिहास में प्रसिद्ध ही हैं जिन्होंने जीते जी जलाने और तलवार का भय दिखाकर करोड़ों मनुष्यों को धर्मच्युत किया। पर हमारे देश में भी ऐसे लोगों की कमी नहीं रही जिन्होंने धर्म और सम्प्रदाय के नाम पर निर्दोष व्यक्तियों का खून बहाया और आपस में एक दूसरे के सिरों को तोड़ा। अब भी बहुसंख्यक व्यक्ति धार्मिक खंडन-मंडन में ही अपनी विद्या बुद्धि की सार्थकता समझते हैं। पर इससे किसी प्रकार का लाभ होने के बजाय परस्पर में द्वेष-भाव की वृद्धि होती है और संगठन तथा सहकारिता से जो बहुत बड़े-बड़े कार्य होने सम्भव होते हैं उनके मार्ग में कठिनाइयाँ उपस्थित हो जाती हैं।

यदि शान्त और निष्पक्ष भाव से विचार किया जाए तो धर्म का सम्बन्ध मुख्यतया आत्मा से है। ऊपरी रहन सहन तथा आचार-विचार में तो देश काल और परिस्थिति के कारण अन्तर पड़ता ही रहता है। उदाहरण के लिए जब रेल नहीं थी तब यात्रा में भी मनुष्य जिस प्रकार शौच, स्नान, ध्यान, पूजा पाठ के नियमों का निर्वाह करते रहते थे अब रेल में बीस-तीस घण्टे तक लगातार यात्रा करते रहने पर वैसा कर सकना असम्भव है। इसी प्रकार जब लोग मुख्यतया खेती का ही धंधा करते थे और छोटे गाँवों में रहते थे, तब वे खान-पान की वस्तुओं के सम्बन्ध में जैसी शुद्धता रख सकते थे वह अब कलकत्ता, बम्बई, दिल्ली जैसे बड़े नगरों में निवास करते हुए और प्रातः 6 बजे ही काम करने के लिए चल देने पर रख सकना सम्भव नहीं है। पर इन बातों के कारण सत्य, न्याय, ईमानदारी परोपकार उदारता आदि के व्यवहार में अन्तर नहीं पड़ सकता और ये ही वास्तविक धर्म के लक्षण हैं। अगर हमको सत्कर्म करने का अभ्यास है और धर्म के सच्चे स्वरूप को समझते हैं तो प्रत्येक देश और काल में तदनुसार व्यवहार कर सकते हैं।

इस वेद मन्त्र में स्पष्ट बतला दिया गया है कि परमात्मा के स्वरूप और सृष्टि के रहस्यों के विषय में सदैव विवाद करते रहना अथवा इस सम्बन्ध में मीन-मेख निकालते रहना कोई विशेष महत्व की बात नहीं है। इन बातों का यथार्थज्ञान मनुष्य को हो सकना प्रायः असम्भव है। यह विषय सदा से विवादास्पद रहे हैं और रहेंगे। केवल वे ही मुट्ठी भर मनुष्य जो आत्मा के साधन और ध्यान द्वारा ज्ञान के अन्तिम शिखर पर पहुँच गये हैं इस विषय में किसी हद तक निर्भ्रान्त कहे जा सकते हैं, पर उस दर्जे पर पहुँच जाने के बाद वे न तो वाद-विवाद में पड़ सकते हैं और न अपने मन को दूसरों पर लादने की चेष्टा कर सकते हैं। साधारण मनुष्यों के लिए तो सृष्टि का ताना-बाना और उससे उत्पन्न होने वाला वस्त्र (जगत) हमेशा एक पहेली बना रहेगा। ऐसा व्यक्ति तो कभी इस साधारण-सी समस्या को ही न सुलझा सकेगा कि वृक्ष में से पहले कौन सी चीज उत्पन्न हुई? इसलिए ऐसे मनुष्यों के लिए वेद का यह आदेश सर्वथा उचित है कि वे ‘सृष्टि के ताने बाने’ के रहस्योद्घाटन के सम्बन्ध में आवश्यकता से अधिक चिन्तित न हों वरन् जिसकी बुद्धि इस सूक्ष्म विषय को जहाँ तक ग्रहण कर सकती है, उसी से सन्तुष्ट रहें। मुख्य बात तो ईश्वरीय आदेश के अनुकूल सदाचार, नीति और चरित्र का पालन करना है। यही सच्चे अर्थ में ईश्वर की पूजा और उपासना है। धर्म-शास्त्रों में जप, तप, ध्यान, भजन की जो विधियाँ बतलाई गई हैं उनका तात्पर्य भी यही है कि उनके द्वारा मनुष्य में भौतिकता के साथ-साथ आध्यात्मिकता का भाव भी उत्पन्न होता रहे और वह धर्म के मुख्य अंगों का पालन करने में समर्थ हो सके।


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