प्राण अब बन साधना का दीप (kavita)

August 1960

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प्राण अब बन साधना का दीप

लक्ष्य पथ पर हो नहीं तम शेष, प्राण अब बन साधना का दीप।

कर्म में ही है नहीं उत्सर्ग,

धर्म में ही है नहीं उत्सर्ग,

लोक मंगल से न यदि अनुराग,

आत्महित का यदि न उसमें त्याग,

पन्थ भूली है मनुजता त्रस्त, ज्ञान अब बन साधना का दीप।

बुद्धि ने तोड़े हृदय के तार,

बुद्धि ने बदला सभी संसार,

बुद्धि अब नर के लिए है भार,

आज जीवन एक कारागार,

क्षीण अब है कल्पना की शक्ति, ध्यान बन अब कामना का गीत।

मनुज ही मेरे लिए भगवान,

मनुजता के प्रति मुझे सम्मान,

मनुजता के प्रति मुझे सम्मान,

सत्य, शिव, सुन्दर जहाँ सुकुमार,

कर रहे हैं सिद्धि का शृंगार,

बन्द नयनों के अजस्र प्रवाह, गान अब बन आराधना का दीप।

-शिवशंकर मिश्र एम. ए.

सम्पादकीय-


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